विश्व-शान्ति के प्रति एक मानवीय दृष्टिकोण पर निबंध | A Human Approach to World Peace – Essay in Hindi!

जब हम प्रात: काल उठते हैं और रेडियो सुनते हैं या समाचारपत्र पढ़ते हैं, तो हमारा सामना हिंसा अपराध विपदा और युद्ध के समाचारों से होता है । मुझे ऐसा एक भी दिन याद नहीं आता जब संसार में कहीं-न-कहीं कोई भयावह घटना न घटी हो ।

आधुनिक युग में एक बात तो स्पष्ट है कि हमारा बहुमूल्य जीवन असुरक्षित है । आज जिस प्रकार से हम बुरी खबरों का सामना करते हैं पहले की पीढ़ी को नहीं करना पड़ता था । अनवरत डर और तनाव के माहौल के कारण कोई भी संवदेनशील और सहृदय व्यक्ति इस आधुनिक दुनिया के विकास के विषय में गम्भीर प्रश्न उठा सकता है ।

यह विडम्बना ही है कि उन्नत औद्योगिक समाज से ही गम्भीर समस्याएं उत्पन्न होती हैं । विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने कई क्षेत्रों में चमत्कार कर दिखाया है, लेकिन बुनियादी मानव समस्याएं वैसे की वैसी ही बनी हुई हैं ।  साक्षरता दर में अभूतपूर्व तरीके से वृद्धि हुई है, इसके बाबुजूद सार्वभौमिक शिक्षा से अच्छाई आने की अपे क्षा मानसिक अशान्ति और असन्तोष में वृद्धि हुई है ।

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इसमें कोई सन्देह नहीं कि दिन-प्रतिदिन हमारे भौतिक विकास में वृद्धि हो रही है और प्रौद्योगिकी उन्नत हो रही है । लेकिन यह काफी नहीं है; क्योंकि हम सुख-शान्ति लाने या दु:खों से निजाद पाने में कामयाब नहीं हुए है । हम केवल यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि हमारी प्रगति और विकास में कोई गम्भीर कमी है और यदि हम वक्त रहते इस कमी को दूर नहीं करेंगे तो मानवता के भविष्य के लिए इसके घातक परिणाम निकल सकते हैं ।

मैं विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विरुद्ध बिकुल नहीं हू; क्योंकि इन्होंने मानव जाति के विकास भौतिक सुख और कल्याण में अमूल्य योगदान किया है । इनसे हमें अपनी दुनिया को बेहतर ढंग से समझने में सहायता मिली है । लेकिन यदि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर आवश्यकता से अधिक बल देंगे तो मनुष्य ज्ञान और समझ के उन पहलुओं से विमुख हो सकते हैं, जो हमें ईमानदारी और परोपकार की ओर ले जाते हैं ।

हालांकि विज्ञान और प्रौद्योगिकी में असीमित भौतिक सुख के निर्माण का सामर्थ्य है, लेकिन वे विश्व सभ्यता को आकार देने वाले सदियों पुराने आध्यात्मिक और लोकोपकारी मूल्यों का स्थान नहीं ले सकते । विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व लाभ से कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता । लेकिन बुनियादी मानव समस्याएं वैसे की वैसी ही बनी हुई है ।

हम अब भी दु:ख डर और तनाव झेल रहे हैं, इसलिए भौतिक विकास और आध्यात्मिक मानव-मूल्यों के विकास के मध्य तर्कसंगत सन्तुलन आवश्यक है । इस महान् तालमेल को सम्भव बनाने के लिए हमें अपने मानवीय मूल्यों को दोबारा से जीवित करने की आवश्यकता है । कई लोग वर्तमान विश्वव्यापी नैतिक संकट के विषय में मेरी चिन्ता से सहमत होंगे ।

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इसलिए मैं अपनी इस चिन्ता से सहमत होने वाले सभी लोकोपकारियों और धार्मिक लोगों से अपील करता हूं कि वे हमारे समाज को और अधिक करुणामय न्यायसंगत एवं समतामूलक बनाने में सहायता करें ।  मैं किसी बौद्ध या तिब्बती की तरह नहीं बोल रहा हूं और न ही मैं अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ के रूप में बोल रहा हूं (हालांकि मैं इन मामलों पर टिप्पणी अवश्य करता हूं) ।

इसके विपरीत मैं मनुष्य के रूप में मानवीय मूल्यों की पैरवीकर्ता के रूप में बोल रहा हूँ । ये मूल्य न केवल महायान बौद्ध धर्म अपितु दुनिया के सभी महान् धर्मों के मूल आधार हैं । मैं इस परिप्रेक्ष्य में आपके सामने अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण प्रस्तुत कर रहा हूं:

1. वैश्विक समस्याओं का समाधान करने के लिए सार्वभौमिक मानवतावाद आवश्यक है ।

2. करुणा विश्व की शान्ति का स्तम्भ है ।

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3. सभी धर्मों में विश्व की शान्ति और मानवता की बात कही गयी है ।

4. मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले संस्थानों को मजबूत बनाने के लिए हर व्यक्ति की सार्वभौमिक उत्तरदायित्व है ।

