कैसे लौकी खेती करने के लिए | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate pointed gourd.
परवल का स्थान कद्दूवर्गीय सब्जियों में सर्वोपरि है । इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसकी खेती पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, असम, बिहार इत्यादि राज्यों में सफलतापूर्वक की जाती है । इसमें पौष्टिक तत्वों की मात्रा भरपूर होती है खासतौर से विटामिन ‘ए’ एवं ‘सी’, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पाए जाते हैं ।
हृदय एवं मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए भी इसको बहुत अच्छा माना जाता है । परवल के फलों का प्रयोग मुख्य रूप से सब्जी बनाने में किया जाता है इसके अलावा हरे फलों से मिठाइयाँ भी बनायी जाती हैं । परवल की सब्जी सुपाच्य, मूत्रवर्धक एवं दस्तावर होने के साथ-साथ हृदय व मस्तिष्क को बल प्रदान करने वाली होती है । परवल एक बहुवर्षीय पौधा है ।
परवल के फलों में रंग, रूप, आकार एवं उपज में बड़े स्तर पर विभिन्नता पाई जाती है । इसको जड़ों एवं तने के टुकड़ों द्वारा पैदा किया जाता है । बीज द्वारा भी इसके पौधों को लगाया जा सकता है । इसकी खेती नदियों के किनारे दियारा भूमि में की जाती है जहां की औसत वार्षिक वर्षा 100 से 150 सेमी. तक होती है ।
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पौधा लगाने के बाद यदि इसकी अच्छी प्रकार से देखभाल की जाये तो 4-5 साल तक पैदावार दे सकता है । इसकी खेती के लिए जल निकास युक्त दोमट या बलुई दोमट भूमि जिसमें जीवांश पदार्थ पर्याप्त मात्रा में हो एवं जमीन की सतह से थोड़ा ऊँचा हो, उपयुक्त होता है । क्षारीय एवं अम्लीय भूमि में इसकी पैदावार अच्छी नहीं होती है ।
भूमि की तैयारी:
खेत की तैयारी के समय 2-3 जुताई देशी हल से करनी चाहिए एवं उसके बाद पाटा लगाकर खेत को समतल कर देना चाहिए । परवल को पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.5 मीटर एवं पौधों की पौधों से दूरी भी 1.5 मीटर रखनी चाहिए ।
इसके बाद एक फुट लम्बा एवं चौड़ाई वाला गड़ढा खोदना चाहिए । गड्ढे की गहराई भी एक फुट तक होनी चाहिए । मिट्टी में 4-5 किलोग्राम गोबर की सडी खाद डाल देनी चाहिए । साथ में 100-150 ग्राम डाइ-अमोनियम फॉस्फेट एवं 100-150 ग्राम क्यूरेट ऑफ पोटाश का मिश्रण बनाकर गड्ढे में भर देना चाहिए ।
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प्रजातियों का चयन:
परवल के फलों में रंग रूप एवं आकार के अनुसार प्रजातियों को अनेक प्रकार से विभक्त किया गया है:
1. छोटे गोल हल्के हरे एवं साधारण फल
2. मोटे, लम्बे दोनों सिरे नुकीले होते है एवं हरे रंग के होते हैं
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3. मोटे, लम्बे, दोनों सिरे नुकीले होते हैं एवं गहरे हरे रंग साथ में सफेद धारी युक्त फल पाये जाते हैं ।
इसके अतिरिक्त स्थानीय आधार पर भी अनेक किस्में प्रचलित है- जैसे बिहार लोकल, कल्पाणी, नरेन्द्र परवल-260, नरेन्द्र परवल-604, नरेद्र परवल-307, भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान वाराणसी द्वारा विकसित प्रजाति पी.जी.-1, केन्द्रीय उधान प्रयोग केन्द्र रांची द्वारा विकसित प्रजाति राजेन्द्र परवल-1 इत्यादि उत्तम प्रजातियां हैं ।
