पारिस्थितिकी: अर्थ और अवयव | Ecology: Meaning, Ecosystem and Components in Hindi.
पारिस्थितिकी | Ecology
Contents:
- पारिस्थितिकी का अर्थ (Meaning of Ecology)
- पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem)
- पारिस्थितिकी तंत्र के घटक (Components of Ecosystem)
- विकसित होता पारिस्थितिक तंत्र (Evolving Ecosystem)
- हाथों में पारिस्थितिकी (Ecology in Hand)
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# 1. पारिस्थितिकी का अर्थ (Meaning of Ecology):
प्रकृति के बारे में सबसे कमाल की चीज है आपसी मेल । चाहे, जीवित या जड़ वस्तु हो, कोई भी पृथक रूप में प्रकृति का आभास नहीं देता । जैसे एक खूबसूरत पेड़, सिर्फ पेड़ ही है, परन्तु पेड़ों का समूह चाहे सुन्दर हो या सादा, बड़ा हो या छोटा, सब मिलकर एक बगीचे से लेकर जंगल तक बना देते हैं ।
यहां आपको परस्पर ध्यानाकर्षण संबंध भी मिलेंगे यहां के पौधों में आपको आपसी सहयोग और प्रतिस्पर्धा दोनों ही देखने को मिलेगी । और भी बहुत सारे संबंध आपको मिलेंगे ।
कोई भी वन क्षेत्र, जीवों को अपने आप ही आकर्षित करता है । यह जीव, सूक्ष्मजीवों से लेकर, छोटे-छोटे जन्तु से मनुष्य तक हो सकते हैं । ये सभी मिलकर अभूतपूर्व प्राकृतिक सामंजस्य स्थापित करते हैं । इस पूरे प्राकृतिक रूप के घटक बहुत ही विविधता लिए हो सकते हैं और कई बार तो बिल्कुल ही विपरीत गुणों वाले भी हो सकते है । पर फिर भी यह एक साथ अस्तित्व बनाए रखते हैं । इससे भी ज्यादा ।
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एक साथ मिलकर बनाए गए इस प्राकृतिक संबंध को सभी संभावित तरीकों से आपस में पारस्परिक क्रिया करके, यह सब इसे टिकाऊ और ज्यादा बेहतर बनाने में लगे रहते हैं प्रत्येक अपने आसपास के माहौल को कई तरीकों से प्रभावित करते हैं परन्तु अगर एक साथ इनके प्रभाव को देखा जाए तो यह कई गुना ज्यादा होगा । इन सभी चीजों का एक साथ पड़ने वाला जबरदस्त प्रभाव ही प्रकृति का सार है ।
दूसरे शब्दों में कहें तो, प्रकृति एक साथ जीने की प्रक्रिया का ही प्रतिबिंब है और इस आपसी प्राकृतिक संबंधों का अध्ययन ही पारिस्थितिकी का विज्ञान कहलाता है । शाब्दिक रूप में इसका अर्थ है, जीवन्त स्थान का विज्ञान । क्रियात्मक रूप में भी देखें तो पारिस्थितिकी- जीवंत स्थान यानी प्राकृतिक वास को अपने अध्ययन का केन्द्र रखती है ।
ये प्राकृतिक वास को उसमें मौजूद सभी जीवों सामग्रियों तथा उसमें घटने वाली सभी घटनाओं सहित अध्ययन करती है ये सभी घटक एक वैचारिक समष्टि के रूप में एक साथ अध्ययन किए जाते हैं और इसी को पारिस्थितिकी कहते हैं ।
व्यावहारिक शब्दों में पारिस्थितिकी की परिभाषा यह हो सकती है पारिस्थितिकी एक बुनियादी क्रियात्मक इकाई है जिसमें सभी जीवंत जीवों, उनके भौतिक वातावरण और सभी पारस्परिक संबंधों को शामिल किया जाता है जो एक विशिष्ट स्थल की इकाई में और उनके बीच में घटित हो रहे हैं ।