मानव मनोवृत्ति में बदलाव द्वारा मानव समस्याओं को हल करना । आज हम जिन समस्याओं का सामने कर रहे हैं, उनमें से कुछ प्राकृतिक आपदाएं हैं । उन्हें स्वीकार करते हुए उनका सामना धैर्य से किया जाना चाहिए । दूसरी समस्याएं हमारी स्वयं की देन है, जो नादानी या मूर्खता से उत्पन्न हुई हैं । इन्हें ठीक किया जा सकता है ।

इस प्रकार की एक समस्या राजनीतिक या धार्मिक विचारधाराओं के टकराव से उत्पन्न होती है । लोग एकल मानव परिवार से जोड़ने वाली बुनियादी मानवता को भूलकर छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए एक-दूसरे से लड़ते है । लेकिन हमें स्मरण रखना चाहिए कि दुनिया के विभिन्न धर्म विचारधाराएं और राजनीतिक व्यवस्थाएं मानव जाति के लिए हैं तथा उनका उद्देश्य सुख-शान्ति लाना है ।

हमें इस बुनियादी लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए । साथ ही हमें लक्ष्य के ऊपर साधन को कभी नहीं रखना चाहिए । भौतिक पदार्थ और विचारधारा पर मानवता की उच्चता सदैव बनी रहनी चाहिए । आज धरती पर मानव सहित सभी प्राणियों को परमाणु हथियारों से सबसे ज्यादा खतरा है । मैं इस खतरे के विस्तार में नहीं जाऊंगा ।

लेकिन परमाणु शक्ति समृद्ध देशों के सभी नेताओं-जिनके हाथ में वास्तव में दुनिया का भविष्य है, वैज्ञानिकों एवं तकनीशियनों जो आश्चर्यजनक विध्वंसक अस्त्रों को बनाना जारी रखे हुए हैं और सामान्य रूप से सभी लोगों जो अपने नेताओं पर दबाव डालने की स्थिति में हैं से अपील करता हूं कि वे बुद्धिमत्ता से काम लें और सभी परमाणु हथियारों को नष्ट कर दें ।

हम जानते हैं कि परमाणु युद्ध की स्थिति में कोई भी विजेता नहीं होगा; क्योंकि इस धरती पर कोई भी जीवित नहीं बचेगा । इस प्रकार के अमानवीय और  क्रूर विध्वंस के बारे में सोचते हुए क्या दिल नहीं कांपता ?  क्या यह तर्कसंगत नहीं है कि समय रहते हुए हम अपने विनाश के कारणों को दूर कर दें ?

हम अकसर अपनी समस्याओं से मुक्ति नहीं पाते; क्योंकि हमें या तो उसका कारण पता नहीं होता या कारण मालूम होता भी है, तो उसे समाप्त करने का हमारे पास साधन नहीं होता । लेकिन परमाणु खतरे के बारे में ऐसा नहीं है । चाहे मनुष्य हो या अन्य प्राणी सभी सुख-शान्ति और सुरक्षा चाहते हैं ।

जीवन जितना मानव को प्यारा है, उतना ही पशु-पक्षियों को भी है । यहां तक कि कीड़े-मकोड़े भी अपने प्राणों को खतरे में पाकर बचने का प्रयास करते हैं । जिस प्रकार हम जीवित रहना चाहते हैं और मरना नहीं चाहते उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के अन्य जीव भी जीवित रहना चाहते हैं, हालांकि उनके पास अपनी रक्षा का तरीका अलग होता है । सुख और दु:ख दो प्रकार के होते हैं: शारीरिक और मानसिक ।

मेरे विचार से इन दोनों में मानसिक दु:ख और सुख बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । इसलिए मैं धैर्य से मानसिक पीड़ा सहने और स्थायी सुख प्राप्त करने पर बल देता हूं । मेरे पास सुख के बारे में एक सामान्य और ठोस विचार भी है: आन्तरिक शान्ति और आर्थिक विकास के साथ विश्व-शान्ति । इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सार्वभौमिक उत्तरदायित्व की भावना का विकास होना आवश्यक है ।

इसके अलावा प्रत्येक व्यक्ति-चाहे वह किसी भी नस्ल, रंग, लिंग या राष्ट्रीयता का हो-के प्रति गहरा लगाव होना चाहिए । सार्वभौमिक उत्तरदायित्व के पीछे मूल विचार यह है कि मेरी इच्छाओं की भांति ही सबकी इच्छाएं हैं । प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है, दु:ख नहीं । यदि हम अकलमन्द व्यक्ति के रूप में इस तथ्य को स्वीकार नहीं करेंगे तो हमें इस धरती पर और ज्यादा दु:ख भोगना पड़ेगा ।

यदि हम जीवन के प्रति आत्म-केन्द्रित तरीका अपनाते हैं और अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का लगातार प्रयोग करते हैं, तो हमें भले ही अस्थायी फायदा हो परन्तु अन्त में हम व्यक्तिगत सुख प्राप्त नहीं कर पायेंगे और विश्व की शान्ति का स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा ।

