मोरेल मशरूम कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate morel mushroom.
वास्तविक मॉरेल (स्पंज मशरूम) वंश मोर्चीला के अंतर्गत आता है, जिसे भारत में गुच्छी के नाम से जाना जाता है । यह सबसे महंगा खाद्य मशरूम है । मॉरेलस में विशिष्ट सुगंध पायी जाती है और यह अपने पाक्य गुण एवं जठरीय विशिष्टता के कारण बहुत सराहनीय है । सूखे मॉरेल को भारत से विदेशों में भेजा जाता है ।
अधिकांश मोर्चीला प्रजाति जंगली रूप में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तरांचल की ऊँची पहाडियों से इकट्ठा किया जाता है । मोर्चीला प्रजाति के फलनकाय कोनीफेरस, ओक या देवदार के जंगलों की मिट्टी में उगते हैं जहाँ कार्बनिक पदार्थ ज्यादा पाया जाता है ।
इसके अलावा ये झाडियों, खुले मैदानों, व्यर्थ जमीन एवं रास्तों के किनारे भी पाये जाते हैं । सभी कवकों की अपेक्षा इन्हें आसानी से खोजा जा सकता है । बसंत ऋतु (मार्च-अप्रैल) में मोर्चीला दिखायी पडती है ।
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हालांकि मोर्चीला की कई प्रजातियों बरसात के मौसम एवं सितम्बर-अवर में भी एकत्रित की गयी । इनके प्राकृतिक आवास का सावधानीपूर्वक निरीक्षण करना जरूरी है क्योंकि ये अपने आसपास के वातावरण में आसानी से घुलमिल जाते हैं ।
ये प्रायः अकेले, दो या तीन की संख्या में एक छोटी सी जगह पर उगते हैं । बीजाणु को बिखेरने में हवा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है, अतः मॉरेल को खोजने के लिए हवा की दिशा में जाना चाहिये ।
सन 1719 में डिलीनियस ने मोर्चीला जाति की खोज की । भारत में मोर्चीला की 6 प्रजातियों पायी जाती हैं । ये हाइब्रिड मॉरेल (एम. हाइब्रिडा), डिलिसियस मॉरेल (एम. डेलियासियोजा), कॉमन मॉरेल (एम. एस्कुलेन्टा), मोटे तने वाला मॉरेल (एम. क्रेसीपीज) और काला मॉरेल (एम. एगस्टीसेप) है ।
मोर्चीला की प्रजातियों का विशिष्ट आकार रहता है अतः इन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है । इसका तना खोखला तथा मटमैले सफेद रंग का होता है जबकि छतरी गहरे भूरे रंग की, शंक्वाकार या बेलनाकार होती है ।
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जिस पर गड्ढे और उभार पाये जाते हैं और यह स्पंज के समान दिखायी पड़ती है । इसका आकार 2 से 10 से.मी. तक होता है । छतरी की बाहरी सतह पर एसाई पेलीसेड सतह बनाती है ।
मोर्चीला की प्रजातियों की पहचान की कुंजी:
1. जैविकी:
वोल्क (1990) ने मोर्चीला के जीवन चक्र में पायी जाने वाली विकास की अवस्थाओं को प्रस्तावित किया । तेज गति से निकलने के बाद बीजाणु शीघ्र ही अंकुरित होकर प्राथमिक कवक जाल बनाता है जिसमें असंख्य नाभिक बिखरे रहते हैं । हेट्रोकेरेयोसिस के होने के आधार पर फलनकाय के विकास के दो रास्ते है ।
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अनुकूल परिस्थितियों में प्रथम रास्ता कार्य करता है । विपरीत परिस्थितियों में जैसे ठंड में प्राथमिक कवकजाल स्केलेरोशिया बनाता हैं । बसंतकाल में बर्फ के पिघलने के समय स्केलेरोशिया अंकुरित होकर सीधे फलनकाय बनाते हैं या ये परोक्ष रूप से (माइसीलियोजोनिकली) अंकुरित होकर नया प्राथमिक कवकजाल बनाता है ।
जबकि दूसरे पथ के अनुसार जब प्राथमिक कवकजाल दूसरे सुसंगत कवकजाल के संपर्क में आता है, तो दोनों सुसंगत प्राथमिक कवकजाल के हाइफा मिलकर हेटरोकेरयान बनाते है, जिसमें दो नाभिक पाये जाते हैं ।
