शीटकेक मशरूम कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate shiitake mushroom.
लेन्टाइनस इडोडस की, जो कि जापान में शिताके के नाम से प्रचलित है, की उत्पत्ति ईसा के बाद चीन में 1000 और 1100 ए.डी. के मध्य हुई थी । उत्पादन की दृष्टि से बटन खुंभी के बाद शिटाके का दूसरा स्थान है ।
आज इस खुंभी की खेती जापान, कोरिया, ताइवान, थाईलैंड व मलेशिया के साथ-साथ पश्चिमी देशों में भी की जा रही है । सन 1994 में शिटाके का कुल उत्पादन लगभग 8,26,200 टन हुआ था । जिसमें 63,200 मि.टन का उत्पादन केवल चीन में हुआ ।
शिटाके को स्वाद व सुगंध के कारण, इसे विशेष रूप से पसंद किया जाता है । यह खुंभी स्वास्थ्यवर्धक, जुकाम दूर करने, रक्त संचरण बढाने, रक्तचाप कम करने तथा कैंसर और एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई । जापान में लगभग 700 मिलियन डालर की दवाईयाँ प्रतिवर्ष विभिन्न खुंभियों से तैयार की जाती हैं जिसमें शिटाके का महत्वपूर्ण योगदान है ।
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इन्हीं सब कारणों से शिटाक खुंभी की मांग बहुत बढ गयी है इस खुंभी का उत्पादन भविष्य में बढने की संभावना है । प्रकृति में शिटाके चौडी पत्ती वाले पेडों जैसे- कुएरकस (ओक), केश्तानेप्सिस (शी), सी. चाइनेन्सिस, सी. टिप्सा, सी. कोंडी, सी. लेमोन्टी, इलेकोकारपस स्प., बेतुला स्प. (बिर्च), कापनिस स्प. (हार्नबीम) आदि की मृत लकड़ी पर उगाया जाता है ।
व्यावसायिक उत्पादन तकनीक:
A. लट्ठा उत्पादन:
लेन्टाइनस इडोड्स का कवकजाल मृतोपजीवी रहता है और यह लकड़ी को सडाता हैं । कवकजाल प्राय: सूखी लकड़ी के केम्बियम से खाद्य पदार्थ अवशोषित करता है । लगभग 15 से 20 साल पुराने वृक्ष के 10 से.मी. मोटे व्यास वाले लकड़ी के लड़ते सबसे उपयुक्त पाये गये । लड़ती को पतझड़ के मौसम में काटा जाता है ।
इस समय लट्ठों में सबसे ज्यादा मात्रा में कार्बोहाइड्रेट और अन्य भौतिक पदार्थ रहते हैं । इस समय बाहरी छाल भी लकड़ी से चिपकी रहती है और यह एक प्राकृतिक रक्षा परत का कार्य करती है । जबकि ग्रीष्मकाल में काटे गये लट्ठों की छाल ढीली हो जाती है और सरलता से अलग हो जाती है जिससे लकड़ी में प्रतिस्पर्धी फफूँदो द्वारा संदूषण की वृद्धि की संभावना अधिक होती है ।
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कटाई के समय लट्ठों में कम से कम 45-55 प्रतिशत आर्द्रता होनी चाहिये । यदि आर्द्रता 60 प्रतिशत से अधिक हो तथा पी.एच. मान 7-8 से अधिक होने पर इस पर अन्य प्रतिस्पर्धी फफूँदो द्वारा संदूषित होने की संभावना रहती है । प्रायः लट्ठों का पी.एच मान 4.5 से 5.5 के बीच होना चाहिये ।
वे उत्पादक जो कि स्पान के लिए बेलनाकार लकड़ी के टुकडों का प्रयोग करते हैं उन्हें स्पान की माप के अनुसार ड्रिल से लट्ठों में छेद करने पड़ते हैं । लट्ठों में ड्रिल मशीन से समानान्तर दिशा में 30 से.मी. गहरे और लंबाकार दिशा में 10 से.मी. गहरे छेद करते हैं ।
छेद परस्पर छितरे रहते हैं ताकि अधिक तेजी से उपनिवेशित हो सके । लकड़ी के टुकड़ों को छेद में डालकर प्रायः गर्म मोम से बंद कर देते हैं । जिससे कि वह सूखे नहीं । निवेशित लकड़ी के टुकड़ों के स्थान पर स्पानयुक्त बुरादे का प्रयोग करके छेद को गर्म मोम से बंद कर देते हैं ।