अनेक सुख के लिए मानव ने कई तरीके प्रयोग किये हैं । ये सभी तरीके अकसर कूर और घिनौने रहे हैं । मानवता को भूलकर वह अपने फायदे के लिए अन्य व्यक्तियों और प्राणियों को दु:ख देता है ।  इस प्रकार के दूर तक न सोचे जाने वाले कामों से आखिर में दूसरों के साथ-साथ स्वयं को भी दु:ख भोगना पड़ता है । मानव का जन्म बड़े भाग्य से मिलता है ।

इसलिए जहा तक सम्भव हो सके, मानव-जन्म का सदुपयोग करना चाहिए । सार्वभौमिक जीवन की प्रक्रिया के बारे में हमारा एक समुचित परिप्रे क्ष्य होना चाहिए ताकि कोई व्यक्ति या समूह दूसरों की कीमत पर सुख और सम्पन्नता प्राप्त न करे । लेकिन यह तभी होगा जब हम दुनिया की समस्याओं के विषय में एक नया नजरिया अपनायें ।

त्वरित प्रौद्योगिकीय विकास अन्तर्राष्ट्रीय विकास और बढ़ते राष्ट्रपारीय सम्बन्धों के कारण रोजाना सिकुड़ती और एक-दूसरे पर अवलम्बित होती जा रही है । आज हम पूर्णरूप से एक-दूसरे पर बहुत निर्भर हैं । प्राचीनकाल में अधिकतर समस्याएं परिवार के आकार से सम्बन्धित होती थीं और उनका पारिवारिक स्तर पर ही समाधान कर लिया जाता था लेकिन आज स्थिति बहुत अलग है ।

आज हम इतने एक-दूसरे पर अवलम्बित हैं, एक-दूसरे से इतने जुड़े हुए हैं कि सार्वभौमिक दायित्व वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के बिना अपने अस्तित्व के खतरे से निपटने की आशा नहीं कर सकते सुख-शान्ति की बात तो छोड़ ही दीजिये ।

कोई राष्ट्र अपनी समस्याओं को सन्तोषजनक तरीके से  स्वयं नहीं सुलझा सकता । दूसरे राष्ट्रों के हित तरीके और सहयोग पर बहुत कुछ निर्भर करता है । विश्व-शान्ति के लिए दुनिया की समस्याओं के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए । इसका तात्पर्य क्या है ? हम पहले ही कह चुके हैं कि सभी व्यक्ति सुख की कामना करते हैं, न कि दु:ख की ।

दूसरे लोगों की आकांक्षाओं और भावनाओं को विस्मृत कर केवल अपने सुख के लिए प्रयत्न करना नैतिक दृष्टि से गलत और व्यावहारिक रूप से बेबुकूफी है । अक्लमन्दी की बात तो यह है कि हमें अपने सुख के साथ-साथ दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए । इस प्रकार की सोच हमें ‘विवेकपूर्ण स्वार्थ’ की तरफ ले जायेगी और फिर स्वयं को ‘परस्पर हित’ में बदल लेगी ।

हालांकि राष्ट्रों के मध्य बढ़ती परस्पर निर्भरता से और ज्यादा सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की आशा की जा सकती है, लेकिन जब तक लोग दूसरों की भावनाओं और प्रसन्नता के प्रति उदासीन बने रहेंगे उनमें वास्तविक सहयोग की भावना उत्पन्न नहीं होगी ।

जब लोग लालच और नफरत से प्रेरित होते हैं, तो वे सौहार्दपूर्ण जीवन नहीं जी सकते । स्वार्थ के कारण उत्पन्न हुई राजनीतिक समस्याओं का आध्यात्मिक उपायों से समाधान नहीं किया जा सकता है । लेकिन आज हम जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं, आध्यात्मिक  ढंग से धीरे-धीरे उनकी जड़ों को समाप्त किया जा सकता है ।

दूसरी ओर यदि मानव जाति अपनी समस्याओं का अस्थायी ढंग से निवारण करेगी तो भावी पीढ़ियों को गम्भीर दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा । दुनिया की जनसंख्या बढ़ रही है और हमारे संसाधन तीव्रता से कम होते जा रहे हैं ।

उदाहरण के लिए पेड़ों को देखिये कोई नहीं जानता कि जंगलों की बड़े पैमाने पर कटाई से जलवायु मिट्टी और वैश्विक परिस्थिति पर क्या प्रतिकूल असर होगा । आज हमारे सामने समस्याएं इसलिए मुह खोले खड़ी हैं; क्योंकि लोग समस्त मानव परिवार की अपेक्षा केवल अपने थोड़े समय के स्वार्थों पर ध्यान दे रहे हैं ।

लोग पृथ्वी और सार्वभौमिक जीवन पर पड़ने वाले लम्बे समय के प्रभावों के विषय में नहीं सोच रहे हैं । यदि वर्तमान पीढ़ी के लोग आज इन प्रभावों के बारे में नहीं सोचेंगे तो भावी पीढ़ी सम्भवत: इनसे मुक्ति नहीं पा सकेगी ।