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# 2. पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem):
एक पारिस्थितिक तंत्र काफी बड़ा या बहुत छोटा हो सकता है । ये एक बड़ा जंगल, महासागर या छोटा सा कम्पोस्ट खाद का गड्ढा या एक एक्वेरियम हो सकता है । सही मायने में पारिस्थितिक तंत्र होने के लिए इस इकाई में जीवन को स्वयं बनाए रखने में उचित रूप से सक्षम होना चाहिए ।
इसके साथ-साथ इस पारिस्थितिक तंत्र की सभी सामग्री चक्रीय रूप में फिर से उपयोग में आनी चाहिए । यानी जो भी कुछ इस प्रणाली में छोड़ा जाएगा, वह दूसरे के द्वारा उपयोग में लाया जा सके और अंतत: पहले जीव द्वारा भी उसका उपयोग किया जा सके । उदाहरण के लिए हमारी सांसों द्वारा छोड़े जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड हवा में जाती है जिसको पौधे पुन ऑक्सीजन में परिवर्तित कर देते हैं जो हमारे लिए आवश्यक है ।
इन सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर, हम अलग-अलग आकार तथा प्रकारों के कई पारिस्थितिक तंत्र हमारे आसपास ढूंढ सकते हैं । पारिस्थितिकी तंत्र किसी न किसी रूप में अपने आसपास के अन्य तंत्रों से जुड़ा हो सकता है या कई पारिस्थितिक तंत्र मिलकर एक बड़ा पारिस्थितिक तंत्र बना सकते हैं ।
अंतत: पृथ्वी पर मौजूद सभी पारिस्थितिक तंत्र को एक दूसरे से किसी न किसी रूप में जुड़ा हुआ देखा जा सकता है और एक साथ मिलकर ये बनाते हैं बायोस्फीयर यानी जीवमंडल- ये सबसे बड़ा पारिस्थितिक तंत्र है जिसके सभी पृथ्वीवासी (सभी जीव जन्तु, वनस्पति, आदि) हिस्सा हैं ।
एक तथ्य यह है कि यह जीवमंडल जो पृथ्वी का इकलौता भाग है, जहां सारा जीवन मौजूद है वह पूरे ग्रह का एक नगण्य हिस्सा ही है । यह समुद्री सतह से कुछ सैकड़ों मीटर नीचे तथा कुछ किलोमीटर ऊपर तक फैला हुआ है । पृथ्वी का सारा जीवन इसी पतले से खोल के अंदर सीमित है, जिसमें पृथ्वी के ऊपरी भाग की भूमि और महासागर का ऊपरी हिस्सा तथा निचले वायुमंडल के भाग शामिल हैं ।
हालांकि, सूरज की किरणों की उपलब्धता सागर में मिलने वाले जीवन की गहराई तय करती हैं अर्थात् कितनी गहराई तक समुद्र में जीवन के लिए जरूरी सूरज की किरणें पहुंचती हैं तथा ऊपर की परत में मौजूद जीवन से जीवन के अन्य कारकों जैसे ऑक्सीजन आदि की उपलब्धता का पता लगता है ।
गोबर में मौजूद जीवंत दुनिया:
हम सभी गाय के गोबर से अच्छी तरह परिचित हैं, हालांकि यह परिचय नापसंद ज्यादा किया जाता है । पर हम गोबर को एक अच्छी खाद और मिट्टी के अनुकूलक के रूप में भी जानते हैं । यह घर के भी कई उपयोगी कार्यों में भी काम आता है, खासतौर से ग्रामीण क्षेत्रों में चलिए, एक प्राकृतिक अन्वेषक की नजर से हम गोबर को भिन्न नजरिए से देखते हैं ।
सामान्यत: गाय का गोबर एक बड़े गहरे हरे-स्लेटी रंग के अर्ध ठोस गोलाकार पदार्थ के रूप में पाया जाता है । जब यह जमीन से टकराता है तो यह एक छोटे से टीले का रूप ले लेता है जिसका तल चपटा होता है और शीर्ष गोलाकार । इसको गोबर की थपकी या गाय की थपकी कहते हैं । थपकी की ऊपरी सतह पर कई गड्ढे और लकीरें होती हैं ।
