समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र: प्रक्रिया और प्रभाव | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र (Introduction to Marine Ecosystem) 2. सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभाव (Effects of Marine Ecosystem) 3. उत्पादक तथा उपभोक्ता (Producer and Consumers) 4. आहार श्रृंखलाएँ (Food Chain).
सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र (Introduction to Marine Ecosystem):
स्थल तथा सागर पारिस्थितिकी तंत्र की प्रक्रिया लगभग समान होती है । विश्व के 70.78 प्रतिशत भाग पर सागरीय जल फैला हुआ है । विश्व के महासागरों में स्थल की अपेक्षा दस गुणा बायोमास पाया जाता है । थल की अपेक्षा महासागरों का वातावरण जैविक पदार्थों के लिये अधिक अनुकूल होता है ।
वास्तव में जीवन के दो प्रमुख तत्व (ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइ ऑक्साइड) पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं । इनके थल से आये हुये बहुत-से अजैविक पदार्थ भी सागर के जल में घुले रहते हैं ।
महासागरीय इकोसिस्टम विस्तृत क्षेत्र पर फैला हुआ है । जिसमें बहुत-सी जटिल रासायनिक प्रक्रियाएँ निरंतर होती रहती हैं । सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र पर तापमान सूर्य प्रकाश तथा लवणता का भारी प्रभाव पड़ता है ।
सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र के प्रभाव (Effects of Marine Ecosystem):
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इनके प्रभाव को संक्षिप्त में निम्न में प्रस्तुत किया गया है:
(i) तापमान (Temperature):
थल की अपेक्षा महासागरों में जल में तापमान कम पाया जाता है । विश्व के लाल सागर में सागर की ऊपरी सतह का तापमान लगभग 32०C रहता है, जबकि सबसे ठंडे आर्किट महासागर का तापमान -2०C रहता है । इस प्रकार सबसे अधिक गर्म तथा सबसे ठंडे सागर का वार्षिक तापांतर महाद्वीपों के थल की तुलना में बहुत कम रहता है ।
(ii) लवणता (Salinity):
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महासागरों के जल में लवणता पाई जाती है । महासागरों की औसत लवणता 35 ग्राम प्रति किलोग्राम अथवा 35% है, परंतु महासागरों की लवणता में विभिन्न अक्षांशों में भारी विभिन्नता पाई जाती है । उदाहरण के लिये लाल सागर की औसत लवणता 40% है, जबकि बाल्टिक सागर की औसत लवणता 31% है ।
बल्कि सागर की ऊँचे अक्षांशों में अवस्थिति तथा नदियों एवं हिमनदों से स्वच्छ जल मिलने के कारण लवणता कम पाई जाती है । महासागरों के खुले भागों में लवणता का अतर तुलनात्मक रूप से कम पाया जाता है । उदाहरण के लिये अटलांटिक महासागर के 20०C पर लवणता 37% है, जबकि ध्रुवी क्षेत्रों में लवणता की मात्रा 33% पाई जाती है ।
बहुत-से जीवों की लवणता सहनशीलता बहुत कम होती है, इसलिये ऐसे जीव महासागरी के कुछ विशेष कम लवणता वाले भागों में ही भारी मात्रा में पाये जाते हैं । इस प्रकार सागरीय लवणता का जीवों के क्षैतिज तथा लंबवत वितरण पर भारी प्रभाव पडता है ।
(iii) प्रकाश (Light):
