एक्वाटिक पारिस्थितिकी तंत्र: अर्थ और धमकी | Read this article in Hindi to learn about:- 1. जलीय परिस्थितिकी तंत्र का अर्थ (Meaning of Aquatic Ecosystem) 2. जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार (Types of Aquatic Ecosystem) 3. संतर्जन/खतरा (Threats) 4. संरक्षण (Conservation).
जलीय परिस्थितिकी तंत्र का अर्थ (Meaning of Aquatic Ecosystem):
जलीय इकाइयों में विविध प्रकार की वनस्पति व जन्तु पाए जाते हैं । जलीय तंत्र में विशिष्ट क्षेत्र हैं जिनमें विविध व विशिष्ट प्रकार के जन्तु, पौधे व सूक्ष्म जीव पाए जाते हैं । पादप व जन्तु जगत में यह विविधिकरण प्रमुखत: तापमान, लवणता, थर्मोक्लाइन, प्रकाशित मंडल, फोटिकजोन जल में प्रकाश का प्रवेशन, घुले हुए पोषक तत्व, कीचड़, रेत और अजैविक पदार्थों की उपस्थिति के कारण होता है । जलीय पारिस्थितिकी तंत्र की प्रमुख विशेषताओं का विवरण प्रस्तुत किया गया है ।
जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार (Types of Aquatic Ecosystem):
1. स्वच्छ जलीय पारिस्थितिकी तंत्र (Fresh Water Ecosystem):
स्वच्छ जल से अभिप्राय: बहता पानी या स्थिर पानी । बहता पानी में स्वच्छ जलधाराएँ, झरने, जल प्रपात, नदियाँ, छोटे नाले, बड़े जल प्रपात आदि शामिल है । स्थिर जल इकाई के अन्तर्गत तालाब, दलदल व झीलें शामिल हैं । इसकी भौतिक, रासायनिक तथा जैववैज्ञानिक विशेषताओं में अत्यंत विभिन्नताएँ द्रष्टव्य होती है ।
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2. समुद्री जल पारिस्थितिकी तंत्र (Marine Ecosystem):
पृथ्वी की सतह के लगभग 71 प्रतिशत भाग पर जल है तथा औसत गहराई 3750 मीटर है, तथा औसत लवणता 35 प्रति हजार है ।
3. एस्चूएरी (Estuaries):
समुद्री खाडियाँ, नदी मुख, डेल्टा, ज्वारीय कच्छ एस्चूएरी में नदियों से स्वच्छ समुद्री जल में मिलता है तथा दोनों का मिश्रण ज्वारीय क्रिया से होता है । एस्चूएरी समीपस्थ नदी, समुद्र या महासागर की अपेक्षा उच्च रूप से उत्पादक है ।
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4. पोखर अथवा तालाब इकोसिस्टम (Pond Ecosystem):
पोखर, भारत के लगभग सभी गाँव में पाये जाते हैं । ये पोखर छोटे-बड़े आकार के हैं जिनमें जल की मात्रा भिन्न-भिन्न रहती हैं । कुछ ऐसे पोखर है जिनमें जल ग्रीष्म काल में समाप्त हो जाता है । जल की उपलब्धि एवं मात्रा के अनुसार उनके जैविक पदार्थ में भी परिवर्तन होता रहता है ।
पोखर इत्यादि के स्थिर जल में खरपतवार पानी पर तैरती रहते हैं जिनकी जड़ें दलदल में होती है । प्रमुख प्राणियों में मछली, मेंढक, कौडिल्ला तथा जलमुर्गियाँ हैं । बहुत से कीड़े-मकोड़े घोंघे केकड़े भी तालाबों में पाये जाते हैं । इनमें से बहुत-से जीव मृत जैविक पदार्थ पर आधारित रहते है । यदि कोई पोखर सूख जाये तो उसके मेंढक, घोंघे तथा कीडे कीच के नीचे छप जाते हैं जो वर्षा होने पर जल में तैरने लगते हैं ।
5. झील-इकोसिस्टम (Lake Ecosystem):
