मशरूम खेती: परिचय और विकास | Read this article in Hindi to learn about:- 1. खुंभी का परिचय (Introduction to Mushroom Cultivation) 2. खुंभी की खेती की पृष्ठभूमि (Nourishment of Mushroom Cultivation) 3. क्षेत्र एवं विकास (Area and Development) and Other Details.
Contents:
- खुंभी का परिचय (Introduction to Mushroom Cultivation)
- खुंभी का जीवन चक्र (Life Cycle of Mushroom)
- खुंभी की खेती की पृष्ठभूमि (Nourishment of Mushroom Cultivation)
- खुंभी की खेती का क्षेत्र एवं विकास (Area and Development of Mushroom Cultivation)
- खुंभी की खेती का वर्तमान परिदृश्य (Present Status of Mushroom Cultivation)
1. खुंभी की खेती का परिचय (Introduction to Mushroom Cultivation):
खुंभी एक प्राचीन कवक है । इन में पर्णहरिम नहीं पाया जाता जो कि उच्च वर्ग के पौधों में सूर्य की उपस्थिति में भोजन का निर्माण करता हैं । चूंकि खुंभी में यह हरे रंग का पदार्थ नहीं पाया जाता अतः ये अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते बल्कि अपनी खाद्य आवश्यकता के लिए बाहरी स्त्रोत पर निर्भर रहते है ।
ये मृत कार्बनिक पदार्थों पर मृतोपजीवी या दूसरे पौधों पर परजीवी की तरह उगते है । खुंभी कवक की एक बडी जनन रचना हैं । सभी कवकों का जीवन चक्र बीजाणु से आरंभ होता है, जिसकी तुलना उच्च कोटि के पौधों के बीजों से की जा सकती है ।
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बीजाणु उचित माध्यम पर अंकुरित होने के पश्चात वानस्पतिक कवकजाल बनाता है । वानस्पतिक कवकजाल क्रियाधार के अंदर बढकर खाद्यान्न लेता है और परिपक्व होने पर विशिष्ट अवस्था में फलनकाय उत्पन्न करते है ।
चेंग एवं माइल्स के अनुसार- खुंभी एक दीर्घ कवक है जिसकी विशिष्ट फलनकाय रचना जमीन के अंदर या ऊपर लगती है और इसे नग्न आंखों से स्पष्ट देखा जा सकता है और हाथों द्वारा चुना जाता है ।
सारे संसार में खुंभी मौसमी रूप से रेतीले पठार से लेकर घने जंगल या हरे भरे मैदानों से लेकर सडक किनारे तक पायी जाती है । खुंभी एक विषमजातीय समूह है जिसकी रचना, आकार, रंग, गुण, प्रवृति एवं स्वाद भिन्न-भिन्न होते है । इस बड़े समूह में 2000 खाद्य प्रजातियां हैं जिनमें से भारत में पायी जाने वाली 300 प्रजातियां 70 जातियों के अंतर्गत उल्लेखित है ।
खाद्य खुंभी की 2000 प्रजातियों में से लगभग 80 को प्रायोगिक रूप से, 20 को व्यवसायिक रूप से तथा 4-5 प्रजातियों को औद्योगिक रूप से सारे संसार में उत्पन्न किया गया है ।
2. खुंभी का जीवन चक्र (Life Cycle of Mushroom):
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टोपी के अंदर का भाग लैमीली (या गिल्स) से ढका रहता है । इस लैमीली पर फफूँद के बीजाणु बनते है । टोपी पुरी तरह खुल जाती है तब बीजाणु बनना शुरू होते हैं । बहुत छोटे होने के कारण इन बीजाणु का प्रसार हवा द्वारा होता है । अंत में ये प्राय: वर्षा के साथ नीचे जमीन पर गिर जाते है ।
