Read this article in Hindi to learn about the problems of balance of payments in developing countries.
विकासशील देशों में भुगतान सन्तुलन में असमायोजन के मुख्य कारण निम्नांकित है:
(1) विकासशील देशों में व्यापार सन्तुलन या चालू खाते में होने वाला घाटा इन देशों द्वारा किए जा रहे विकास प्रयासों से घनिष्ठ रूप से जुडा होता है । तीव्र औद्योगीकरण हेतु विकासशील देशों को काफी अधिक मात्रा में पूंजीगत संसाधन कच्चा माल व तकनीकी कुशलता हेतु विकसित देशों से किए गए आयात पर निर्भर रहना पड़ता है ।
सामान्यतः यह देश प्राथमिक वस्तुओं का आयात करते है जिनसे अधिक प्राप्तियाँ सम्भव नहीं होती । निर्यातों की उपेक्षा आयातों के अधिक रहने से व्यापार सन्तुलन ऋणात्मक रहता है । विकासशील देशों के व्यापार सन्तुलन खातों में शुद्ध साधन सेवाएँ प्रायः ऋणात्मक मद के रूप में देखी जाती हैं जो यह प्रदर्शित करती हैं कि यह देश विदेशी पूंजी का शुद्ध आयात करते हैं ।
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विकासशील देशों के सम्मुख उत्पन्न होने वाले समायोजन सम्बन्धी सकट एक ओर चालू खाते के घाटे या वस्तु व सेवाओं एवं साधन भुगतानों के घाटे को सूचित करता है तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था में आन्तरिक रूप से किये जाने वाले विकास प्रयासों की निरन्तरता बनाए रखना आवश्यक होता है ।
(2) एक देश अपनी निर्यात प्राप्तियों से विकास हेतु आवश्यक संसाधनों का आयात करने में समर्थ बनता है । यदि आय सीमित हो एवं इसका अधिकांश भाग उपभोग में व्यय कर दिया जाए तो बचत दर के निम्न होने पर विनियोग प्रभावित होते है, ।
यदि आन्तरिक साधन बहुलता सीमित हो तो साधन गतिशीलता तब सम्भव हो पाएगी जब साधनों को बाह्य रूप से प्राप्त किया जाए । सामान्यतः विकासशील देशों में घरेलू बचतों से अधिक विनियोग किया जाता है । बचतों की मात्रा सीमित होने पर यदि देश बाह्य साधनों का अधिक प्रयोग करने पर बाध्य हो तो इसका प्रभाव आयात अतिरेक में वृद्धि में दिखायी देगा ।
(3) घरेलू बचतों व विदेशी विनिमय की मात्रा सीमित होने पर विकासशील देश अपने आयात अतिरेक के भुगतान हेतु अनुदानों एवं दीर्घकालीन पूंजी के अर्न्तप्रवाहों द्वारा वित्त प्राप्त करने का प्रयास करते हैं ।
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जब एक पूंजीगत अर्न्तप्रवाह, अनुदान एवं निर्यात प्राप्तियाँ, आयात आवश्यकता हेतु विदेशी विनिमय उपलब्ध कराने में समर्थ हों तथा जब तक भूतकाल में हुए ऋण सेवा समझौते पूंजीगत अर्न्तप्रवाह करते रहेंगे तब तक आयात अतिरेक भुगतान की कठिनाई का अनुभव नहीं करते । परन्तु यदि प्राप्तियां एवं भुगतान राशि विविध कारणों से असमंजित हो जाएँ तो देश के विकास प्रयास विपरीत प्रत्यावर्तन प्रभावों द्वारा अवरुद्ध होने लगते है ।
(4) आर्थिक विकास की प्राथमिकताओं तथा आयातों की संरचना को देखते हुए विकासशील देशों की सरकारें आयात माँग को सीमित कर भुगतान समस्या को सुलझाने के प्रयासों हेतु अधिक उत्सुक नहीं होती ।
इसका कारण आयातों की ऐसी संरचना है जिसका अत्यन्त सीमित भाग ही अनावश्यक ठहराया जा सकता है । प्राप्तियों के सापेक्ष भुगतान की अधिकता, समस्या को तब और गम्भीर बना देती है, जब निर्यात प्राप्तियाँ सीमित हों ।