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झील एक विस्तृत जलाश्य है जो चारों ओर से घिरी होती है । झील इकोसिस्टम प्रक्रिया भी एक पोखर के समान होती है । झीले सामान्यतः गहराई में तीन मीटर से अधिक होती हैं । इसके अधिकतर पौधे, अलगी के रूप में होते हैं । जो सूर्य से प्रकाश तथा ऊर्जा प्राप्त करके उसको रासायनिक ऊर्जा में तब्दील कर देते हैं । झीलों के जल में बहुत-से शाकाहारी तथा मछलियाँ पाई जाती हैं । मछलियाँ केटफिश मल-मूत्र तथा मरे हुये प्राणियों पर आधारित रहती हैं, जिनको ‘बोटम-फीडर’ भी कहते हैं ।
झीलों की आहार श्रृंखला तथा ऊर्जा श्रृंखला सूर्य प्रकाश पर आधारित होती है । पेड-पौधों के द्वारा उत्पन्न की गई ऊर्जा को शाकाहारी उपभोग में लाते हैं । शाकाहारियों को मांसाहारी इस्तेमाल करते हैं पशुओं का मल-मूत्र को सूक्ष्म प्राणी जो झील के कीचड़ में रहते हैं खाकर आहार श्रृंखला को पूरा करते हैं ।
इस प्रक्रिया में पौधे जल से कार्बन का प्रयोग करते हैं, जो ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं । इस प्रकार उपलब्ध ऑक्सीजन का उपयोग जल में रहने वाले पशु-पक्षी भी करते हैं । भारत में अधिकांश झीलें हिमालय व संतुलज-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों में हैं । भारत में कई कृत्रिम व मानवनिर्मित झीलें हैं । इनमें से गिरनार की सुदर्शन झील जो 300 ईसा पूर्व बनायी गयी थी शायद भारत की सर्वाधिक प्राचीन कृत्रिम झील है ।
झीलें:
(i) स्वच्छ जल वाली (डल, बूलर आदि) और
(ii) ब्रैकिस अथवा लवणीय झील (चिल्का, अष्ठमुदी, बेम्बानद आदि) हैं ।
पोषक तत्वों के आधार पर झीलों को- (a) ओलिगोट्राफिक (अत्यंत निम्न पोषक तत्व युक्त, (b) यूट्रोफिक उच्च पोषक तत्व युक्त जैसे डल झील में विभाजित किया जा सकता है अधिकांश भारतीय झीलें यूट्रोफिक हैं ।
यूट्रोफिकेशन (Eutrophication):
इस प्रकार की झीले प्रायः तीन मीटर से अधिक गहरी होती है । झीलों का पारिस्थितिकी तंत्र नदियों, एस्चूएरी, आर्द्र भूमि, सागरों व महासागरों से भिन्न होता है । प्रायः कीले जल अपने सतह से प्राप्त करती हैं । झीले अंततः अपनी व्यापक पोषक तत्वों की आपूर्ति समीपस्थ क्षेत्रों तथा मानव गतिविधियों से करती हैं ।
ये पोषक तत्व शैवाल, समुद्री पादपों तथा विभिन्न जीवों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इस प्रकार जलीय इकाइयों में खरपतवारों व पादपों की विकास प्रक्रिया द्बोफिकेशन कहलाता है । यूट्रोफिकेशन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें झीलें अपना पोषण व अवसाद प्राप्त करती हैं तथा पुष्ट होती हैं अर्थात यह वह प्रक्रिया है जब झीलें शनै: शनै: जल से भर जाती हैं ।
यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिससे झील की प्राथमिक उत्पादकता में विकासात्मक वृद्धि होती है क्योंकि झीलें जमा हुए पोषक तत्वों को हटाने में अप्रभावी होती हैं । यूट्रोफिकेशन को झील का वृद्ध होना भी कहा जाता है । जैसा कि ऊपर यूट्रोफिकेशन में बताया गया है, पोषक तत्वों के एकत्रीकरण से पौधे की वृद्धि बढती है जिससे झील में भारी संख्या में मृत जीवों की आपूर्ति होती है ।
सूक्ष्म जीव-जन्तु इस आर्गनिक पदार्थ को तोड़ देते हैं परंतु इस प्रक्रिया में उन्हें ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है, जबकि ऑक्सीजन जल में अंशतः घुल जाती है तथा यह निम्न सकेन्द्रण में विद्यमान रहती है । अपघटकों द्वारा ऑक्सीजन का प्रयोग करने में इसका स्तर उस बिन्दु तक गिर जाता है ।