खाद एवं उर्वरक:
परवल से सर्वोत्तम पैदावार प्राप्त करने हेतु 200-250 क्विंटल गोबर की सड़ी हुई खाद को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला देना चाहिए । परवल की खेती के लिए 70-80 किलोग्राम नत्रजन, 50 किलोग्राम फॉस्फोरस एवं 80 किलोग्राम पोटाश की आवश्यकता पड़ती है ।
नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा दिसंबर माह में पौधे के चारों तरफ 4 इँच गहरा गड्ढा खोदकर मिट्टी में भली प्रकार से मिलाकर गड्ढे को भर देना चाहिए इसको वैज्ञानिक भाषा में बेसल डोज भी कहते हैं । शेष मात्रा को टॉप ड्रेसिंग के रूप में नत्रजन की शेष मात्रा को मार्च में सिंचाई के बाद और फूल आने पर पौधों के चारों तरफ डालना चाहिए ।
पौध लगाने का समय:
परवल एक बहुवर्षीय फसल है जिसकी खेती मुख्य रूप से वानस्पतिक प्रवर्धन द्वारा की जाती है । यह फसल एक बार लगाने के बाद अच्छी प्रकार देखभाल करने से तीन साल तक अच्छी उपज देती है । नदियों के किनारे परवल की खेती दियरा खेती के रूप में करते हैं अतः बाढ़ आने के साथ ही फसल समाप्त हो जाती है । ऐसे क्षेत्रों में परवल के पौधे प्रतिवर्ष लगाने पड़ते हैं ।
परवल को तना कृन्तकों द्वारा जुलाई से अकबर तक कभी भी लगाया जा सकता है । देशी कहावत के अनुसार उपयुक्त समय माथा नक्षत्र अतः 15 अगस्त से 15 सितम्बर तक का होता है इस समय प्रस्फुरण और कल्ले निकलने के लिए वातावरण में भरपूर नमी एवं उचित तापमान का समावेश होता है ।
परंतु उपरोक्त अवधि में परवल की लताओं में फलन होने के कारण लता कृन्तकों की अनुपलब्धता बनी रहती है । ऐसे समय में इसको 15 अक्टूबर तक भी रोपित किया जा सकता है । इससे अधिक विलम्ब होने पर प्रस्फुरण की दर में कमी हो जाती है । नदियों के किनारे दियारा में परवल की रोपाई अक्टूबर-नवम्बर माह में करने की प्रथा है क्योंकि तलहटी में बाद का पानी कम हो जाता है ।
पौध लगाने की विधि:
परवल के पौधों का प्रवर्धन मुख्य रूप से लताओं द्वारा होता है । बीज द्वारा पौध लगाने में नर और मादा पौधों की संख्या निश्चित नहीं होती है, जिससे फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, बीज बोने से लगभग 50 प्रतिशत पौधे नर निकल जाते हैं । जिसके परिणामस्वरूप फलन नहीं होता है । प्रत्येक 10 मादा पौधों के बीच में एक नर पौधा लगाना चाहिए ।
पौधों का प्रवर्तन तीन प्रकार की प्रवर्धन सामग्री द्वारा की जाती है जो निम्नलिखित है:
1. परिपक्व लता कृतकों/टुकडों द्वारा
2. जड सहित मूल तनों द्वारा
3. सत्य बीज द्वारा प्रवर्धन
लता कृतकों द्वारा प्रवर्धन:
लता द्वारा पौधों का प्रवर्धन पाँच प्रकार से लगाया जा सकता है जो निम्नलिखित है:
1. अंगूठी या गोल आकार की लुंडी विधि:
इस विधि में 80 से 90 सेमी. लम्बी लता टुकड़ियों को 10-12 सेमी. व्यास की गोलाई में लपेट कर या तीन बार मोड़कर दो-तिहाई भाग पहले से तैयार थालों में गाड़ दिया जाता है और एक तिहाई भाग मिट्टी के ऊपर रखा जाता है ।
