खरबूजा कैसे खेती करने | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate muskmelon.

खरबूजा (कुकुमिस मेलो) का बेलवर्गीय सब्जियों में प्रमुख स्थान है । इसे मुख्यतया ताजा खाया जाता है । कुछ ग्रामीण लोग इसके कच्चे फलों से सब्जी भी बनाते है । यह अपने मिठास एवं स्वाद के लिए अत्यंत लोकप्रिय है ।

राजस्थान के मैदानी भागों और नदियों के तटों पर इसकी खेती सुगमता से की जा सकती है । भारत में इसे मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली एवं बिहार में उगाते हैं परन्तु दक्षिणी भारत के राज्यों एवं अन्य मैदानी क्षेत्रों में भी इसकी लोकप्रियता में निरन्तर वृद्धि हो रही है ।

पोषक मूल्य:

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खरबूजे के पके फलों को खाते है जबकि कच्चे फलों से सब्जी बनाई जाती है, पके फलों से चाट भी बनाई जाती है, खरबूज की गिरियों को पीसकर ग्रीष्मकालीन पेय भी बनाया जाता है । इसकी गिरियों को मिठाइयों में डालते हैं । कब्ज के रोगियों के लिए यह एक अत्यन्त लाभदायक फल है ।

यह एक पूर्ण एवं पौष्टिक आहार है । खरबूजे में 47 प्रतिशत खाने योग्य भाग होता है जिसमें विटामिन ए.बी एवं सी प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं । खरबूज में मिठास की मात्रा इसकी किस्मों पर निर्भर करती है । इसकी कुछ किस्मों में 17 प्रतिशत तक मिठास पाया जाता है ।

जलवायु:

खरबूजे के सफल उत्पादन हेतु गर्म एवं शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है । इसके बीज के अंकुरण हेतु 270-300 सेटीग्रेड॰ तापमान अनुकूलतम माना गया है । खरबूजे की फसल को पाले से अधिक क्षति होती है । फल पकने के समय विशेष रूप से तेज धूप, गर्म हवा (लू) फलों में मिठास के लिए आवश्यक समझी जाती है ।

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आर्द्र वातावरण होने के कारण इसकी फसल में फफूँदी जनित रोग लग जाते हैं । और फलों पर कीटों का प्रकोप भी हो जाता है जिनके कारण फसल की उपज एवं गुणवत्ता दोनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।

भूमि:

खरबूजे को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है परन्तु उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट भूमि जिसका पी॰एच॰ मान 6-7 हो सर्वोत्तम मानी गई है । 5.5 पी॰एच॰ मान वाली भूमि में इसे सफलतापूर्वक नहीं उगाया जा सकता ।

भारी मृदाओं में पौधों की बढ़वार तो अधिक हो जाती है, परन्तु फल विलम्ब से लगते हैं नदियों के किनारे कक्षारी भूमि में खरबूजे को सुगमतापूर्वक उगाया जा सकता है । अधिक क्षारीय मृदा इसके सफल उत्पादन में बाधक मानी गयी है ।

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खेत की तैयारी:

नदी तट पर लताओं के लिए गड्‌ढे खोदकर थाले बनाते हैं । गड्‌ढे से तब तक बालू हटाते रहते है जब तक उनकी तली में पानी न झिलमिलाने लगे । प्रत्येक गड्‌ढे में 5 किलोग्राम कम्पोस्ट, 100 ग्राम अरंडी की खली, 25 ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट और 30 ग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश का मिश्रण भर देते हैं ।

खेतों में खरबूज उगाने के लिए प्रथम जुताई मिट्‌टी पलटने वाले हल से करना चाहिए । उसके उपरांत 2-3 बार कल्टीवेटर तथा हैरी से करना चाहिए प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाना चाहिए । फिर क्यारियों और सिंचाई नालियों का निर्माण कर लेना चाहिए ।

खरबूज को ऊँची-उठी क्यारियों में बोना चाहिए क्यारियों की चौड़ाई फसल और उसकी किस्म पर निर्भर करती है । हरा मधु के लिए 4 मी॰ चौड़ी क्यारियाँ बनानी चाहिए । मध्यम फैलने वाली किस्मों के लिए 3 मी॰ रखनी चाहिए । हरा मधु के लिए 35 मीटर पंक्ति से पंक्ति का फासला रखा जाता है । बोआई दोनों किनारों पर की जाती है । हिल से हिल का फासला 50-60 सेमी॰ रखना चाहिए । बीजों को लम्बी सिंचाई नालियों में भी बोआई की जा सकती है ।