जब गोबर ताजा होता है तो उसकी ऊपरी सतह चमकीली होती है । ताजी थपकी के अंदर मौजूद गोबर रंग में हल्का होता है तथा एकरूप दानेदार नजर आता है । गोबर के रूप तथा गाढ़ेपन में अंतर हो सकता है जो इस पर निर्भर करता है कि पशु ने चारे में क्या खाया है । एक रोचक तथ्य यह है कि ताजे गाय के गोबर में किसी भी तरीके की गंध नहीं होती ।
किसी ऐसे स्थान पर जहां आम तौर पर लोग आते-जाते न हों वहां ताजे गोबर की थपकी ढूंढें और कई दिनों तक उसका नजदीकी से अवलोकन करें । आप देखेंगे कि गोबर के गिरने के तुरत बाद ही कई प्रकार के कीट उस पर आकर बैठने लगते हैं इनमें आपको विभिन्न प्रकार की मक्खियां और गोबर के भृंग नजर आएंगे । कई मक्खियां जैसे कि घरेलू मक्खी और उड़न मक्खी ताजे गोबर में ही अपने अंडे देती हैं । परंतु छोटी पीले रंग की गोबर मक्खी गोबर में ही अपना आवास बना लेती हैं ।
गोबर भृंग गोल कीट होते हैं जिनके पंख सामान्यत: सख्त, गहरे रंग के और चमकीले होते हैं । इनकी कई प्रजातियां पाई जाती हैं तथा इनका आकार डेढ़ से तीन सेंटीमीटर तक का हो सकता है । इनमें से कई गोबर के टुकड़ों को गेंद का बिल्कुल सही आकार दे देते हैं और कई बार तो ये गेंद इन भृंगों के आकार से भी बड़ी होती है और ये इन्हें लुढ़काकर ले जाते हैं ।
ये आमतौर पर नर और मादा के जोड़े में काम करते हैं तथा एक भृंग इस गोबर की गेंद को धक्का देता है और दूसरा इसे खींचता है । यह इस गोबर की गेंद को भूमि के अंदर दबा देते हैं और इसका खाने के लिए उपयोग करते हैं तथा इसमें अंडे भी देते हैं ।
इस तरीके से लार्वा को अंडे से बाहर आते ही काफी मात्रा में भोजन उपलब्ध हो जाता है । अन्य प्रकार के गोबर भृंग भी होते हैं जो गोबर की थपकी को नीचे से खोदते है और अंदर जाकर उसे खाते भी हैं और वहां प्रजनन भी करते हैं ।
कुछ ही घंटों में आप देखेंगे कि गोबर की ऊपरी परत फीकी पड़ गई है और एक सख्त परत बननी शुरू हो जाती है । पेस्ट जैसा अंदरूनी गोबर अब स्पंज के टुकड़े की तरह नजर आने लगेगा जिसमें छालेनुमा गड्ढे होंगे । इसमें से बहुत तेज बदबू भी आनी शुरू हो जाएगी परंतु ये गड्ढे और बदबू जीवाणुओं की क्रिया द्वारा पैदा हुई गैसों के कारण होती है ।
ये जीवाणु गोबर में मौजूद जैविक पदार्थ का अपघटन करने में लगे रहते हैं । इस प्रक्रिया द्वारा हमें गोबर गैस प्राप्त होती हैं । ये जीवाणु गोबर में मौजूद जैविक पदार्थ का उपघटन करने में लगे रहते हैं । इस प्रक्रिया द्वारा हमें गोबर गैस प्राप्त होती है । इस गोबर गैस में मीथेन की अत्यधिक मात्रा होती है तथा इसमें से आ रही गंध उसमें मौजूद सल्फर के योगिकों के कारण होती है ।
इस समय काफी बड़ी संख्या में अलग-अलग प्रकार के सूक्ष्मजीव, जिन्हें हम अपनी आंखों से नहीं देख सकते, इस गोबर को सरल रसायनों में अपघटित करने में लगे रहते है जो वापस पर्यावरण में पहुंच जाएंगे ।
