भुगतान संतुलन में सुधार: 7 उपाय | Read this article in Hindi to learn about the seven important measures adopted for improving balance of payments. The measures are:- 1. चालू खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता (Full Convertibility of Rupee in the Current Account) 2. स्वर्ण आयात नीति का उदारीकरण (Liberalization of Gold Import Policy) 3. निर्यात संवर्धन पूंजी वस्तुओं की योजना [Export Promotion Capital Goods Scheme (EPCGS)] and a Few Others.
वर्ष 1991 से भारत सरकार भुगतानों के सन्तुलन को सुधारने के लिये अनेक उपाय करती रही है ।
ये उपाय निम्मलिखित हैं:
Measure # 1. चालू खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता (Full Convertibility of Rupee in the Current Account):
वर्ष 1992-93 के बजट प्रस्तावों में एक नई प्रणाली जिसमें ‘लर्मज’ (LERMS) (उदारीकृत विनिमय दर प्रबन्ध प्रणाली) आरम्भ की गई और 1 मार्च, 1992 से दोहरे विनिमय दरों की प्रणाली अपनायी गयी । नई व्यवस्था के अन्तर्गत, निर्यातकर्त्ता अपने विदेशी विनिमय अर्जन का 60 प्रतिशत भाग प्राधिकृत विदेशी विनिमय व्यापारियों को खुले व्यापार बाजार दरों पर बेच सकते हैं जबकि 40 प्रतिशत बिक्री भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निश्चित विनिमय दरों पर करना अनिवार्य था ।
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इसके अतिरिक्त, प्राधिकृत विनिमय दर, सरकार को अत्यावश्यक आयात के लिये विदेशी विनिमय उपलब्ध करने पर लागू हो गया, जबकि अन्य मदों के आयातकर्ताओं को खुले बाजार से विदेशी विनिमय का स्वयं ही प्रबन्ध करना पड़ता था । यह कदम आयातों को हतोत्साहित करने के लिये उठाया गया था ।
लर्मज (LERMS) ने अच्छे परिणाम दर्शाये और इससे उत्साहित होकर सरकार ने वर्ष 1993-94 में व्यापार खाते में रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता आरम्भ की । इस कदम को अपना कर सरकार ने निर्यात और आयात के लिये दोहरे विनिमय दर की प्रणाली को समाप्त कर दिया और खुले बाजार विनिमय पर आधारित लर्मज का कार्यान्वयन किया ।
Measure # 2. स्वर्ण आयात नीति का उदारीकरण (Liberalisation of Gold Import Policy):
वर्ष 1992 में घोषित स्वर्ण आयात नीति ने अप्रवासी भारतीयों तथा विदेशों से आने वाले भारतीय पर्यटकों को भारत में लौटते समय 5 कितोग्राम सोना साथ लाने की इजाजत दे दी । 31 दिसम्बर, 1996 को सरकार ने स्वर्ण आयात नीति का और भी उदारीकरण कर दिया और स्वर्ण आयात की सीमा 10 किलोग्राम कर दी ।
5 जनवरी, 1999 से, विशेषीकृत सीमा के अन्तर्गत लाये गये आयात किये गये सोने पर आरम्भ में आयात शुल्क को विदेशी विनिमय में, 400 रुपये प्रति दस ग्राम की दर को, 2001-02 के केन्द्रीय बजट में 250 रुपये प्रति 10 ग्राम तक कम कर दिया गया ।
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यह सुविधा केवल उन्हीं व्यक्तियों को दी गई जो कम-से-कम 6 महीनों की विदेश यात्रा से भारत लौटते हैं । वर्ष 2003-04 के बजट प्रस्तावों में, सोने के बिस्कुटों और सिक्कों पर आयात शुल्क को 250 रुपये प्रति 10 ग्राम से कम करके 100 रुपये प्रति 10 ग्राम कर दिया गया ।
Measure # 3. निर्यात संवर्धन पूंजी वस्तुओं की योजना [Export Promotion Capital Goods Scheme (EPCGS)]:
ई. पी. सी. जी एस. का आरम्भ निर्यातकर्ताओं को रियायती आयात शुल्कों पर पूंजी वस्तुएं आयात करने की इजाजत देने के लिए किया गया । नई निर्यात- आयात नीति के अन्तर्गत (1997-2002) वस्तुओं और सेवाओं के निर्यातकर्ता केवल 10 प्रतिशत आयात शुल्क देकर पूंजी वस्तुएँ आयात कर सकते हैं ।