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सूर्य प्रकाश की उपलब्धता का प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया पर प्रभाव पडता है । सूर्य-प्रकाश की मात्र विभिन्न अक्षांशों में भिन्न-भिन्न होती है तथा प्रकाश की मात्रा मौसम के अनुसार तथा दिन की लंबाई (प्रकाशित घटों) के अनुसार भी बदलती रहती है । सागरों की ऊपरी परत की दस मीटर की गहराई तक प्रकाश अधिक रहता है, इसलिये इस भाग में जैविकों की संख्या भी अधिक पाई जाती है ।
सागर तथा महासागरों की गहराई के साथ प्रकाश की मात्रा में भी कमी होती जाती है, जिसका सीधा प्रभाव प्रकाश-संश्लेषण पर पडता है, जिससे जैविकों की संख्या निर्धारित होती है । सूर्य प्रकाश सामान्यतः महाद्वीपीय-शेल तक पाया जाता है जिसको फोटिक क्षेत्र कहते हैं । फोटिक जोन के नीचे के क्षेत्र को अप्रकाशित क्षेत्र कहते हैं ।
सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र के उत्पादक तथा उपभोक्ता (Producer and Consumers of Marine Ecosystem):
A. वनस्पति जगत (Plant Life) प्राइमरी उत्पादक (Primary Producer):
सागरीय वनस्पति केवल प्रकाशित भाग तक ही सीमित है । सागरों की वनस्पति में थल की वनस्पति की अपेक्षा कम विविधता पाई जाती है । महासागरों की प्रमुख वनस्पति सागरीय शैवाल के रूप में पाई जाती है । महासागरों की वनस्पति फाइटोप्लैन्कटन की बहुतायत होती है जो कुल वनस्पति का 99 प्रतिशत हैं ।
अधिकतर फाइटोप्लैन्कटन महासागरों के उन भागों में पाये जाते हैं जहाँ नीचे का ठंडा एवं स्वच्छ जल ऊपर की ओर उबल रहा हो या जिन भागों में गर्म तथा ठंडे पानी की धाराओं का मिश्रण हो रहा हो जैसे न्यूफाउंडलैंड के तटीय भागों में नदियों के द्वारा भी बहुत-से पौष्टिक तत्व लाकर जमा किये जाते हैं, जिससे जैविकों की संख्या में वृद्धि होती है ।
महासागरों के पारिस्थितिकी तंत्रों में उपरोक्त कारणों से भारी विविधता पाई जाती है ।
सूर्य प्रकाश के सागरों में प्रकाश गहराई, लवणता, पौष्टिकता के आधार पर महासागरों के पारिस्थितिकी तंत्रों को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) वेलापवर्ती अथवा पेलैजिक (Pelagic) बायोम:
सागरों के महाद्वीपीय-शेल्फ अर्थात तटीय क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की भूआकृतियाँ, अवसाद, तापमान तथा लवणता की मात्रा पाई जाती है । सागरों के तटीय भाग की 200 मीटर की गहराई तक पैलैजिक बायोम पाया जाता है । पेलैजिक बायोम में विशेषतः फाइटोप्लैन्कटन तथा जूफ्लैन्कटन पाये जाते हैं ।
इनके अतिरिक्त बहुत-से तैरने वाले शैवाल भी पाये जाते हैं । नेक्टन वर्ग के अधिकतर जैविक रीढ़ की हड्डी वाले मछली आदि पाये जाते हैं । पानी की सतह पर बहुत-सी चिडिया तथा जलमुर्गी भी तैरती हैं ।
पेलैजिक बायोम के विविध जैविक प्रकाशित क्षेत्र तक सीमित हैं । सागर के इस भाग में विशेषतः तथा डाईटम पाये जाते हैं । इनके अतिरिक्त नाना प्रकार के बैक्टीरिया भी पाये जाते हैं ।
(ii) बेंथिक बायोम (Benthic Biome):
सागर की निचली तली पर अर्थात सागर की तलहटी के बायोम को बेंथिक बायोम कहते हैं । इस बारे में सागरी-शैवाल, ईल-घास तथा कछुआ-घास उगती है, जबकि पशु वर्ग में मुलस्का, घोंघे, सीपी, कीड़े, जेली-फिश, झींगा, स्टार-फिश, सागरीय मकड़ी तथा बहुत-से सूक्ष्म प्राणी सम्मिलित हैं ।