स्पान बनाना:
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a. बुरादा स्पान:
शुद्ध संवर्धन स्पान बनाने के लिए बुरादे में धान की भूसी मिलाकर इसका निजीर्वीकरण करते हैं । इसके बाद कवकजाल से निवेशित करके 24-28 डिग्री सेन्टीग्रेड पर ऊष्मायन में रख देते हैं । बुरादा स्पान मुख्यतः पॉलीप्रोपिलिन थैली विधि में उपयोग में आता है ।
b. लकड़ी स्पान:
लकड़ी के टुकडों पर स्पान तैयार करने के लिए छोटे बेलनाकार लगभग समान आकार के (3 से.मी. x 3 से.मी.) के टुकड़े काटते हैं । लकड़ी के टुकडों को पहले सादा पानी या पोषकों के घोल में रातभर भिगों देते हैं, बाद में जल को निथार कर और बोतलों अथवा जारों में भरकर इनका कम से कम एक घटे तक निर्जीवीकरण किया जाता है ।
ठंडा करने के बाद प्रत्येक बोतल को कवकीय प्लग से निवेशित करके उस समय तक ऊष्मायन करते हैं, जब तक की लकड़ी के टुकडे पूरी तरह से कवकजाल से आच्छादित नहीं हो जाते ।
c. दाना स्पान:
ज्वार या गेहूँ के बीजों को पानी में 20-30 मिनट तक उबालते हैं । पानी निथारकर 6 किलो सूखे उबले बीज में 600 ग्राम सूखा बुरादा और 300 ग्राम गेंहू का चोकर मिलाते हैं । इस मिश्रण को बोतल या पॉलीप्रोपिलीन की थैलियों में भरकर इनको कम से कम 2 घंटे के लिए रोगाणुहनन करते हैं ।
ठंडा करने के बाद स्पान से निवेशित करके 3-4 हफ्ते के लिए 25 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर ऊष्मायन के लिए रखते हैं । उपयोग से पहले स्पान को फ्रीज में 3 हफ्ते तक रखा जा सकता है ।
स्पान की बढ़वार एवं फसल उत्पादन:
निवेशन के पश्चात लट्ठों को 14-20 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर ऐसी अवस्था में रखा जाता है जिससे कवकजाल की वृद्धि हो सके । स्पान की अच्छी व जल्दी पैदावार प्राप्त करने के लिए लट्ठों में नमी का स्तर सही होना चाहिये । कवक की वानस्पतिक वृद्धि के समय सिचाई नहीं की जाती, अतः लट्ठों को इस प्रकार रखा जाता है, जिससे कि वाष्पन द्वारा अत्यधिक पानी की हानि न हो ।
इसके लिए ताजे निवेशित लट्ठों को लंबाकर अथवा समतल रखा जाता है । इन्हें छायादार पेडों के नीचे रख देते हैं । इन लट्ठों को त्रिपाल या ऐसे कपडे जो छाया दे सके अथवा छिद्रयुक्त प्लास्टिक से ढक देते हैं ताकि लट्ठों में नमी संरक्षित रख सकें ।
समतलीय (हॉरिजेन्टल) निवेशन के लिए लट्ठों को सटाकर (1 मीटर ऊँचाई पर) दो निवेशहीन लट्ठों पर, जो कि देर से समकोण पर स्थित होते हैं, रखा जाता है । दो निवेशहीन लट्ठों के ऊपर देर बनाने से लदते भूमि को नहीं छूते जिसके परिणामस्वरूप अवांछित कवक तथा कीटों का संक्रमण कम करने में मदद मिलती है । लंबाकार ढेर के समान ही समतलीय ढेर को भी ढक देते हैं ।
एक अथवा दो माह बाद लट्ठों को ढेर से हटाकर उन्हें स्थायी स्थान पर ले जाते हैं, क्योंकि देर का वातावरण फलनकाय की वृद्धि के साथ-साथ अन्य अवांछित कवकों के विकास के लिए भी अनुकूल होता है । किसी भी स्थिति में कम प्रकाश एवं अच्छा वातायन होना चाहिये । विषम परिस्थिति में जब लड़के सूख जाते हैं तब पानी का छिडकाव किया जाता है जो कि अवांछनीय है ।
