भूमि प्रदूषण के कारण होने वाली बीमारियों की सूची | Here is a list of ten major diseases caused due to land pollution in Hindi language.

1. रेबीज (Rabies):

यह रोग एक विशेष प्रकार के वायरस से होता है । वायरस से संक्रमित कुत्ते, बिल्ली, बंदर, चूहे, खरगोश, सूअर, घोड़े आदि के काटने से यह मनुष्य में पहुंचता है । लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि वायरस संक्रमित कुत्ते या बिल्ली की लार मनुष्य के शरीर पर हुए किसी घाव पर लग जाती है, तो भी रेबीज का वायरस शरीर के अंदर प्रवेश कर जाता है ।

यह वायरस उक्त जंतुओं की लार में ही होता है । जिन जंतुओं की लार में यह वायरस होता है, वे स्वयं भी वायरस से संक्रमित होने के कुछ दिन बाद इस रोग के शिकार होकर मृत्यु का प्राप्त होते हैं । मानव-शरीर में किसी जंतु के काटने से इस वायरस का प्रवेश होने पर यह वायरस सुषुम्ना और मस्तिष्क सहित केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है । जंतु द्वारा यदि चेहरे, हाथ अथवा होंठ पर काटा गया हो तो रोग के लक्षण अधिक गंभीर रूप से और शीघ्र दृष्टिगोचर होते हैं, क्योंकि ये अंग मस्तिष्क के अधिक समीप हैं ।

अमेरिका में तो कई बार रेबीज जानपदिक स्तर पर फैल चुका है । जब यह रोग आरंभ होता है तो पहले तो आवाज कुछ भारी हो जाती है, फिर दम घुटने लगता है, क्योंकि श्वास लेने और निगलने वाली पेशियाँ ऐंठने लगती हैं । एक बार रोग होने पर इसका रोगी कदाचित् ही बचता है । दो से दस दिन के भीतर उसकी मृत्यु हो जाती है ।

2. ब्रसेलोसिस (Brucellosis):

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इसे माल्टा ज्वर रिओग्रांडी, टेक्साज ज्वर अथवा गोट ज्वर भी कहते हैं । मनुष्यों को यह रोग ऐसी गाय, भैंस या बकरी का कच्चा दूध पीने से अथवा उनसे सीधे संपर्क में होता है, जो ब्रुसेला जीवाणु से संक्रमित हों । ब्रुसेला बैक्टीरिया मुख्य रूप से इन पशुओं के मल-मूत्र, दूध तथा बच्चे देने के उपरांत गिरने वाले प्लेसेंटा में पाए जाते हैं । अकसर मनुष्य के शरीर में ये रोगाणु उनके मुँह, आँख या नाक अथवा त्वचा पर किसी धातु के द्वारा प्रवेश कर जाते हैं और मनुष्य इस रोग का शिकार हो जाता है ।

ब्रुसेला बैक्टीरिया ग्रहण करने के 12-36 दिन बाद इस रोग के लक्षण प्रकट होते हैं । रोगी को ज्वर हो जाता है । पहले कुछ दिन लगातार ज्वर वढ़ता है, परंतु रोजाना सुबह को ज्वर कम होकर शरीर का ताप 102- 103° फा. तक आ जाता है ।

कुछ दिन तक ताप इतना ही रहता है फिर और कम होता है और पुन: बढ़ जाता है । यही चक्र महीनों तक चलता है । रोगी बहुत कमजोर हो जाता है, कब्ज हो जाता है, शरीर में दर्द होता है और पसीना बहुत आता है । अब इस रोग की रोकथाम के लिए वैक्सीन तैयार कर ली गई है ।

3. लेप्टोस्पारोसिस (Leptospirosis):

मनुष्यों में इस रोग को फैलाने वाले मुख्य पशु हैं- गाय, भैंस, भेड़, बकरी, कुत्ते, बिल्ली और चूहे । इस रोग का सबसे साधारण लक्षण है- स्त्रियों में गर्भपात हो जाना । इस रोग के रोगाणु मुख्य रूप से पशुओं के गुर्दों में रहते हैं और उनके साथ लगातार अनेक सप्ताहों या कई मास तक बाहर आते रहते हैं । रोगाणु मनुष्य के शरीर में प्राय: आँख, नाक, मुँह अथवा त्वचा पर किसी घाव के द्वारा प्रवेश कर जाता है और मनुष्य रोगी हो जाना है । यह रोग जुलाई-सितंबर काल में अधिक होता है ।

