हल्दी कैसे खेती करें? | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate turmeric (haldi).
हल्दी का वानस्पतिक नाम ”कुरक्यूमा लोंगा एल” है । यहाँ वानस्पतिक कुल ”जिन्जीबरेसी” का पौधा है । हल्दी का मूल स्थान भारत देश ही माना जाता है । भारत में एक लाख चौंतीस हजार हैक्टेयर में इसका उत्पादन होता है ।
इसकी कृषि मुख्यतः आन्ध्रप्रदेश, केरल, उड़ीसा, बिहार और तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र में की जाती है । देश में प्रतिवर्ष 6-7 लाख टन हल्दी का उत्पादन होता है । राजस्थान में हल्दी उत्पादन सीमित क्षेत्रों तक है । यहाँ इसकी खेती मुख्यतः उदयपुर, चित्तौडगढ़, भीलवाड़ा एवं बूंदी जिलों में की जाती है । डूंगरपुर व बांसवाड़ा जिलों के छोटे-छोटे क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है ।
राजस्थान में सर्वाधिक हल्दी उत्पादन वाले उदयपुर जिले में झाड़ोल क्षेत्र प्रमुख है । झाड़ोल तहसील के बाघपुरा, औडा, मानक, कोलरी ब्राह्मणों का खेड़ा महावास, बाड़द, आंदीवाड़ा, जाड़ा पीपला, काकरमाला, बीड़ा जैसे गाँवों में हल्दी की परम्परागत खेती होती है ।
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यहाँ के कृषकों को उत्पादन की तकनीक, उन्नत किस्म के बीजों की उपलब्धता नहीं होने के कारण विशेष लाभ नहीं मिल सका है इसीलिए इसका क्षेत्रफल नहीं बढा है ।
जलवायु:
हल्दी गर्म व तर जलवायु में उगने वाला पौधा है । हल्दी की बुवाई, अंकुरण व जमाव के समय तुलनात्मक रूप से कम वर्षा तथा पौधों की वृद्धि के समय अधिक वर्षा उपयुक्त रहती है । फल पकने से एक माह पूर्व शुष्क वातावरण आवश्यक है ।
भूमि:
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हल्दी की खेती के लिए दोमट या बलुई दोमट मृदा वाली भूमि अच्छी मानी जाती है । भुरभुरी मृदा में इसकी गांठों की वृद्धि अच्छी होती है ।
उपयोगिता:
हमारे देश में हल्दी का उपयोग प्राचीन काल में मांगलिक कार्यों में सब्जी व दाल में मसालों के रूप में किया जाता है । कच्ची हल्दी का उपयोग सब्जी व आचार में किया जाता है । इसका औषधीय उपयोग भी बहुतायत से किया जाता है ।
ऊन, सिल्क व अन्य कपड़ा उद्योगों में रंगाई के लिए, सौन्दर्य प्रसाधनों, चर्म रोग, नेत्र रोग, खांसी, प्रमेह, कामला, यकृत विकार, चोट मोच, ज्वर आदि के उपचारों में इसका उपयोग किया जाता है । हल्दी की गुणवत्ता का आधार इसमें पाया जाने वाला ”क्यूक्युमिन व वाष्पशील तेल की मात्रा है ।”
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हल्दी की खेती की तकनीकी:
बुवाई का समय:
जलवायु व किस्मों के अनुसार हल्दी की बुवाई 15 अप्रैल से 15 जुलाई तक की जा सकती है । राजस्थान में बुवाई का उपयुक्त समय जून है । पर्याप्त सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध होने पर इसकी बुवाई मई माह में भी की जा सकती है ।
खेत की तैयारी:
खेत की तैयारी में गड्ढा मृदा को खूब भुरभुरी कर लिया जाना चाहिए जिससे हल्दी की गांठों को फैलाने का पूर्ण अवसर प्राप्त हो सके । मृदा को भुरभुरी करने के पश्चात्र 3-3 मीटर की क्यारियाँ बनाकर 50-50 सेन्टीमीटर की दूरी पर डोलियाँ बना लेनी चाहिए ।