अन्य जीव जैसे कई प्रकार की मछलियाँ इसमें जिंदा नहीं रह पाती हैं । कुछ वर्षों तक लगातार पोषकों के प्रदूषण से झील एक छिछली झील/तालाब में परिवर्तित हो जाती है जिससे झील धीरे-धीरे हजारों वर्षा में प्राकृतिक वृद्वावस्था की प्रक्रिया से गुजरते हुए अवसादी व जैविक पदार्थों से भर जाती है ।
यूट्रोफिकेशन के परिणाम (Consequences of Eutrophication):
यूट्रोफिकेशन के प्रमुख परिणाम इस प्रकार हैं:
(i) पारिस्थितिकी तंत्र में परिवर्तन,
(ii) जैवविविधिता में कमी,
(iii) नई प्रजातियों का हस्तक्षेप,
(iv) शैवाल संबंधी वृद्धि,
(v) घुली ऑक्सीजन के स्तर में कमी,
(vi) प्रवाल भित्तियों की हानि,
(vii) हानिकारक गंध,
(viii) मनोरंजन गतिविधियों में कमी,
(ix) सौन्दर्यात्मक मूल्य में कमी ।
लाल ज्वार (Red Tide):
यह ऐसी परिघटना हेतु एक साधारण नाम है जहाँ कुछ फाइटोप्लैंक्टोन प्रजातियों में पिंगमेन्ट्स होती है जिसे मानव आंखों से देख सकता है । यह ब्लूम हरा, भूरा अथवा लाल संतरी रंग का भी हो सकता है तथा जो जीव के प्रकार, जल के प्रकार तथा जीव के सांद्रण पर निर्भर करता है । ब्लूम उच्च पोषकों व गरम जल से हो सकता है ।
इस प्रकार शब्द ‘लाल ज्वार’ वास्तव में भ्रामक है क्योंकि ब्लूम सदैव लाल नहीं होते, वे ज्वार से संबद्ध नहीं होते है तथा वे सामान्यतः हानिकारक नहीं होते हैं । हालांकि कुछ प्रजातियाँ निम्न कोशिका संकेद्रण में हानिकारक व खतरनाक हो सकती हैं जो जल का रंग नहीं बदलते ।
6. आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र (Wetland Ecosystem):
अर्द्रभूमि की परिभाषा (Definition of Wetland):
दलदल व कछारीयुक्त भूमि की वह सतह जहाँ जल निकास की अल्पतम व्यवस्था होती है को आर्द्रभूमि कहा जाता है । आर्द्र भूमि को समीपस्थ गहरे जलावास से समय-समय पर जल की प्राप्ति होती है । इसलिए यह इस प्रकार के जल भराव में पनपने वाले पौधों व जीवों को सहारा प्रदान करती है तथा उनकी वृद्धि में भूमिका निभाती है आर्द्रभूमि वे छिछली झीलें हैं जो सामान्यतः गहराई में तीन मीटर से कम होती हैं ।
आर्द्रभूमि में तटीय क्षेत्र (झील के उच्चतम व निम्नतम जल स्तर के बीच का सीमांत क्षेत्र), दलदली भूमि, कछारी क्षेत्र तथा नमी क्षेत्र शामिल होता है ।
आर्द्रभूमि का वर्गीकरण (Classifications of Wetlands):
आर्द्रभूमि को:
(i) आंतरिक आर्द्रभूमि,
(ii) समुद्रतटीय आर्द्रभूमि में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
यह आंतरिक आर्द्रभूमि प्राकृतिक व मानवनिर्मित हो सकती है । प्राकृतिक आंतरिक आर्द्रभूमि में झीलें, तालाब, दलदली भूमियाँ एवं कछारी क्षेत्र आते हैं जबकि मानव निर्मित आर्द्रभूमि में टैंक जलभराव क्षेत्र तथा जलाशय शामिल होते हैं ।
समुद्र तटीय आर्द्रभूमि में खाडियाँ, पृष्ठजल क्षेत्र क्रीक, एस्चूएरी, लैगून, लवणीय दलदली क्षेत्र, ज्वारीय फ्लैट शामिल हैं । समुद्र तट के पास साल पेन्स व एक्वाकल्वर ट्रैक्ट आदि मानव निर्मित आर्द्र भूमियाँ हैं ।
आर्द भूमि की सामाजिक सार्थकता (Social Relevance of Wetlands):