यदि परिस्थितियों अनकूल हों तो ये बीजाणु अंकुरित होकर कवक की वानस्पतिक बढवार की शुरुआत करते है, एवं उपयुक्त वातावरण में यह असीमित वृद्धि कर सकता है । अंकुरित बीजाणु से निकलने वाले कवकजाल को प्राथमिक कवकजाल कहते है और यह प्रायः एक नाभिकीय और अगुणित होता है ।
यह अवस्था कुछ ही समय के लिए रहती है । क्योंकि विभिन्न बीजाणुओं से निकलने वाले कवकजाल बढ़कर और एक दूसरे से मिलकर द्वितीयक कवकजाल बनाते हैं जो कि लगातार विभाजित होकर वानस्पतिक रूप से बढता जाता है ।
बीजाणु के अंकुरण के पश्चात बनने वाला कवकजाल विभिन्न संगम प्रकार का होता है । जब विपरीत संगम प्रकार के कवकजाल पास-पास आते हैं और आपस में मिलते हैं तो कायजनिक (सोमेटोगेमी) के कारण द्विनाभिकीय कोशिका बन जाती है । इस कोशिका से बनने वाले द्विनाभिकीय कवकजाल लगातार दृष्टि करके द्वितीयक कवकजाल बनाता है, जो कि वानस्पतिक रूप से बढता जाता है ।
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विषमपोषी होने के कारण कवक जिस आधार पर उत्पन्न होता है उसी से भोजन अवशोषित करता है । कवकजाल की शाखाएँ एंजाइम उत्पादित करती है जो जटिल कार्बोहाइड्रेट्स, लिपिड्स और प्रोटीन को पाचन द्वारा सरल अणुओं में तोड देती है, जो कि तंतु के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । अवशोषित के बाद कवकजाल में वृद्धि होती है और फलनकाय के निर्माण के लिए ऊर्जा का संग्रहण होता है ।
तन्तुओं के समुच्चन से फलनकाय अवस्था बनती है । खुंभी छोटे पिन हेड (प्राइमोडिया) के रूप में निकलती है जो शीघ्र ही बढकर बटन अवस्था में बदल जाती है । इसके पश्चात खुंभी विभेदित होकर छाते के समान संरचना बनाती है जिसके नीचे गलफडे बनते है ।
गलफडे के किनारे बेसीडिया बनते है । प्रारंभ में नवजात बेसीडियम में दो केन्द्रक पाये जाते है जो आपस में मिलकर द्विगुणित केन्द्रक बनाते है । कुछ समय के पश्चात मियोसिस के कारण अगुणित केन्द्रक बनते है ।
मध्य समय में बेसीडियम के शिखर से छोटी बाह्य वृद्धि, स्टेरिगमेटा बाहर निकलती है और इनका सिरा फूलकर एक केन्द्रक वाला बेसीडियो बीजाणु बनाता है । ये बीजाणु विकसित होकर बहुत तेजी से बेसीडिया से बाहर निकलकर हवा में पहुंच जाते हैं । बीजाणु उत्पादन एवं निर्मुक्त होने के कुछ घंटों बाद खुंभी जीवन के अंतिम अवस्था में होती है । जीवाणु दुसरे कवक और कीट खुंभी को ग्रस्त करते हैं ।
3. खुंभी की खेती की पृष्ठभूमि (History of Mushroom Cultivation):
पुराण शास्त्र के अनुसार खुंभी मेघगर्जन के साथ जुड़ी है और पहले यह विश्वास था कि बिजली के कडकने व मेघगर्जन के कारण खुंभी बनती है । खुंभी प्राचीनकाल से ही मानव के लिए विशेष महत्वपूर्ण रही है । विश्व के प्राचीन साहित्य जैसे वेद और बाइबल आदि ग्रंथों में इसका वर्णन है ।
