तोरई कैसे खेती करें | How to Cultivate Ridge Gourd (तोरई)? in Hindi.
तोरई भारत की एक अत्यन्त लोकप्रिय सब्जी है । यह दो प्रकार की होती है यथा-घिया तोरई और काली तोरई । दोनों प्रकार की तोरई की स्वादिष्ट सब्जी बनती है । तोरई की सब्जी अत्यन्त हल्की मानी जाती है जो कि रोगियों के लिए सुपाच्य होती है । इसकी सब्जी स्वादिष्ट एवं पौष्टिक होती है । तोरई की सब्जी शीत एवं पित्तनाशक होती है । तोरई को खेतों एवं गृहवाटिका में उगाया जाता है ।
घिया तोरई के बीज से प्राप्त तेल चमड़ी के रोगों में काम आता है और इसकी जड़ें एक दस्तावर के रूप में उपयोग की जाती हैं । काली तोरई का रस मधुमेह उपचार में लाभप्रद बताया जाता है । औद्योगिक क्षेत्रों में पके फलों को सुखाने के बाद जूतों के सोल एवं फिल्टर बनाये जाते हैं । सुखाने के बाद फल को स्पंज की भांति बर्तन साफ करने व स्नान करते समय शरीर को रगड़ने के काम में लाते है ।
जलवायु:
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घिया तोरई को उगाने के लिए उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु की आवश्यकता होती है । गर्म आर्द्र परिस्थितियाँ इसके सफल उत्पादन में सहायक मानी गयी हैं । जबकि झिगलो या काली तोरई के लिए गर्म जलवायु सर्वोत्तम मानी गयी है । इसके उत्पादन हेतु अनुकूलतम तापमान 25-30० से॰ ग्रेड माना गया है । फल
फसल की अगेती बढ़वार के समय 38० से॰ ग्रेड से अधिक तापमान नर पुष्पों के उत्पादन के लिये उपयुक्त माना गया है । जिसके परिणामस्वरूप उपज में भारी कमी हो जाती है । यदि तापमान बहुत कम हो जाता है तो उसके कारण भी लताओं की बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है । भारत में इसकी खेती के लिए सर्वोत्तम क्षेत्र केरल, उड़ीसा, बंगाल कर्नाटक तमिलनाडु है । उत्तर प्रदेश में भी इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है ।
भूमि एवं उसकी तैयारी:
दोनों प्रकार की तराइयों को विभिन्न प्रकार की मृदाओं में उगाया जा सकता है परन्तु इनकी भरपूर उपज लेने हेतु उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट मृदा, जिसमें जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा में हो सर्वोत्तम मानी गयी है। खेत की तैयारी तोरई बोने के ढंग पर निर्भर करती है ।
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यदि थालों में बीज की बोआई करनी है तो खेत में घास इत्यादि निकालने हेतु एक दो जुताई करनी चाहिए । बाद में थालों की भूमि में 15-20 सेमी की गहरी खुदाई कर लेनी चाहिए । यदि बीज की बोआई नालियों में करनी है तो समस्त खेत की एक समान जुताई करनी चाहिए । जिसके लिए 3-4 जुताई पर्याप्त रहती है ।
खाद एवं उर्वरक:
तोरई की भरपूर उपज लेने हेतु खाद और उर्वरकों का संतुलित मात्रा में और सही समय पर उपयोग नितान्त आवश्यक है । खेत तैयार करते समय 150-200 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद बोआई के 30 दिन पहले मिट्टी में मिला देना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त सामान्य उर्वरता वाली भूमि में 60 किलो नाइट्रोजन 80 किलो फॉस्फोरस और 60 किलो पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए । नाइट्रोजन की 173 मात्रा, फॉस्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा बीज बोने से पूर्व खेत में डाल देनी चाहिए ।