आर्द्र भूमि का मानव व पर्यावरण हेतु अत्यंत महत्व है ।
आर्द्र भूमि के कुछ महत्वपूर्ण लाभ इस प्रकार हैं:
(i) ये जलीय पौधों, जन्तुओं, पक्षियों तथा भ्रमणकारी प्रजातियों के वास हैं ।
(ii) ये वे क्षेत्र हैं जहाँ अवसाद व पोषक तत्व सतही जल से छनते हैं ।
(iii) ये जल के शुद्धीकरण में सहायक होते हैं ।
(iv) ये बाढों के आगमन को कम करते हैं ।
(v) भूजल के पुनर्निर्माण में सहायक होते हैं ।
(vi) पेय जल, मछलियाँ, चारा तथा ईंधन उपलब्ध कराते हैं ।
(vii) जैवविविधता को बनाए रखने में सहायक होते हैं ।
(viii) पर्यटन व पारिस्थितिकी पर्यटन को प्रोत्साहित करते हैं ।
वास्तव में आर्द्र भूमियाँ तीव्र गति से कम हो रही हैं ।
आर्द्र भूमियों के समाप्त होने के प्रमुख कारण निम्मलिखित हैं:
(i) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि
(ii) आर्द्र भूमियों पर कृषि कर्म हेतु अतिक्रमण
(iii) अधिक चारागाह के रूप में प्रयोग
(iv) एक्वाकल्चर
(v) भूमि सुधार
(vi) जल-प्रदूषण
(vii) औद्योगिक व घरेलू अपशिष्टों की निपटान भूमि के रूप में प्रयोग ।
7. एस्चूएरी पारिस्थितिकी तंत्र (Estuary Ecosystem):
एस्चूएरी वह बिन्दु है जहाँ नदी का मुख समुद्र में प्रवेश करता है तथा शुद्ध जल व समुद्री जल आपस में मिल जाते हैं । इसके अलावा यह वह स्थान है जहाँ सागरीय उतार-चढ़ाव आते रहते हैं अन्य शब्दों में यह नदी की खाड़ी है जो नदी के मुख से शुद्ध जल व समुद्र/महासागर से लवणीय जल प्राप्त करता है । एस्चूएरी विश्व में सर्वाधिक उत्पादक जलीय इकाइयाँ हैं । इन्हें रोज समुद्री जल द्वारा एक या दो बार साफ किया जाता है ।
एस्चूएरी पारिस्थितिकी तंत्र की प्रमुख विशेषताएं (Salient Features of Estuary System):
एस्चूएरी पारिस्थितिकी तंत्र की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
(i) समुद्री व नदी जल का मुक्त मिश्रण होता है ।
(ii) यह समुद्री तरंगों से अपेक्षातया शांत होता है तथा अनेकों पादपों व जंतुओं को आश्रय प्रदान करता है ।
(iii) यह सर्वाधिक उत्पादक क्षेत्र है जो स्वच्छ व समुद्री जल से उच्च मात्रा में पोषक तत्व प्राप्त करता है ।
(iv) एस्चूएरी विश्व के सर्वाधिक जनघनत्व वाले क्षेत्र हैं ।
(v) एस्चूएरी नदी के जल में घुले हुए घटकों/अवययों के लिए छलनी का काम करते हैं ।
(vi) इनका निर्माण वहाँ होता है जहाँ नदी का जल समुद्री जल से मिलता है ।
(vii) यह प्रदूषकों का जहर कम करता है तथा एक छलनी का काम करता है ।
(viii) एस्चूएरी विभिन्न प्रकार के वासों को सहारा प्रदान करता है । इनमें मैंग्रोव, लवणीय दलदल, समुद्री खरपतवार, समुद्री घास, सूक्ष्म जीव तथा है । वे पृथ्वी के सभी प्रकार के पादप व जीव जगत जैसे समुद्री कछुआ, कैटफिस, समुद्री शेर, ईलग्रास, समुद्री घास, बुलग्स तथा सेज के वास हैं ।
(ix) उनकी मनोरंजक स्थल व सौन्दर्यात्मक स्थल के रूप में अत्यंत महत्ता है ।
(x) वे शिक्षण व अनुसंधान हेतु उत्तम आधार प्रदान करते हैं ।
(xi) वे मृदा अपरदन को संरक्षित करते है, तथा
(xii) जमा हुआ कीचड तथा रेत नदी के मुंह पर एकत्रित हो जाता है जिससे डेल्टा का निर्माण होता है ।
8. नदियों तथा बहते जल के पारिस्थितिकी तंत्र (Streams and Rivers Ecosystem):
