विभाग और सार्वजनिक निगम के बीच अंतर | Read this article in Hindi to learn about the difference between department and public corporation.

विभाग और निगम व्यवस्था में अन्तर:

सार्वजनिक उपक्रमों/व्यावसायों के प्रबन्धन में विभागीय और निगमीय प्रणाली अपनाने पर संगठनात्मक रूप में दोनों में कोई खास अन्तर परिलक्षित नहीं होता है, अपितु स्वायत्ता का उपभोग करने में, नियंत्रण की मात्रा में और कुछ अन्य मामलों को लेकर ही दोनों प्रणालियों में अन्तर किया जा सकता है ।

1. स्वायत्ता की स्थिति विभागों की तुलना में निगमों को अधिक स्वायत्ता प्राप्त होती है । यह स्वायत्ता आन्तरिक कार्य संचालन से संबंधित होती है और इसका उल्लेख निगम की स्थापना से संबंधित कानून में स्पष्ट रूप से किया जाता है ।

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2. नियंत्रण, निर्देशन और उत्तरदायित्व को लेकर विभाग सरकार के मंत्रालय ही होते है जो मंत्री के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रहते हैं तथा पदसोपान में व्यवस्थित रहते हैं । इनके प्रत्येक कार्य के लिए मंत्री व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायित्व रहता है । व्यवस्थापिका ही विभाग को हर वर्ष बजट के माध्यम से धन खर्च की अनुमति देती है ।

निगम उक्त पदसोपना के बाहर होते हैं । यद्यपि संबंधित विभागीय मंत्री का ही उस पर नियंत्रण रहता है, निगमों पर मंत्री (कार्यपालिका) का नियंत्रण मात्र नीति तक सीमित रहता है, अन्यथा आन्तरिक कार्य संचालन में वे पूर्ण स्वतंत्रता रखे गये हैं ।

व्यवस्थापिका का भी निगमों पर उतना आर्थिक नियंत्रण नहीं होता, जितना विभागों पर होता है । निगम मात्र स्थापना के समय और घाटे की पूर्ति के लिए संसदीय स्वीकृति पर निर्भर करते हैं, अन्यथा वे अपनी राशि का विनियोजन करने, कहीं से ऋण लेने आदि में स्वतंत्र हैं । व्यवस्थापिका नीति को छोड़कर, निगम के अन्य मामलों को लेकर मंत्री से प्रश्न नहीं पूछ सकती । इस प्रकार निगम का संसद के प्रति उतना और वैसा उत्तरदायित्व नहीं होता, जितना और जैसा विभागों का होता है ।

3. वैधानिक स्थिति में अन्तर विभागों सरकार के ही अंश होते है और उनकी कोई पृथक वैधानिक स्थिति नहीं होती । विभागों को राजकीय संरक्षण हासिल होता है । इसके विपरीत निगम सरकारी स्वामित्व में होते हुए भी पृथक वैधानिक अस्तित्व रखते हैं । उन पर मुकदमा राज्य पर मुकदमा नहीं होता अपितु मात्र उस निगम पर ही होता है । विभाग द्वारा दायर मुकदमा सरकारी मुकदमा होता है, लेकिन निगम द्वारा दायर मुकदमा इस श्रेणी में नहीं आता ।

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4. स्वतंत्र वित्तीय व्यक्तित्व विभागों को अपने समस्त लेन-देन, क्रय-विक्रय सरकारी प्रक्रियाओं का पालन करते हुए सम्पन्न करने होते हैं । निगमों को इस दिशा में कॉफी स्वतंत्रता दी गयी है । वे टेडर जैसी विलम्बकारी प्रक्रिया के स्थान पर प्रत्यक्ष वार्ता जैसी त्वरित तथा अधिक लोचशील प्रक्रियाओं को अपना सकते हैं । उन्हें ऋण लेने, देने, अपनी निधि की व्यवस्था करने, बजट बनाने, आप को निवेश करने की स्वतंत्रताएं हासिल होती है ।

5. कार्मिक-सेवा से संबंधित अन्तर विभाग के कार्मिक पूर्ण सरकार होते है, निगम के नहीं । निगम अपने कार्मिकों की भर्ती हेतु योग्यता निर्धारण करने में, उनके वेतन तय करने में तथा पदोन्नति आदि में पृथक नियम अपना सकते हैं । वह पदोन्नति हेतु वरिष्ठता के स्थान पर योग्यता को वरियता देते हैं । निगम के अयोग्य कार्मिकों को आसानी से निकाला जा सकता विभाग के कार्मिक को नहीं ।

6. लेखा परीक्षण में अन्तर विभागों का लेखा परीक्षण सरकारी होता है जिसमें कानूनी व्यय पर अधिक ध्यान दिया जाता है । निगमों का लेखा परीक्षण व्यापारिक होता है, इसमें घाटे, मुनाफे या अपव्यय आदि बातों पर ध्यान दिया जाता है ।

7. राजनैतिक हस्तक्षेप में अन्तर विभाग राजनीतिक दबाव में रहकर ही कार्य करते हैं जबकि निगमों को सैद्धांतिक रूप से इससे मुक्त रखा जाता है यद्यपि मामूली हस्तक्षेप मंत्री का बना रहता है ।