घी: उपयोगिता और संरक्षण | Read this article in Hindi to learn about:- 1. घी का रासायनिक संगठन (Chemical Composition of Ghee) 2. घी की उपयोगिता (Utility of Ghee) 3. निर्माण विधि (Manufacturing Method) 4. परिरक्षण (Preservation) and Other Details.
Contents:
- घी का रासायनिक संगठन (Chemical Composition of Ghee)
- घी की उपयोगिता (Utility of Ghee)
- घी की निर्माण विधि (Manufacturing Method of Ghee)
- घी का परिरक्षण (Preservation of Ghee)
- घी का पैकिंग तथा परिवहन (Packaging and Transportation of Ghee)
- घी का नवीनीकरण (Renovation of Ghee)
1. घी का रासायनिक संगठन (Chemical Composition of Ghee):
घी में लगभग 98% ट्राईग्लिसराइडस, 1-2% डाईग्लिसराईडस, 0.1-0.2% मोनोग्लिसरा-ईडस, 1-10 mg/100 gm Ghee स्वतन्त्र वसीय अम्ल (FFA), 0-80 mg/100 gm फोस्फोलिपिडस, 0.25-0.40% कोलेस्ट्रोल तथा सूक्ष्म मात्रा में वसा विलेय विटामिन, कार्बोनाईल, ग्लिस्राईल ईथर तथा एल्कोहल पाये जाते हैं ।
धी में लगभग 500 वसीय अम्ल पाये जाते हैं जिनमें अधिकतर सम-संख्या कार्बन श्रृंखला (C4–18) पायी जाने हैं । घी में बहु असन्तृप्त अम्ल (Polyunsaturated Fatty Acids) 3-4% तक पाये जाते हैं ।
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भैंस के घी में ब्यूटाईरिक, पामिटिक, स्टियरिक, टैट्रानोईक तथा पैन्टानोईक अम्ल गाय के घी की अपेक्षा अधिक पाये जाते हैं । गाय के धी में कैप्रोइक से माईरिसटिक तक की श्रृंखला के अम्ल भैंस के घी की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाये जाते हैं ।
2. घी की उपयोगिता (Utility of Ghee):
दुग्ध वसा, वसा विलेय विटामिन, आवश्यक वसीय अम्ल तथा अन्य वृद्धि कारकों का महत्वपूर्ण स्रोत है । घी के उपयोग से मानसिक शक्ति, शारीरिक दिखावट तथा जीवितता (Longevity) में वृद्धि होती है । घी खाने से शरीर की कार्य करने की क्षमता तथा दबावों (Stress) के प्रति अवरोध में वृद्धि भी होती है ।
घी का उपयोग घाव, फोड़ा तथा आँख रोगों में दवा के रूप में भी किया जाता है । घी में उपस्थित Conjugated Linoleic Acid (C.L.A.) कैंसर रोग से बचाव (Anti-Carcinogenic) करता है । यह भोजन का स्वाद तथा ऊर्जा मान में वृद्धि करना है । भारत के कुल घी उपभोग का 60-70% सीधे उपभोग में, 15-20% भोज्य पदार्थों को तलने में एवं 5-7% धार्मिक कार्यों में किया जाता है ।
यह विश्वास किया जाता है कि घी जलाने से हवा शुद्ध होती है, यही कारण है हवन में तथा मृत शरीर के दाह संस्कार में प्राचीन काल से घी का प्रयोग किया जा रहा । घी का उपयोग बाल व शरीर मालिश, दवा निर्माण तथा सुगन्धि के रूप में भी किया जाता है ।
3. घी की निर्माण विधि (Manufacturing Method of Ghee):
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घी बनाने की विधियां, आधार पदार्थ (दूध, क्रीम, मक्खन), माध्यमिक उपचार तथा रख-रखाव के आधार पर निम्नलिखित हैं:
i. देशी विधि-मक्खन विधि (The Indigenous Milk-Butter Process),