मैंने अभी तक जिन सिद्धान्तों की चर्चा की है, वे दुनिया के सभी धर्मों की नैतिक शिक्षाओं के अनुरूप हैं । मेरा मानना है कि दुनिया के सभी प्रमुख धर्म-बौद्ध, ईसाई, कन्फ़्यूशिन हिन्दू, इसलाम, जैन यहूदी, सिख ताओ, जरथुस्त-प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं ।

उनका लक्ष्य आध्यात्मिकता द्वारा मनुष्य का उद्धार करना है और वे अपने अनुयायियों को अच्छा मानव बनने के लिए प्रेरित करते हैं । सभी धर्म दिमाग, शरीर और वाणी के कामों को सम्पूर्ण बनाने के लिए नैतिकता का उपदेश देते हैं । वे हमें मिथ्या न बोलने, चोरी न करने दूसरों की जान न लेने आदि की शिक्षा देते हैं ।

मानवता के महान् पैरवीकर्ताओं ने नैतिकता के जो उपदेश दिये हैं, वे सभी नि स्वार्थ हैं । महान् व्यक्ति चाहते थे कि उनके अनुयायी गलत मार्ग से दूर रहें और अच्छाई के मार्ग पर चलें । सभी धर्मों का कहना है कि अपना हित साधने की उग्र भावना और विपत्ति के कारकों को जन्म देने वाले अनुशासनहीन दिमाग पर नियन्त्रण आवश्यक है । प्रत्येक धर्म हमें आध्यात्मिक अवस्था में-जो कि शान्तिपूर्ण अनुशासित नैतिक और विवेकपूर्ण है-जाने का मार्ग दिखाता है ।

इसलिए मेरा मानना है कि सभी धर्मों का सन्देश एक जैसा है । वक्त और हालात के बदलने तथा संस्कृति के प्रभावों के कारण ही सम्भवत: धर्मों के सिद्धान्तों में फर्क आया । इस बात में कोई शक नहीं कि जब हम विशुद्ध रूप से धर्म के तात्त्विक पक्ष पर विचार करते हैं, तो ऐसी बहस का कोई अन्त दिखायी नहीं देता ।

बहरहाल सभी धर्मों के दृष्टिकोण में छोटे-मोटे अन्तर पर बहस करने की अपेक्षा हमें अपनी रोजाना की दिनचर्या में उनके बताये अच्छाई के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए । जिस प्रकार विभिन्न बीमारियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की चिकित्सा होती है, उसी प्रकार मानवता की बेहतरी के लिए अनेक धर्मों में कई मार्ग बताये गये हैं ।

सभी धर्म प्राणियों को दु:ख से बचाने और उन्हें सुख-शान्ति के मार्ग पर लाने के लिए अपनी ओर से सहायता करते हैं । हो सकता है, किन्हीं कारणों से हमें कुछ धार्मिक सचाइयों की व्याख्याएं बहुत अच्छी लगती हों परन्तु मनुष्य के हृदय से निकली एकता की भावना महान् होती है । प्रत्येक धर्म अपने ढंग से मानव के दु:ख को कम और विश्व सभ्यता में योगदान करता है । यहां धर्मान्तरण मुद्दा नहीं है ।

उदाहरण के लिए मैं दूसरों को बौद्ध धर्म का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित नहीं करता या मैं केवल बौद्ध धर्म की वकालत नहीं करता । इसके विपरीत मैं यह सोचता हूं कि बौद्ध लोकोपकारी होने के कारण मैं मनुष्य के हित में किस प्रकार भागीदार बन सकता हूं ।

मैं विश्व धर्मों के मध्य बुनियादी समानताओं का वर्णन करते हुए अन्य धर्मों के मूल्यों पर किसी विशेष धर्म की वकालत नहीं करता और न ही किसी नये ‘विश्व धर्म’ की खोज करता हूं । आज आवश्यकता इस बात की है कि विश्व के विभिन्न धर्म मानव-अनुभव और विश्व सभ्यता को सम्पन्न बनायें ।

विभिन्न क्षमता और प्रवृत्ति वाले मानव मस्तिष्क को सुख-शान्ति के विभिन्न दर्शन की आवश्यकता है । यह भोजन की तरह है । कुछ लोग ईसाई धर्म को ज्यादा प्रभावशाली मानते हैं, तो अन्य लोग बौद्ध धर्म को; क्योंकि इसमें कोई सृजनकर्ता नहीं है और प्रत्येक वस्तु आपके कर्मों पर आश्रित है ।

हम दूसरे धर्मों के बारे में भी इसी प्रकार का तर्क दे सकते हैं । इससे स्पष्ट है कि मानव को अपनी जीवनशैली अनेक आध्यात्मिक आवश्यकताओं और उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त राष्ट्रीय परम्पराओं के अनुकूल सभी विश्व धर्मों की आवश्यकता है ।

