आलू की खेती कैसे करें | How to Cultivate Potato in Hindi!

आलू अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण फसल हे जिसकी खेती उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु में सफलतापूर्वक किया जा सकता है । विगत पाँच दशक में तकनीक के क्षेत्र में भारी विकास हुआ है जिसमें मुख्यत: उन्नत प्रजाति का विकास, बीज उत्पादन तकनीक, कटाई उपरांत तकनीकी, प्रबन्धन एवं उपयोग में क्रांति आई है जिसकी वजह से रोजगार के अवसर भी बढ़ रहे हैं ।

वर्ष 2008 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अन्तर्राष्ट्रीय आलू वर्ष के रूप में मनाने की घोषणा की थी । इस संस्था ने अपने साधारण सभा में 18 अक्टूबर 2007 को इसका निर्णय लिया था । खाद्य एवं कृषि संगठन (एफ ए ओ) ने इस संबंध में प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ को भेजा था जिसे इसने 2005 में ही स्वीकार कर लिया था ।

काफी विचार विमर्श के पश्चात वर्ष 2008 को अन्तर्राष्ट्रीय वर्ष के रूप में मनाने का संकल्प लिया गया । इसके द्वारा विकासशील देशों में जन सामान्य के बीच आलू को प्रमुख खाद्य फसल के रूप में बढ़ावा देने के लिए जागरूकता फैलाने का कार्य किया जायेगा ।

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आज इक्कीसवीं सदी में विश्व में चावल, गेहूँ एवं मक्का के बाद आलू सर्वाधिक उपयोग किया जाने वाला खाद्य फसल बनकर उभरा है । कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार विश्व की बढ़ती जनसंख्या को कुपोषण एवं भूखमरी से मुक्ति दिलाने में आलू की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है ।

यूरोप के देशों में आलू का बड़ी मात्रा में उपयोग और उत्पादन किया जाता है । एशिया एवं अफ्रीका के देशों में यूरोपीय देशों की तुलना में काफी कम आलू का उपयोग होता है जबकि विकासशील देशों में आलू के प्रति जागरूकता पैदा करने से इन क्षेत्रों में भी आलू के उत्पादन एवं उपयोग में कई गुना वृद्धि की संभावना है ।

उत्पत्ति एवं ऐतिहासिक परिदृश्य:

आलू का जन्म स्थान पेरू और चिली माने जाते हैं जो दक्षिणी अमेरिका में है । इतिहास गवाह है कि सोलवीं शताब्दी के आरम्भ में जब स्पेन वासियों के विजय अभियान के दौरान बोलिबिया, चिली, कोलोम्बिया, एक्वाडोर तथा पेरू जहाँ आलू की सैकड़ों प्रजातियाँ उगाई जाती थी वहाँ से स्पेनवासी सम्पूर्ण यूरोप में पहले वनस्पति जिज्ञासा की शांत करने तथा बाद में खाद्य फसल के रूप में उगाने लगे ।

इंग्लैंड में आलू का आगमन सर बाल्टर रेलिग तथा सर फांसिस डैक द्वारा हुआ । सन् 1590 के दौरान अंग्रेज नाविकों द्वारा स्पेन के समुद्री जहाज को पकड़ने से उसमें प्राप्त आलूओं से इंगलैंड में आलू का आगमन अधिक उपयुक्त माना जाता है ।

भारत में आलू का आगमन:

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भारत में सन् 1600 में आलू का आगमन पुर्तगाल व्यापारियों द्वारा बम्बई के बंदरगाह पर हुआ । सन् 1700 से पहले तक पश्चिमी भारत के कुछ हिस्सों में आलू को किचन गार्डेन फसल के रूप में उगाया जाता रहा जबकि दक्षिण भारत में आलू सन् 1880 में आया ।

पहले-पहल अंग्रेजों ने उत्तर के पहाड़ी इलाकों में आलू की खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कार्य किया, तत्पश्चात इसे मैदानी इलाकों में उगाया गया । सन् 1890 में सम्पूर्ण भारत के अनेक नगरों में इसे छोटे-छोटे प्लाटों में उगाया जाने लगा ।

इस प्रकार बीसवीं शताब्दी के पूर्वाहन (सन् 1900-1949) भारत में आलू के विकास का परिवर्तित समय माना जाता है । एक अप्रैल 1935 को इम्पीरियल (अब भारतीय) कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने हिमाचल के पहाड़ी क्षेत्रों में शिमला, कुफरी और कुमाऊ की पहाड़ियों के भुवाली क्षेत्र में तीन आलू बीज उत्पादन केंद्र खोले ।

उस समय में इन केन्द्रों को खोलने का मुख्य उद्देश्य रोग मुक्त व स्वस्थ्य बीज आलू का उत्पादन करना था । इसके लिए इन केन्द्रों से मुख्यतया रोगी पौधों की निराई, पिछेती झूलसा रोग पर नियंत्रण पाने के लिए फफुँदनाशकी की प्रयोग विधियों के अतिरिक्त सर्वेक्षण कार्य भी किया जाता रहा । इस प्रकार वर्तमान समय में आलू फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वार अनेक अनुसंधान संस्थान भी खोले गये हैं ।

वैश्विक परिदृश्य:

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आज आलू 150 देशों में 18.6 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में उगाया जा रहा है जिसमें विकासशील देशों का हिस्सा सन् 1961 में 15.1 प्रतिशत था जो 2005 में बढ्‌कर 51 प्रतिशत हो गया परन्तु इसके विपरित विकसित देशों का हिस्सा 84.9 प्रतिशत से घट कर 49 प्रतिशत हो गया ।

परिणामस्वरूप विश्व में कुल आलू का क्षेत्रफल 22.15 मिलियन हेक्टेयर से घट कर 18.6 मिलियन हेक्टेयर हो गया है । विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से चीन (4.56 मिलियन हेक्टेयर), संयुक्त रूस (3.17 मिलियन हेक्टेयर) तथा उक्रेन (1. 57 मिलियन हेक्टेयर) का है ।