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नाइट्रोजन की शेष मात्रा को दो बराबर भागों में बाटकर दो बार में पौधों में 4-5 पत्तियाँ निकल आने पर और फूल निकलते समय पौधों के चारों ओर उपरिवेशन के रूप में देनी चाहिए । तोरई की फसल के लिए इस वर्ग की अन्य फसलों की तुलना में अधिक खाद एवं उर्वरकों की आवश्यकता होती है ।
इसलिए खेत की तैयारी के समय 25 टन गोबर की खाद और बाद में फल आने के समय पट्टियों में 80 किलो अमोनियम सल्फेट देने की सिफारिश की गई है । खाद एवं उर्वरकों को मिट्टी में डालने के उपरान्त भली-भांति मिला देना चाहिए ताकि पौधे उसका अधिकतम उपयोग करके अच्छी उपज दे सकें ।
बोआई:
बोने का समय:
तोरई की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उसे मैदानी क्षेत्रों या पर्वतीय क्षेत्रों में उगाया जा रहा है । तोरई की मैदानी क्षेत्रों में बोआई वर्ष में दो बार की जाती है यथा-जायद और खरीफ । जायद वाली फसल की बोआई दिसम्बर से फरवरी तक की जाती है ।
खरीफ वाली फसल हेतु बीजों को बोआई 15 जून से 15 जुलाई तक की जाती है । अगेती फसल जिसमें बीज दिसम्बर में बोये जाते हैं उनके लिए विशेष सावधानी अपनानी पड़ती है पर्वतीय क्षेत्रों में तोरई की बोआई अप्रैल से जून तक की जाती है ।
प्रजातियां:
पूसा चिकनी:
इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा विकसित किया गया है । यह किस्म एक अगेती प्रकार की है, जिसमें बुआई के 45 दिनों बाद फल आने प्रारम्भ हो जाते हैं । इस किस्म के फल लम्बे, चिकने, गहरे हरे रंग के एवं बेलनाकार होते हैं । इस किस्म के पौधे की एक बेल पर 15-20 फल लगते हैं । यह किस्म गर्मी एवं बरसात दोनों मौसमों के लिए उपयुक्त होती है ।
कल्याणपुर चिकनी:
इस किस्म को चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय के सब्जी अनुसंधान केन्द्र, कल्याणपुर द्वारा विकसित किया गया है । इसकी बेल मध्यम बढवार की होती हैं एवं फल अपेक्षाकृत पतले होते हैं, इसके फलो पर हल्की धारियाँ होती हैं । बेलो पर इसके फल ज्यादा दिन तक रहने के बाद भी मुलायम बने रहते हैं ।
राजेन्द्र नेनुआ-1:
इस किस्म की लताओं पर मादा फूल बारहवीं या तेरहवीं गाठों पर आते हैं । इसके फल पतले लम्बे सफेद रग के और 25-30 से॰मी॰ लम्बे होते हैं । इस किस्म की सब्जी बहुत मुलायम एवं स्वादिष्ट होती है । इनके बीजों का रंग हल्का काला होता है । यह किस्म दोनों मौसमों में उगाने के लिए उपयुक्त है तथा प्रति हैक्टेयर 125-150 क्विंटल उपज दे देती है ।
राजेन्द्र आशीष:
इस किस्म की लताओं पर प्रथम मादा पुष्प सोलहवीं या सतरहवीं गाठ पर आते हैं । जाड़ों में सर्दी पड़ने के कारण मादा फूलों की संख्या में वृद्धि हो जाती है, परंतु फलों का आकार धीरे-धीरे घटने लगता है । इस किस्म के फल गहरे हरे रंग के और 12-15 सेमी॰ लम्बे एवं 4-5 सेमी॰ मोटे होते हैं ।
स्वर्ण मंजरी:
इस किस्म का विकास केन्द्रीय बागवानी परीक्षण केन्द्र, रांची द्वारा किया गया है । यह किस्म चूर्णी एवं मृदु रोमिल फफूँदी रोग की प्रतिरोधी किस्म है ।