दूसरे दिन हमें गोबर में कई छोटे-छोटे कृमि हिलते-डुलते नजर आ जाएंगे । ये ज्यादातर ताजे गोबर में कीटों द्वारा छोड़े गए अंडों में से निकले लार्वा होते हैं । इनमें से कई पतले धागेनुमा हो सकते हैं और कई मोटे मैगट्स हो सकते हैं जिनके पैर नहीं होते ।
ये लार्व बहुत तेजी से गोबर को खाने में लगे रहते है और जल्दी ही अगले स्तर यानी खूपा बन जाएंगे । यह अपनी वृद्धि की प्रक्रिया को पूरा करने में काफी जल्दबाजी में होते हैं क्योंकि उन्हें यह प्रक्रिया गोबर में मौजूद खाने के पूर्णत: अपघटित होने से पहले पूरी करनी होती है ।
एक या दो और दिनों में यानी गोबर के गिरने के तीन या चार दिनों बाद गोबर की ऊपरी सतह पूरी तरह सुख जाएगी और सखा परत के रूप में नजर आएगी । इसे कछुए के खोल की तरह एक टुकड़े में बार-बार पलटा जा सकता है ।
इसके नीचे बहुत ही थोड़ा सा गोबर का पिंड नजर आएगा और वह भी काफी सूखा और भुरभुरा होगा । सारी गंध भी गायब हो चुकी होगी । कई छोटे जीव जैसे केंचुए, मिलीपीड, भृंग, चींटिया, सहस्त्रपाद आदि वहां पर मिल सकते हैं । इनमें से कई पहले इस गोबर में पनप चुके जीवों को खाते हुए भी नजर आएंगे ।
कुछ सफेद चींटिया भी अब वहा पर नजर आनी शुरू हो जाएंगी । सफेद चींटिया एक सप्ताह बाद थपकी का जो कुछ भी बचा है उसको ग्रहण कर लेंगी और उसको वापस मिट्टी में मिला देंगी । इस तरीके से गोबर की थपकी की अपघटन की प्रक्रिया पूर्ण हो जाएगी ।
परंतु इस पूरी प्रक्रिया के दौरान इस गोबर की थपकी ने विभिन्न जीवंत जीवों को सहारा दिया होगा और यह प्रत्येक गोबर के गिरने के बाद विशिष्ट चरण में फली फूली होंगी । साथ ही साथ इनमें से हरेक जीवंत जीव ने गोबर के अपघटन में अपनी-अपनी भूमिका अदा करी होगी ।
गोबर की थपकी में बदलाव की सही प्रकृति, दर तथा क्रम बाहरी परिस्थितियों जैसे तापमान, आर्द्रता, जिस भूमि पर वह गिरा है उसके प्रकार आदि पर निर्भर करती है । तथा हर परिस्थिति हमें नयी प्रणाली के अध्ययन का मौका देगी । यानी इस ‘अप्रिय’ गोबर की थपकी के एक सप्ताह या कुछ दिन तक के अवलोकन के द्वारा हम विकसित होते सूक्ष्म पारिस्थितिक तंत्र का रोचक जीवन देख सकते हैं ।
3. पारिस्थितिकी तंत्र के घटक (Components of Ecosystem):
जीवन के लिए जरूरी कारक जैसे हवा, पानी, मिट्टी, खनिज सूरज की रोशनी किसी भी पारिस्थितिक तंत्र के गैर-जीवित घटक हैं एबायोटिक फैक्टर-अजैविक कारक) । जीवंत जीव (बायोटिक कम्पोनेंट-जैविक घटक) इस पारिस्थितिक तंत्र का दूसरा जरूरी भाग बनाते हैं ।
पारिस्थितिक तंत्र के ये दोनों घटक दो महत्वपूर्ण प्रक्रिया के द्वारा आपस में जुड़े हुए हैं, ये हैं:
(1) पारिस्थितिक तंत्र के घटकों के द्वारा ऊर्जा का प्रवाह तथा
(2) पारिस्थितिक तंत्र के अंतर्गत ही पोषक तत्वों का चक्रण ।
पहली प्रक्रिया के उदाहरण के रूप में हम पौधों द्वारा सूरज की ऊर्जा को सीखना तथा उसको रासायनिक ऊर्जा (खाद्य) में भंडारित करने के द्वारा समझ सकते हैं । इस ऊर्जा को पौधों के भक्षक जीवी द्वारा ले लिया जाता है और वह इसे मास खाने वाले जीवों तक पहुंचा देते है ।