रोपाई के बाद फौवारे से हल्का पानी लगा देते हैं और नमी बनाये रखते हैं । धूप तेज होने पर अथवा वर्षा होने के समय रोपित लताओं को फुटाव होने तक पुताल या अन्य सूखे खरपतवार से ढक देना चाहिए । 15-20 दिनों में नये कल्ले निकल आते हैं । यह उपयुक्त और सरल विधि है ।
2. 8 आकार की लुंडी विधि:
इस विधि में लगभग एक मीटर पकी लताओं को मोड़कर अंग्रेजी के ‘8’ जैसी आकृति में 15-20 से.मी. लम्बी लुण्डी बनाते है । इन लुण्डियों को तैयार थालों में दोनों सिरों को मिट्टी से ऊपर रखते हुए मध्य भाग को 5-6 से.मी मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है । रोपाई के बाद फौवारे से हल्का पानी देकर नमी बनाये रखते है । लताओं में फुटाव होने तक पुवाल से ढक देना चाहिए ।
3. सीधी लता कृतक विधि:
सीधी लता के टुकडों को पंक्ति में लगाने के लिए खेत की तैयारी अच्छे प्रकार से करते हैं एवं मिट्टी को भुरभुरी बना लेते हैं । तैयार खेत में 20-25 से.मी. गहरी नालियां खोदकर उसमें गोबर की सड़ी खाद डालकर फैला देते है । 60-90 से.मी. लम्बी लता कृन्तकों को नाली में सीधा फैलाकर ऊपर से मिट्टी की हल्की परत डालकर लताओं को ढक देते है ।
इस विधि में दो कृन्तकों के सिरों को मिलाकर ही रखना चाहिए । इस विधि में कतार से कतार की दूरी 1.25 मीटर तक रखना चाहिए । इस विधि में रोपाई के लिए 6400-7000 लता कृन्तकों के प्रति हैक्टेयर दर की आवश्यकता होती है ।
4. मिट्टी दाब विधि:
अगस्त के महीने में फल देने वाले पौधों की भूमि पर फैली लताओं की गाठों को जगह-जगह मिट्टी में दबा देते हैं । ऐसा करने से हर दबी गांठ में एक नया पौधा तैयार हो जाता है । नये तैयार पौधों को अकबर-नवम्बर माह में छोटी पिण्डी के साथ खुदाई करके नये खेत में उपयुक्त स्थान पर रोपित कर दिया जाता है । यह विधि अत्यंत सफल विधि है । इस विधि से एक पुरानी पौध से 30-40 नये पौधे तैयार हो जाते है ।
5. प्रस्फुटित लता कृंतक विधि:
कभी-कभी लता कृतकों से पॉलीथीन की थैलियों में छोटे पौधे तैयार करके उन्हें उपयुक्त स्थान पर लगाया जाता है । ऐसा करने के लिए 15×10 से.मी. आकार की पॉलीथीन की थैलियों में बालू और गोबर की खाद की बराबर मात्रा में मिश्रण भर कर उसमें 3-4 गाठों वाली लता टुकड़ियों को मोड़कर लगा देते हैं ।
थैलियों में हल्के पानी से नमी बनाये रखते हैं । 5-20 दिनों के बाद लताओं में कल्ले फूट आते हैं । कल्ले आने तक थैलियों को हल्के पुवाल से ढक कर छायादार स्थान पर रखते हैं । यह विधि जुलाई महीने में सर्वाधिक उपयुक्त पाई जाती है । प्रस्फुरण के लिए लता टुकड़ियों को पौधशाला (नर्सरी) पर भी लगाया जा सकता है ।
कल्लों से छोटे नये पौधों का विकास होता है जिन्हें तैयार खेत में उपयुक्त स्थान पर रोपित करते हैं । ऐसे पौधों की नदियों के किनारे बाढ़ समाप्त होने पर नवम्बर या जनवरी-फरवरी महीने में उपयुक्त स्थान पर रोपित किया जा सकता है ।
6. जड़ सहित मूल तना द्वारा प्रवर्धन:
इस विधि में मातृ पौधों से जड सहित तने का 15-20 से.मी. मूल भाग काट कर अन्य जगह पर रोपण करते हैं । इस विधि द्वारा फुटाव सुनिश्चित और जल्दी होते हैं । यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि मातृ पौधे की उपज कुप्रभावित होती है ।
7. सत्य बीज द्वारा प्रवर्धन:
परवल के पके फलों के बीज को अगस्त महीने में नर्सरी में बुवाई करके पौध तैयार करते हैं । जिन्हें उखाड़कर अक्टूबर महीने में उपयुक्त स्थान पर रोपित कर देते हैं । व्यावसायिक खेती के लिए कई कारणों से यह विधि अनुपयुक्त पाई जाती है ।
सत्य बीज से प्राप्त पौधों में नर एवं मादा पौधे लगभग बराबर संख्या में उगते हैं जिनकी फूल आने के पहले पहचान नहीं की जा सकती है । नर पौधे की संख्या कई बार अधिक भी हो सकती है । अनावश्यक नर पौधों को खेत से बाहर निकालना अत्यंत कठिन काम होता है ।
साथ में बचे मादा पौधों में फलतः समानरूपता पूर्ण रूपेण बनी रहती है जबकि सत्य बीज द्वारा उत्पन्न अलग-अलग मादा पौधों से विभिन्न प्रकार के फल प्राप्त होते हैं, यहाँ तक कि मातृ पौधे के फलों का भी गुण लुप्त हो जाने की पूरी संभावना होती है ।
सिंचाई एवं जल निकास:
पौधे लगाने के बाद कल्ले फूटने तक, हजारे से हल्की सिचाई करके निरन्तर नमी बनाये रहने की आवश्यकता होती है । सर्दी के महीनों में जब फसल सुसुप्तावस्था में रहती है बहुत ही कम पानी की आवश्यकता होती है । बसंत/ग्रीष्म ऋतु के प्रारम्भ के साथ ही पौधों के आस-पास यथोचित नमी बनाये रखना लाभकारी होता है ।
किसी भी परिस्थितियों में पौधों के पास आवश्यकता से अधिक पानी नहीं लगना चाहिए क्योंकि अधिक नमी का होना ज्यादा हानिकारक होता है । वर्षा ऋतु में सिंचाई केवल लम्बे सूखे की अवधि में ही करनी पड़ती है । इस ऋतु में जल निकास अधिक जरूरी हो जाता है ।
अतः परवल के पौधे यदि उथली बीज शैयाओं पर लगे हो जिनके बगल समुचित गहरी नालियों बनी हो और जिनका संबंध मुख्य नालियों से हो जिससे बारिश का पानी निकल सके इससे परवल की फसल से जल निकास में कोई दिक्कत नहीं होती है ।
खरपतवार नियंत्रण:
खरपतवार के लिए परवल बहुत संवेदनशील फसल होती है परिणामस्वरूप लताओं के बढने से 15 दिन के अतर पर 34 निराई-गुड़ाई पर्याप्त होती है । खरपतवार का नियंत्रण मचान व बाँस विधि द्वारा पौध प्रबंध में सरल होता है ।
समतल विधि में लगी हुई लताओं में वृद्धि हो जाने के बाद उन्हें उलट-पुलट कर निराई नहीं करनी चाहिए । समतल विधि से खेती करने में लताओं के बढ़ने और खरपतवारों को प्रभावी होने से पहले पौधों के चारों तरफ गन्ने की सूखी पत्तियों की मोटी परत बिछा देने से खरपतवार नियंत्रण में क मदद मिलती है ।
कटाई-छटाई:
अक्टूबर के आखिरी सप्ताह या नवम्बर के प्रथम सप्ताह में जब परवल की फसल सुसुप्ता अवस्था में प्रवेश करती है तो फसल समाप्त होने को होती है तब पुराने पौधों के मूल तनों को जमीन की सतह से 15-20 से.मी. ऊपर से काट देते हैं ।
सावधानी यह बरतनी चाहिए कि बचे हुए तनो में तना छेदक कीट से प्रभावित गाठ नहीं होनी चाहिए । इन तनों से नवम्बर माह में भी कल्लों का फुटाव 10-15 दिनों में हो जाता है । ठंड बढ़ने के साथ दिसंबर में इनकी वृद्धि रुक जाती है जो फरवरी के आखिरी सप्ताह या मार्च के प्रथम सप्ताह से प्रारंभ होती है ।