आरा-165:
इस किस्म के फल हरे, चिकने होते हैं । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 110 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
आरा तोरई या काली तोरई या झिंगली:
पूसा रसदार:
इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा किया गया है । यह एक अगेती प्रकार की किस्म है एवं इसमें बुआई के लगभग 60 दिन बाद फल आने लगते हैं । इसके फल हल्के हरे पीले रग के होते हैं । फल मुदगल आकार के लम्बे होते हैं, फल के ऊपर उभरी हुई धारियाँ पाई जाती हैं । एक पौधे पर लगभग 12-18 फल लगते हैं । यह किस्म जायद में उगाने हेतु अधिक उपयुक्त पाई गई है ।
पंजाब सदाबहार:
इस किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा विकसित किया गया है । पौधे मध्यम आकार के 20 सेमी॰ लम्बे होते हैं एवं 35 सेमी. चौडे होते हैं । इसकी बेलें मध्यम बढ़वार वाली होती है । पत्तियाँ गहरी हरे रंग की एवं इसके फल लम्बे 35 सेमी॰ मोटे, हरे, धारीदार मुलायम एवं थोड़ा झुके हुए होते हैं । इस किस्म में अन्य प्रजातियों की तुलना में अधिक प्रोटीन होती है । यह किस्म बरसात की फसल के लिए बहुत उपयुक्त होती है ।
कोयम्बटूर-1:
इस किस्म को तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म के फल 60-75 सेमी॰ लम्बे होते हैं । इसकी लतायें काफी बढ़ने वाली होती हैं एवं प्रत्येक बेल में 10-12 फल लगते हैं तथा प्रति हैक्टेयर 140 क्विंटल तक उपज देती हैं । प्रत्येक फल का भार 800 ग्राम होता है इसमें बुआई के 55 दिन बाद पहली बार तुड़ाई की जाती है कुल फसल अवधि 125 दिन की होती है ।
कोयम्बटूर-2:
यह किस्म 120 दिनों में तैयार हो जाती है । इस किस्म के फल 90-100 सेमी॰ लम्बे होते हैं । प्रत्येक फल का भार 800 ग्राम तक होता है । इस किस्म की उत्पादन क्षमता 250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।
पी॰के॰एम॰-1:
यह एक उत्परिवर्तन है जिसको बागवानी अनुसंधान केन्द्र पेरिकुलम, केरल द्वारा उगाने हेतु विकसित किया गया है । इस किस्म को बरसात और गर्मी दोनों मौसम में उगाया जा सकता है । इसके फल गहरे हरे रंग के और उन पर धारियाँ होती हैं । औसतन प्रत्येक फल 300 ग्राम वजन तक के होते हैं । बीज बोने के 80 दिन बाद फल तोड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं ।
कल्याणपुर धारीदार:
इस किस्म को चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय के शाक-भाजी अनुसंधान केन्द्र, कल्याणपुर द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती प्रकार की किस्म है और इसकी बेलें अपेक्षाकृत कम बढवार वाली होती हैं । इस किस्म की बेलों पर मादा पुष्प अधिक होते हैं परिणामस्वरूप फलतः अच्छी होती है । फल के ऊपर स्पष्ट धारियां होती हैं लेकिन धारियों के बीच की जगह चिकनी होती है ।
अर्का सुमीत:
इस किस्म को भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित किया गया है । इसकी बेल मध्यम बढ़त वाली (45 मीटर) तक होती है । इससे पहली तुड़ाई बुआई के लगभग 52 दिन बाद मिलती है ।
इसके प्रत्येक फल का वजन लगभग 380 ग्राम तक होता है एवं प्रत्येक लता पर 13-15 फल लगते हैं । इस किस्म के फल हल्के हरे रंग के होते हैं । फल का आकार बेलनाकार प्रकार का होता है । इस किस्म के फल में बीज बहुत कम पाए जाते हैं ।