4. सिटेकोसिस (Psittacosis):

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इसे शुक-ज्वर अथवा तोता ज्वर भी कहते हैं । परंतु यह केवल तोते तक ही सीमित नहीं रहता, अन्य पालतू पक्षी यथा कबूतर, बतख आदि भी इससे प्रभावित होते हैं । पालतू पक्षियों से भी यह रोग मनुष्य में पहुँचता है । फिर कदाचित् मनुष्य से दूसरे मनुष्य में भी पहुंच सकता है ।

शुक-ज्वर एक वायरसजन्य रोग है । इस रोग से प्रभावित पक्षियों की नाक से होने वाले स्राव के साथ निकालकर यह वायरस उनके पंखों तथा पिंजरे को दूषित कर देता है और जब व्यक्ति पिंजरे अथवा पक्षी के संपर्क में आता है तो वायरस श्वास मार्ग से मनुष्य में प्रवेश कर जाता है ।

पक्षियों में तो यह वायरस यकृत और प्लीहा को प्रभावित करता है, किंतु मनुष्य में फेफड़ों को प्रभावित करता है । वृद्ध व्यक्तियों में यह रोग गंभीर रूप धारण कर लेता है । संक्रमण के 7 से 15 दिन बाद रोग के लक्षण प्रकट होने लगते हैं ।

सिर में दर्द, ठंड लगना, कमर में दर्द और सूखी खांसी व ज्वर इस रोग के लक्षण हैं । रोग के उग्र होने पर दो-तीन सप्ताह तक तीव्र ज्वर रहता है । फेफड़ों में संकुचन आने के कारण कभी-कभी थूक के साथ रक्त भी आ जाता है ।

5. वायरस एनसेफैलाइटिस (Virus Encephalitis):

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इस रोग को वायरसी मस्तिष्क-शोथ भी कहते हैं । सौभाग्य से यह रोग हमारे देश में (गत वर्ष कुछ प्रांतों को छोड़) अभी नहीं पाया जाता है । इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च, नई दिल्ली के महानिदेशक के वार्षिक प्रतिवेदन (1978) के आधार पर ज्ञात हुआ है कि राष्ट्रीय वायरस विज्ञान अनुसंधान संस्थान, पुणे ने कर्नाटक, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, आसाम तथा मध्य प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में जापानी एनसेफैलाइटिस के फैलने विषयक तथ्यों का पता लगाया है ।

इस कार्य में कोलकाता की वायरस अनुसंधान यूनिट तथा पंडिचेरी की वेक्टर कंट्रोल रिसर्च सेंटर ने भी सहयोग दिया । परंतु विश्व के अन्य भागो में यह रोग बहुत प्रचलित है । इस रोग से पीड़ित प्राणी को तीव्र ज्वर आता है तथा उस बेहोशी (मूर्च्छा) ओर बेचैनी (व्याकुलता) लगातार बनी रहती है ।

गर्मी के दिनों में यह रोग एक विशेष मच्छर के काटने से पालतू पशु-पक्षियों और मनुष्यों में फैलता रहता है । जब मच्छर किसी ऐसे पक्षी को काटने के बाद किसी स्वस्थ मनुष्य अथवा जंतु को काटता है, तो ये वायरस उसके रक्त में पहुँच जाते हैं । इस प्रकार प्रायः हमारे पालतू पशु-पक्षी ही हमारे शत्रु बन जाते हैं ।

6. क्यू-ज्वर (Q-Fever):

मनुष्य को यह रोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी तथा अन्य पालतू पशुओं के संपर्क में आने से होता है । जिनकी त्वचा पर चिपकी चींचड़ी (टिक) इस रोग को पैदा करने वाले जीव को एक पशु से दूसरे पशुओं में फैलाती हैं । जब हम इनसे पीड़ित पशु का कच्चा दूध पीते हैं अथवा उनके अधिक संपर्क में रहते हैं तो रोगी ही जाते हैं । दूध के अतिरिक्त ये रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया पशुओं के मल-मूत्र के साथ बाहर आकर पशुओं के शरीर या पशुओं के नीचे वाली मिट्टी में मिले रहते हैं ।