लट्ठों में कवकजाल पूर्ण रूप से 1 से 2 साल के अंदर फैल जाता है । यह कवकजाल का फैलाव उपयोग में लाये गये विभेद, क्रियाधार की गुणवत्ता और वानस्पतिक वृद्धि के समय उपस्थित वातावरण की अवस्था पर निर्भर करता है ।
फलनकाय बनते समय तापक्रम 12-20 डिग्री सेल्सियस, अधिक प्रकाश और क्रियाधार में अधिक नमी की आवश्यकता होती है । फलनकाय की कलिकाओं को विकसित होने में 24 घंटे का समय लगता है । लगभग 7 दिन बाद फलनकाय तोड़ने लायक हो जाते हैं ।
लट्ठों पर पानी छिडकने के बजाय उन्हें पानी से भरे टेक में 16 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर 1-3 दिन तक रखते हैं जिसके कारण से वायु के रिक्त स्थानों में कार्बन डाईऑक्साइड का तेजी से बदलाव होता है और इन्हें पहली फसल के लिए काफी नमी मिल जाती है ।
इस तरह का उपचार देने से फलनकाय बनने लगते हैं । इस विधि की यह विशेषता है कि फलनकाय का बनना क्रमवार किया जा सकता है । किसान अपनी सुविधा के अनुसार फलनकाय बना सकता है भिगोने के बाद लट्ठों को पौधगृह में कतार में फलनकाय उत्पन्न करने के लिए रख दिया जाता है ।
किसी भी स्थिति में फलनकाय बनने के लिए अधिक प्रकाश की आवश्यकता होती है अत: इसे ज्यादा समय तक नहीं ढकना चाहिये । एक बेंच के लट्ठों से प्रायः 3 बार फलनकाय तोड़े जा सकते हैं ।
इसके बाद लट्ठों को थोडा समय विराम देकर पुन: पानी में भिगोते हैं । यह क्रिया एक साल में 4 बार दोहराई जाती है । पहली बार डुबोने के बाद सबसे ज्यादा उपज मिलती है इसके बाद क्रमशः उपज कम हो जाती है । इन लड़ती से लगभग 6 वर्ष तक उपज प्राप्त की जा सकती है पर प्रायः 4 वर्ष बाद उपज कम मिलती है । अत: एक लट्ठा 3 वर्ष तक ही उपयोग में लाया जाता है ।
B. थैली विधि:
व्यवसायिक रूप से शिताके को पॉलीप्रोपेलिन की थैलियों में उगाया जाता है ।
इसके लिए काष्ठीय लकड़ी (जैसे ओक, मेपल आदि) का बुरादा उपयोग में लाया जाता है । कवकजाल की वृद्धि के लिए बुरादे में विभिन्न प्रकार के पदार्थ मिलाये जाते हैं ।
इसके लिए प्रायः चावल की भूसी और मक्के के चुरे को उपयोग में लाया जाता है । कैल्शियम कार्बोनेट या सोडियम कार्बोनेट के उपयोग से इसका पी.एच. मान 5.5 से 7.0 के बीच रखते हैं । गीले बुरादे को मुट्ठी में दबाकर इसमें उपस्थित पानी की मात्रा जानी जाती है ।
थैली विधि में सामान्यतः प्रयुक्त होने वाले क्रियाधार निम्न है:
1. लकड़ी का बुरादा 80 प्रतिशत, चावल की भूसी 20 प्रतिशत और पानी 65 प्रतिशत
2. लकड़ी का बुरादा 80 प्रतिशत, बाजरा 10 प्रतिशत, गेहूँ की चोकर 10 प्रतिशत और पानी 60 प्रतिशत
3. काष्ठीय लकड़ी का बुरादा 89.8 प्रतिशत, चावल की भूसी 10 प्रतिशत, कैल्शियम कार्बोनेट 0.2 प्रतिशत और पानी 60 प्रतिशत
4. काष्ठीय लकड़ी का बुरादा 24.2 प्रतिशत, चावल की भूसी 5.2 प्रतिशत, मक्के का आटा, बाजरा या चावल 2.6 प्रतिशत. कैल्शियम कार्बोनेट 0.3 प्रतिशत और पानी 62 प्रतिशत
5. मक्का का भुट्टा 40 प्रतिशत, बुरादा 10 प्रतिशत, गेहूँ का चोकर 12.5 प्रतिशत, गन्ने की शक्कर 1 प्रतिशत, पेक्टिन 0.15 प्रतिशत और यूरिया 0.2 प्रतिशत
6. गन्ने की सीठी 50 प्रतिशत, चावल की भूसी 12.5 प्रतिशत, यूरिया 15 प्रतिशत और मैग्निशियम सल्फेट 10 प्रतिशत