खाद एवं उर्वरक:

भारत के विभिन्न भागों में खरबूजे की फसल के लिए खाद एवं उर्वरकों की उचित मात्रा का पता लगाने हेतु विभिन्न परीक्षण किए गए हैं । खरबूजे के लिए खाद एवं उर्वरकों की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि भूमि की उर्वरा शक्ति कैसी है और उसकी कौन सी किस्म उगाई जा रही है? आलू या दलहनी फसल के उपरांत खरबूजा उगाना उत्तम रहता है । मध्यम उर्वरता वाली भूमि में 200 क्विंटल कंपोस्ट 80 किलो नाइट्रोजन 50 किलो फॉस्फोरस और 50 किलो पोटाश प्रति हैक्टेयर देने से अच्छी उपज मिल जाती है ।

गोबर की खाद प्रथम जुताई से खेत में समान रूप में बिखेर देनी चाहिए । नाइट्रोजन की आधी मात्रा, फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा का मिश्रण बनाकर अंतिम जुताई के समय भूमि में डालना चाहिए । नाइट्रोजन की शेष मात्रा को फूल आने के समय उपरिवेशन के रूप में डालनी चाहिए ।

प्रजातियाँ:

खेत में खरबूज लगाने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि किसान भाई खेत में मनवांछित अच्छी मिठास वाली किस्मों अथवा प्रजातियों को उगा सकते हैं जबकि बाजार में उपलब्ध खरबूजे की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं होती एवं मिठास भी कम होती है । खरबूज की कुछ प्रमुख अच्छी प्रजातियों का वर्णन निम्नलिखित है ।

i. हरा मधु:

इस किस्म का विकास पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा किया गया है । नाम के अनुसार इस किस्म का फल हरा होता है एवं मिठास युक्त होता है । (13% टी.एस.एस.) होता है । यह देर से पकने वाली किस्म है । पहला फल आठवीं गाठ पर लगता है एवं बेल की औसत लंबाई 23 मीटर होती है । इसके फल गोल एवं प्रतिफल 1 किग्रा॰ तक के होते हैं । इसकी उत्पादन क्षमता 12.5 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है । इस किस्म के फलों की भंडारण क्षमता बहुत कम होती है ।

ii. पूसा मधुरस:

इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । यह मध्यम अवधि में तैयार होने वाली किस्म है जो कि 90-95 दिनों में तैयार हो जाती है । इसकी लताएँ मजबूत एवं खूब बढ़ने वाली होती हैं । इस किस्म के फल चपटे, गोल, दोनों सिरों पर कुछ चपटे होते हैं ।

इनका छिलका चिकना पीले रंग का होता है जिस पर हरी पट्टियाँ पाई जाती हैं । गुदा हल्का नारंगी तथा सरस होता है, अच्छी खुशबू युक्त होता है, फल काफी मीठा होता है (12-14 टी॰एस॰एस) । प्रत्येक फल का औसत वजन एक किलो होता है । इसकी उत्पादन क्षमता 15 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

iii. पूसा शर्बती:

इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती किस्म है, जो 80-85 दिनों में तैयार हो जाती है । इसके फल गोल, हरी धारियों के एवं जालीदार छिलके वाले होते हैं । इस किस्म के फल का गुदा मोटा एवं हल्के हरे रंग का होता है ।

इसके फल मध्यम आकार के गोल या अंडाकार होते हैं । इस किस्म के फल अच्छी गंध वाला एवं अत्यंत मीठा (10-12% टी॰एस॰एस॰) होते है । एक बेल पर 34 फल लगते हैं । इसके फल 4-5 दिन तक सुरक्षित रख सकते हैं । इसकी उत्पादन क्षमता 16 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

iv. पूसा रसराज:

इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा किया गया है । यह एक अगेती संकर किस्म है । इसके फल लंबोतरा चिकने व धारी रहित होते हैं । इसका गुदा हरे रंग का तथा बहुत मिठास युक्त होता है ।

