तरबूज कैसे खेती करें | Read this article in Hindi to learn about how to cultivate watermelon.

तरबूज की खेती 15000 मीटर की ऊंचाई तक देश के प्रायः सभी भागों में की जाती है । राजस्थान के गर्म और शुष्क इलाकों में भी की जा सकती है । ऐसी बलुई मृदाओं में जहाँ कोई अन्य फसल नहीं उगाई जा सकती है वहाँ पर तरबूज की खेती के लिए खाया जाता है ।

नमक व कालीमिर्च मिलाकर इसके फलों का रस गर्मियों में ठंडक पहुँचाने वाला एक स्वादिष्ट पेय बनाता है । इसका रस प्यास बुझाने और टाइफाइड आदि में एक निजर्मकारी पेय के रूप में प्रयुक्त होता है । तरबूज के छोटे-कच्चे फलों का प्रयोग सब्जी बनाने में किया जा सकता है ।

इसके बीजों की गिरी का उपयोग शर्बत तथा कुछ औषधियों में भी होता है । तरबूज के खाद्यय भाग में निम्न अवयव पाये जाते है जल 95.8 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 3.3 प्रतिशत, प्रोटीन 0.2 प्रतिशत, वसा 0.2 प्रतिशत तथा अल्प मात्रा में खनिज पदार्थ मिलते हैं ।

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जलवायु:

तरबूज के सफल उत्पादन हेतु गर्म शुष्क जलवायु और गर्म दिनों व लम्बी रातों के साथ लम्बे बढवार मौसम की आवश्यकता होती है । इसके पौधे बहुत कम तापमान पर तुषार को सहने में बिल्कुल असमर्थ होते है । इसके अंकुरण को अनुकूलतम नमी और 25-30 से.ग्रेड के बीच मृदा तापमान की आवश्यकता होती है पादप वृद्धि के लिए 28-30 से॰ से नीचा तापमान अनुकूलतम होता है जबकि उत्तम फल निर्माण के लिए 24-27 से.ग्रेड तापमान की आवश्यकता होती है ।

फलों के पकने के समय उच्च तापमान की आवश्यकता होती है । राजस्थान के शुष्क क्षेत्र तरबूज उत्पादन के लिए सर्वोत्तम माने गये है । क्योंकि वहाँ पर उच्च गुणवत्ता वाले फल प्राप्त होते है ।

भूमि:

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तरबूज को विभिन्न प्रकार की मुदाओं में उगाया जा सकता है । परन्तु इसकी अगेती फसल के लिए रेतीली दोमट और अधिक उपज के लिए दोमट मुदाएँ सर्वोत्तम मानी गयी है । भारी मृदाओं में जडों का विकास भली-भांति नहीं हो पाता है अतः उनमें कम अवधि वाली किस्में जो कम उपज है उगाई जाती है । सरिता तट वाली जलौढ मृदाएँ भी तरबूज उत्पादन के लिए अच्छी होती है । भूमि उचित जल निकास वाली और उसमें जैविक पदार्थ प्रचुर मात्रा से युक्त होना चाहिए । भूमि का पी॰ एच मान 65-70 आदर्श माना जाता है ।

खेत की तैयारी:

भारत में प्रायः तरबूज की खेती नदी तट पर बालू में थाला बनाकर करते है । खेत में बोने के लिए दो-तीन बार हल चलाना चाहिए । प्रत्येक जुताई के उपरान्त पाटा अवश्य लगाए ताकि मिट्‌टी भुरभुरी एवं समतल हो जाए ।

खाद एवं उर्वरक:

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तरबूज के सफल उत्पादन में खाद एवं उर्वरकों का विशेष महत्व है । तरबूज की फसल को कितनी मात्रा में पोषक तत्व दिये जाए यह कई बातों पर निर्भर करता है जिनमें भूमि की उर्वरा शक्ति, जलवायु और उनके उगाने की विधि प्रमुख होती है ।