बढ़ते हुए पौधे द्वारा मिट्टी में से पोषक तत्वों के खींचने को हम दूसरी प्रक्रिया के उदाहरण का रूप ले सकते हैं । जब पौधा मर जाता है तो वह गलकर मिट्टी में ही मिल जाता है और इस तरह वे मिट्टी में से लिए सारे पोषक तत्व वापस मिट्टी में ही लौटा देता है ।
अगर सम्पूर्ण रूप में देखा जाए तो प्रकृति का यह अद्भुत संतुलन समझना काफी जटिल क्रिया है इसलिए आसान पद्धति को अपनाते हुए हम प्रकृति के छोटे, स्वयं नियंत्रित पारिस्थितिक तंत्र की इकाइयों के संगठन का विभिन्न स्तरों पर अध्ययन करेंगे । पारिस्थितिक तंत्र के अंतर्गत ही और भी छोटी इकाइयों का स्वतंत्र रूप से अध्ययन करना संभव है ।
यह सामान्य पारिस्थितिकी इकाई है विशिष्ट (एक अकेला जीव), आबादी (एक साथ रहने वाले विभिन्न जीवों की संख्या), समुदाय (एक ही जीव का समूह) तथा अंत में पारिस्थितिक तंत्र जहां विभिन्न समुदाय एक विशिष्ट रूप में एक साथ आपसी मेल-जोल से रहते हैं ।
छोटे तथा स्थानीय पारिस्थितिक तंत्रों की समझ के द्वारा पृथ्वी पर मौजूद कई बड़े पारिस्थितिक तंत्र को पहचानने में मदद मिली है । यह प्रत्येक बड़े पारिस्थितिक तंत्र एक ही भूगोलीय क्षेत्र में पाए जाते हैं तथा एक ही जैसी जलवायु परिस्थिति में मिलते हैं । इस इकाई को बायोम यानी जीवोम कहते हैं ।
रेगिस्तान, टुंड्रा यानी उत्तर ध्रुवीय अनुर्वर प्रदेश, ऊष्णकटिबंधीय वर्षा वन, पहाड़, घास के मैदान आदि इन जीवमंडल के कुछ उदाहरण हैं क्योंकि इनमें जीव-जंतु तथा जीने के तरीके एक-दूसरे से भिन्न होते हैं इसलिए इनको कई बार लाइफ-जोन यानी जीवन-क्षेत्र भी कहते हैं ।
4. विकसित होता पारिस्थितिक तंत्र (Evolving Ecosystem):
पारिस्थितिक तंत्र के बारे में सबसे महत्वपूर्ण बात है उसकी बदलने वाली प्रकृति, चाहे यह एक छोटा तालाब हो या जीवमंडल । इसके जीवंत और गैर-जीवित गुणों में अगर ध्यान से देखा जाए तो कुछ अवधि में छोटे-मोटे बदलाव आते हैं सामान्यत: यह बदलाव काफी धीमी गति से और संतुलित रूप में होते हैं परन्तु अचानक तथा विध्यसीय बदलाव भी कभी-कभी हो सकते हैं और देखे भी जाते है । इन सभी कारणों से पारिस्थितिक तंत्र नये रूप में विकसित हो जाता है ।
उदाहरण के लिए जल से भरा बहुत बड़ा तालाब कभी-कभी दलदली पौधों के आक्रमण से अपना पुराना आकार खो देता है । धीरे-धीरे मृत पौध सामग्री इकट्ठी होती चली जाती है और वह तालाब दलदली क्षेत्र बन जाता है और अगर लम्बे समय तक देखें तो यह जमीन किसी बड़े पेड़ को सहारा देने के लिए फिर से ठोस हो जाती है ।
इस तरह विभिन्न जंगलों का ऐसी जगह निर्माण हुआ जहां पहले पानी ही पानी था । ऐसी जगहों पर सामान्य जलीय जीव मर जाते हैं और वह जीव जो बदलती पर्यावरणीय परिस्थिति के अनुरूप अपने को अच्छी तरह ढाल सकने में सक्षम हों, नजर आने लगते हैं मिट् बदलाव की प्रक्रिया नये जीवों के आने से भी अनापेक्षित रूप में प्रभावित होती है । मुख्य रूप से अंतिम कुछ शताब्दियों में मानव की पर्यावरण को प्रभावित करने में ऋ आज अच्छी तरह समझी जा सकती है ।