थियोफ्रॉस्टस (372-287 बी. सी.) ने लिखा है कि खलिहानों, खेतों और चरागाहों में उगने वाली खुंबी को खाया जाता है । ग्रीक और रोमन राजाओं के खाने में खुंभी उपयोग में लायी जाती थी । अमेरिका और यूरोप में खुंभी उत्पादन शुरू होने से पहले से ही चीन में खुंभी की खेती होती थी । चीन में आरीकुलेरिया की खेती 600 ए.डी. में, फ्लेमुलिना वेल्युटाइप 800-900 ए.डी. में और लेटाइनस इडोड्स की खेती ईसा से लगभग 1000 वर्ष पूर्व की जाती थी ।
सर्वप्रथम फ्रांस में सफेद बटन खुंभी की खेती खुले स्थानों में घोडे की लीद से बनी ऊँची क्यारियों के ऊपर की जाती थी । इसके बारे में पहला लेख फ्रांस के टोरनीफोरटी ने सन 1707 में लिखा ।
यद्यपि भारत में खाद्य योग्य खुंभी की खेती नई है परंतु इसको उगाने की विधि काफी वर्षा से प्रचलित है । सन 1986 में खुंभी की प्रजातियों को एन डबल्यू न्यूटन ने उगाया था और उसे भारतीय कृषि उद्यान संघ के वार्षिक सम्मेलन में प्रदर्शित किया । सर डेविड पेन ने 1908 में खाद्य खुंभियों की सघन खोज की ।
बोस (1921) ने अगेरिकस की दो प्रजातियों कीटाणुरहित लीद माध्यम पर उगाई जिन्हें नागपुर में सन् 1926 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की कार्यवाही में प्रदर्शित किया । बोस और बोस ने सन 1926 में लीद माध्यम पर उगाने की विधि के बारे में लेख प्रकाशित किया ।
बाद में पेड्रिक (1941) ने विभिन्न देशों में बटन खुंभी की सफलतम खेती के बारे में बताया, पर भारत में इसकी खेती सफल नहीं हुई । सन 1930 से 1945 के मध्य कृषि विभाग, मद्रास (चेन्नई) द्वारा परीक्षण के तौर पर खुंभी वोल्वेरियेला की सर्वप्रथम खेती प्रारंभ की । सु और सेठ (1940) तथा थामस एवं उनके सह कार्यकर्ताओं (1943) ने इसकी खेती के बारे में लोगों को जानकारी दी ।
अस्थाना ने सन 1947 में खुंभी अधोस्तर पर अरहर दाल पाउडर को छिडककर पैराखुंभी की अधिक उपज ली और बताया कि मध्य भारत में अप्रैल से जून तक इस खुंभी की खेती सबसे उपयुक्त पायी गयी है । सन 1961 में इन्होंने व्यवसायिक तौर पर इस खुंभी का रासायनिक विश्लेषण किया ।
सन् 1961 में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आई सी ए आर) के सहयोग से हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा ‘हिमाचल प्रदेश में मशरूम की खेती का विकास’ नामक परियोजना सोलन में प्रारंभ की गयी । बानो और उनके सह कार्यकर्ताओं (1962) ने धान के पैरा पर प्लूरोट्स प्रजाति की अधिक उपज प्राप्त की ।
सन 1964 में कौंसील ऑफ साइटिफिक एण्ड इण्डस्ट्रियल रिसर्च (आई.सी.ए.आर) और जम्मू कश्मीर सरकार के सहयोग से श्रीनगर में सफेद बटन खुंभी अगेरिकस का उत्पादन प्रारंभ किया ।
सन् 1965 से 1974 के मध्य फूड एण्ड एग्रीकल्चर ऑरगेनाइजेशन (एफ.ए.ओ) के खुंभी विशेषज्ञ डॉ. इ. एफ. मेन्टेल एवं डबल्यू ए. हेज ने कृषि विभाग को खुंभी के व्यवसायिक उत्पादन संबंधी परामर्श दिया एवं सहायता प्रदान की ।
उन्होंने सफेद बटन खुंभी के लिए अधोस्तर निर्माण की उन्नत विधि, अधोस्तर निर्माण सामग्री एवं केसिंग मिट्टी आदि के बारे में प्रदर्शन एवं जानकारी उपलब्ध कराई । उन्होंने खुंभी गृह निर्माण, कृत्रिम वातावरण निर्माण, नमी की मात्रा सबधी अनेकों जानकारियों एवं विधियों का निर्देशन दिया ।