प्रति हैक्टेयर (15-22.5 टन) गोबर की खाद या कम्पोस्ट भूमि की तैयारी के समय डालना चाहिए इसके अतिरिक्त 55-110 किलोग्राम नाइट्रोजन 55-80 किलोग्राम फास्फोरस और 55-110 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से डालनी चाहिए ।

नाइट्रोजन की आधी मात्रा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बीज बोने से पूर्व डालनी चाहिए । नाइट्रोजन की आधी मात्रा को लताएँ निकलने के समय और फिर बाद में 10-15 दिन में देनी चाहिए । आमतौर पर अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में अधिक नाइट्रोजन डालने से लताओं में नर फूलों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है और मादा या सम्पूर्ण फूल के निर्माण में कमी हो जाती है जिसके कारण फल निर्माण से पूर्व सभी उर्वरकों की पूरी मात्रा भूमि में डाल देनी चाहिए । तरबूज के फलों को पूरा पकने पर तोडा जाता है । इसलिए लताओं पर अधिक संख्या में फल मिलने चाहिए । इसके आशिक उपचार है । यूरिया और कीटनाशी दवा का मिश्रण बनाकर छिडकाव करना चाहिए ।

प्रजातियाँ:

i. अर्का ज्योति:

इस किस्म को भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान, बंगलौर द्वारा एक अमेरिकन किस्म क्रिमसन स्वीट तथा एक स्थानीय किस्म आई॰एच॰आर॰ 20 के बीच संकरण द्वारा विकसित किया गया है । यह मध्यकालीन किस्म है, जोकि 95-100 दिनों में तैयार हो जाती हैं ।

इस किस्म के फल गोल, हल्की हरी त्वचा वाले जिनमें गहरे हरे रंग की धारियाँ पाई जाती हैं । प्रत्येक बेल में 2-3 फल लगते हैं । गुदा गहरा सुगंधित एवं अच्छी मिठास लिए होता है । इसमें टी॰एस॰एस॰ 12-14 प्रतिशत तक होता है एवं क्राइसम लाल रंग का होता है ।

जब गुदा अधिक पक जाता है तो वह दानेदार हो जाता है । इस किस्म को दक्षिण एवं उत्तरी भारत में उगाया जा सकता है । इस किस्म के प्रत्येक फल का भार 6-8 किलोग्राम तक होता है । इसकी उत्पादन क्षमता 350 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है । इसमें पाए जाने वाले बीज छोटे एवं कम मात्रा में होते हैं ।

ii. अर्का मानिक:

इस किस्म को भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान बंगलौर द्वारा विकसित किया गया है । इस किस्म के फल गोल (अंडाकार) होते हैं । इस किस्म के प्रत्येक फल का भार 6 किलोग्राम तक होता है । इसके फलों की त्वचा हल्की हरी होती है जिस पर हल्के हरे रग की धारियाँ होती हैं ।

इसका गूदा गहरे लाल रंग का एवं बहुत मीठा होता है । इसमें टी॰एस॰एस॰ 11-12 प्रतिशत तक होता है । इसके फलों में बीज का प्रबंधन इस प्रकार का होता जिसको आसानी से निकाला जा सकता है । यह किस्म चूर्णी फफूँदी, डाउनीमिल्डयू के प्रतिरोधी होती है, जबकि एंथ्रक्नोज और ब्लोसम एंड-रॉट को सहज करने वाली होती है । इसकी भंडारण क्षमता अच्छी होती है । इसकी उत्पादन क्षमता 600 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

iii. दुर्गापुर केसर:

इस किस्म को राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के शोध केन्द्र, दुर्गापुर द्वारा विकसित किया गया है । यह देर से तैयार होने वाली किस्म है, जिसके प्रत्येक फल का औसत वजन 4-5 किग्रा॰ तक होता है । इसके फलों पर हरी धारियाँ पाई जाती हैं फलो का छिलका हरे रंग का होता है ।