इस किस्म की प्रत्येक शाखा पर 3-4 फल लगते हैं एवं प्रत्येक फल का वजन 10 किलोग्राम होता है । फलों की तुड़ाई बुआई के 75-80 दिन बाद करते हैं। इस किस्म की उत्पादन क्षमता 17.3 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

v. अर्का जीत:

यह किस्म भारतीय उद्यानिकी संस्थान, बंगलौर द्वारा विकसित की गई है । यह एक अगेती किस्म है । इस किस्म के फल छोटे गोल एवं इसके अतः सपाट होते हैं । फल का छिलका चिकना, नारंगी भूरा होता है । गूदा सफेद रसीला अत्यंत मीठा (15-10%) टी॰एस॰एस॰ होता है । इसके फल में विटामिन ‘सी’ प्रचुर मात्रा में पाई जाती है । प्रत्येक फल का भार 300-350 ग्राम तक होता है । इसकी उत्पादन क्षमता प्रति हैक्टेयर 15 टन तक होती है ।

vi. अर्का राजहंस:

इस किस्म को भारतीय उद्यानिकी संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती किस्म है । इस किस्म के फल गोल व थोडे अंडाकार होते हैं । इसके फल मध्यम आकार से बड़े आकार वाले होते हैं । प्रत्येक फल का भार 1.25-2.0 किलो तक होता है ।

फलों का गूदा घना, सफेद एवं ठोस होता है । इसके फल स्वाद में मीठे होते है, इसमें, मिठास का प्रतिशत 11-14 (टी॰एस॰एस) तक होता है । यह किस्म चूर्णी फफूँदी नामक रोग की प्रतिरोधी किस्म है । इसकी उत्पादन क्षमता 28.5 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

vii. दुर्गापुरा मधु:

इस किस्म को दुर्गापुरा कृषि अनुसंधान केंद्र द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती किस्म है । इसके फल मध्यम गोल आकार के यानि लम्बोतर होते हैं । छिलका चिकना, हल्के हरे रंग का होता है । जिस पर हरे रंग की धारियाँ पाई जाती हैं ।

इसका गूदा हल्के हरे रंग का, बिना रस वाला एवं अत्यंत मीठा होता है इसमें मिठास प्रतिशत 13-14 टी॰एस॰एस॰ तक होता है । इसकी उत्पादन क्षमता 12.5 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है । इस किस्म की भंडारण क्षमता बहुत कम होती है ।

viii. हिसार मधु:

इस किस्म का विकास चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा किया गया है । इस किस्म की लताएँ काफी लम्बी बढ़ती हैं । इस किस्म के फल गोल होते है एवं गहरे लाल रंग के होते है जिन पर हरे रंग की धारियाँ होती हैं । गूदा नारंगी रंग का होता है जो रसदार एवं मिठास लिए हुआ होता है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 10 टन प्रति हैक्टेयर तक होता है ।

ix. हिसार सरस:

इस किस्म का विकास चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय हिसार द्वारा किया गया है । इस किस्म की लताएँ छोटी होती हैं । यह एक जल्दी तैयार होने वाली किस्म है । इसके फल गोल, गूदा हरापन लिये श्वेत एवं मीठे होते हैं । यह किस्म मृदु रोमिल को सहने की क्षमता रखती है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 8-10 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

x. पंजाब रसीला:

इस संकर किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय लुधियाना द्वारा नर बन्ध लाइन एम॰एस॰ तथा हरा मधु के बीच संकरण द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती किस्म है । इसके पौधों की लतायें बहुत बड़ी होती हैं । इसके फल गोल होते हैं ।

छिल्का हल्का पीला और मध्यम जालीदार होता है । इसका गूदा हरा, घना, रसीला एवं मीठा होता है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 16 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है । यह किस्म चूर्णी फफूँदी की प्रतिरोधी किस्म है एवं मृदारीमिल को भी सहन कर लेती है ।

xi. पंजाब सुनहरी:

इस किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती किस्म है । इस किस्म के फल गोल से दीर्घ तृत्तीय आकार के होते हैं । इस किस्म के फल हल्के हरे एवं मोटे छिलके वाले होते हैं । जो जालीदार एवं घने होते हैं ।