अर्का सुजात:
इस किस्म को भारतीय बागवानी संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म की बेलें मध्यम बढ़वार वाली होती हैं । इस किस्म के फल हल्के हरे रग के तथा बेलन के आकार के होते हैं । प्रत्येक फल का वजन 350 ग्राम तक होता है ।
सतपुतिया:
यह किस्म पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्यों की एक प्रचलित किस्म है । इसमें फूल उभयलिंगी प्रकार के होते हैं जिसके कारण इस किस्म के फल गुच्छों में लगते हैं । इसके फल आकार में छोटे होते हैं । इस किस्म के फल गोल या अंडाकार एवं हल्के हरे रंग के होते हैं। फलो के ऊपर उभरी हुई धारियां पाई जाती हैं ।
एम॰ए॰ 11:
इस किस्म का विकास तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय, कोयम्बटूर द्वारा किया गया है । इस किस्म के फल हरे रंग के होते हैं एवं इन पर धारियाँ भी पाई जाती हैं । यह एक अगेती प्रकार की किस्म है ।
बीज की मात्रा:
तोरई की बोआई हेतु लगभग 80 प्रतिशत अंकुरण क्षमता वाले बीजों को जायद की फसल के लिए 4-5 किलो और खरीफ की फसल हेतु 0-45 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से बोना चाहिए ।
बीज बोने की विधि:
जायद वाली फसल में सिंचाई की अधिक आवश्यकता होती है । अतः पानी के सदुपयोग की दृष्टि से नालियां बनाकर इनके किनारे बीज बोना अच्छा रहता है, इसके लिए पहले 1.5 मी॰ की दूरी पर 50 सेमी॰ चौड़ी नालियों का निर्माण कर लिया जाता है ।
इन नालियों के दोनों किनारों पर बीज इस प्रकार बोते हैं कि दोनों की निकटतम दूरी 1 मी॰ रहे, प्रत्येक थाले में 25 सेमी॰ के फासले से 34 बीज बोने चाहिए । खरीफ वाली फसल की बोआई हेतु 15 मी॰ की दूरी पर पंक्तियाँ बनाई जाती हैं । इस पंक्तियों में लगभग 75 सेमी. की दूरी पर छोटे-छोटे थाले बनाकर इसमें बीज बोये जाते हैं ।
मैदानी क्षेत्रों में दिसम्बर की बोआई में बीजों के उचित अंकुरण हेतु उन्हें पोलीथीन की 15 सेमी॰ व्यास और 15 सेमी ऊंचाई वाली थैलियों में बोना चाहिए । इन थैलियों में मिट्टी और गोबर की खाद को बराबर मात्रा में लेकर मिश्रण बना लेना चाहिए और फिर इस मिश्रण को थैलियों में भर लेना चाहिए ।
प्रत्येक थैली में 2-3 बीज बोये जाते हैं । अच्छे अंकुरण हेतु समुचित तापमान की आवश्यकता होती है, इसीलिए ठेलियों को दिन में धूप में और रात को कमरे या छप्पर के नीचे रखना चाहिए । इन पौधों की उचित देखभाल तब करें जब तक पाले का भय समाप्त न हो जाए ।
इन पौधों को तैयार खेत में 1.5 मीटर दूरी पर बनी कतारो में एक मीटर के फासले से थालों में रोपाई कर दी जाती है । पौधों की शैलियों को सावधानी से काटना चाहिए ताकि उनकी मिट्टी की पिडी न टूटे । नदियों के किनारे तोरई की अगेती फसल लेने हेतु नालियों का निर्माण करके दिसम्बर के महीने में बोआई की जाती है ।