सूखे अवयवों को हाथ से अथवा यांत्रिक विधि से मिलाने के बाद मिश्रण में
पानी मिलाकर आर्द्रता 55 से 60 प्रतिशत कर लेते हैं । अवयवों को इसके बाद पॉलीप्रोपेलीन के शैलों में भरते हैं । ऑटोक्लेव करने के पश्चात् थैलियों को ठंडा करके 10 ग्राम बुरादा स्पान से निवेशित करते हैं ।
निवेशित थैलों को उत्पादन घर में स्पान की बढवार के लिए जमाकर दो महीने के लिए रख देते हैं । थैलियों में किसी भी प्रकार का संदूषण दिखायी देने पर उस थैली को हटाकर नष्ट कर देते हैं ।
स्पान के फैलाव के समय कम प्रकाश एवं अधिक नमी रखा जाती हैं तथा थोड़ी हवा का प्रवेश कराया जाता है । कवकजाल की बढवार के समय पानी नहीं दिया जाता ।
जब स्पान का फैलाव पूरा हो जाता है तब उत्पादन गृह के फर्श पर थैलियों को एक कतार में सीधा रखा जाता है । एक महिने बाद थैलियों का मुँह खोलकर अत्यधिक पानी का छिडकाव बारीक नोजल से करते है जिससे धुंध तैयार हो जाती है जो कि फलनकाय बनने के लिए आवश्यक है ।
पानी डालने के ठीक बाद थैलों को उल्टा कर देते हैं जिससे फर्श पर उपस्थित पानी केपेलरी क्रिया द्वारा ऊपर चढ़ जाता है । रातभर उल्टा रखा रहने के बाद थैलियाँ फिर सीधी कर देते हैं । यह विधि तीन बार दोहरायी जाती है । पानी डालने के साथ-साथ अधिक प्रकाश व अच्छे वाताव्यन की जरूरत होती है ।
साथ ही प्रकाश की मात्रा व वातायन बढा देना चाहिये । कम तापक्रम, अधिक प्रकाश व वातायन और पानी देने से फलन बनता है । यदि फलनकाय बनते समय अधिक तापमान होता है तो खराब गुणवत्ता वाले फलनकाय प्राप्त होते हैं ।
फलनकाय की तुड़ाई हाथों द्वारा की जाती है । विभेद के अनुसार तुड़ाई 2-7 बार की जाती है । उपयुक्त वातावरण में 1 किलो बुरादे से 200-250 ग्राम शिटाके प्राप्त होता है ।
तुड़ाई व परिरक्षण:
शिताके खुंभी को ताजा, सुखाकर, डिब्बा बदी करके अथवा अचार बनाकर खाया जाता है । शिटाके को लकड़ी, तेल या गैस से चलने वाले ओवन में सुखाया जाता है । चुनी हुई खुंभीयों को वृत के आधार से काटकर एक पतली पर्त में खानों में व्यवस्थित करके ओवन को प्रथम तीन घंटे कम ताप पर रखकर व अगले 18 घंटे 40-60 डिग्री से. पर रखते हैं ।
परिरक्षण के अलावा शुष्कन से स्वाद में वृद्धि होती है और उनका रूप सुधर जाता है । सूखी खुंभी में 10-13 प्रतिशत नमी पायी जाती है । प्रत्येक किलो लकड़ी के क्रियाधार से 3 साल में लगभग 200 ग्राम खुंभी प्राप्त होती है ।
चूंकि लेन्टाइनस की शुष्क खुभियां अति आर्द्रताग्राही होती हैं । इसीलिए इन्हें भली प्रकार भंडारित करना चाहिये । यदि खुंभियों में नमी की मात्रा 20 प्रतिशत से अधिक हो जाती है तो खुंभीयों को कीट एवं फफूंद सरलता से ग्रसित कर सकता है ।
इसके अतिरिक्त खुंभियों की सतह पर सफेद पाउडरी मिलड्यू सतह विकसित हो जाती है और गिल का मूल पीला-सफेद रंग भूरा हो सकता है । इसीलिए शुष्क खुंभीयों को पॉलीथीन के थैले में भरकर बद कर देना चाहिये और शुष्क, ठंडे तथा अंधेरेयुक्त स्थान में रखना चाहिये । लंबे समय के भण्डारण के लिए खुंभीयों को गत्ते के डिब्बे अथवा लकड़ी के बक्सों में भरकर 2-5 डिग्री से. के निम्नताप पर भंडारित करना चाहिये ।