संयुक्त रूस के विखंडन के बाद भारत का स्थान तीसरा हो गया । सन् 1961 में लगभग 81 प्रतिशत आलू का क्षेत्रफल यूरोप एवं अमेरिका में था जो 2005 में घट कर मात्र 46 प्रतिशत रह गया लेकिन इसके विपरित एशिया एवं अफ्रीका में आलू का क्षेत्रफल काफी बढ़ा ।

विगत 5 दशक में आलू का उत्पादन विकसित देशों से विकासशील देशों की तरफ हो गया । सन् 1961 में विकासशील देशों का हिस्सा विश्व उत्पादन का मात्र 10.5 प्रतिशत था जो आज 47 प्रतिशत हो गया । आलू का विश्व उत्पादन 1961 में 270.5 मिलियन टन था जो 2005 में बढ्‌कर 321 मिलियन टन हो गया ।

इस अवधि में विकसित देशों की उत्पादकता 12.88 टन/हेक्टेयर से बढ्‌कर 18.6 टन/हेक्टेयर ही गया जबकि उत्पादन 242.11 मिलियन टन से घटकर 169.8 मिलियन टन हो गया, क्योंकि क्षेत्रफल 18.8 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 9.5 मिलियन हेक्टेयर हो गया ।

इसके विपरित विकाशील देशों में क्षेत्रफल (3.35 मिलियन हेक्टेयर से बढ्‌कर 9.5 मिलियन हेक्टेयर) और उत्पादकता (8.49 टन/हेक्टेयर से बढ्‌कर 15.9 टन/हेक्टेयर) दोनों में वृद्धि के परिणामस्वरूप आलू का उत्पादन 2 मिलियन टन से बढ्‌कर 151.23 मिलियन टन हो गया ।

एशिया के तीन सर्वाधिक आलू उत्पादक देशों में चीन (69.20 मिलियन टन) भारत (23 मिलियन टन) और तुर्की (4.89 मिलियन टन) आते हैं । सर्वाधिक औसत उत्पादकता उत्तर मध्य अमेरिका (36.4 टन/हे०) और सबसे कम अफ्रीका (11.3 टन/हे०) की है ।

सार्क देशों में भारत की आलू की उत्पादकता (18.3 टन/हे०) सर्वाधिक है इसके बाद पाकिस्तान (17.1 टन/हे०), बांगला देश (13.6 टन/हे०) श्रीलंका (13.5 टन/हे०) नेपाल (11.1 टन/हे०) तथा भूटान (8.4 टन/हे०) है ।

राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक परिदृश्य:

वर्ष 2004-05 में भारत में आलू का कुल उत्पादन 23.6 मिलियन टन था जो 1.31 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल से प्राप्त हुआ । औसत उपज 17.9 टन/हे० था जबकि 1949-50 में 0.2345 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र से कुल उत्पादन 1 54 मिलियन टन प्राप्त हुआ । उस समय औसत उपज मात्र 6.58 टन/हे० था ।

आलू का क्षेत्रफल, उत्पादन एवं उत्पादकता क्रमश: 5.59, 15, 13 एवं 2.7 गुना बड़ा । भारत में आलू के 4 प्रमुख उत्पादक प्रदेश क्रमश: उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार एवं पंजाब है । इन चार प्रदेशों का हिस्सा कुल आलू के क्षेत्रफल का 74 प्रतिशत तथा कुल उत्पादन का 84 प्रतिशत है ।

विभिन्न प्रदेशों की आलू की उत्पादकता में भी भारी अंतर है, सिक्किम की उत्पादकता मात्र 4.21 टन/हे॰ है जबकि गुजरात की उत्पादकता 24.62 टन/हे॰ है । पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं पंजाब की उत्पादकता 20 टन/हे॰ से ज्यादा है, जबकि हरियाणा, त्रिपुरा एवं तमिलनाडु की उत्पादकता 15-20 टन/हे॰ के मध्य है ।

बिहार में आलू की औसत उत्पादकता मात्र 9.07 टन/हे॰ है । बिहार में आलू 37 जिलों में उगाया जाता है लेकिन प्रमुख आलू उत्पादक जिले नालंदा, पटना, सारण, समस्तीपुर, गोपालगंज, वैशाली, पूर्वी एवं पश्चिमी चम्पारण, सिवान एवं मुजफ्फपुर है ।

आलू का निर्यात:

विश्व के समस्त आलू उत्पादन का लगभग 8 फीसदी आलू हमारे देश में पैदा होता है । इस प्रकार चीन और रूस के बाद भारत का विश्व में आलू के उत्पादन में तीसरा स्थान है । एक अनुमान के अनुसार 1993-2010 की अवधि में उत्पादन एवं उत्पादकता के क्षेत्र में भारत की वृद्धि दर सर्वाधिक रही ।

उपरोक्त अवधि में विश्व में आलू की माँग में लगभग 40 प्रतिशत वृद्धि की सम्भावना है । वर्ष 2000 से 2005 तक के आकड़ों को देखने से पता चलता है कि भारत 146028 टन आलू का निर्यात 30 से ज्यादा देशों को किया । प्रमुख आयातक देश जैसे, नेपाल (47.3 प्रतिशत), श्रीलंका (32.9 प्रतिशत), मारीशस (16.5 प्रतिशत) और मलेशिया (3.5 प्रतिशत) है । भारत से 21665 टन आलू का बीज 33 से ज्यादा देशों को भेजा जाता है ।

प्रमुख आलू बीज आयातक देश नेपाल (44 प्रतिशत), श्रीलंका (25.4 प्रतिशत), मारीशस (15.6 प्रतिशत), मलेशिया (4.4 प्रतिशत), यूएई (2.5 प्रतिशत) और सिंगापुर (0.6 प्रतिशत) है । भारत से लगभग 3404 टन फ्रोजेन एवं परिष्कृत आलू 34 से ज्यादा देशों में भेजा जाता है ।

संभावनाएं:

आलू की खेती अधिक श्रम चाहने वाली फसल है । इसकी खेती को बढ़ावा देने से कृषि मजदूरों का बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन होगा । एक हेक्टेयर क्षेत्रफल पर आलू की खेती के लिए 250 दिन के मानव श्रम की आवश्यकता होती है । यूरोपीय देशों में आलू का उत्पादन गर्मी में किया जाता है ।

हमारे देश में 85 फीसदी आलू का उत्पादन ठंड के मौसम में किया जाता है । ठंड के मौसम में यूरोपीय देशों में आलू का निर्यात कर काफी विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकते हैं । भारत में विविध जलवायु होने के कारण देश के किसी न किसी भाग पर वर्ष भर आलू की खेती की जा सकती है जिससे वर्ष भर ताजे आलू की उपलब्धता बनाए रखी जा सकती है ।

देशी एवं विदेशी बाजार में आलू के प्रसंस्कृत उत्पादों की बढ़ती मांग को रखते हुए आलू के विभिन्न तरह के प्रसंस्कृत उत्पाद तैयार करने के लिए छोटे एवं बड़े स्तर पर खाद्य प्रसंस्करण की ईकाईयाँ स्थापित कर लोगों को रोजगार प्रदान किया जा सकता है ।

राष्ट्रीय कृषि आयोग ने सन् 2020 तक देश की 1.3 अरब जनसंख्या की आपूर्ति के लिए 490 लाख टन आलू उत्पादन का लक्ष्य रखा है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि आलू का उत्पादन एवं उत्पादकता दोनों में वृद्धि की जाय । उत्पादन एवं प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि प्रसंस्कृत उत्पादन तकनीक को बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाय ।

उत्पादन के हर पहलू जैसे क्षेत्र विशेष के लिए सुधरी किस्में, रोपाई, सिंचाई, उर्वरकों का प्रयोग समन्वित कीट एवं रोग प्रबंधन इत्यादि पर यथोचित ध्यान दिया जाय । उत्पादकों को अपने उत्पाद का उचित मूल्य मिले इसके लिए आवश्यक है कि आलू के भण्डारण एवं विपणन की ओर भी समुचित ध्यान दिया जाय । अपने देश में भण्डारण की क्षमता बहुत सीमित है । परिक्षण द्वारा इसके विभिन्न उत्पादों के निर्माण में गुणात्मक वृद्धि लाने की आवश्यकता है ।

जलवायु:

भारत में आलू की अधिकतम उपज 200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अच्छी मानी जाती है फिर भी विकसित देशों की तुलना में यह काफी कम है, जहाँ यह औसत उपज 400-500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पायी जाती है । आलू की अधिक उपज लेने के लिए यह जरूरी है कि सुधरी किस्में और उन्नत कृषि क्रियायें अपनाई जाय ।

भारत में आलू मुख्यतः शीतकालीन फसल है । आलू में अंकुरण और प्रारंम्भिक बढ़वार के लिए 22° से 24° सें॰ग्रे॰ तापमान की आवश्यकता होती है । कन्द बनने के लिए 18-20° सें॰ग्रे॰ तापमान उपयुक्त होता है । यह तापमान देश के मैदानी भागों में अक्टूबर से मार्च तक रहता है । यदि 20° सें॰ग्रे॰ से तापमान बढ़ता है तो आलू की उपज में गिरावट आती है तथा रात का तापमान 14° सें॰ग्रे॰ से कम होने पर भी उपज में गिरावट आती है ।

i. खेत का चयन:

आलू की खेती के लिए ऊँची व मध्यम उँचाई वाले खेत उपयुक्त होते हैं । अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्‌टी और दोमट मिट्‌टी जिसका पी॰एच॰ मान् 5.5 से 6.5 हो विशेष रूप में अच्छी मानी जाती है, क्योंकि आलू की फसल चिकनी व अधिक गीली जमीन और जल निकास की उचित व्यवस्था न होने पर अच्छी नहीं होती है ।

i. खेत की तैयारी:

मिट्‌टी के बनावट के अनुसार खेत की तीन-चार जुताई करनी चाहिए । जहाँ तक सम्भव हो खेत की पहली जुताई मिट्‌टी पलटने वाले हल सें करनी चाहिए और बाद की जुताई देशी हल से करना चाहिए । प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगायें जिससे मिट्‌टी भुरभूरी एवं समतल हो जाय ताकि मिट्‌टी के अन्दर कन्द का विकास होने में बाधा न पड़े । यदि भूमि में नमी की कमी मालूम हो तो जुताई करने के पहले एक हल्की सिंचाई करके ही जुताई करनी चाहिए ।

ii. बुआई का समय:

आलू की बुआई का समय इसकी किस्म और जलवायु पर निर्भर करता है । इसकी अच्छी उपज के लिए उपयुक्त समय 25 अक्तूबर से 10 नबम्बर तक है । जिन स्थानों में पाला पड़ने का भय नहीं रहता है वहाँ दिसम्बर के मध्य तक आलू की बुआई की जा सकती है । देर से बुआई करने पर उपज में भारी कमी आ जाती है ।

iii. प्रभेदों का चयन:

पिछेती झूलसा रोग एवं जड़ ग्रंथि (सूत्रकृमि) प्रतिरोधी किस्मों का चयन करना चाहिए । कुफरी ज्योति, कुफरी पुखराज, राजेन्द्र आलू-1, राजेन्द्र आलू-2, कुफरी चन्द्रमुखी, कुफरी आनन्द एवं कुफरी अरूण पिछेती झूलसा प्रतिरोधी किस्में है, जबकि कुफरी बादशाह और कुफरी लालीमा विषाणु रोग प्रतिरोधी किस्म है ।

इन किस्मों के चयन करने से पादप संरक्षण में अधिक व्यय नहीं करना पड़ता है । इसके अतिरिक्त आलू की कुफरी ज्योति, कुफरी लावकार व कुफरी चंन्द्रमुखी किस्मों का चयन प्रसंस्करण उद्योग के लिए उपयुक्त पाया गया है ।

iv. बीज का स्रोत:

आलू का बीज खरीदते समय इस बात का ध्यान रखा जाय कि बीज हमेशा किसी विश्वसनीय सात जैसे बीज उत्पादन एजेंसी, राज्य के कृषि व उद्यान विभाग, बिहार राज्य बीज निगम, राष्ट्रीय बीज निगम कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विज्ञान केन्द्र, अथवा क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान से ही खरीदा जाय । यदि आप स्वयं उत्पादित बीज का प्रयोग करते हो तो प्रत्येक 2-3 वर्षों के बाद आलू का बीज अवश्य ही बदल लिया जाय ।

v. बीज का आकार:

बीज का व्यास 2.5-4.0 सें॰मी॰ या वजन 25-40 ग्राम होना चाहिए । इससे कम या अधिक आकार या भार का बीज आर्थिक दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं है क्योंकि अधिक बड़े आलू बोने से अधिक व्यय होता है तथा कम आकार या भार का आलू बोने से उपज में कमी आती है ।

vi. बीज की तैयारी:

बीज आलुओं की बुआई से पहले अंकुरित करना आवश्यक है । ऐसा करने से फसलों का एक समान वृद्धि होती है और फसल जल्दी तैयार ही जाती है । बीज आलुओं को अंकुरित करने के लिए बोने से लगभग 15 दिन से एक महीना पहले बोरियों से निकाल कर ऐसे कमरें में रखें जहाँ धुंधली रोशनी आती हो, फर्श पर फैला दें या फिर टोकरियों या ट्रे ( 75 x 45 x 25 सें॰ मी॰) में रख ।

ध्यान रखें कि जिस कमरे में बीज आलू रखा जाय वह हवादार हों । ऐसा करने से बीज आलूओं का अंकुरण जल्दी होता है और उन पर मोटे हरे रंग के लगभग 1 सें॰ मी॰ आँखे निकलते है । जिससे न सिर्फ पौधों की बढ़वार एक जैसी व अच्छी तरह से होती है बल्कि प्रति पौधा तना अधिक निकलते है और पौधे जड़ जल्दी पकड़ते है तथा उनमें कंद बनने की प्रक्रिया भी जल्दी शुरू हो जाती है ।

आँखों वाले बीजों से पैदावार अच्छी होती है और बीज आकार के कंद भी ज्यादा मिलते है । अंकुरित करने के लिए रखे गए बीज आलूओं का हर दूसरे दिन निरीक्षण करना चाहिए और सड़े-गले एवं कटे आलूओं को छांट कर अलग कर देना चाहिए ।

ऐसा नहीं करने से सड़े-गले आलू अपने आस-पास के आलूओं को भी सड़ा देते हैं । जिन आलूओं में आँखों का रंग दूसरी तरह लगता हो तो उन्हें निकाल देना चाहिए । ऐसे आलू दूसरी किस्म के ही सकते हैं । जिन बीज के आलू में पतले व कमजोर आँखें निकलें ही तो उनकी भी निकाल दें क्योंकि वह बीज बीमारी से ग्रसित हो सकते है ।

अंकुरित बीज आलूओं को खत तक ले जाने के लिए विशेष सावधानी की जरूरत है । इन बीज आलूओं की खेत तक ले जाने के लिए विशेष रूप से बनी लकड़ी की ट्रे या टोकरियों का इस्तमाल करना चाहिए ताकि आँखे टुट न पाय । अगर आँखें टुट जाते है तो बीज आलू से पौधा निकलने में काफी समय लग जाता है और बीज आलू अंकुरित करने का फायदा नहीं होता है ।

vii. बीज की मात्रा:

प्राय: आलू के बीज की मात्रा 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है । यह मात्रा आलू के किस्म, आकार, बोने की दूरी और भूमि की उर्वराशक्ति पर निर्भर करती है । अगेती फसल के लिए सम्पूर्ण आलू बोते हैं, टुकड़े नहीं काटे जाते क्योंकि उस समय भूमि में नमी अधिक होती है और कट टुकड़ों के सड़ने की सम्भावना रहती है । यदि बड़ आलू हो तो उन्हें काटकर लगाते है लेकिन प्रत्येक कटे टुकड़ों का वजन 25-40 ग्राम से कम नहीं होना चाहिए और उनमें कम से कम 2-3 स्वस्थ्य आँखें ही ।

आलू के कंदों को काटने के बाद 24 घण्टे के अन्दर बुआई कर देना चाहिए । आलू बीज के कट हुए टुकड़े का प्रयोग दर से बोई जानेवाली फसल में करते है, क्योंकि उस समय उनके सड़ने की सम्भावना कम रहती है । इसके अतिरिक्त काटने से आलुओं की सुसुप्तावस्था भी समाप्त हो जाती है और अंकुरण शीघ्र होने लगता है ।

आलू में जब अंकुर निकल जाय या निकलना शुरू कर दें तभी उनकी बुआई करनी चाहिए । आलू के टुकड़े कर बोने पर 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर बीज लगता है जबकि पूरे आलू बोने पर 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर लगता है ।

बुआई के समय बीजोपचार:

i. आलू के सम्पूर्ण कन्द या कटे कन्द के टुकड़े को सड़ने से बचाने के लिए या अन्य फफूँदजनित बीमारियों से बचाने के लिए कारबेन्ड़ाजीम 1 ग्राम या मेंकोजब या कार्बोक्सीन 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से तैयार घोल में 15-20 मिनट तक डुबोकर उपचारित करने के 24 घण्टे के अन्दर बोआई कर लेना चाहिए । एक बार तैयार घोल में 10-15 बार तक आलू को उपचारित कर सकते है ।

ii. कन्दीं की सुसुप्तावस्था तोड़ने के लिए सम्पूर्ण कन्द या कन्द के टुकड़ों को 1 प्रतिशत जिब्रेलिक अम्ल के घोल में बोने से एक घाटा पहले लगभग 50-60 मिनट तक उपचारित करना चाहिए । एक बार का तैयार किया गया घोल में 7-8 बार तक कन्दों को उपचारित करने में प्रयोग किया जा सकता है । इस प्रकार से अंकुरण शीघ्र एवं स्वस्थ्य होता है ।