मैं इस सन्दर्भ में सभी धर्मों के बीच अच्छी सूझ-बूझ के लिए दुनिया के विभिन्न भागों में किये जा रहे प्रयत्नों का स्वागत करता हूं । आज इसकी बहुत आवश्यकता भी है । यदि सभी धर्म मनुष्य की बेहतरी को अपनी चिन्ता का मुख्य कारण बना. लेंगे तो वे विश्व-शान्ति के लिए सौहार्दपूर्वक एक साथ कार्य कर सकेंगे । परस्पर विश्वास से एकता आयेगी जो एक साथ कार्य करने के लिए आवश्यक है ।

हालांकि यह एक उपयोगी कदम है, लेकिन हमें स्मरण रखना चाहिए कि समस्याओं का कोई भी त्वरित या आसान हल नहीं है! हम विभिन्न निष्ठाओं के मध्य सैद्धान्तिक अन्तर को नहीं छिपा सकते और न ही किसी नये विश्व-धर्म से मौजूदा धर्मों को हटाने की उम्मीद कर सकते हैं । प्रत्येक धर्म का अपना विशिष्ट योगदान रहा है । प्रत्येक धर्म के अपने विशिष्ट अनुयायी हैं ।

इसलिए समस्त संसार को सभी धर्मों की आवश्यकता है । विश्व की शान्ति के बारे में चिन्ता करने वाले धार्मिक व्यक्तियों के समक्ष दो बुनियादी कार्य हैं-प्रथम हमें सभी धर्मों के मध्य एकता लाने के लिए एक-दूसरे की निष्ठा को भली प्रकार समझना चाहिए । एक-दूसरे की निष्ठा का सम्मान करते हुए और मनुष्य के कल्याण के अपने साझा लक्ष्य पर बल देते हुए उसे कदम-दर-कदम प्राप्त किया जा सकता है ।

दूसरा हमें प्रत्येक मानव हृदय के स्पर्श करने और मानव सुख-शान्ति को बढ़ाने वाले बुनियादी आध्यात्मिक मूल्यों के बारे में सहमति बनानी चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि हमें सभी धर्मों के साझा मानवीय आदर्शों पर बल देना चाहिए ।

हमें इन दो कदमों से विश्व-शान्ति के लिए जरूरी आध्यात्मिक स्थितियों के निर्माण में सहायता मिलेगी । इन स्थितियों का निर्माण हम व्यक्तिगत रूप से और एकजुट होकर भी कर सकते हैं । जब हम विभिन्न धर्मों को दूसरों के प्यार और सम्मान सामुदायिक भावना के विकास के जरूरी साधन के रूप में देखेंगे तो हम एक साथ विश्व-शान्ति के लिए कार्य कर सकते हैं ।

सबसे उपयोगी वस्तु धर्म के उद्देश्य को देखना है, न कि धर्मशास्त्र और तत्त्व विज्ञान के मूल में जाना है, यदि इनके विवरण में जाना केवल बुद्धिवाद होगा । मेरा मानना है कि यदि हम छोटे तत्त्व-मीमांसक मतभेदों को पृथक् कर दें तो दुनिया के सभी प्रमुख धर्म विश्व-शान्ति में योगदान करते हैं और मानवता के कल्याण में एक साथ कार्य करते हैं । तत्त्व-मीमांसा प्रत्येक धर्म का अपना आन्तरिक मामला है ।

यद्यपि विश्व में फैले हुए आधुनिकीकरण से पंथनिरपेक्षता का विस्तार हो रहा है और दुनिया के कुछ भागों में योजनाबद्ध ढंग से आध्यात्मिक मूल्यों को समाप्त किया जा रहा है, इसके बाबुजूद बड़ी संख्या में लोग किसी-न-किसी धर्म में भरोसा करते हैं ।

यहा तक कि गैर-धार्मिक राज्यों में भी लोगों की धार्मिक निष्ठा खत्म नहीं हुई है । इससे धर्म की शक्ति सिद्ध होती है । इस धार्मिक ऊर्जा और शक्ति का प्रयोग विश्व-शान्ति के लिए जरूरी आध्यात्मिक स्थितियों के निर्माण में किया जा सकता है । इस सन्दर्भ में दुनिया के सभी धार्मिक नेताओं और मानवतावादियों को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है ।

विश्व-शान्ति प्राप्त हो या न हो हमें इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कार्य करते रहना चाहिए । यदि हमारे दिमाग में क्रोध भरा है, तो हम मानव बुद्धि के बेहतरीन भाग-बुद्धिमत्ता यानी सही और गलत के मध्य निर्णय करने की क्षमता को खो देंगे ।

आज दुनिया जिन गम्भीर समस्याओं से जूझ रही है, गुस्सा भी उनमें से एक है । वर्तमान उपस्थित टकरावों के लिए गुस्सा ही उत्तरदायी है । मध्य-पूर्व दक्षिण-पूर्व एशिया उत्तर-दक्षिण समस्या आदि इसके उदाहरण हैं । ये टकराव एक-दूसरे की मानवता को न समझने के कारण उत्पन्न होते हैं । इनका उत्तर न तो विकास और सैन्य बल का प्रयोग है और न ही अस्त्रों की होड़ ।