विभिन्न सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र का औसत सूखा उत्पादन लगभग 350 ग्राम प्रति वर्ग मीटर प्रति वर्ष माना जाता है, परंतु सागर की गहराई की ओर जाते हुये औसत उत्पादकता में क्रमशः ह्रास होता जाता है ।
भारतीय प्रायद्वीप हिंद महासागर के अरब सागर तथा बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है । भारतीय महाद्वीपीय-शेल्फ पर जैविक उत्पादकता अधिक है, जबकि गहरे सागरों की जैविक उत्पादकता में क्रमशः कमी होती जाती है ।
लक्षद्वीप समूह, मन्नार की खाड़ी, पाक जल संयोजक तथा कच्छ की खाड़ी में बहुत-से मूँगे के द्वीप हैं । इन सागरों में बहुत-से मूँगे-पोलिप पाये जाते हैं ।
सागरीय तटों के उथले तथा छिछले भागों में मैंग्रोव कच्छ वनस्पति की बहुतायत पाई जाती है । ऐसे पारिस्थितिकी तंत्रों का प्रयोग विशेषकर सागरी तटों पर रहने वाले मछुआरे करते हैं । बढ़ती जनसंख्या के कारण तटीय इकोसिस्टम का विघटन हो रहा है ।
B. पशु-जगत उपभोक्ता (Animal Life or Consumers):
सागरों में नाना प्रकार के जीव-जंतु पाये जाते हैं उनमें से बहुत-से सूक्ष्म प्राणी सूक्ष्म वनस्पति तथा शैवाल पर आधारित होते हैं । ऐसे प्राथमिक उपभोक्ताओं को शाकाहारी कहते हैं । सूक्ष्म प्राणी जो घास-शैवाल पर आधारित होते हैं, वह बड़े मांसाहारियों का आहार बनते हैं । स्थलीय इकोसिस्टम की तुलना में सागरीय इकोसिस्टम में अपरद/डिट्राइटस का अभाव पाया जाता है ।
सागरों के जीव-जंतु तथा पशु-पक्षियों का आकार तुलनात्मक रूप से बडा होता है । यद्यपि जूप्लेंक्टन की सघनता तथा वितरण पर फाइटोप्लैन्कटन-वनस्पति के वितरण पर सीधा प्रभाव पड़ता है । अथाह सागरों की गहराई में पाये जाने वाले प्राणियों पर भी प्राइमरी उत्पादकों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता है ।
सूक्ष्म प्राणी, मछलियों-जैसे मेकरल, सार्डीन तथा हेरिंग को ठंडे पानी में रहने वाली मछलियों का भोजन माना जाता है । सूक्ष्म प्राणी बहुत-से अकशेरूकी का भी भोजन बनते हैं । बेरीढ़ हडडी वाले प्राणियों में मोलूसियस, कीड़ा तथा झींगा प्रमुख है । जिनको कोड तथा हैडोक जैसी मछलियाँ खा जाती हैं । इन मछलियों को जल में रहने वाले पक्षी तथा जल मुर्गी आदि खा जाते हैं ।
सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र की आहार श्रृंखलाएँ (Food Chain in Marine Biomes):
सागरों की आहार श्रृंखलाएँ, स्थलीय आहार श्रृंखलाओं की तुलना में बहुत जटिल होती है । इन आहार श्रृंखलाओं की जटिलता का मुख्य कारण सागरों तथा महासागरों का विस्तृत आकार है । महासागर में थल की भांति कोई रोधक भी नहीं होता ।
महासागरों में फाईटीपनेन्कटन के द्वारा सूर्य प्रकाश से भोजन तैयार होता है, जिनको जूप्लेंक्टन खाते हैं । फाइटोप्लैन्कटन दिन के समय भोजन तैयार करते हैं जिनको सूक्ष्म प्राणी रात के समय नीचे से ऊपर की सतह पर आकर खा जाते हैं । सूक्ष्म प्राणियों को छोटी मछली आदि आहार बनाकर खा जाती हैं ।
सागरीय आहार श्रृंखला पर मानव का भी प्रभाव पड़ता है । मानव सागर में मछलियाँ पकड़ता है, विशेषकर बडी मछलियाँ, जिससे आहार श्रृंखला किसी हद तक प्रभावित होती है । मानव के द्वारा सागरीय प्रदूषण से भी सागरीय पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित होते हैं, जिसका आहार श्रृंखला पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है ।