(5) भुगतान संतुलन के घाटे की दीर्घकालीन प्रवृति को समायोजित करने में विदेशी विनिमय कोष अवलम्ब का कार्य करते है । विकासशील देश विकसित देशों की तुलना में भुगतान सन्तुलन के घाटी से अधिक पीडित रहने के साथ ही बाह्य वित्त या विदेशी विनिमय की अधिक मात्रा जुटा पाते है । एक समूह के रूप भी उनके कोष उनके द्वारा किये जाने वाले बाह्य लेन-देनों की तुलना में विकसित देशों के सापेक्ष कम ही होते है ।
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चालू खाते के लेन-देनों की दृढ प्रवृति को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि जिस सुविधा से एक देश अपने बाह्य लेन-देनों को कोषों के सन्तुलन को बनाए रखने के लिए समायोजित कर लेगा, असन्तुलन को उत्पन्न करने वाली शक्तियाँ उतनी ही सीमित होंगी ।
आयात वस्तुओं की कीमतों में होने वाली वृद्धि तथा अन्तर्राष्ट्रीय माँग में होने वाली कमी से असन्तुलन उत्पन्न करने वाली गतियों को तीव्र किया है । चालू खाते के लेन-देनों की दृढ प्रवृति को देखते हुए यह स्पष्ट होता है कि जिस सुविधा से एक देश अपने लेन-देनों को कोषों को सन्तुलन को बनाए रखने के लिए समायोजित कर लेगा असन्तुलन को उत्पन्न करने वाली शक्तियाँ उतनी ही सीमित होंगी । आयात वस्तुओं की कीमतों में होने वाली वृद्धि तथा अन्तर्राष्ट्रीय माँग में होने वाली कमी ने असन्तुलन उत्पन्न करने वाली गतियों को तीव्र किया है ।
विकासशील देशों में चालू खाते के भुगतान व प्राप्तियों को समायोजित करने की कुशलता रखने वाले घटक मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किए जा सकते हैं:
(a) पहला, वस्तु व सेवाओं का आयात है । सामान्यत: विकासशील देशों के आयात अपनी उत्पादन आवश्यकताओं के निमित्त होते है ।
(b) दूसरा महत्वपूर्ण घटक विकासशील देशों की उन भारी भुगतान मदों से सम्बन्धित है जो साधन भुगतान में आते हैं । यह वह स्थिर दायित्व है जो भूतकालीन पूँजीगत प्राप्तियों के परिणामस्वरूप प्राप्त होते हैं । सामान्यतः साधन भुगतानों में होने वाली कमी भविष्य में होने वाले बाह्य पूजी के अर्न्तप्रवाह पर प्रत्यावर्तन प्रभावों को उत्पन्न कर सकती है ।
(c) तीसरा, विकासशील देशों की निर्यात प्राप्तियों के बढ पाने की सम्भावनाएँ उनके निर्यात उत्पादनों की बेलोच माँग से विपरीत रूप से प्रभावित होती हैं । इनके साथ ही पूर्ति सम्बन्धी अनेक समस्याएँ भी उत्पन्न होती हैं ।
(6) निर्धन देशों की भुगतान सम्बन्धी समस्याएँ पहले तो इन अर्थव्यवस्थाओं की कृषि प्रधान संरचना से प्रभावित होती है । निर्यात कीमतों का आयात कीमतों की तुलना में दीर्घकाल तक गिरावट प्रदर्शित करना विदेशी ऋणों व विदेशी सहायता पर निर्भरता का सूचक है ।
(7) विकासशील देशों की बाह्य पूंजी प्राप्तियों एवं ऋण सेवा दायित्वों की प्रवृतियों यह स्पष्ट करती है कि इन देशों में ऋणों का बोझ बढ़ता जा रहा है बकाया ऋणों व ऋण सेवा दायित्वों में तीव्र वृद्धि हुई है । साथ ही बाल पूंजी के अप्रवाह अब धीमी गति से बढ रहे हैं एवं विकसित देशों द्वारा कठोर शर्तों पर ऋण प्रदान किए जा रहे हैं ।