गूदा केसरी रंग का होता है तथा मध्यम मिठास वाला होता है । इसमें बीज बडे आकार के पाए जाते हैं । दुर्गापुर मीठा-इस किस्म का विकास राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के शोध केन्द्र, दुर्गापुर द्वारा किया गया है । इस किस्म के फल गोल होते हैं जिन पर हरी धारियाँ पाई जाती हैं ।

इसका छिलका मोटा होता है । गूदा गहरे लाल रंग का होता है एवं मिठास युक्त होता है इसमें टी॰एस॰एस॰ 11 प्रतिशत तक होता है । प्रत्येक फल का औसत भार 6-8 किलोग्राम तक होता है । यह किस्म बीज बोने के 125 दिनों बाद तैयार हो जाती है ।

iv. सुगर बेबी:

इस किस्म का विकास भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा किया गया है । यह किस्म अमेरिका से मंगाई गयी है । इस किस्म की लता मध्यम लम्बाई तक बढती है । प्रत्येक फल का भार 4 किलोग्राम तक होता है । इसके फल गोल, त्वचा गहरे हरे रंग की होती हैं जिस पर काले हरे रंग की धारियां पाई जाती हैं । इसके फल मिठास युक्त होते है ।

इसमें टी॰एस॰एस॰ 11-13 प्रतिशत तक होती है । इसके फलों में भूरे रंग के छोटे बीज पाए जाते हैं । प्रत्येक फल का भार 6-7 किलोग्राम तक होता है । इसकी फसल 80-90 दिन में तैयार हो जाती है । प्रति हैक्टेयर 200-250 क्विंटल तक उपज दे देती है ।

v. न्यू हैम्पशायर मिजेट:

इस किस्म को अमेरिका से मंगाया गया है । यह एक अगेती किस्म है । इसके फल बुआई के 80-95 दिन बाद तैयार हो जाते हैं । इसके फल आकार में छोटे होते हैं एवं प्रत्येक फल का औसत वजन 1.5-2.0 किलोग्राम तक होता है । इसके फल अंडाकार होते हैं और छिलका चमकीला हरे रंग का होता है । इसकी त्वचा पर काले रग की धारियाँ पाई जाती है । गूदा लाल रंग का होता है । छिलके के ऊपर हरे-हरे रंग का चक्कते पाये जाते हैं ।

vi. इम्प्रूब्ड शिप्पर:

यह किस्म अमेरिका से लाई गई थी । इस किस्म की त्वचा गहरे हरे रंग की होती है । इसका गूदा लाल एवं मिठास युक्त होता है । इसमें टी॰एस॰एस॰ 8-9 प्रतिशत तक होता है । इस किस्म के प्रत्येक फलों का भार 8-9 किलोग्राम तक का होता है ।

vii. आसाही यामेटो:

यह किस्म जापानी है । भारत में इसका उत्पादन सुगमतापूर्वक किया जाता है । इस किस्म के प्रत्येक फल का भार 6-8 किलोग्राम तक होता है । इसके फलो की त्वचा पर हल्के हरे रंग की धारियाँ पाई जाती हैं, गूदा गहरा गुलाबी, कुरकुरा मिठास युक्त इसमें टी॰एस॰एस॰ 11-13 प्रतिशत तक होती है ।

इसके फलों में बीज भूरे रंग के होते हैं । यह किस्म बीज बोने के 90-95 दिन में तैयार हो जाती है । प्रत्येक फल का औसत वजन 7-8 किलोग्राम तक होता है । इसकी उत्पादन क्षमता 225 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक होती है ।

viii. स्पेशल नम्बर-1:

इस किस्म को पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा विकसित किया गया है । यह एक अगेती किस्म है । इसके फल छोटे एवं गोल आकार के होते हैं । इसके फलो का गूदा मीठा होता है तथा इसमें लाल रंग के बीज बने होते हैं ।

ix. पूसा बेदाना:

इस किस्म को भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा एक अमेरिकन किस्म टेट्रा-2 (मादा पितृ) तथा एक स्थानीय विशुद्ध वंशक्रम मूसा रसाल (नर पितृ) के बीच संकरण कराकर विकसित किया गया है । इसमें बीज नहीं बनते । यह किस्म धीमी गति से बढ़ती है जिसकी पत्तियाँ गहरे हरे रंग की होती है ।

इसकी लताओं में अन्त: पर्व होती है और पत्तियाँ चर्मिल होती हैं । गुदा गुलाबी रंग का अति उत्तम गुणवत्ता युक्त होता है । इस किस्म की फसल 85-90 दिनों में तैयार हो जाती है । प्रत्येक फल का औसत भार 4-6 किलोग्राम तक होता है । इस किस्म का बीज महंगा होता है एवं बीज अंकुरित होने में परेशानी होती है, अतः इस किस्म को व्यावसायिक स्तर पर नहीं उगाया जा सकता है ।

x. डब्लू-19:

यह किस्म 75-80 दिनों में तैयार होने वाली किस्म है । इस किस्म के फल पर हल्के-हल्के हरे रंग की धारियाँ पाई जाती हैं । इस किस्म के फलों के गूदे गहरे गुलाबी रग के एवं ठोस होते हैं । इसकी उत्पादन क्षमता 46-50 टन प्रति हैक्टेयर तक होती है । यह किस्म शुष्क क्षेत्रों में उगाने के लिए उपयुक्त है ।

उपरोक्त किस्मों के अलावा अनेक संकर किस्में उपलब्ध हैं जिनको बड़े पैमाने पर उगाया जाता है । जैसे-मधु, मिलन, मोहनी सुरुचि, एम॰एच॰डब्ल्यू-4, 5, 6, 11 एवं 12 इत्यादि प्रमुख हैं । इन संकर किस्मों की विशेषताएँ देखने में आकर्षक, उच्चगुणवत्ता वाला गूदा, यातायात के लिए उत्तम, विल्ट प्रतिरोधी/सहनशीलता आदि गुणों से युक्त रहते हैं ।

बोआई:

तरबूज का प्रवर्धन बीज से किया जाता है । बीज की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि पंक्ति और पौधों की आपसी दूरी कितनी रखनी है, इसके साथ किस्म की लता फैलने का स्वभाव कैसा है । आमतौर पर छोटे बीज वाली किस्मों व बड़े बीज वाली किस्मों में क्रमशः 3.0-3.5 किलोग्राम व 50 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है । अधिक उपज देने वाली किस्मों के लिए उन्नत किस्मों के बीज की 1/3 मात्रा पर्याप्त होती है ।

तरबूज का प्रवर्धन बीजों को पोलीथीन के लिया में उगाकर उनका रोपण भी किया जाता है । बीज बोने से पूर्व 48 घंटे पानी में भिगोया जाता है । ऐसा करने से बीजों का अंकुरण जल्दी होता है । उच्च भूमि में अंकुरण बीजों को ड़ौलिया बनाकर कुंडों और नालियों या नदियों के किनारे गड्‌ढों में बोया जाता है । लम्बी लताओं वाली किस्मों पंक्तियों और पौधों की आपसी दूरी 35 मीटर रखी जाती है ।

नदियों के तट पर आपसी दूरी मीटर रखी जाती है । जबकि मध्यम लता वाली किस्म जैसे-शुगर बेबी के लिए ऊपरी मृदाओं में 1.0 मीटर 2.0 मीटर की दूरी रखी जाती है । पौधों से पौधों की दूरी को 0.6 मीटर तक कम किया जा सकता है ।