विपदाकारी बदलाव जैसे ज्वालामुखी का फटना भीषण बाद आदि पर्यावरण में अचानक से बदलाव ला सकते हैं । ऐसी घटनाएं बहुत बड़े क्षेत्रों में मौजूद वनस्पति जगत तथा प्राणी जगत पर लम्बा प्रभाव छोड़ती हैं । ये बदलाव वैश्विक स्तर पर भी हो सकते हैं । विशालकाय उल्का पिंड के पृथ्वी पर टकराने के परिणाम स्वरूप डायनासोरों का विलुप्त हो जाना इसका उदाहरण है ।
स्थानीय तथा वैश्विक दोनों ही पर्यावरण कई शताब्दियों से निरंतर नये-नये आकार लेते रहे हैं । अगर हम समय के व्यापक पैमाने पर जाए तो हम देखेंगे कि करोड़ों वर्षों में पृथ्वी भी कई बार अपने स्वरूप को बदलती रही है ।
पृथ्वी पिघली हुई चट्टानों की गेंद से महासागरों तथा तेज आंधियों भरे ग्रह के रूप में परिवर्तित हुई है और वहां से पृथ्वी हमें आज के रूप में मिली, जहां भूमि है, पानी है और साधारण जीव रूपों से शुरू होकर आज मौजूद सभी जीव दिखाई देते हैं । अभी भी इसमें बदलाव हो रहे हैं और मानवों की लगातार बढ़ती गतिविधियों से पृथ्वी का भविष्य अनिश्चितता की दिशा की ओर बढ़ रहा है ।
5. हाथों में पारिस्थितिकी (Ecology in Hand):
ऊपर दी गई बातें पारिस्थितिकी तथा पारिस्थितिक तंत्रों के कुछ पहलुओं का सरल सिंहावलोकन है । इसका मुख्य उद्देश्य इस तथ्य को उजागर करना है कि प्रकृति में हर चीज कई जटिल, पारस्परिक तथा एक-दूसरे पर निर्भरता जैसे कई संबंधों पर टिकी है और हम इस प्रणाली के बारे में बहुमूल्य जानकारी इकट्ठी कर सकते हैं ।
अगर हम इसका विशिष्ट रूप से और फिर बड़े-बड़े समूहों के रूप में अध्ययन करें, लम्बे समय तक इस प्रणाली के निरंतर अध्ययन से हमें इसके बारे में बेहतर समझ आ सकती है । मुख्य रूप से इसकी गतिशीलता और विकास के गुणों को समझने में ।
प्रकृति से जुड़ी हमारी अभी तक की गतिविधियों में हमने प्रकृति के कुछ पृथक घटकों या थोड़ी अवधि के लिए कुछ प्रक्रियाओं का ही अध्ययन किया है । कभी-कभी हमने एक जीव को देखा या उनके समूहों का भी अवलोकन किया है ।
मिनी नेचर यानी सूक्ष्म प्रकृति के ऐसे कई उदाहरण हैं जो हमारी आसान पहुंच में भी हैं और हमें समझने में भी आसान हैं तथा वहां पर हम ऐसे विविध जीवी के समूहों का अध्ययन कर सकते हैं जो एक साथ जी रहे हैं और कार्य कर रहे हैं ।
प्राकृतिक प्रणालियों के ऐसे उदाहरण अवलोकन करने में आसान हैं और समझने में भी, क्योंकि इनका आकार छोटा होता है और इनमें जटिलता कम होती है । इन प्रणालियों में हम सिलसिलेवार रूप में बहुत ही छोटी समयावधि में कई बदलाव देख सकते हैं । यानी लघु रूप में इन विकसित होते पारिस्थितिक तंत्र को हम शौकिया पारिस्थितिकी अनुभव के रूप में अध्ययन कर सकते हैं ।
हम आगे जाकर अभी तक की अपनी गतिविधियों पर आधारित कई मॉडल भी बना सकते हैं । जैसे टैरारियम या ईकोपौंड को उचित सामग्री से सजाकर हम भूमि तथा जल आधारित पारिस्थितिक तंत्र की अपना डिजाइन दे सकते हैं और इन तंत्रों की नकल बना सकते हैं ।