ई.पी.सी.जी.एस. (EPCGS) के अन्तर्गत पूंजी वस्तुओं के ऐसे आयातकर्ताओं को अगले 5 वर्षों के भीतर सी. आई. एफ. (CIF) मूल्य के 4 गुणा वस्तुएं निर्यात करनी होंगी ।
Measure # 4. अग्रिम लाइसैंस प्रदान करने में सुधार (Improvement in Advance Licensing):
एक नई मूल्य सहायता (Value-Added) आधारित अग्रिम लाइसैंस प्रदान करने की प्रणाली आरम्भ की गई है जिसमें कच्चे माल और संघटकों के निःशुल्क आयात की घोषित निर्यात मूल्य की विशेष प्रतिशतता तक इजाजत दी गई है । व्यक्तिगत आगतों के लिये भौतिक मात्राएँ और मानक निश्चित नहीं किये गये हैं ।
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स्व-प्रमाणित अग्रिम लाइसैंस की सुविधा निर्यात घरानों, व्यापारिक घरानों, स्टार व्यापारिक धरों को उपलब्ध की गई है । आयात निर्यात (EXIM) नीति 1997-2002 में इस अग्रिम लाईसैंस योजना के अधीन निर्यात अवधि सीमा को 12 महीनों से 18 महीनों तक बढ़ा दिया गया । इसी प्रकार अग्रिम लाइसैंस के लिये मान्यता की अवधि को भी 12 से 18 माह तक बढ़ा दिया गया ।
Measure # 5. निर्यात प्रवृतिक इकाइयां, निर्यात संसाधन क्षेत्र और विशेष आर्थिक क्षेत्र योजनाएं (Export Oriented Units, Export Processing Zone and Special Economic Zone Schemes):
सरकार ने निर्यात प्रवृतिक इकाइयों तथा निर्यात संसाधन क्षेत्रों के लिये योजना को उदार बना दिया है । कृषि, बागबानी, मुर्गी पालन, मत्स्य क्षेत्र, दुग्ध क्षेत्र को निर्यात इकाइयों में सम्मिलित कर लिया है । निर्यात संसाधन क्षेत्र इकाइयों को व्यापार और स्टार व्यापार घरों द्वारा निर्यात करने की आज्ञा दे दी गई है तथा पट्टे पर साज-सामान ले सकते हैं । इन इकाइयों को विदेशी इक्यूटिज में शत-प्रतिशत भाग लेने की आज्ञा दे दी गई है ।
(i) निर्यात संसाधन क्षेत्र (Export Processing Zones):
विशेष आर्थिक क्षेत्रों (SEZs) में परिवर्तित होने से पहले यह निर्यात संसाधन क्षेत्र (EPZs) देश के निर्यातों को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे । इन क्षेत्रों की रचना अर्थव्यवस्था में ऐसा वातावरण विकसित करने के लिये की गई थी जो अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता का सामना उपलब्ध कर सके ।
विदेशी अन्त: क्षेत्र के रूप में स्थापित निर्यात संसाधन जोन (EPZs) जो राजकोषीय वाधाओं द्वारा घरेलू शुल्क क्षेत्र से अलग किये गये, से आशा की जाती है कि निर्यात उत्पादन के लिये प्रतियोगिता शुल्क रहित वातावरण उपलब्ध करेंगे ।
(ii) निर्यात प्रवृतिक इकाइयां (Export Oriented Units):
वर्ष 1981 से सरकार ने एक EPZ (जिसे अब SEZ में बदल दिया गया है) की पूरक योजना आरम्भ की जो निर्यात इकाइयों का संवर्धन करेगी (अपने शत- प्रतिशत उत्पादन का निर्यात करके) । इस योजना के अधीन सरकार इन इकाइयों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिये विभिन्न प्रोत्साहन उपलब्ध करेगी, ताकि देश के निर्यातों में वृद्धि हो ।
यह योजना माल का विस्तृत स्रोत भीतरी प्रदेश सुविधाएं प्रौद्योगिक निपुणताओं की उपलब्धता, औद्योगिक आधार का अस्तित्व और परियोजना के लिये एक बड़े क्षेत्र की आवश्यकता भेंट करती है । 31 दिसम्बर, 2005 को EOU योजना के अन्तर्गत 1924 इकाईयां कार्य कर रही थी । यह निर्यात प्रवृत्तिक इकाइयां (EOUs) मुख्यतः वस्त्रों और धागे, खाद्य संसाधन, बिजली का सामान, रासायनों, प्लास्टिक, ग्रेनाइट और खनिजों-कच्चे धातु पर केन्द्रित है ।
(iii) निर्यात घर, व्यापार गृह तथा स्टार व्यापार गृह (Export Houses, Trading Houses and Star Trading Houses):