इनका उत्तर विशुद्ध रूप से राजनीतिक या प्रौद्योगिकीय भी नहीं है । इन टकरावों को आध्यात्मिकता से ही दूर किया जा सकता है । हमें आम व्यक्ति की स्थिति पर संवेदनशीलता के साथ विचार करने की आवश्यकता है । नफरत और युद्ध से किसी को सुख-शान्ति नहीं मिल सकती युद्ध में विजयी होने वालों को भी नहीं ।

हिंसा से घोर पीड़ा-तकलीफ ही उत्पन्न होती है । इसलिए विश्व के नेताओं को नस्ल संस्कृति और विचारधारा से ऊपर उठकर आम व्यक्ति की स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए और एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए । इससे लोगों समुदायों राष्ट्रों को ही नहीं अपितु समस्त संसार को फायदा होगा ।

मेरी सलाह है कि विश्व नेताओं को किसी सुन्दर स्थान पर बिना किसी एजेण्डे के मिलना चाहिए मानव के रूप में केवल एक-दूसरे को जानने के लिए । इसके पश्चात् उन्हें आपसी और वैश्विक समस्याओं पर बातचीत के लिए बैठक करनी चाहिए । कई अन्य व्यक्ति मेरे इस विचार से सहमत होंगे कि विश्व नेताओं को परस्पर सम्मान और एक-दूसरे की मानवता की समझ के वातावरण में कांग्रेस टेबल पर मिलना

चाहिए ।

संसार में मनुष्य जाति के मध्य सम्बन्धों को मधुर बनाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय पर्यटन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए । जनसंचार माध्यम भी विशेषतौर पर लोकतान्त्रिक देशों में मानव कल्याण के समाचार को ज्यादा जगह देकर विश्व-शान्ति में योगदान कर सकते हैं ।

इस प्रकार के समाचारों से मानवता को बढ़ावा मिलता है । अन्तर्राष्ट्रीय संसार में कुछ बड़ी शक्तियों के विस्तार से अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों की मानवीय भूमिका को अनदेखा किया जा रहा है । मैं आशा करता हूं कि इस स्थिति में परिवर्तन आयेगा और सभी अन्तर्राष्ट्रीय संगठन विशेषतौर पर संयुक्त राष्ट्र संघ मानव-हित और अन्तर्राष्ट्रीय समझ को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय और महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे ।

यदि कुछ ताकतवर देश अपने मतलब के लिए संयुक्त राष्ट्र जैसे विश्व संगठनों का सही उपयोग नहीं करेंगे तो यह दुखदायी होगा । संयुक्त राष्ट्र को विश्व-शान्ति का माध्यम बनना चाहिए । सभी लोगों को संयुक्त राष्ट्र का सम्मान करना चाहिए; क्योंकि यह विश्व संस्था छोटे उत्पीड़ित राष्ट्रों और इस धरती के लिए एकमात्र उम्मीद की किरण है ।

चूंकि सभी राष्ट्र पहले की अपेक्षा अब एक-दूसरे पर आर्थिक रूप से ज्यादा निर्भर हैं, इसलिए मानवीय सोच राष्ट्रीय सीमाओं से दूर जानी चाहिए और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को गले लगाया जाना चाहिए । इस बात में कोई आशंका नहीं कि जब तक हम वास्तविक सहयोग का वातावरण नहीं बनायेंगे धमकी देने या सेना के प्रयोग की अपेक्षा दिलों को नहीं जीतेंगे दुनिया की समस्याएं बढ़ती ही जायेंगी ।

यदि निर्धन देशों में लोगों को सुख-शान्ति से वंचित रखा जायेगा तो उनमें निश्चित रूप से असन्तोष पैदा होगा और वे सम्पन्न देशों के लिए मुसीबत खड़ी करेंगे । यदि न चाहने वाले लोगों पर अवांछित सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचों को थोपा जायेगा तो विश्व-शान्ति सम्भव नहीं होगी । लेकिन यदि हम दिल से दिल के स्तर पर लोगों को सन्तुष्ट करेंगे तो शान्ति अवश्य ही आयेगी ।

प्रत्येक राष्ट्र में प्रत्येक व्यक्ति को सुख-शान्ति का अधिकार दिया जाना चाहिए और राष्ट्रों के मध्य छोटे-से-छोटे राष्ट्रों की भलाई के लिए भी समान रूप से चिन्ता होनी चाहिए । मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि कोई प्रणाली दूसरी प्रणाली से अच्छी है और सभी को उसे अपनाना चाहिए ।

इसके विपरीत विभिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रणाली और विचारधाराएं वांछनीय हैं, जो मनुष्य समुदाय के अन्दर व्यवस्थाओं से मिलती-जुलती हों । इस विविधता से सुख-शान्ति के लिए मनुष्य की कोशिशों में तीव्रता आयेगी । इसलिए प्रत्येक समुदाय आत्मनिर्णय पर आधारित अपनी राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक प्रणाली की प्रगति के लिए आजाद होना चाहिए ।

समरसता न्याय और शान्ति अनेक कारकों पर निर्भर करती है । हमें मनुष्य के हित को ध्यान में रखते हुए इनके लम्बे समय तक फायदों के बरि में विचार करना चाहिए । मुझे पता है कि हमारे समक्ष बहुत कठिन कार्य है । लेकिन इसका अन्य कोई रास्ता भी नहीं है । मेरा सुझाव सामान्य मानवता पर आधारित है ।