यह विभिन्न नाभिक वाला कवकजाल ठंड से बचाव के लिए स्केलेरोशिया बनाते है और बसंत में या तो सीधे अंकुरित हो जाते हैं या परोक्ष रूप से अंकुरित होकर कवकजाल बनाते हैं । प्राकृतिक अवस्था में यह संभव है कि एक या दोनों प्रकार के पथ पाये जाते हैं ।
2. उत्पादन की तकनीक:
मोर्चीला प्रजाति के घरेलू उत्पादन की तकनीक उनके मार्फोजिनिसिस और फलनकाय उत्पन्न होने को नियंत्रित करने वाले वातावरणीय प्रभाव और आकारिकी प्रभाव ज्ञात न होने के कारण बहुत कठिन है ।
प्रायोगिक रूप से भारत में इसकी अपूर्ण अवस्था और फलनकाय के बनने के बारे में किसी ने प्रतिवेदन नहीं दिया । परंतु साहित्य को देखने से ज्ञात होता है कि अनेकों शोधार्थियों ने स्केलरोशिया के उत्पादन में सफलता प्राप्त की है ।
प्रकृति में मोरेल्स की वृद्धि के अवलोकन और कई परीक्षणों एवं गल्तियों के बाद गेरी मिल्स ने एक तकनीक विकसित की जिसकी निम्न अवस्थाएं है:
i. संवर्धन बनाना:
बीजाणु संवर्ध तैयार करने के लिए बडे आकार वाले स्वस्थ खुंभी से निर्जीवीकृत अवस्था में बीजाणु संग्रहण किया जाता है । तेज चाकू की सहायता से तने का निचला भाग काटकर टोपी और तने की सतह पर लगे मिट्टी के कणों को बहते पानी से धोते हैं ।
इसके बाद इसे मरकरी क्लोराइड के 0.1 प्रतिशत के घोल में सतह निर्जीवीकरण के लिए 30-60 सेकण्डस तक रखते हैं । इस निर्जीवीकृत सतह वाली खुंभी को एक तार के स्टेण्ड पर लगाकर ऐसी पेट्री प्लेट में रखते हैं जिसमें 16 मि.ली. लीटर पोटेटो ड्रक्टोस अगर, यीस्ट पोटेटो ड्रेक्सोज अगर या सी वाई एम., ग्लूकोज पेप्टोन यीस्ट एक्सट्रेक्ट मिनरल साल माध्यम और 2 प्रतिशत भेड़ की खाद वाला माध्यम भरा हो ।
बीजाणु विसर्जित होकर पेट्री प्लेट में रखे अगर पर निक्षेपित हो जाते हैं । ढक्कन पर वाष्प की कुंदों को जमने से रोकने के लिए पेट्री प्लेट को उलट देते हैं । बीजाणु के बोने के बाद प्लेट को 13-27 डिग्री से.ग्रे. पर 10 दिन लगातार रखने के बाद अंकुरित बीजाणु से प्रथम कवकजाल दिखायी देने लगता है । जब प्लेट पूरी तरह भर जाती हैं तब थोड़े माध्यम सहित कल्चर के छोटे से भाग को ताजे निर्जीवीकृत माध्यम पर दाना बीज पर स्थानान्तरित कर देते हैं ।
ii. मदर स्पान स्टॉक संवर्धन बनाना:
खेती योग्य खुंभी का संवर्ध बन जाने के बाद मदर स्पान या मास्टर संवर्ध और सिस्टर स्पान बनाते हैं । स्पान के लिए राई घास का बीज उपयोग में लेते हैं । दूसरे अनाज जैसे सरसों, हेम्प बीज, बर्ड बीज और धान का भी उपयोग कर सकते हैं । दानों को पानी में 24 घंटे तक भिगोते हैं । इसके बाद तार की जाली की सहायता से पानी निकालकर थोड़ा सुखाते हैं ।
उसी दिन दानों में मिट्टी मिलाते हैं पांच भाग दाने में एक भाग मिट्टी मिलाते हैं । इस माध्यम को आधा लीटर वाली दूध या ग्लूकोज की शीशियों में तीन चौथाई तक भर देते हैं । अनअवशेषित रूई का ढक्कन बनाकर लगा देते हैं और 15 पौंड दबाव पर 1 घण्टे तक निर्जीवीकृत करते हैं ।
थोडी देर बाद ऑटोक्लेव से थोडी गर्म निर्जीवीकृत शीशियाँ निकालकर हिलाते हैं जिससे दाने इकट्ठे न हो पाये । ठंडा होने के बाद इन शीशियों को आग से निर्जीवीकृत छोटे चाकू की सहायता से अगर संबंधित कवकजाल के छोटे से टुकडों से निवेशित करते हैं ।