इस विधि से डौलियों पर प्रति डौली एक पौधा उगाया जाए तो प्रति हैक्टेयर 16,600 पौधे उगाये जा सकते हैं, गड्‌ढों में रोपाई करने के लिए 60 सेमी × 60 सेमी × 60 सेमी आकार के गड्‌ढे खोदे जाते हैं फिर इसमें गोबर की खाद + नाइट्रोजन फॉस्फोरस व पोटाश का मिश्रण खोदी गई मिट्‌टी में मिलाकर गड्‌ढों में भर दिया जाता है ।

उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्रों में तरबूज की बोआई फरवरी के अन्त से मध्य मार्च तक की जाती है जबकि उत्तर-पूर्वी व पश्चिमी भारत में नवम्बर-जनवरी में की जाती है । पश्चिमी बंगाल में तरबूज की बोआई दिसम्बर-जनवरी में की जाती है । राजस्थान में इसकी एक फसल वर्षा ऋतु में भी ली जाती है जिसकी बोआई अगस्त-सितम्बर में की जाती है । उत्तरी भारत के पहाडी क्षेत्रों में असाही यामेटो किस्म को अप्रैल-मई में बोया जाता है ।

प्रतिरोपण के लिए 150-200 माइक्रोन मोटाई वाली एल्काथिन की थैलियों में मिटटी+गोबर की खाद का मिश्रण भरकर प्रत्येक थैली में एक दो बीज बोए जाते हैं । जब पौधों में 2-3 पत्तियाँ विकसित हो जाती हैं तब उनकी थैली हटाकर खेत में उचित पर रोप दिया जाता है ।

सिंचाई एवं जल निकास:

तरबूज के लिए अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है । परन्तु जल मग्नता को सहन नहीं कर पाता है । प्रथम सिंचाई बीज बोने या पौधे रोपने के बाद करनी चाहिए । बसन्त-ग्रीष्म ऋतु की फसल में पानी की अधिक आवश्यकता होती है । भारी मृदाओं में जल्दी-जल्दी सिंचाई करने से पौधों की वानस्पतिक बढवार अधिक हो जाती है ।

अतः वहां पर जल्दी-जल्दी सिंचाई नहीं करनी चाहिए । दूसरी ओर फूल आने से पूर्व, फूल आने व फल निर्माण की आवश्यकता में नमी की कमी के कारण उपज में भारी कमी हो जाती है । परन्तु फलो के परिपक्व होने की अवस्था में सिंचाई बद कर देनी चाहिए ।

क्योंकि इस अवस्था में सिंचाई करने से पौधों से प्राप्त होने वाले फलों की गुणवत्ता कम हो जाती है और फल फटने की क्रिया में वृद्धि हो जाती है । पौधों के आधार और मूल क्षेत्र तक ही पानी सीमित रहना चाहिए । सिंचाई जल से लताएँ या अन्य वानस्पतिक भाग नहीं भीगना चाहिए, विशेष रूप से जब फूल निकल रहे हों, फूलों का निर्माण हो रहा हो और फलों का विकास हो रहा हो ।

पत्तियों तनों और बढ़ते फलों के भीगने से उनमें रोग लग जाते हैं । नदी के किनारे पर उगाई गई फसलों में प्रारंभ में सिंचाई की आवश्यकता होती है बाद में पौधों की जड़ें 1.5 मीटर तक या जल स्तर तक पहुँच जाती हैं फिर कोई सिंचाई नहीं की जाती है । गर्मियों में 3-5 दिन के अन्तराल में सिंचाई करनी चाहिए । जबकि पश्चिमी बंगाल में सिंचाई 10-15 दिन के अन्तराल पर करनी चाहिए ।

खरपतवार नियंत्रण:

तरबूज की फसल में खरपतवार की कोई विशेष समस्या नहीं होती है । प्रारम्भ में क्यारियों और डीलियों को खरपतवारों से मुक्त रखने की आवश्यकता होती है, जब नाइट्रोजनधारी उर्वरक उपरिवेशन द्वारा डाला है तो उस समय निराई गड़ाई करके पौधों पर मिट्टी भी चढा दी जाती है ।