दूसरों के हित से मतलब रखने के अतिरिक्त राष्ट्रों के सामने और कोई विकल्प नहीं है । इसी में सबका कल्याण है । यूरोपीय आर्थिक समुदाय और दी क्षण-पूर्व एशियाई राष्ट्र सरीखे क्षेत्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के गठन से इस नये सत्य की पुष्टि होती है ।

मुझे आशा है कि इस प्रकार के और ज्यादा राष्ट्रपारीय संगठनों का गठन होगा विशेषतौर पर उन क्षेत्रों में जहां आर्थिक विकास और क्षेत्रीय स्थिरता की कमी है । वर्तमान परिस्थितियों में मानवीय सम्बन्ध और सार्वभौमिक दायित्व की आवश्यकता में वृद्धि हो रही है ।

इस प्रकार के विचारों को मूर्त रूप देने के लिए हमें साफ और दयालु दिल बनना होगा अन्यथा न तो सार्वभौमिक सुख-प्राप्ति हो सकती है और न ही स्थायी विश्व-शान्ति मिल सकती है । हम पेपर पर शान्ति की स्थापना नहीं कर सकते ।

सार्वभौमिक दायित्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की वकालत करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि प्रत्येक राष्ट्रीय समाज को विश्व-शान्ति की दिशा में कार्य करना चाहिए । समाज को ज्यादा न्यायसंगत और समतामूलक बनाने के लिए अतीत में प्रयत्न किये गये हैं ।

समाज की विरोधी ताकतों से लड़ने के लिए महान् चार्टरों वाले संस्थान स्थापित किये गये हैं । लेकिन अच्छी किस्मत न होने से अपने स्वार्थ के कारण इन विचारों के उद्देश्य पूरे नहीं हुए । आज हम देख रहे हैं कि अपना हित साधन वालों की कुदृष्टि ने नैतिक और आदर्श सिद्धान्तों को किस प्रकार धुंधला बना दिया है, विशेषतौर पर राजनीति के क्षेत्र में ।

एक विचारधारा हमें राजनीति से दूर करने की चेतावनी देती है; क्योंकि राजनीति अनैतिकता का पर्याय बन गयी है । नैतिकताविहीन राजनीति मनुष्य के हित की ओर से आखें बन्द कर लेती है और नैतिकताविहीन जीवन मनुष्य को पशु के स्तर पर ला खड़ा कर देता है । वैसे राजनीति अपने आप में ‘गन्दी वस्तु’ नहीं है, अपितु हमारी राजनीतिक संस्कृति के संस्थानों ने मनुष्य के हित को आगे बढ़ाने वाले उच्च आदर्शों और साफ विचारों को विचारयुक्त बना दिया है ।

आध्यात्मिक लोग धार्मिक नेताओं पर राजनीति में ‘गन्दगी’ फैलाने का इलाम लगाते है; क्योंकि उन्हें डर है कि गन्दी राजनीति से धर्म में विष घुल जायेगा । मैं इस चर्चित अवधारणा पर प्रश्न उठाता रहा हूं कि राजनीति में धर्म और नैतिकता का कोई स्थान नहीं है और धार्मिक लोगों व संन्यासियों को एकान्तवासी होना चाहिए । धर्म के बारे में यह विचार पूरी तरह से एकतरफा है । इसमें समाज के साथ व्यक्ति के सम्बन्ध और हमारे जीवन में धर्म की भूमिका को नजरअन्दाज किया गया है ।

किसी राजनेता के लिए नैतिकता उतनी ही आवश्यक है, जितनी की किसी धार्मिक व्यक्ति के लिए । जब राजनेता और शासक नैतिक सिद्धान्तों को स्मरण नहीं रखते तो इसके भयंकर परिणाम निकलते हैं । हम चाहे भगवान् में भरोसा करें या कर्म में नीतिशास्त्र का ज्ञान एवं उसके अनुरूप किया जाने वाला आचरण प्रत्येक धर्म की बुनियाद है ।

दया, भले-बुरे का ज्ञान नैतिकता नम्रता आदि मानव गुण सभी सभ्यताओं की बुनियाद रहे हैं । इन गुणों की रक्षा की जानी चाहिए और अनुकूल सामाजिक वातावरण में योजनाबद्ध नैतिक शिक्षा के जरिये इन्हें बनाये रखा जाना चाहिए ।

इससे संसार में मानवता फैलेगी । मानवीय दुनिया के निर्माण के लिए इन गुणों को बाल्यावस्था से आत्मसात् किया जाना चाहिए । इस बदलाव के लिए हम अगली पीढ़ी की प्रतीक्षा नहीं कर सकते । बुनियादी मानव मूल्यों को दोबारा से जीवित करने की जिम्मेदारी वर्तमान पीढ़ी को उठानी चाहिए ।