भण्डारण के समय बीजोपचार:

आलू बीज के लिए भण्डारण से पूर्व कंदों की साफ पानी से धो लेना चाहिए और फिर 2 प्रतिशत बोरिक अम्ल के घोल में 15 मिनट तक डुबाकर उपचारित कर लेना चाहिए । उपचार के समय तापमान 30° सें॰ग्रे॰ से ज्यादा नहीं रहना चाहिए नहीं तो आलू सड़ने की सम्भावना बनी रहती है ।

इसके बाद उपचारित कदा को छायादार स्थान में फैला देना चाहिए साथ ही शीत भण्डार में भेजने के लिए तथा बेचने के लिए बोरों पर रासायनिक उपचार का लेबल लगा दें । इन आलूओं का प्रयोग खाने के लिए कदापि न करें ।

i. बुआई की दूरी:

प्राय: कतार से कतार 50-60 सें॰मी॰ तथा पौधा से पौधा 15-20 सें॰मी॰ रखते हैं । पिछेती किस्मों में वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है अतः अन्तर अधिक रखा जाता है, जैसे कतार से कतार 60 सें॰मी॰ एवं पौधा से पौधा 25 सें॰मी॰ ।

ii. आलू बोने की गहराई:

आलू बोने की गहराई कन्द बीज के आकार, भूमि की किस्म एवं जलवायु पर निर्भर करती है । बलूई भूमि में गहराई 10-15 सें॰मी॰ और औसत किस्म की भूमि (दोमट) में गहराई 8-10 सें॰मी॰ रखनी चाहिए । कम गहराई पर बोने से आलू सूख जाते है और अधिक गहराई पर बोने से नमी की अधिकता के कारण आलू सड़ जाते है । दोनों ही दशा में अंकुरण ठीक नहीं होता है ।

बुआई की विधि:

आलू बोने की कई विधियां प्रचलित है जो भूमि की किस्म, नमी की मात्रा, यंत्रों की उपलब्धता एवं क्षेत्रफल आदि कारकों पर निर्भर करता है ।

आलू बोने की निम्नलिखित विधियां है:

a. समतल भूमि में आलू बोना:

यह विधि प्रायः हल्की बलूई भूमि में प्रयोग की जाती । रस्सी के सहारे अनुशंसित दूरी पर लाइनें बना ली जाती है और देशी हल या कल्टीवेटर या कुदाल से कूँड़े (नाली) बना ली जाती है । इन्हीं कूड़ों में अनुशंसित दूरी पर आलू बो दिये जाते है । बोने के पश्चात् आलूओं को मिट्‌टी से ढक दिया जाता है । यह क्रिया हाथों द्वारा या पाटा चलाकर किया जाता है ।

b. समतल भूमि में आलू बोकर मिट्‌टी चढ़ाना:

इस विधि के अर्न्तगत खेत में 60 सें॰ मी॰ की दूरी पर लाइनें बना ली जाती है तथा इन बनी हुई लाइनों पर 5 सें॰ मी॰ गहरी नालीयां बनाकर इनमें आलू के बीज को 15-20 सें॰ मी॰ की दूरी पर बो दिये जाते हैं और पुन: मिट्‌टी चढ़ा दी जाती है ।

c. मेड़ों पर आलू की बुआई:

इस विधि में मेंड़ बनाने के लिए कुदाल से या बड़े पैमाने पर यंत्रों (मेंड़ बनाने वाले) की सहायता से निश्चित दुरी पर मेंड़ बना ली जाती है । मेंडो की उँचाई प्रारंम्भ में 15 सें॰ मी॰ रखी जाती है, तत्पश्चात् 15-25 सें॰ मी॰ की दूरी पर तथा 8–10 सें॰ मी॰ की गहराई पर आलू के बीजों को खुर्पी की सहायता से मेंड़ों पर गाड़ दिया जाता है । अधिक नम व भारी भूमि के लिए यह विधि अच्छी है क्योंकि भेड़ों पर बौने से नमी कम हो जाती है और मिट्‌टी वातावरण में अधिक खुली रहती है ।

iii. मिट्टी चढ़ाना:

यदि आलू के खेती में किसान मिट्‌टी चढ़ाते है तो बुआई के लगभग 25-30 दिन बाद एक निकाई-गुड़ाई करके फसल में मिट्‌टी चढ़ा दें । यदि किसान भाई बुआई के समय पूरी मिट्‌टी पेड़ों के उपर रख देते हैं तो बाद में मिट्‌टी चढ़ाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । यदि फिर कंद खुल रह गये हो तो मिट्‌टी चढ़ाकर कंद को पूर्णरूप से ढक देना चाहिए अन्यथा आलू के कन्द हरे हो सकते हैं ।

iv. निकाई-गुड़ाई:

प्राय: प्रत्येक सिंचाई के पश्चात् निकाई व गुड़ाई की जाती है । इसका उद्देश्य खरपतवार को नष्ट करना, नमी को सुरक्षित रखना, मिट्टी की भुरभरी और रंध्रमय बनाना तथा आलूओं की वृद्धि एवं विकास में शिघ्रता लाना है ।

v. खरपतवार नियंत्रण:

खरपतवार नियंत्रण हेतु रासायनिक खरपतवारनाशी का भी प्रयोग सुगमता पूर्वक कर सकतै है । सिमेजिन (5 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) 0.5 कि॰ग्रा॰/हे॰ या स्टाम्प 3.3 लीटर मात्रा 1000 लीटर पानी में घोल के रूप में छिड़काव आलू बोने के तुरन्त बाद (2-3 दिन बाद) करना चाहिए ।

बोने से पूर्व लास्सी अमोट्रान अथवा एष्टम 2 कि॰ग्रा॰/हे॰ 1000 लीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चहिए और हैण्ड हो आदि से मिट्‌टी में मीला देना चहिए । मोथा और दूब पर प्रभाव नहीं होता है ।

vi. खाद एवं उर्वरक:

बुआई के 3-4 सप्ताह पूर्व 200-250 क्विंटल सड़ी गौबर की खाद या 40-50 क्विंटल वर्मीकम्पीस्ट प्रति हैक्टेयर खेत में डालकर जुताई के समय अच्छी तरह मिला देना चहिए । इसके अलावा खेत की उर्वरता के अनुसार 120-150 कि॰ग्रा॰ नत्रजन, 60 कि॰ग्रा॰ फास्फोरस तथा 100-120 कि॰ग्रा॰ पोटाश प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है ।

परन्तु यदि आप तीन साल तक लगातार वर्मीकम्पोस्ट खेत में डालते हैं तो प्रति वर्ष 25 प्रतिशत रासायनिक उर्वरक की मात्रा को कम करते जा सकते है । इस तरह चौथ एवं पाँचवे साल से खत में रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं पड़ेगी और उपज भी पूरा प्राप्त होगा । साथ ही आलू की पैदावार पूरी तरह जैविक होने लगेगा ।

नेत्रजन की दो बार समान मात्रा में आधा-आधा करके, पहला खेत की तैयारी करते समय में दूसरा मिट्‌टी चढ़ाने के समय देना चाहिए । फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय ही मिट्‌टी में डालना चाहिए ।

vii. सिंचाई:

बुआई के तुरंत बाद पहला सिंचाई करनी चाहिए । इससे अंकुरण काफी अच्छा होता है । साधारणतः सिंचाई 10-15 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए । सिंचाई के समय आलू की मेंडे 2 तिहाई से ज्यादा नहीं डुबनी चाहिए।

viii. लत्तर की कटाई:

आलू की खुदाई के लगभग 7-10 दिन पहले लत्तर काट कर हटा देना चाहिए । ऐसा करने से आलू का छिलका सक्त और मोटा हो जाता है । बीज वाले आलू के लत्तर की कटाई आवश्यक हैं, क्योंकि यह प्रक्रिया वायरस बीमारी को केंद्र में जाने से रोकता है । जब 5-10 लाही प्रति 100 पत्ती दिखाई पड़े तो लत्तर को जल्द काट देना चाहिए ।

यह अवस्था समान्यतः 10-15 जनवरी के आसपास आती है । पौधों के लत्तर की भूमी की सतह से बिल्कुल सटाकर काटना चाहिए । जिससे की पौधों का कोई भी हरा भाग बाहर न रहें । ग्रामोक्सोन नामक खरपतवारनाशक दवा की 2.5 ली॰ मात्रा 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर 4-7 दिन के अन्तराल पर दो छिड़काव करने से भी लत्तर नष्ट हो जाता है ।

निरीक्षण:

फसल का निरीक्षण समान्यतः सप्ताह में एक बार जरूर करना चाहिए । सभी बीमार पौधे जिनमें धब्बे या चित्तीदार छोटे आकार की कम गहरी हरी पत्तियां या मोड़क पत्तियां हो उन्हे आलू सहित उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए ।

ix. आलू की खुदाई:

किसान कच्चे और पके दोनों ही तरह के आलू खोदते हैं । कच्चे आलू बोआई के लगभग 70 दिन बाद खोदे जा सकते हैं । इसके लिए कुफरी चन्द्रमुखी और कुफरी अशोका उत्तम किस्में है । किसान आलू खोदकर शीघ्र बाजार में बेच देते हैं और उसी खेत में कोई दूसरी फसल लगाते हैं ।

भण्डारण के लिए आलू हमेशा परिपक्व होने के बाद खुदाई करते हैं । इसके लिए जब आलू परिपक्व हो जाय यानी पत्तियां पीली पड़ जाय तो खुदाई के 10 दिन पहले सिंचाई बन्द कर देना चाहिए जिससे छिलका सख्त हो जाय । साथ-साथ आलू के उपर का तना (लत्तर) भी काट देना चाहिए ।

इससे कोई लाही भी नहीं लगते और छिलका भी सख्त होने में आसानी रहती है । मुख्य रूप से आलू की खुदाई कुदाल से करते हैं । कभी-कभी किसान बैलों से देशी हल चलाकर खुदाई कर लेते है ।

लेकिन इसमें आलू की अधिक मात्रा खेत में छुट जाता है । आजकल बड़े किसान ट्रेक्टर में आलू खोदने वाला यन्त्र लगाकर आलू की खुदाई करते है । बैलों से खींचने वाला खुदाई के यंत्र से भी आलू की खुदाई की जा सकती है ।

खुदाई के पश्चात आलू को 3-4 दिन के लिए किसी ठंडे और छायादार स्थान पर एक मीटर ऊंची ढेर बनाकर रख देना चाहिए । जिससे की छिलके सख्त और मजबूत हो जाय तथा कंदों पर लगी मिट्‌टी भी साफ हो जाय ।

x. आलू का श्रेणीकरण:

आलू खोदने के पश्चात् आलूओं के आकार, रूप-रंग के अनुसार उनका श्रेणीकरण करना चाहिए ताकि अच्छा मूल्य प्राप्त किया जा सके ।

(क) श्रेणी – 20 ग्राम से कम ।

(ख) श्रेणी – 20-30 ग्राम ।

(ग) श्रेणी – 30-50 ग्राम ।

(घ) श्रेणी – 50 ग्राम से अधिक ।

उपज:

आलू की औसत उपज 200 से 250 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है । अच्छी तरह सस्य प्रबन्ध करने पर आलू की 300 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज ली जा सकती है ।

xi. आलू का भण्डारण:

आलू का भण्डारण कच्चे फर्श के उपर आलू की एक पतली सतह विछाकर लगभग 3-4 महीने के लिए कर सकते हैं । किसान मचान बनाकर भी आलू को भण्डारित करते है ।

समान्यतया आलू का भण्डारण शीतगृह में 2-4 डिग्री सेटीग्रेड तापक्रम और 90-95 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता पर करते हैं । लेकिन ऐसे आलू जिनका उपयोग प्रसंस्करण में करना हो तो आलू का भण्डारण 8-12 डिग्री सेन्टीग्रेट तापक्रम पर करना चाहिए ।

आलू का विशिष्ट गुण:

(क) आलू की सुसुप्तावस्था:

आलू की सुसुप्तावस्था एक प्राकृतिक गुण है । इस गुण के ही कारण खेत में आलू अंकुरित नहीं हो पाते हैं तथा उन्हें गोदामों में भी अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है । किन्तु इसके बिल्कुल विपरीत, बोने के लिए आलू का यह गुण बाधक है ।

यदि सुसुप्तावस्था के बीच बोये जाते हैं तो अंकुरण ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है । फलस्वरूप खेत में खाली स्थान अधिक रह जाते हैं और उपज घट जाती है । इसलिए ऐसी परिस्थिति में सुसुप्तावस्था को दूर करना आवश्यक हो जाता है ।

सुसुप्तावस्था को दूर करना:

इस कार्य के लिए निम्नलिखित तरीके है:

1. आलू के कदा को खुली हवा में रखना चाहिए ।

2. यांत्रिक विधि- आलू के कंद को छोटे टुकड़ों या आधा भाग में काट देना ।

3. संम्पूर्ण कंद को या कंद के टुकड़े की एक प्रतिशत थायोयूरिया, या क्लारोडीन या जिब्रेलिक अम्ल के 1 प्रतिशत घोल में बोने से एक घंटा पहले, 50-60 मिनट तक उपचारित करना चाहिए । एक बार तैयार किया गया घोल में 7-8 बार तक कन्दों को उपचारित किया जा सकता है । इस प्रकार से अंकुरण शीघ्र एवं अच्छा होता है ।

सुसुप्तावस्था को बढ़ाना:

आलू के कंदों को गोदामों में रखने की दृष्टि से सुसुप्तावस्था बढ़ाना लाभप्रद है । क्योंकि आलू अधिक समय तक बिना अंकुरित हुए रखा जा सकता है ।

आलू के सुसुप्तावस्था बढ़ाने में निम्नलिखित रासायन उपयोगी है:

एजरमाइन, रेस्पोसीन, ट्यूबराट, वेल्भीटेन्ट, मेथिल इस्टर । इनमें से मेथिल इस्टर और एजरमाइन रसायन साधारण गोदामों के लिए बहुत उपयुक्त है ।

प्रयोग विधि:

मेथिल इस्टर 50 मि॰ग्रा॰ प्रति कि॰ग्रा॰ आलू की दर से प्रयोग किया जाता है । जबकि अन्य रसायन 1 – 2.5 कि॰ग्रा॰ प्रति टन आलू की मात्रा में प्रयोग किया जाता है ।

(ख) आलू में हरापन:

आलू जब सूर्य के प्रकाश के संपर्क में आता है तो उसमें पर्णहरित बनता है और इसी के साथ हानिकारक एल्केलायड जैसे सोलैनीन और चेकौनीन का संश्लेषण ही जाता है । ये एल्केलायड मनुष्य के लिए बहुत ही हानिकारक है ज्यादा हरा आलू का प्रयोग करने से कैन्सर जैसी भयानक बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है ।

इसलिए यदि कोई आलू मिट्‌टी के उपर दिखाई पड़े तो उस मिट्‌टी से तुरंत ढक देना चाहिए । खुदाई के बाद भी यदि आलू सूर्य के प्रकाश के सम्पर्क में आएगा तब भी आलू में हरापन आ जाएगा, इसलिए भण्डारण में भी सूरी की रोशनी नहीं पडनी चाहिए ।

सिंचाई जल प्रबंधन:

आलू उत्पादन में जल का सही प्रबन्धन एक महत्वपूर्ण घटक हे । पानी उर्वरकों के लिए विलय का कार्य करता है और पानी के माध्यम से ही पोषक तत्व पूरे पौधों में पहुँचता है । भरपुर फसल उत्पादन के लिए समान्यत: 500 से 600 मि॰ ली॰ पानी की आवश्यकता पड़ती है ।

इस पानी का स्रोत मिट्‌टी में नमी भूमिगत जल वर्षा ओंस या सिंचाई कुछ भी हो सकता है । पानी की आवश्यकता में वाष्प बनकर जमीन व पौधों की पत्तियों से उड़ने वाला पानी भूमि के अन्दर पौधों की जड़ों को मिलने वाला पानी तथा वर्षा या सिंचाई द्वारा दिया गया पानी जो कि खेत से बाहर बह जाता है शामिल है ।

आलू की खेती में प्रचलित तरीकों द्वारा पानी देने से पानी के साथ-साथ उर्वरकों का भी भूमि के अन्दर रिसाव होते रहता है, जिससे पानी एवं उर्वरकों की उपयोग दक्षता बहुत कम हो जाती है । आलू में जल की मात्रा 75 – 80 प्रतिशत तक होती है जिसके फलस्वरूप भण्डारण के समय में या सूखी मिट्‌टी में बुआई करने पर आलू में अंकुरण देर से होता है । इसलिए आलू की बेहतर उत्पादन के लिए वैज्ञानिकों द्वारा नवनीतम सिंचाई प्रणाली विकसित की गई है ।

i. सामान्य सिंचाई प्रणाली/परम्परागत सिंचाई प्रणाली:

एक समान अंकुरण के लिए बुआई से पहले (पाटा चलाने के बाद) एक हल्की सिंचाई करना चाहिए । यदि ऐसा नहीं किया गया हो तो आलू बोने के लगभग 7 दिनों के बाद सिंचाई कर देनी चाहिए ताकि मिट्‌टी में उर्वरक अच्छी तरह पूल जाय और पौधे शीघ्र निकल जाय ।

यह सिंचाई हल्की होनी चाहिए और ध्यान रखना चाहिए की मेंड़ों का आधा भाग (1/2 उँचाई तक) से ज्यादा भाग न भरने पाय । पहली सिंचाई के बाद नालियों में इतना पानी रहे जिससे पेड़ों का दो तिहाई (2/3 ऊँचाई तक) हिस्सा ही पानी से डुबा रहे । साधारणत: मिट्‌टी में नमी रहना चाहिए ।