नदी का बहता जल एक संर्कीण सरिता होती है जो ढलान के अनुसार बहती है । नदी/दरिया किसी सरिता का विस्तृत रूप होता है । कुछ पौधे तथा प्राणी बहते जल को सहन करके जीवित रह पाते हैं, जबकि कुछ प्राणी जैसे तिलचट्टा बहते जल में जीवित नहीं रह पाते हैं ।
कुछ जलीय प्राणी केवल स्वच्छ जल में ही प्रजनन करते हैं । महसीर जैसी मछली प्रजनन के लिये नदियों के ऊपरी पर्वतीय भागों में पलायन करती है । महसीर मछली मोती जैसे स्वच्छ जल में ही प्रजनन करती है । गंदले पानी तथा सख्त चट्टानों पर बहने वाली नदियों में कुछ विशेष प्रकार की मछलियाँ ही पनपती हैं ।
जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को संतर्जन/खतरा (Threats to Aquatic Ecosystem):
I. जल प्रदूषण (Water Pollution):
विकसित तथा सभी देशों में जलीय पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है । जलीय पारिस्थितिकी तंत्र पर सबसे खराब प्रभाव जल के प्रदूषण का पड़ रहा है । जल प्रदूषण मुख्यतः गंदे-पानी (मलजल) के कारण होता है । जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के प्रदूषित होने से जलाशय में घास-फूस की वृद्धि हो जाती है ।
जल में भारी मात्रा में खरपतवार, शैवाल उत्पन्न हो जाते है जिससे धीरे-धीरे जल में फॉस्फेट तथा नाइट्रेट जैसे तत्वों की वृद्धि हो जाती है जलाशय में खरपतवार की वृद्धि से बहुत-से जीव नष्ट हो जाते हैं । मछलियाँ साँस नहीं ले पाती इसलिये परजीवी हैं । इनके अतिरिक्त पारिस्थितिकी तंत्र में दुर्गंध हो जाती है ।
II. रासायनिक खादों का अधिक प्रयोग (Excessive Use of Chemical Fertilizers):
आर्द्र कृषि प्रदेशों में रासायनिक खादों एवं कीटाणुनाशक दवाइयों के अधिक उपयोग से जलाशयों में घास-फूस तथा खरपतवार में भारी वृद्धि हो रही है । कश्मीर घाटी की डल तथा बुलर झीलों में भारी मात्रा में खरपतवार की वृद्धि हो रही है जिसके कारण ये सुंदर झीलें तीव्र गति से नष्ट हो रहीं है ।
आसाम की आर्द्रभूमियाँ, मणिपुर की लाकटक झील, उत्तराखंड की नैनीताल भीमताल तथा मध्य प्रदेश की भोपाल के पास भोज-झील आदि भारत की अत्यधिक प्रदूषित झीलों में है ।
जलीय पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण (Conservation of Aquatic Ecosystem):
जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के अधिक उपयोग एवं दुरुपयोग से उसकी लचीली शक्ति पर खराब प्रभाव पड़ता है । उदाहरण के लिये, जब किसी नदी पर बाँध बनाया जाता है तो नदी के प्राकृतिक बहाव में कमी आती है और नदी के निचले अथवा मैदानी भाग में जल का अभाव हो जाता है ।
इसी प्रकार जब किसी आर्द्रक्षेत्र के जल का निकास किया जाता है तो आस-पास के क्षेत्रों में बाढ आ जाती है । बहुत-से जलीय-पारिस्थितिकी तंत्रों में गंदे पानी एवं मल जल के कारण खरपतवार की मात्रा में भारी वृद्धि हो जाती है ।
इसलिये किसी जलीय पारिस्थितिकी को स्वस्थ अवस्था में रखने के लिये सबसे पहले उसमें मल जल अथवा प्रदूषित जल को गिरने से रोकना चाहिए । आर्द्रक्षेत्र एवं राष्ट्रीय उद्यानों इत्यादि को टिकाऊ बनाने के लिये उनके जलीय पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण मल-जल से बचाना अनिवार्य है ।