आर्थिक सुधार और सामाजिक सुधार के बीच अंतर | Difference between Economic Reforms and Social Reforms in Hindi!
भारतीय संविधान का मुख्य लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना में सन्निहित है, कोई भी आर्थिक सुधार तब प्रारंभ होता है, जब आम जनता की आवश्यकताएँ, समाधान की प्रक्रिया की खोज के लिए प्रभावशाली बन जाती हैं, किन्तु यह सुधार आगे लगातार सम्पन्न होगा या नहीं, यह इस पर निर्भर करता है कि सामाजिक यथार्थता को कहा तक योजनाबद्ध विकास में स्थान दिया गया है, क्योंकि भावी सुधार और विद्यमान यथार्थता का घनिष्ठ संबंध होता है ।
सरकार ने वर्ष 1990-91 को स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माता डॉ॰ बी.आर. अम्बेडकर को श्रद्धांजलि देने के लिए “सामाजिक न्याय वर्ष” घोषित किया ।
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(1) आर्थिक सुधार करते समय, कुछ अनिवार्य प्राथमिकताओं को निश्चित करना जरूरी है, भले ही वे नकारात्मक अथवा सकारात्मक हो, जैसे- जातिवाद का समाज करना, गरीब व कमजोर लोगों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना । मात्र आर्थिक उदारीकरण तथा बाजार-व्यवस्था का निजीकरण कारगर सिद्ध नहीं होंगे ।
(2) आर्थिक नीति-निर्धारण में, भारतीय समाज की ज्वलंत समस्याओं को ध्यान में रखना परमआवश्यक है । जैसे- जनसंख्या वृद्धि, मद्यनिषेध, बेरोजगारी, ग्रामीण व्यवस्था, जातिगत भेदभाव, महिला उत्पीड़न आदि, अन्यथा आर्थिक सुधारों में सामाजिक न्याय उपेक्षित हो जायेगा, जिसको विद्यमान परिस्थितियों में अधिक समय तक रोकना संभव नहीं ।
स्पष्ट है कि आर्थिक विकास तभी सार्थक है जब वह सामाजिक न्याय को उपलब्ध करा सके । आर्थिक विकास के इंजन को, गरीबों की अवहेलना और आय की विषमता द्वारा ईंधन देना कदापि न्यायोचित्त नहीं है ।
अत: सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए निम्न प्रयास किए जाने चाहिए:
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(i) विकास का स्वरुप ऐसा हो जो गरीबी उन्मूलन पर प्रत्यक्ष प्रहार कर सके ।
(ii) एक उचित कीमत आय नीति को लागू करना ।
(iii) विकास में पिछड़े क्षेत्रों को प्राथमिकता देना ।
(iv) रोजगार सृजन के कार्यक्रम को प्रभावी रुप से लागू करना ।
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(v) भूमि सुधार एवं उसका समान वितरण करना ।
(vi) सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक व्यापक तथा प्रभावी ढंग से लागू करना ।