ii. क्रीमरी-बटर विधि (Creamery Butter Method),
iii. सीधा क्रीम विधि (Direct Cream Method),
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iv. पूर्वस्तरीकरण विधि (Pre-Stratification Method),
v. सतत विधि (Continuous Ghee Making) ।
i. देशी विधि-मक्खन विधि (The Indigenous Milk-Butter Process):
दूध को मिट्टी के बर्तन में गर्म करके शाम को जामन मिला कर रखते हैं सुबह दही बनने पर उसे मथा जाता है । मक्खन बनने पर सतह से मक्खन निकाल कर प्रतिदिन उसे एक बर्तन में एकत्र कर ले जाते हैं ।
पर्याप्त मात्रा में मक्खन एकत्र होने पर उसे आग पर गर्म किया जाता है । गर्म करते समय घी पर झाग निर्माण अन्तिम अवस्था का सूचक माना जाता है । घी बनने पर उसे बिना हिलाए स्थिर रख दिया जाता है । वसा रहित ठोस कणों के पात्र की पेंदी में बैठ जाने पर उसमें से घी दूसरे बर्तन में निथार लिया जाता है ।
भारत में कुल घी उत्पादन का लगभग 90% घी इस विधि द्वारा निर्मित किया जाता है । घी अवशेष अधिक बचने के कारण दूध के कुल घी का लगभग 75-80 प्रतिशत घी ही निकल पाता है । भारत में AGMARK (Agriculture Marking and Grading) योजना के अन्तर्गत घी का श्रेणीकरण तथा पैकिंग करने में अधिकतर देशी घी का प्रयोग किया जाता है ।
ii. क्रीमरी-बटर विधि (Creamery Butter Method):
संगठित क्षेत्र की अधिकतर डेरियां इस विधि का प्रयोग करती हैं । इस विधि में नमक विहीन क्रीमी मक्खन (Unsalted Creamery Butter or White Butter) प्रयोग किया जाता है । सर्वप्रथम मक्खन को 60°C ताप पर गर्म करते हैं । पिघले मक्खन को घी बोयलर में स्थानान्त्रित करके 90°C ताप पर गर्म करते हैं ।
नमी का वाष्पीकरण होने तक यह ताप स्थिर रहता है । सतह पर एकत्र हुई परत (Scum) को छिद्रयुक्त पलटे (Perforated Ladle) द्वारा उतार कर अलग कर देते है । गर्म करने की अन्तिम अवस्था में ताप धीरे-धीरे बढ़ने लगता है । अन्तिम बिन्दु पर सतह के झाग (Effervescence) समाप्त होकर हवा के महीन बुलबुले बनते हैं ।
दही के कण ब्राऊन हो जाते हैं । इस समय घी से एक सुहावनी गन्ध भी आने लगती है । इस स्तर पर घी का अधिकतम ताप 110°C रखते हैं । इस ताप से अधिक पर गर्म करने से घी में “पकी गन्ध” (Cooked Flavour) उत्पन्न हो जाती है । घी को छान कर ठण्डा होने के लिए छोड़ देते हैं ।
iii. सीधा क्रीम विधि (Direct Cream Method):
क्रीम से घी बनाने में ताजी, जामन लगी क्रीम या घुली हुई क्रीम को स्टेनलैस स्टील के बने घी कैटल में लेकर “क्रीमरी बटर विधि” से तैयार करते हैं । क्रीम में सीरम ठोस अधिक होने के कारण घी अवशेष में वसा हानि अधिक होती है । वसा हानि में कमी लाने के लिए क्रीम की धुलाई की जा सकती है । क्रीम का दुबारा प्रथक्कीकरण करके क्रीम में वसा प्रतिशत बढ़ा कर भी यह लाभ प्राप्त किया जा सकता है ।
iv. पूर्वस्तरीकरण विधि (Pre-Stratification (PS) Method):