जब लताएँ फैल जाती हैं तब खरपतवार नहीं पनप पाते है जो खरपतवार बड़ी मात्रा में उग आते हैं बिना लताओं को हानि पहुँचाए उन्हें हाथों से निकाल देना चाहिए । वैसे खरपतवारों से फसल को 30 प्रतिशत तक क्षति हो जाती है । इनकी क्षति को कम करने के लिए निराई-गुड़ाई का कार्य बीज बोने के 15-20 दिन बाद करने कर देना चाहिए ।

तरबूज के खरपतवारों के नियंत्रण हेतु खरपतवारनाशियों का उपयोग भी किया जा सकता है । भारत में सिमाजिन अलाक्लोर, डाईक्लोर मेट, प्रोपेनिल, बयुटाक्लोर का बोने के बाद और अंकुरण से पूर्व उपयोग किया जाता है । ऐसा करने से खरपतवारों पर प्रभावशाली ढंग से नियंत्रण हो जाता है । बयुटाक्लोर और टी-2 फ्लोरालिन क्रमशः 2 किलोग्राम और 1.2 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर का उपयोग भी प्रभावशाली पाया गया है ।

काट-छाड:

आमतौर से भारतीय कृषक तरबूज की लताओं की काट-छाट नहीं करते हैं जिसके कारण कम उपज मिलती है । लताओं की अधिक बढ़वार रोकने और पौधों में मादा-फूलों की संख्या में वृद्धि करने के लिए काट-छाट एक अत्यन्त आवश्यक कार्य है एपिकल सूट को नोच देना चाहिए और साइड की दो प्ररोहों को बढ़ने देना चाहिए । फलों की तोड़ाई करना भी उपज बढ़ाने में सहायक होती है । प्रत्येक लता पर 2 फल छोड़ने चाहिए ताकि उनका समुचित विकास अच्छा होता है और अन्ततः अधिक उपज प्राप्त होती है ।

फलों की तोड़ाई:

तरबूज की तुड़ाई उसकी परिपक्व अवस्था में करनी चाहिए । तरबूज के फलों का आकार और उसकी त्वचा का रंग इस परिपक्वता के अच्छे संकेत नहीं हैं । इसकी फसल बीज बोने के 90-120 दिन बाद फल तोड़ाई करने के लिए तैयार हो जाती है जो इसकी किस्म एवं मौसम पर निर्भर करता है ।

हल्के हरे रंग के फल को जो भाग भूमि से लगा रहता है वह सफेद से क्रीम जैसे हो जाए और गहरे हरे रंग की त्वचा वाले पीले रंग के हो जाएं व इसकी परिपक्वता के लाभप्रद संकेत है भारी मंद आवाज से इसकी परिपक्वता का पता चलता है । प्रतान जो तरबूज के आधार होते है जब सूख जाएँ वह परिपक्वता की अच्छी पहचान होती है । परागण के 30-40 दिन बाद फल तोड़ाई के लिए तैयार हो जाते हैं । फलों को चाकू से काटकर अलग करना चाहिए ।

उपज:

तरबूज की उपज कई बातों पर निर्भर करती है जिनमें भूमि की उर्वराशक्ति उगाई जाने वाली किस्म मौसम और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है । प्रति हैक्टेयर (200-250) क्विंटल तक प्रति हैक्टेयर उपज मिल जाती है जबकि संकर किस्मों से 300 क्विंटल तक प्रति हैक्टेयर उपज मिल जाती है ।

तरबूज के फलों को 2.2-4.4से.ग्रे. तापमान और 80 प्रतिशत सापेक्षित आर्द्रता पर 1-3 सप्ताह तक रखा जा सकता है और उनको दूरस्थ बाजारों में ट्रक द्वारा बिना किसी रेफ्रीजरेशन के बिक्री हेतु भेजा जा सकता है । कुछ किस्म के फलों को सामान्य तापमान पर 3 सप्ताह तक बिना खराब हुए रखे जा सकते हैं ।

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