इस किस्म का गूदा सालमन नारंगी रंग का होता है जो घना एवं मिठास लिए हुए होता है इसमें टी॰एस॰एस 11 प्रतिशत तक होता है । इसकी भंडारण क्षमता अच्छी होती है एवं इस किस्म की उत्पादन क्षमता 16 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

xii. एम॰एच॰-10:

इस संकर किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना से मादा पितृ (डब्लू आई 998) एवं नर पितृ (पंजाबी सुनहरी) के बीच संकरण कराकर विकसित किया गया । यह एक अगेती किस्म है । इस किस्म की लताएँ मध्यम-लम्बी बढ़ने वाली होती हैं । इसके फल गोल या अंडाकार होते हैं ।

फल के छिलके भूरे रंग के होते हैं । गुदा नारंगी मध्यम रसीला मोटा । मीठा जिसमें टी॰एस॰एस॰ 9-10 प्रतिशत तक होता है । इसके फल सुगंध से भरपूर होते हैं । इसके फलों की भंडारण क्षमता अधिक होती है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 24 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

xiii. आर॰एम॰43:

इस किस्म का विकास दुर्गापुरा कृषि अनुसंधान केन्द्र, राजस्थान द्वारा किया गया है । इस किस्म की लतायें बहुत बढ़ने वाली होती हैं । इस किस्म में बुआई के 49 दिन बाद फूल आना प्रारम्भ हो जाता है ।

फलो की पहली तुड़ाई 73 दिनों में कर सकते हैं । इस किस्म के फल छोटे आकार के एवं औसत वजन 550 ग्राम तक होता है इस किस्म के फल लम्बोतर होते हैं, जिसके ऊपर हरे रंग की पट्‌टियाँ होती हैं ।

xiv. पंजाब हाइब्रिड:

इस संकर किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा नर बन्ध लाइन (एम॰एस॰ 1) तथा हरा मधु के बीच संकरण द्वारा विकसित किया गया है । इसके पौधों की लतायें बहुत बडी होती हैं । इस किस्म के फल हल्के हरे पीले रंग के होते हैं । जिनके ऊपर हल्के हरे रंग की धारियाँ होती हैं । इस किस्म के छिलके जालीदार होते हैं । गूदा नारंगी रंग का तथा सरस होता । इसके फलों में अच्छी सुगंध होती है ।

उपरोक्त किस्मों के अलावा अनेक स्थानीय किस्में हैं जिनको विशेष स्थानों पर उगाया जाता है । इन प्रमुख किस्मों में उत्तर प्रदेश की लखनऊ सफेदा, मेरठ की बागपत किस्म, जौनपुर की जौनपुर जालीदार एवं मऊ की मऊ किस्में अत्यधिक प्रचलित हैं । अनेक निजी कंपनियों द्वारा भी खरबूज की संकर किस्म, विकसित की गई हैं । इन प्रजातियों का भी चुनाव किसान भाई कर सकते हैं ।

बोआई:

समय:

खरबूजे की बोई इस बात पर निर्भर करती है कि उसे कहाँ उगाना है यदि आप इसे नदियों के किनारे उगाने जा रहे हैं तो इसकी बोआई नवम्बर से जनवरी तक थाली में करते हैं । उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में इसकी बोआई फरवरी में करनी चाहिए ।

जबकि दक्षिणी भारत के मैदानी क्षेत्रों में दिसम्बर-जनवरी में बोआई करनी चाहिए । पश्चिमी बंगल, बिहार के पाला रहित क्षेत्रों में नवम्बर-दिसम्बर में बोआई करनी चाहिए । पर्वतीय क्षेत्रों में इसकी बोआई अप्रैल के मध्य की जाती है ।

विधि:

कुछ किसान खेतों में खरबूजे को हल के पीछे कुंड में बोते हैं जबकि प्रगतिशील कृषक थाले 90 सेमी॰ चौड़ी एवं 10 सेमी॰ नालियाँ बनाकर करते है । पंक्ति से पंक्ति की दूरी 180-240 सेमी॰ रखते हैं और थाले से थाले का अन्तर 60-120 सेमी॰ रखते हैं । इस प्रकार बोई गई फसल को पानी की कम मात्रा की आवश्यकता होती है और पानी सीधा फसल के सम्पर्क में नहीं आ पाता है ।