यदि कोई आशा है, तो वह वर्तमान पीढ़ी से है, लेकिन इसके लिए हमें अपनी शिक्षा-प्रणाली में विश्व स्तर पर बदलाव लाना होगा । हमें सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों के प्रति अपनी वचनबद्धता को क्रान्तिकारी बनाने की आवश्यकता है ।

नैतिकता के हास को रोकने के लिए केवल शोर मचाना काफी नहीं है । हमें इसके लिए कुछ तो करना ही चाहिए । चूंकि आज की सरकारें इस प्रकार के ‘धार्मिक’ उत्तरदायित्व अपने ऊपर नहीं लेतीं इसलिए मानवीय और आध्यात्मिक मूल्यों को दोबारा से जीवित करने के लिए वर्तमान नागरिक सामाजिक, सांस्कृतिक शैक्षिक और धार्मिक संगठनों को दृढ़ बनाने का उत्तरदायित्व लोकोपकारी और धार्मिक लीडरों पर है ।

इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए जहां जरूरी हो हमें नये संगठन बनाने चाहिए । हम ऐसा करके ही विश्व-शान्ति के लिए एक स्थायी बुनियाद के निर्माण की आशा कर सकते हैं । हमें समाज में रहते हुए अपने साथी नागरिकों की पीड़ा को बांटना चाहिए दया और धीरज का भाव न केवल अपनी के प्रति अपितु दुश्मन के प्रति रखना चाहिए । यह हमारी नैतिक शक्ति की कसौटी है ।

हमें अपनी करनी से उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए; क्योंकि हम केवल शब्दों से धर्म के मूल्य के बारे में दूसरों को निरुत्तर करने की आशा नहीं कर सकते । हमें ईमानदारी और बलिदान के उन उच्च मानकों का स्वयं पालन करना चाहिए जिनकी आशा हम दूसरों से करते हैं ।

सभी धर्मों का परम लक्ष्य मानवता की सेवा और भलाई करना है । इसीलिए धर्म का प्रयोग लोगों की सुख-शान्ति के लिए करना चाहिए न कि अन्यों के धर्म परिवर्तन करने के लिए । धर्म में राष्ट्रीय सीमाएं नहीं होतीं । जो कोई भी धर्म को कल्याणकारी पाता है, वह उसका अनुसरण कर सकता है । उपयोगी बात है, अपने लिए सबसे सही धर्म का चुनाव करना ।

लेकिन किसी विशेष धर्म को अपनाने का तात्पर्य दूसरे धर्म या अपने समुदाय से अलग होना नहीं है । किसी धर्म को अपनाने के बाबुजूद व्यक्ति को अपने समाज से अलग नहीं होना चाहिए ।  उसे अपने समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ मित्रता से रहना चाहिए । अपने समुदाय से दूर जाकर आप दूसरों का कल्याण नहीं कर सकते । दूसरों का कल्याण करना ही धर्म का मुख्य उद्देश्य है ।

इस सम्बन्ध में दो बातों को ध्यान में रखना चाहिए: आत्मपरीक्षण और आत्मसुधार । हमें दूसरों के प्रति अपने व्यवहार पर निरन्तर दृष्टि रखनी चाहिए सावधानी से आत्मनिरीक्षण करना चाहिए और अपनी गलती को फौरन सुधारना चाहिए ।

अन्त में मैं कुछ शब्द भौतिक विकास के बारे में कहना चाहूंगा । मैंने पश्चिम के लोगों से भौतिक विकास के बारे में बहुत सारी शिकायतें सुनी हैं । लेकिन विरोधाभास यह है कि पश्चिमी संसार को भौतिक विकास पर ही गर्व रहा है ।

मैं भौतिक विकास में कोई बुराई नहीं देखता बशर्ते मानव हित को सबसे ऊंचा रखा जाये । मेरा मानना है कि मानवीय समस्याओं का समाधान करने के लिए आर्थिक प्रगति और आध्यात्मिक प्रगति के मध्य समुचित सन्तुलन होना चाहिए । लेकिन हमें इसकी सीमाएं भी ज्ञात होनी चाहिए ।

यद्यपि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के रूप में भौतिकवादी ज्ञान से मनुष्य के हित के लिए बहुत कुछ किया है, लेकिन इससे स्थायी सुख-शान्ति नहीं आ सकती ।  उदाहरण के लिए, अमेरिका में प्रौद्योगिकीय प्रगति दूसरों देशों की तुलना में सम्भवत: ज्यादा उन्नत है । इसके बाबुजूद वहां मानसिक अशान्ति बहुत है ।

इसका कारण यह है कि भौतिकवादी ज्ञान केवल शारीरिक सुख ही दे सकता है, आन्तरिक विकास से उत्पन्न मानसिक सुख नहीं । आन्तरिक प्रगति बाह्य कारकों से आजाद होती है । मानवीय मूल्यों को दोबारा से जीवित करने और स्थायी सुख-शान्ति प्राप्त करने के लिए हमें संसार में साझी मानवीय विरासत को देखने की आवश्यकता है । हमें इस धरती पर एक एकल परिवार के रूप में जोड़ने वाले मानव-मूल्यों को सदैव याद रखना चाहिए ।

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