निर्यातकर्ताओं की विक्रय योग्य दक्षता बढ़ाने के लिये सरकार ने निर्यात घरों, व्यापार घरों तथा स्टार व्यापार घरों का आरम्भ किया । वे पंजीकृत निर्यातकर्ता जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों के दौरान अच्छा निर्यात निष्पादन दिखाया है उन्हें निर्यात घरों तथा व्यापार घरों का पद दिया गया ।
ऐसे वर्गीकरण के अधीन इकाइयों को निर्धारित औसत निर्यात निष्पादन का स्तर तथा विदेशी विनिमय प्राप्त करना पड़ता है । इन इकाइयों को सरकार द्वारा कुछ विशेष सुविधाएँ और लाभ दिये जाते हैं ।
पहली अप्रैल 1994 से ‘गोल्डन सुपर स्टार ट्रेडिंग हाऊस’ नाम की एक अन्य श्रेणी सरकार द्वारा जोड़ी गई जिसका औसत वार्षिक विदेशी विनिमय अर्जन उच्चतम होता है । 31 मार्च, 2001 को देश में चार ‘गोल्डन सुपर स्टार ट्रेडिग हाऊस’ कार्यरत थे ।
(iv) निर्यात संवर्धन औद्योगिक पार्कस [Export Promotion Industrial Parks (EPIP)]:
अगस्त 1994 को, राज्य सरकारों को निर्यात प्रवृत्तिक उत्पादन के लिये संरचनात्मक सुविधाओं की रचना में सम्मिलित करने के लिये केन्द्र द्वारा समर्थित ”निर्यात संवर्धन औद्योगिक पार्क” योजना आरम्भ की गई । इस योजना के अन्तर्गत राज्य सरकार को इन सुविधाओं की रचना के लिये 75 प्रतिशत (10 करोड़ रुपयों की सीमा तक) अनुदान केन्द्र से प्राप्त होता है । केन्द्रीय सरकार ने अब तक EPIP की स्थापना के लिये देश के विभिन्न राज्यों में 25 प्रस्तावों को स्वीकृति दी है ।
(v) विशेष आर्थिक क्षेत्रों की स्थापना (Setting-Up of Special Economic Zones):
निर्यात को बढ़ावा देने के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों को और अधिक सुदृढ़ बनाया जायेगा । इन क्षेत्रों में अद्योसंरचना का बहुत अधिक विकास किया जायेगा । इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में लगी इकाइयों को आय-कर, सीमा-शुल्क (Custom-Duty) व उत्पादन-कर में दी जा रही रियायतें जारी रखी जायेंगी । विशेष आर्थिक क्षेत्रों से संबंधित अधिनियम को जून 2005 में पारित किया गया । 26 फरवरी, 2010 तक भारत में 350 SEZs को सरकार द्वारा स्वीकृति दे दी गई है, इनमें से 105 SEZs कार्यरत हैं
Measure # 6. सेवाओं का निर्यात (Export of Services):
सेवाओं का खाता विश्व के सकल घरेलू उत्पाद GDP के 60 प्रतिशत से अधिक है तथा वर्ष 1985 से माल की तुलना में सेवाओं का व्यापार अधिक तीव्रता से बड़ा है । विश्व में माल के निर्यात में भारत का भाग 0.8 प्रतिशत था । इसके विपरीत व्यापारिक सेवाओं में इसका भाग 1.9 प्रतिशत था । वर्ष 2005-06 में सेवाओं द्वारा सकल घरेलू उत्पाद के 54.1 प्रतिशत के योगदान से यह क्षेत्र अति महत्वपूर्ण हो गया ।
भारत ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान सेवा के निर्यात में उच्च वृद्धि को रिकार्ड किया है । ऐसे निर्यात पिछले तीन सालों के दौरान बढे हैं, 2005-06 में, 42.0% की वृद्धि के साथ यह $61.4 बिलियन तक पहुंच गए हैं । यह वृद्धि विशेष रूप से विविध सेवा वर्गों में तेज हुए हैं, जो सॉफ्टवेयर सेवाओं व्यवसाय सेवाओं, वित्तीय सेवाओं और संचार सेवाओं से बने हैं ।
2005 में, जब भारत का विश्व के निर्यात व्यवसाय में हिस्सा और दर्जा 1 प्रतिशत और 29 था, इसका विश्व के व्यावसायिक सेवा निर्यातों में हिस्सा और दर्जा 2.3% और 11 क्रमवार था । व्यावसायिक निर्यात की अपेक्षा तेजी से बहू कर सेवा निर्यात 2005-06 में व्यावसायिक व्यापार के लगभग 60 प्रतिशत से बना है ।
Measure # 7. निर्यात विकास केन्द्र (Export Development Centers):
वर्ष 1995-96 में सरकार ने, केन्द्रीय वाणिज्य मन्त्रालय द्वारा पहचाने गये 23 निर्यात विकास केन्द्रों में संरचना के विकास के लिये लगभग 50,000 करोड़ रुपयों के निवेश की योजना बनाई । इस निवेश का बडा भाग निजी क्षेत्र से प्राप्त होगा ।