ये नालियां लगभग 1 मी॰ गहरी और 60 सेमी चौड़ी होती हैं । नालियाँ खोदते समय नाली के ऊपर की आधी बालू एक ओर हटा कर ढेर लगा देते हैं और आधी बालू को खोदकर उसमें गोबर की खाद अच्छी तरह मिलाकर नाली को 30 सेमी॰ की गहराई तक भर देते हैं और इनमें 1 मीटर की दूरी पर थाले बनाकर बीज बो देते हैं । फसल की पाले से रक्षा करने हेतु उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर से नाली के किनारे घास-फूंस खड़ा कर देते हैं या टहनियां गाड देते हैं । इससे बीजों को अंकुरण हेतु उचित गर्मी भी प्राप्त हो जाती हैं ।
सिंचाई एवं जल निकास:
तोरई की फसल की सिंचाई मौसम और भूमि के प्रकार पर निर्भर करती है । खरीफ की फसल में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । यदि लम्बे समय तक वर्षा न हो तो उस स्थिति में आवश्यकतानुसार सिंचाई करनी चाहिए ।
जायद की फसल में शुरू में 10-12 दिन के अन्तर से और बाद में तापमान बढ़ने पर 5-6 दिन के अन्तर पर सिंचाई करनी चाहिए । खरीफ की फसल में जल निकास की उचित व्यवस्था का होना नितान्त आवश्यक है । वर्षा ऋतु में खेत में वर्षा का फालतू पानी इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए अन्यथा पौधे मर जाते हैं ।
फसल को सहारा देना:
अधिक उपज और स्वस्थ फल प्राप्त करने हेतु खरीफ की फसल को सहारा देना चाहिए । इसके लिए अरहर की लकड़ियों का प्रयोग किया जा सकता है । बास की पट्टियों को रस्सी से बांधकर छत सी बना लेते हैं जिसके ऊपर तोरई की बेलो को चढ़ा देते हैं ।
ऐसा करने से तोरई के फल ऊपर हवा में लटके रहते हैं और नीचे की गीली मिट्टी के सम्पर्क में न आकर सड़ने से बच जाते हैं । इससे फलों की तोड़ाई में भी सुविधा हो जाती है । जायद वाली फसल को प्रायः खेत में जमीन पर ही फैलने दिया जाता है ।
पौध सुरक्षा:
खरपतवार नियंत्रण:
तोरई की अच्छी उपज लेने हेतु खेत को खरपतवारों से मुक्त रखना नितांत आवश्यक है । पौधों की प्रारम्भिक बढ़वार में खरपतवारों से काफी हानि होती है । अतः छोटी अवस्था में निराई-गुड़ाई करना नितान्त आवश्यक है । जायद वाली फसल में 23 बार और खरीफ वाली फसल में 3-4 बार निराई गुड़ाई करना पर्याप्त रहता है ।
कीट नियंत्रण:
तोरई की फसल पर मुख्य रूप में लालड़ी फल मक्खी और चैपा का प्रकोप होता है ।
वृद्धि नियामकों का उपयोग:
काली और घिया तोरई में एथ्रेल 50% के 100 पी॰पी॰एम॰ (10 मिली॰ दवा 50 ली॰ पानी में घोलकर) 2 व 4 पत्तियों की अवस्था में प्रति हैक्टेयर की दर से छिडकाव करना चाहिए । ऐसा करने से फलों की संख्या एवं उत्पादन दोनों में वृद्धि हो जाती है ।
रोग नियंत्रण:
तोरई की फसल पर मुख्य रूप से चूर्णी फफूंदी, मृदु रोमिल फफूंदी और मोजैक नामक रोग लगते हैं । फलों की तोड़ाई-फलों की पूरी वृद्धि हो जाने के उपरान्त कोमल अवस्था में ही तोड़ लेना चाहिए; क्योंकि कठोर फलो के गूदे में रेशा पैदा हो जाता है जिसके कारण उससे अच्छी सब्जी नहीं बनती है और ऐसे फलों का बाजार भाव कम मिलता है यदि बीज लेना हो तो तोरई के फलों को पूरी तरह पकने तक पौधों पर ही लगे रहने देना चाहिए ।
उपज:
तोरई की उपज कई बातों पर निर्भर करती है जिनमें भूमि के प्रकार उगाई जाने वाली किस्म और भूमि की देखभाल प्रमुख है । वैसे ग्रीष्मकालीन और वर्षाकालीन फसल से क्रमशः 100-125 क्विंटल व 125-15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर हरी व कोमल तोरई के फल प्राप्त हो जाते हैं बीज की उपज लगभग 3-4 क्विंटल प्रति हैक्टेयर मिल जाती है ।