इसके कारण खुंभी की उपज 7 से बढकर 14 किलो प्रति वर्ग मीटर हो गयी । सन 1977 में उद्यान विभाग (हिमाचल प्रदेश) ने यू.एन.डी.पी. के आधीन एक खुंभी विकास परियोजना प्रारंभ की । इस परियोजना में खुंभी विशेषज्ञ जेम्स टन्नी की सेवायें ली गयी ।
इन्होंने बल्क पाश्चुरीकरण कक्ष बनवाया जिसमें बनने वाली पाश्चुरीकृत खाद और केसिंग मिट्टी हिमाचल प्रदेश के किसानों को उपलब्ध करायी जाती है । यह परियोजना सन 1982 में समाप्त हुई । वर्तमान में उद्यान विभाग, हिमाचल प्रदेश इस परियोजना को संचालित कर रही है ।
4. खुंभी की खेती का क्षेत्र एवं विकास (Development of Mushroom Cultivation):
भारत विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला दूसरे नंबर का देश है । जिसकी जनसंख्या 120 करोड है । भारत में बढती जनसंख्या खाद्य समस्या में चेतावनी सूचक स्थिति पैदा कर रही है । विकासशील देशों में सर्वव्यापी कुपोषण के साथ लगातार बढने वाली प्रोटीन की कमी को पूरा करने के लिए प्रोटीन युक्त पदार्थों के स्त्रोतों की खोज भी जारी है ।
साथ ही साथ भारत में प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत का उत्पादन भी बढती जनसंख्या की पूर्ति नहीं कर पा रहा है । हमारे देश की जनसंख्या का 80 प्रतिशत वर्ग कम आय वाला है । अतः पशु प्रोटीन माल उनके लिए अप्राप्य है । खाद्य पदार्थों के अपारंपरिक स्त्रोतों की खोज से खाद्य पूर्ति की जा सकती है ।
अनाजों से मिलने वाली प्रोटीन के विकल्प के रूप में तीन स्त्रोत, जो हमारे सामने उभर कर आते हैं, वे हैं खुंभी, शैवाल तथा यीस्ट । खुंभी अपने आकार, स्वाद व सुगंध, पौष्टिक तत्व, कम समय व कम क्षेत्र में अधिक उपज, भूमि पर कम निर्भरता और अनेकों कृषि अवशिष्ट पर उगने की क्षमता के कारण विकासशील देशों में कुपोषण से लडने के लिए भोजन का अच्छा स्त्रोत है ।
यह एक सघन श्रम वाली. घर के अन्दर उगायी जाने वाली फसल है । भूमिहीन व कम जमीन वाले किसान अपनी आमदनी बढाने के लिए इसका उपयोग कर सकते हैं और बेरोजगार, कम आय वाले, समाज के कमजोर वर्ग और महिलाओं के लिए विशेष तौर पर उपयोगी है ।
खाद्य खुंभी की सभी प्रजातियों को उगाने के लिए प्राकृतिक कृषि अवशेषों का उपयोग किया जाता है जो कि इनमें उपस्थित लिग्निन, सेल्युलोज और हेमीसेल्युलोज को अपघटित करके फलनकाय बनाते है, पौष्टिक एवं स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभकारी हैं ।
खुंभी को उगाना एक पर्यावरणीय क्रिया है, जिसमें कृषि, मुर्गीपालन आदि से उत्पन्न अनुपयोगी पदार्थों का उपयोग किया जाता है । नियंत्रित परिस्थितियों में इसकी खेती से पौष्टिक और एक जैसी उपज प्राप्त होती है । जबकि अन्य फसलें मौसम से प्रभावित होती है ।
सेल्युलोज युक्त पदार्थों को बहुमूल्य प्रोटीन में बदलने की क्षमता के कारण बढती जनसंख्या के लिए खाद्य की कमी को दूर करने के लिये यह एक अच्छा स्त्रोत है ।