कटाई-छंटाई की उपरोक्त प्रक्रिया मचान व बाँस विधि द्वारा पौध प्रबन्धन में अपेक्षाकृत सरल होती है क्योंकि इस विधि में तुलनात्मक रूप से कम ही लतायें जमीन पर फैली होती हैं जिन पर कल्ले व जड़े निकल आती हैं । ऐसे कल्लों की कटाई-छटाई करते समय आवश्यकतानुसार पौधे से पौधे की दूरी को व्यवस्थित करते हैं ।
नये फुटाव वाले आवश्यक कल्लों को खेत से निकालने की समस्या विशेष रूप से समतल पौध प्रबन्धन विधि में होती है, जिससे सारी लतायें भूमि पर ही फैली होती है । ऐसे में जगह जगह पर नर व मादा लताओं को आपस में मिल जाने की संभावना रहती है जिससे नर व मादा पौधों का अनुपात बिगड़ सकता है ।
फलों की तुड़ाई एवं पैदावार:
परवल में फल मार्च में आना आरम्भ हो जाता है । फलत का पहला दौर गर्मी में, मार्च से जून तक एवं दूसरा दौर वर्षा ऋतु में जुलाई से अकबर तक होता है । दूसरे दौर की पैदावार अधिक होती है । इस प्रकार परवल 7 से 8 महीने लम्बी अवधि तक पैदावार देने वाली सब्जी होती है । इस प्रकार सही अवस्था में तुड़ाई अत्यंत महत्वपूर्ण होती है ।
कोमल फलों में बीज मुलायम होने के कारण सब्जी अच्छी बनती है लेकिन ऐसे फल जल्दी सिकुड़कर खराब हो जाते हैं परिणामस्वरूप भंडारण एवं ट्रांसर्पोटेसन की गुणवत्ता कम होती है । उसी प्रजाति के कड़े और बड़े फलो की भंडारण क्षमता बढ़ जाती है ।
अधिक कड़े फल भंडारण में शीघ्र ही पकने लगते हैं । साथ ही आवश्यकता से अधिक फलों के बढ़ने की प्रतीक्षा उपज को भी कुप्रभावित करती है । अतः दोनों अवस्थाओं में सामंजस्य स्थापित कर समुचित अवस्था में ही फलो की तुड़ाई करनी चाहिए । प्रायः एक माह में 5-6 बार तुड़ाई होती है ।
परवल की नयी फसल पहले वर्ष अपेक्षाकृत कम उपज देती है क्योंकि पौधों की बढवार कम हो पाती है । दूसरे वर्ष यह उपज बहुत अधिक बढ़ जाती है, तीसरे वर्ष की फसल की मुख्य जड़े सत्रकृमि के दुष्प्रभाव एवं परवल के स्वयं के वानस्पतिक वृद्धि गुणों के कारण मोटी एवं कंदीय हो जाती है, परिणामस्वरूप पैदावार में कमी हो जाती है । पैदावार वर्ष प्रजाति एवं पौध प्रबन्धन की विधि के आधार पर परवल की पैदावार की पैदावार 100 से 300 कुन्टल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
भंडारण एवं विपणन:
कद्दूवर्गीय सब्जियों की तुलना में परवल की भंडारण गुणवत्ता अधिक होती है क्योंकि इसकी परत कड़ी होती है जो लम्बे यातायात के लिए उपयुक्त होती है । अच्छे रखरखाव से साधारण दशा में परवल के फल तुड़ाई के बाद चार-पाँच दिनों तक सुरक्षित रख सकते है । इसके बाद फल सिकुडने एवं पीले पडने लगते हैं ।
कुछ सब्जी विक्रेता फलों की हरियाली बनाये रखने के लिए हरे रंग के पानी के घोल में डाल देते हैं, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है । यदि खाद्य मोम एवं पानी की बराबर मात्रा मिलाकर परवल के ताजे फलों को उपचारित किया जाये तो ऐसे फलों को 1015 दिनों तक सुरक्षित रख सकते हैं । परवल को भंडारित करके सुगठित क्रेट्स में रखकर सुदूर स्थानों तक पहुंचाया जा सकता है । इसके फलों का निर्यात अरब देशों में किया जाता है ।