इस विधि में पिछले मक्खन को घी बायलर में 80-85°C ताप पर 30 मिनट तक स्थिर रखा जाता है । इस समय में यह पदार्थ तीन अलग-अलग सतहों में विभक्त हो जाता है । ऊपरी सतह पर तैरने वाले पदार्थों में वसा रहित दुग्ध ठोस पदार्थ जिनमें प्रमुखत: विकृत प्रोटीन पायी जाती है, मध्य परत में मुख्यत: वसा तथा पेंदी में मक्खनियां दूध व सीरम पाया जाता है ।
यान्त्रिक विधि में एकत्रित पेंदी के मक्खनियां दूध को निकाल दिया जाता है जिसमें मक्खन की लगभग 80% नमी व 70% वसा रहित ठोस होते हैं । नमी निकल जाने में ऊर्जा की बचत होती है तथा वसा रहित ठोस निकलने से घी अवशेष (Ghee Residue) कम बचते हैं फलस्वरूप वसा की हानि में कमी आती है ।
वसा की मध्य परत को उत्तर भारत में 110°C ताप पर तथा दक्षिणी भारत में 120°C ताप पर गर्म करते हैं । ऊपरी सतह पर एकत्रित विकृत प्रोटीन को भी बसा के साथ गर्म किया जाता है । घी में विशिष्ट सुवास (Characteristics Flavour) विकसित करने के लिए यह प्रक्रिया आवश्यक है इस विधि से घी निर्माण में 35 से 50% तक ऊर्जा की तथा 45% श्रम (Labour) की बचत होती है ।
प्राप्त घी में स्वतन्त्र वसीय अम्लों का स्तर निम्नतम होता है । अम्लों के बटर मिल्क में निकल जाने से इस विधि से प्राप्त घी की संग्रह आयु भी अधिकतम होती है । दक्षिण भारत में पकी गन्ध युक्त घी पसन्द किया जता है । अत: वहां पर उच्च ताप रखते हैं ।
v. सतत विधि (Continuous Ghee Making):
बैच विधि द्वारा बड़े स्तर पर घी उत्पादन में आने वाली समस्याओं के निराकरण हेतु सतत विधि का विकास किया गया । बैच विधि द्वारा अधिक मात्रा में घी निर्माण में सयन्त्र में नमी (घी से वाष्पीकरण द्वारा) तथा ऊष्मा के दबाव की समस्या प्रमुख रहती है ।
राष्ट्रीय डेरी अनुसन्धान संस्थान करनाल दारा घी उत्पादन की सतत विधि का विकास किया है । इस इकाई में Ghee Clarifier तथा घी अवशेष निकालने के लिए एक Bag Filter होता है । इसमें मक्खन को Butter Melter में पिघलाया जाता है ।
शीतलन तथा कणिकायन (Cooling and Granulation):
भारत में दानेदार घी पसन्द किया जाता है । घी निर्माण के बाद यदि उसे तेज गति से ठण्डा करते हैं तो छोटे कण युक्त घी बनता है । यदि घी को उसके पिघलांक (Melting Point) से 1°C अधिक ताप पर (गाय का घी 29°C, भैंस का घी 31°C) पर रखा जाये तो उसमें बड़े आकार के बहुत से कण बन जाते हैं । शीत गृह में घी को रखने पर उसकी कण रचना समाप्त होकर मोमी गठन (Waxy Texture) बन जाता है ।
बटर आयल का घी में परिवर्तन (Conversion of Butter Oil in Ghee):
बहुत से देशों में फालतू दुग्ध वसा को मक्खन की बजाय बटर आयल में परिवर्तित कर लिया जाता है । इसे Anhydrous Milk Fat भी कहते हैं । यह सुवास (Aroma), स्वाद (Taste) व गठन (Texture) में घी से निम्न स्तर का होता है ।
बटर आयल को घी में परिवर्तित करने के लिए बटर आयल में 20% दही या 5% दही चूर्ण मिलाया जाता है तत्पश्चात इसे 3 मिनट के लिए 110-120°C ताप पर गर्म करने हैं । इस विधि से इसमें घी जैसा स्वाद, सुवास तथा गठन प्राप्त हो जाता है । बटर आयल में संश्लेषित सुवास मिलाकर भी यह परिवर्तन किया जा सकता है ।
4. घी का परिरक्षण (Preservation of Ghee):