परन्तु इतनी अधिक सिंचाई भी न किया जाय कि जमीन काफी गीली हो जाय, बल्कि इस बात का ध्यान रहे कि सिंचाई के पानी से आलू की मेंड़ कभी न डुबने पाये अन्यथा पैदावार पर बुरा असर पड़ सकता है । सिंचाई द्वारा पानी या वर्षा जल अधिक हो जाय तो खेत से निकाल देना चाहिए ।

सामान्यतः हल्की मिट्‌टी एवं भारी मिट्‌टी में क्रमश: 8–10 एवं 12-15 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है । दोपहर से पहले यदि आलू की फसल मुरझाई हुई लगे तो समझना चाहिए कि तुरंत सिंचाई की आवश्यकता है । इस प्रकार फसल उत्पादन अवधि में जलवायु मिट्‌टी की संरचना तथा फसल किस्म विशेष के अनुसार सामान्यतः 3-4 सिंचाई की आवश्यकता होती है ।

लत्तर काटने से 10 दिन पहले सिंचाई बन्द कर देना चाहिए ताकि फसल एक साथ तैयार हो सके और साथ-साथ आलू का छिलका भी सख्त हो जाय । लत्तर काटने के बाद सिंचाई नहीं करना चाहिए अन्यथा आलू का कंद सड़ सकता है ।

ii. छिड़काव (फौब्बारा) सिंचाई प्रणाली:

इस प्रणाली में पानी फौब्बारे के रूप में वर्षा जल की तरह भूमि पर गिराया जाता है । पानी सूक्ष्म छिद्र या नॉजल के माध्यम से उपयुक्त दबाब देकर फौब्बारे के रूप में गिराया जाता है । इस प्रणाली में पानी की मात्रा भूमि की अन्त शरण दर पर निर्भर करती है तथा मिट्‌टी की नमी सामान्यतः क्षेत्र क्षमता के आस-पास रखी जाती है ।

इस प्रणाली का उपयोग मुख्यत: सभी फसलों एवं सभी प्रकार की मिट्‌टी के लिए किया जाता है भारी मिट्‌टी जिनका अन्त:शरण दर 4 मि॰मी॰/घंटा से कम हो के लिए यह प्रणाली लाभकारी नहीं है । परन्तु यह प्रणाली बलूई, बलूई दोमट एवं असमान भौगोलिक क्षेत्र (ऊँची-नीची जमीन) के लिए अधिक उपयुक्त है ।

छिड़काव विधि से सिंचाई करके शरद् ऋतु में आलू व मटर जैसे फसलों में पाले के प्रभाव को कम किया जा सकता है । छिड़काव द्वारा सिंचाई में घुलनशील उर्वरकों कीटनाशकों व फफूँदनाशकों आदि का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है । इस प्रणाली का प्रयोग हवा चलने की दिशा में सीमित हो जाता है क्योंकि इससे पानी का एक समान वितरण सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है ।

iii. टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली:

आलू की खेती में निरंतर व अनुकूलित पानी (4-5 बार) आवश्यक है । साधारण प्रचलित प्रणाली (विधि) से पानी देने से सिंचाई की उपयोग क्षमता 50 प्रतिशत तक ही रहती है जो कि बहुत कम है । इसलिए वैज्ञानिकों द्वारा ड्रिप (टपकाव) विधि द्वारा कम पानी में उर्वरकों का उपयोग कर आलू की अधिक उत्पादन प्राप्त करने में सफलता पाई है ।

इससे 30 प्रतिशत तक पानी की बचत के साथ-साथ उत्पादन में भी 10 प्रतिशत बढ़ोतरी पाई गई है । यदि उत्पादन दर को एक समान रखा जाय तो फौब्बारा विधि या टपक विधि के अपनाने से नाइट्रोजन खाद के उपयोग में 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की बचत हो सकती है ।

टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली से लगभग 40 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत की जा सकती है । सिंचाई की यह विधि बलूई, दोमट या चिकनी मिट्‌टी व ऊंची-नीची जमीन में उपयोग की जा सकती है । यह प्रणाली सिंचाई के समुचित उपयोग का एक ऐसा नया तरीका है जिससे कि पानी बूँद-बूँद कर पौधों की जड़ों तक पहुँचाया जाता है । इससे पानी व रासायनिक खादों का रिसाव न्यूनतम होता है ।

सिंचाई की इस विधि में अन्य सिंचाई विधियों की तुलना में कम पानी खर्च होता है, जबकि फसल की पैदावार व गुणवत्ता में अधिक वृद्धि होती है । इस विधि द्वारा 60-80 प्रतिशत तक श्रम की बचत की जा सकती है तथा खारे पानी का भी उपयोग किया जा सकता है ।

अनुसंधानों से पता चला है कि यदि उत्पादन को एक समान रखा जाए, तो टपक विधि से 50 प्रतिशत नाइट्रोजन, फास्पोरस व पोटाश उर्वरकों के उपयोग में बचत की जा सकती है । टपक विधि से खरपतवारों की समस्या से भी छुटकारा पाया जा सकता है ।

iv. आलू की अन्त: फसलों में सिंचाई जल प्रबन्धन:

आलू फसलों के साथ मूली, गाजर, गेहूँ, मक्का, सौंफ व प्याज की अन्तरवर्ती खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है । इस पद्धति में इन फसलों को अलग से पानी देने की आवश्यकता नहीं होती है । हमेशा हल्की सिंचाई करना चहिए, जिससे पानी खेत में न रूकने पाये, ऐसा करने से इन फसलों के लिए लाभदायक रहता है । सिंचाई का पानी ही रस बनकर आलू के कंदों में जमा होता है जिससे आलू का आकार एवं वजन बढ़ता है ।

नमी कम होने पर पौधों का विकास रूक जाता है तथा कंद का आकार छोटा हो जाता है । आलू उत्पादक खेत की मिट्‌टी के आधार पर अपने अनुभव का भी ध्यान रखें । जल जमाव अधिक देर तक न रहे । इस प्रकार की उपज का अन्तर सिंचाई की एक कला भी है ।

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