यहीं में ये श्वास के साथ मनुष्य शरीर में प्रवेश कर जाते हैं, जिसके कारण मनुष्य को ज्वर आने लगता है, ठंड लगती है और कमजोरी आ जाती है । क्यू-ज्वर संक्रमण की तीव्रता के अनुसार पाँच दिन से लेकर दो-तीन सप्ताह तक रहता है ।

7. रिंग वर्म (दर्दु अथवा दाद) (Ring Worm):

यह रोग एक विशेष प्रकार के कवक के कारण होता है । यह कवक पशुओं की त्वचा, बाल तथा नाखूनों में रहता है । प्रायः यह कवक पशुओं के बालो की जड़ों में उगते हैं, जिसके कारण कभी-कभी इनके बाल गिर जाते हैं और त्वचा में जलन तथा खुजलाहट होती रहती है ।

मनुष्यों में यह रोग पशुओं के सीधे संपर्क में आने के कारण होता है जैसे कि बहुत-से व्यक्ति अपने कुत्ते और बिल्ली को इतना प्यार करते हैं कि उन्हें हर समय अपने पास रहते हैं तथा साथ ही सुलाते हैं । कभी-कभी यह रोग पशुओं को बाँधने की रस्सी, गले का पट्टा अथवा इनसे संबंधित सामान को छूने से भी हो जाता है ।

8. साल्मोनेला संक्रमण (Salmonella Infection):

साल्मोनेला एक प्रकार के दंडाकार जीवाणु होते हैं । ये जीवाणु पशुओं की आंतों में रहते हैं, जिनके कारण उस जंतु को ज्वर आता है और दस्त हो जाते हैं । विशेष रूप से यह रोग नवजात शिशुओं में गंभीर रूप धारण कर जाता है । सूअर, चूहे और मुर्गियाँ आदि ऐसे जंतु हैं, जिनके द्वारा इन जीवाणुओं के फैलने की अधिक संभावना रहती है ।

जब कभी मक्खियाँ इन जीवाणुओं से संक्रमित जंतुओं के मल पर बैठने के बाद हमारे भोज्य पदार्थ पर आकर बैठती हैं, तो ये रोगाणु मक्खियों से भोज्य पदार्थ में आ जाते हैं । जब व्यक्ति इस संक्रमित भोजन को ग्रहण करता है तो ये जीवाणु उसके शरीर में पहुँच जाते हैं और वह रोगी हो जाता है ।

9. ट्राइकिनोसिस (Trichinosis):

यह रोग मुख्यतः ऐसे व्यक्तियों को होता है जो सूअर अथवा भालू का कच्चा अथवा अच्छी प्रकार न पका हुआ मांस खाते हैं । यह रोग एक गोल कृमि ट्राइकिनेला स्पाइरलिस के कारण होता है, जिनके लार्वा सूअर अथवा भालू की मांसपेशियों में हो सकते हैं ।

इस गोल कृमि से संक्रमित सूअर के मांस को खाने से ये लार्वा मनुष्य की आँतों में पहुँच जाते हैं और वहाँ परिपक्व होकर इनकी संख्या बढ़ने लगती है । तदुपरांत रक्त के साथ यह लार्वा मांसपेशियों में जाकर अपने चारों ओर कठोर आवरण बनाकर ठहर जाते हैं । इस रोग से पीड़ित मनुष्य को ज्वर आता है । मांसपेशियों में दर्द रहता है तथा सर्दी भी लगती है । रोगी को बार-बार वमन होता है और आँखों के पलक सृज जाते हैं ।

10. गोल कृमि (Round Worm):

यह रोग अधिकतर शिशुओं को ही होता है, क्योंकि नन्हे-मुन्नों को प्रायः मिट्टी खाने की आदत होती है । कुता और बिल्ली इस रोग को फैलाते हैं । जब ये जंतु मल-विसर्जन करते हैं तो गोल कृमि की एक विशेष जाति के लार्वा और अंडे मल के साथ बाहर मिट्टी में मिल जाते हैं ।

जब बच्चे ऐसी मिट्टी खा जाते हैं तो ये लार्वा और अंडे उनके शरीर में रोग उत्पन्न कर देते हैं । उपरोक्त कुछ पशुजन्य रोगों के अवलोकन से हमें ज्ञात होता है कि हमारे पालतू पशु किस प्रकार हमें रोगी बनाते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हमें इन पशुओं का परित्याग कर देना चाहिए । अपितु हमें अपने स्वास्थ्य के लिए इन पशुजन्य रोगों से अधिक सावधान रहना चाहिए ।

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