बुवाई का तरीका व बीज की मात्रा:
बोने के लिए हल्दी के सुविकसित अस्त्रों वाले कन्दों का उपयोग किया जाता है । इन्हें उपचारित कर 50-50 से.मी. दूरी पर बनाई गई डोलियों में लगभग 15 सेमी. की दूरी पर बोना चाहिए । बोते समय कंद की आँखें ऊपर की तरफ मुंह किए होनी चाहिए ।
कंदों को 4-5 से.मी. की गहराई पर लगाकर मृदा से ढक देना चाहिए । निराई-गुड़ाई करते समय इनमें मृदा चढ़ाना उपयुक्त रहता है । बीज की मात्रा गांठों के आकार व बुवाई की विधि पर निर्भर करती है । सामान्य तौर पर शुद्ध फसल लेने पर प्रति हैक्टेयर 15 से 20 क्विंटल गांठों की आवश्यकता होती है ।
बुवाई के पश्चात् खेत में घास, पुआल या पत्ते बिछा देने चाहिए ताकि कोंपले तेज धूप से बच सके तथा वर्षा में डोलियों की मृदा को क्षरण से बचाया जा सके । इससे नमी संरक्षित होगी व कैदी का जमाव अच्छा होता है ।
खाद एवं उर्वरक:
खेत की तैयारी के समय 200 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की दर से गोबर या कम्पोस्ट भूमि में मिलाना अच्छा रहता है । डोलिया बनाते समय 100 किलोग्राम नत्रजन, 500 किलोग्राम फास्फोरस व 50 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर डालना चाहिए ।
नत्रजन की आधी मात्रा फसल लगने के दो माह बाद तथा उसमें एक माह बाद कतारों के बीच में चाहें तरफ बिखेर कर देनी चाहिए । शेष पोटाश 50 किलोग्राम भी 30 से 60 दिनों के अन्तराल पर मृदा में मिलाकर पौधों पर मृदा चढा देनी चाहिए ।
सिंचाई:
प्रथम सिंचाई गांठ लगाने के तुरन्त बाद करनी चाहिए । इसके पश्चात् मानसून आने तक आवश्यकतानुसार दस-दस दिन के अन्तर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है । हल्दी की फसल के लिए 15 से 21 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है ।
खुदाई व उपज:
हल्दी की अगेती व पछेती फसल क्रमशः 7 से 10 माह में तैयार हो जाती है । 8-9 महीने में जब पौधों की पत्तियाँ सूखकर पीली पड़ने लगे तो हल्दी पुंज खोदने लायक हो जाते हैं । प्रकंदों को काटने से बचाने के लिए भूमि की सिंचाई कर देनी चाहिए ।
कुदाली व फावड़े से प्रकंद पुजों को निकाल कर उनसे पत्तियों को अलग कर दिया जाता है । प्रकंदों को अच्छी तरह धोया जाता है । इसकी उपज 200-250 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है । सूखी हल्दी की मात्रा 20 से 22 प्रतिशत बैठती है ।
बीज के लिए हल्दी संरक्षण की विधियाँ:
बीज के काम आने वाली हल्दी को कच्ची अवस्था में रखना पडता है ।
इसके संरक्षण की दो विधियाँ हैं:
1. गड्ढा बनाकर:
इसमें दो मीटर लम्बा व दो मीटर चौड़ा तथा एक मीटर गहरा गड़ा बनाकर चारों तरफ हल्दी सूखी पत्तियाँ डालकर इसमें गांठे भर दी जाती हैं । ऊपर जगह छोड़ लकड़ी के तख्ते रख कर ऊपर मृदा का लेप कर देते हैं । इससे 3-4 माह तक गांठें सुरक्षित रह जाती है ।
2. ढेर लगाकर:
गाठों के ऊपर ढेर लगाकर उन्हें घास-फूंस से ढककर चारों तरफ मृदा का लेप लगा देते हैं और फिर गोबर का लेप कर देते हैं । राज्य में हल्दी उत्पादक क्षेत्र अत्यन्त कम होने के कारण इसका निर्धारण अवस्थिति निर्धारक द्वारा किया गया है । सन् 2001-04 में राज्य में 120.66 हैक्टेयर पर हल्दी उत्पादित की गई है ।