निवेशित शीशियों को अच्छी तरह मिलाते हैं । निवेशित बोतलों को 20-21 डिग्री से.ग्रे. पर 4-6 हफ्तों तक अंधेरे में इन्क्यूबेट करते हैं । निवेशन के लगभग 5 सप्ताह बाद सफेद या जंग के रंग के कवकजाल से स्केलेरोशिया के छोटे-छोटे टुकड़े बनने लगते हैं ।
iii. क्रियाधार बनाना:
क्रियाधार मुख्यतः रेत (20प्रतिशत), घट मिट्टी (30 प्रतिशत) और कार्बनिक पदार्थ (50 प्रतिशत) जो कि 80 प्रतिशत छोटी कडी, लकड़ी के टुकडे (एश, ओक, मेपल, एल्म, एपल आदि), 10 प्रतिशत धान की भूसी, 5 प्रतिशत सोयाबीन का चूरा, 6 प्रतिशत स्केगनम और पी.एच. 7.1 से 7.3 रखने के लिये थोडी मात्रा में चूना आदि का बना रहता है ।
इन सभी पदार्थों को मिलाकर ऑटोक्लेव हो जाने वाले एल्युमिनियम की 9¼ x 9¼ x 2¼ इंच वाली ट्रे में या प्लास्टिक की ट्रे जिसमें की पानी निकलने वाले छेद बने होते हैं, में भरते हैं ।
इसी प्रकार दूसरी द्रे में पानी से भीगे हुए राई बीज को ½ या 1 इंच ऊचाई तक भर देते है । क्रियाधार ट्रे का निचला सिरा राई के बीजों के ऊपर रहे । इस प्रकार बनी ट्रे को आटोक्लेव थेले में अन्दर रख देते है ।
iv. बीजायी एवं फसल उत्पादन:
आधा कप स्पान से क्रियाधार ट्रे को निवेशित करते हैं । शैलों को बद करके ठंडे स्थान (18-21 डिग्री से.ग्रे.) पर अँधेरे में 4-6 सप्ताह तक रखते हैं । इस समयावधि में आपेक्षिक आर्द्रता 90-100 प्रतिशत, कार्बन डाई ऑक्साइड 6000-9000 पीपीएम रहना चाहिये एवं कमरे में ताजी हवा का प्रवेश नहीं होना चाहिये । स्पान का फैलाव (4-6 हफ्तों) पूरा होने के बाद क्रियाधार की सतह कडे स्केलेरोशिया के पिंडको से ढक जाती है ।
a. द्रुतशीलन (चिलिंग):
स्पान के फैलाव के बाद राई के बीज की ट्रे को थैले से बाहर निकाल लेते हैं और थैले वाली क्रियाधार की ट्रे को फ्रीज में (3.5-4.4 डिग्री से.ग्रे.) पर रखते हैं । शीतलन एक आवश्यक सीढी है । दो हफ्ते तक शीतलन के बाद क्रियाधार ट्रे को निकालकर फलन कक्ष में रख देते हैं ।
अब क्रियाधार को 1.5-2.5 द्रव्य औंस प्रति घंटा प्रति वर्ग फुट क्रियाधार की सतह की दर से पानी द्वारा 12-16 घंटे तक गीली करते हैं ओर क्रियाधार से पानी पूरी तरह निकल जाने देते हैं ।
b. केसिंग (वैकल्पिक):
स्पान का फैलाव पूरा हो जाने के बाद केसिंग मिट्टी से ½ इंच गहरी केसिंग करते हैं । ट्रे को अंधेरे में 18-20 डिग्री से.ग्रे. पर इन्क्यूबेट करते है । एक से दो घण्टे तक ताजी, छनी, साफ हवा का विनिमय करते हैं ।
v. फलन:
केसिंग के 15-17 दिन बाद फलन बनने लगते हैं । फलन के लिए हवा का तापमान 21-23 डिग्री से.ग्रे. क्रियाधार में नमी 60 प्रतिशत, आपेक्षित आर्द्रता 21-23 प्रतिशत, छनी साफ वायु का विनिमय 6-8 बार/घण्टा एवं प्रकाश चक्र 12 घंटे खुला एवं 12 घंटे बंद होना चाहिये । कार्बन डाई ऑक्साइड 900 पीपीएम से कम होना चाहिये । फल के परिपक्व होने के लिए हवा का तापमान 23-25 डिग्री से.ग्रे. क्रियाधार में नमी 50 प्रतिशत, आपेक्षित आर्द्रता 80-85 प्रतिशत एवं अन्य अवस्थाएं फलनकाय बनने के जैसे ही होना चाहिये ।
मोर्चीला को प्रायः धूप में फैलाकर या डोरी पर सुखाया जाता है । आदिवासी व्यक्ति प्रायः इसके डंठल में से धागा डालकर माला बनाते है और इन माला को या तो धूप में सुखाते हैं या रसोईघर में रखते हैं जहाँ पर कि पकाने के लिए लकड़ी का उपयोग किया जाता है ।
मॉरेल का उपयोग भिन्न-भिन्न लोग अलग-अलग प्रकार से करते हैं । कुछ मॉरेल का सूप बनाते हैं तो कुछ सूखे फलनकाय का पाउडर बनाकर इसे किसी भी खाद्य में मॉरेल सुगंध लाने के लिए डालते हैं ।