संसार के कई देशों में खाने योग्य खुंभी जैसे वॉल्वेरियेला (धान का पैरा, चीनी या भूमध्यसागरीय खुंभी), लेन्टीनस इडोड्स (शिटाके) और अगेरिकस बाइस्पोरस (सफेद, बटन, यूरोपीय या समशीतोष्ण खुंभी) की खेती सदियों से की जा रही है ।
परंतु इनकी व्यापारिक खेती उन्नीसवीं शताब्दी में स्थापित हुई । कुछ अन्य किस्में जैसे पलेन्युलिना वेल्युटाइपस (इनोकीटेक), फोलिओट्रा नेमेको (नेमीको), आरिकुलेरिया (काला कान), ट्रिमेलो फ्यूजीफॉर्मिस (जेली फफूँद), स्ट्रोफेरिया रयूगेसा एनुलाटा (जाइंट फफूंद) और ट्यूबर मेलेनोस्पोरम (ट्रफल) का उपयोग 19वीं शताब्दी में हुआ ।
खुंभी उद्योग को लोकप्रिय बनाने के लिये निम्न बिंदु आवश्यक है:
i. विभिन्न कृषि जलवायवीय अवस्थाओं में व्यवसायिक रूप से उगाये जाने वाले खुंभी के नये प्रभेद तैयार करना ।
ii. सफेद बटन खुंभी की रोगरोधी किस्में तैयार करना ।
iii. विभिन्न खुंभीयों जैसे जूरीट्स और एगरिकस बाइटारकस को साल भर चक्रीय रूप से उगाने के लिए मानक उत्पादन तकनीक तैयार करना ।
iv. खुंभी की खेती के लिए सस्ते स्थानीय रूप से उपलब्ध क्रियाधारों का परिक्षण करना ।
v. युक्तियों की रोगरोधी किस्में तैयार करना ।
vi. खुंभी का परिरक्षण और पाश्च सस्य प्रवंधन की विधियों को विकसित करना ।
vii. स्थानीय ग्रामीण लोगों के लिए विभिन्न खुंभी की सस्ती उत्पादन तकनीक विकसित करना ।
5. खुंभी की खेती का वर्तमान परिदृश्य (Present Status of Mushroom Cultivation):
सारे विश्व उत्पादन में खुंभी के विश्व उत्पादन का 33 प्रतिशत भाग अगेरिकस बाइस्पोरस का है । इसके बाद लेनटाइनस इडोडस और प्लूरोट्स आते हैं । पिछले 20 सालों में कुल खुंभी का उत्पादन 5 गुना से ज्यादा बढ गया है । हालांकि 100 से ज्यादा देशों में खुंभी उगायी जाती है और अनुमानित रूप से इसका कुल उत्पादन 50 लाख टन है ।
अधिकाशत. यह यूरोप (50 प्रतिशत), उत्तरी अमेरिका (27 प्रतिशत) और पूर्वी एशिया (14 प्रतिशत) में उगायी जाती है । भारत में कुल खुंभी उत्पादन का 85 प्रतिशत भाग सफेद बटन खुंभी का है ।
इसके बाद आयस्टर और पैरा खुंभी आती है । आजकल बटन खुंभी को मौसमी उत्पादक प्राकृतिक जलवायवीय स्थिति में अनिर्जमीकृत खाद (8-10 किलो प्रति टन खाद) का और कुछ व्यवसायिक खुंभी उत्पादक युनिट इसे नियंत्रित वातावरण में निजर्मीकृत खाद (15-20 किलो प्रति टन खाद) का उपयोग कर रहे है । दक्षिण भारत में आयस्टर खुंभी प्रचलित है अरि इसका हर साल लगभग 3500 मिट्रिक टन उत्पादन हो रहा है ।
पैरा खुंभी को व्यवसायिक रूप से नहीं उगाया गया, क्योंकि इसकी उपज अनिर्धारित व कम होती है । भारत में खुंभी अनुसंधान एवं विकास की वृद्धि बहुत कम पर लगातार है ।
विगत दस साल में खुंभी अनुसंधान एवं विकास की लेग अवस्था पार करने के बाद चर घातांकी (एक्सपोनेन्शियल) अवस्था पर है । 21वीं शताब्दी की शुरुआत में अनुमानित कुल उत्पादन 50000 टन है, जो कि अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुसार बहुत कम है ।