घी सामान्य ताप पर काफी लम्बे समय तक भी जीवाणु व धातु आदि के कारण खराब नहीं होता है । घी यदि खराब होता है तो उसका मुख्य कारण असन्तृप्त वसीय अम्लों का आक्सीजन द्वारा आक्सीकरण होना है । इस आक्सीकरण के बाद घी में तेज असहनीय गन्ध उत्पन्न हो जाती है ।
घी का स्वआक्सीकरण (Auto-Oxidation), धात्वीय संक्रमण (Metallic Contamination) तथा सूर्य के प्रकाश द्वारा उत्प्रेरित होता है । घी पर अन्य किरणों की अपेक्षा Ultra Violet प्रकाश का अधिक घातक प्रभाव पड़ता है ।
घी की संग्रह आयु वृद्धि के लिए संश्लेषित Antioxidants जैसे- Gallates (Ethyl. Propyl. Octyl.), Butylated Hydroxyl Toluene (BHT), Butylated Hydroxyanisol (BHA), Tertiary Butyl-Hydroquinone (TBHQ), α-Tocopheral, Phospholipids, Ascorbic Acid तथा कुछ प्राकृतिक Antioxidants जैसे- Curry Leaves, Betel Leaves, Soya bean Powder, Safflower and Amla भी मिलाया जा सकता है ।
इनके अतिरिक्त घी को उच्च ताप तक गर्म करने से उसकी संग्रह आयु बढ़ती है । घी को 20°C ताप पर संग्रह करना उचित रहता है ।
5. घी का पैकिंग तथा परिवहन (Packaging and Transportation of Ghee):
घी को प्रमुख्यत: 250 ग्राम से 14 कि.ग्रा. क्षमता के Lacquered Tin Cans में पैक किया जाता है । घी का पैकिंग Polymer Coated Cellophane, Polyester, Nylon-6, Food-Grade PVC आदि में भी किया जाता है ।
पैकिंग में डिब्बा बन्द करते समय अन्दर वायु उपस्थित नहीं रहनी चाहिए जिससे आक्सीकरण नहीं होगा । डिब्बा बन्द घी को सामान्य ताप पर संग्रहित किया जा सकता है । घी की अधिक मात्रा होने पर उसका परिवहन Tankers में भी किया जा सकता है ।
6. घी का नवीनीकरण (Renovation of Ghee):
पुराने घी को जिसमें Rancid Flavour उत्पन्न हो गया है, का नवीनीकरण करने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाते हैं:
1. घी को दही, बीटल या करी पत्तियों के साथ उबालना व छानना ।
2. पीला रंग जैसे Annatto या Turmeric मिलाना ।
3. पुराने घी में नया घी मिलाना ।
4. उदासीनीकरण करना- घी को 60-70°C ताप पर गर्म करके उसमें उदासीनीकारक का महीन (60 Mesh) चूर्ण 3% की दर से छिड़कते हैं । ताप 108°C तक बढ़ा कर हिलाते हुए 60°C ताप तक ठण्डा करते हैं । तत्पश्चात घी का कणिकायन करते हैं ।
घी का मूल्यांकन करने की विधि (Valuation Method of Ghee):
मूल्यांकन में सर्वप्रथम पैकेज का बाह्य परीक्षण किया जाता है । पैकेज खोल कर घी के रंग की जांच के साथ-साथ गठन (Texture) में कणों का आकार तथा द्रवित वसा का अनुपात देखते हैं ।
अब घी को अच्छी प्रकार मिला कर एक नमूना लेकर, पिघला कर उसमें तलछट (Sediment) की मात्रा नोट करते है तथा एक हाथ के पीछे थोड़ा घी मल कर उसे सूंघ कर गन्ध का परीक्षण किया जाता है । घी की कुछ बूदें मुँह में डाल कर स्वाद मालूम किया जाता है ।
किसी मानक विधि (Standard Method) से घी में ओलीक अम्ल के रूप में उपस्थित अम्लता (Oleic Acid) का परीक्षण करते हैं । अन्त में घी के पैकेज को खाली करके, पैकेज के अन्दर की सफाई आदि का परीक्षण किया जाता है ।