बीजों को बोने से पूर्व 12 घंटे तक पानी में भिगोने से अंकुरण अच्छा होता है एक हैक्टेयर के लिए 2-3 किलो बीज पर्याप्त होता है । प्रत्येक थाले में 3 बीज होते हैं । जबकि पौधों में 4 पत्तियाँ आ जाती है तो दो कमजोर पौधों को उखाड देते हैं ।

सिंचाई:

खरबूजे के सफल उत्पादन हेतु भूमि में नमी बनाए रखने की आवश्यकता होती है । नदी तट पर बोई गई फसल की सिंचाई नहीं करनी पड़ती है, क्योंकि जल कोशिका क्रिया द्वारा जड़ों तक पहुँचता रहता है परन्तु खेतों में लता की वृद्धि की प्रारम्भिक अवस्था में थोड़े-थोड़े दिनों के अन्तराल से सिंचाई करनी चाहिए ।

जब फल पकने वाले हों तो सिंचाई की आवृत्ति कम देनी चाहिए । क्योंकि इस स्थिति में पानी देने से फलो की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । सिंचाई हमेशा उथली करनी चाहिए । गर्मियों में 5-7 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए हल्की रेतीली मृदाओं में अपेक्षाकृत अधिक सिंचाइयों की आवश्यकता होती है ।

खरपतवार नियंत्रण:

खरबूजे की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग जाते हैं । जो फसल के साथ नमी पोषक तत्वों एवं धूप के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पौधों की बढ़वार विकास एवं उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । अतः फसल की प्रारम्भिक अवस्था में पौधों के समीप उथली निराई, गुडाई करनी चाहिए ।

इसके बाद और भी उथली निराई-गुड़ाई करनी चाहिए । जब लताएँ भूमि को ढक लेती हैं तब खरपतवार पनप नहीं पाते हैं । यदि कुछ खरपतवार खेत में दिखाई दें तो उन्हें हाथ से उखाड़ देना चाहिए क्योंकि उस समय निराई-गुड़ाई की जाएगी तो लताओं की क्षति पहुँचने की आशंका रहती हैं ।

फलों की तुड़ाई:

फलों को बेलों पर पूरी तरह परिपक्व होने देने चाहिए परन्तु साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वे आवश्यकता से अधिक न पके इसके लिए उन्हें निम्न में से एक या अधिक गुणों के आधार पर परिपक्वता की उचित अवस्था पर तोड़ लेना चाहिए ।

(क) सुगंध:

परिपक्व फलों में एक (मनभावन गंध) होती है जिसका अनुमान अनुभव के आधार पर लगाया जा सकता है ।

(ख) छिलके का नरम होना:

परिपक्व फलो का छिलका नरम पड़ जाता है और उसका रंग कुछ हल्का या पीला सा हो जाता है इसका अनुमान फलों को अंगुलियों से दबाकर लगाया जा सकता है । पकने पर छिलके में एक चमक सी उत्पन्न हो जाती है ।

(ग) कुल धुलनशील शर्करा:

पकने पर फलों की घुलनशील शर्करा का अंश कच्चे फलों की अपेक्षा कही अधिक बढ़ जाता है । मिठास के आधार पर फलों की परिपक्वता की सही अवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है ।

(ध) विलग परत:

परिपक्वता के साथ-साथ फलों के बेल से जुड़ने के स्थान पर विलग परत विकसित हो जाती है । जिसके कारण फलों को आसानी से अलग किया जा सकता है ।

उपज तथा विपणन:

उपज को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक किस्म तथा खेती के सुधरे तरीके हैं । इन कारकों के आधार पर उपज में थोड़े-बहुत अन्तर पाये जा सकते हैं । सामान्यतया खरबूजे की औसत उपज 150-200 क्विंटल फल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

फलों को तोड़ने के बाद उन्हें किसी ठंडे छायादार स्थान पर रखना चाहिए । पानी से धोकर या कपड़े से पोछकर फलों पर से धूल साफ कर देनी चाहिए । क्षतिग्रस्त रोगी तथा अधिक छोटे फलों को अलग कर लेना चाहिए । फिर उन्हें टोकरियों में बांधकर बाजार भेजना चाहिए ।

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