(8) कम विकसित एवं विकासशील देशों की समायोजन सम्बन्धी समस्याएं अल्प या दीर्घ समय अवधि तक जारी रहने वाली व्यापार बाधाओं से प्रभावित होती है । गुन्नार मिर्डल के अनुसार कम विकसित देशों में भुगतान सम्बन्धी समस्याओं की व्याख्या करते हुए अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के सिद्धान्त की उस संकल्पना को ध्यान में रखना आवश्यक है जिसके अनुसार व्यापार होने पर विभिन्न देशों के मध्य धीरे-धीरे आय की समानता स्थापित होगी ।
इस सिद्धान्त के साथ जो मान्यताएं जुडी थीं वह अव्यावहारिक व अनुभव के विपरीत थीं । अमूर्त तार्किकता के इस प्रभावी ढांचे व प्रायः विपरीत उद्देश्य था-अन्तर्राष्ट्रीय समानता की समस्या को टाल जाना । अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के इस पूर्वाग्रह ग्रस्त दृष्टिकोण एवं इसके हितों की समानता, अबन्ध नीति एवं स्वतन्त्र व्यापार के अनुरूप ही कम विकसित देशों की व्यापार समस्या पर विचार किया गया ।
मिरडल के अनुसार औपनिवेशिक शक्तियों ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को कम विकसित देशों के शोषण का साधन बनाया । औपनिवेशिक चंगुल से छूट कर राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् भी अधिकांश कम विकसित देशों के व्यापार में गुणात्मक वृद्धि नहीं हो पायी कम विकसित देशों के सम्मुख निर्मित वस्तुओं के निर्यात में विकसित देशों की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा थी तो दूसरी तरफ अपने देश में कुशल प्रबन्धकों, तकनीशियनों व श्रमिक पूंजी व व्यापारिक क्षमता के अभाव के कारण उच्च कोटि की वस्तु व सेवाओं के उत्पादन की अनुभवहीनता संरचनात्मक असन्तुलन उत्पन्न करने की उत्तरदायी रही ।
विकासशील देशों में समायोजन सम्बन्धी समस्याओं के निवारणार्थ निज उपायों को ध्यान में रखा जाता है:
(I) विनिमय दर उपाय तथा वाणिज्यिक नीतियाँ व्यापार में सम्मिलित वस्तु व सेवाओं से व्यापार में सम्मिलित न होने वाली वस्तु व सेवाओं की ओर व्यय को विवर्तित करने की शक्ति व क्षमता रखती हैं, जबकि मौद्रिक व राजकोषीय नीतियां कुल घरेलू व्यय व उत्पादन को सीमित करती है ।
विनिमय दर एवं वाणिज्यिक नीतियाँ सामान्य रूप से व्यय में कमी करेंगी तथा व्यय में कमी करने वाले अन्य उपायों की प्रभावशीलता में वृद्धि करेगी । यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि इन देशों की सरकारें समायोजन के सम्पूर्ण भार को किसी एक नीति यन्त्र से सम्बन्धित नहीं करतीं वरन् सुधार के अन्य उपायों पर भी आश्रित होती हैं ।
(II) सैद्धान्तिक रूप से वित्तीय उपायों के अन्तर्गत दीर्घ एवं अल्प अवधि के अप्रवाह चालू खाते को समजित कर सकते हैं । विभिन्न रूपों में प्राप्त होने वाले वित्त की उपलब्धि तथा इसको प्राप्त करने से जुडी शर्तें समायोजन पर प्रभाव डालती है ।
आयात अतिरेक को वित्त प्रदान करने में सामान्यत: दीर्घकालीन विनियोग वित्त व विकास अनुदान सहायक होते हैं । परन्तु यदि आयात अतिरेक में वृद्धि होती है तो इसमें तुरन्त वृद्धि कर पाना सम्भव नहीं होता । दूसरी तरफ अल्पकालीन एवं मध्यकालीन बाह्य वित्त एक देश के बाह्य भुगतान में होने वाले किसी भी परिवर्तन से तुरन्त प्रभावित व परिवर्तित हो सकता है ।
(III) बाह्य वित्त के अधीन दीर्घ अवधि विनियोग वित्त जिसमें सरकारी सहायता, क्राग व विकास अनुदान, विदेशी निजी विनियोग व वाणिज्यिक ऋण को सम्मिलित किया जाता है । साथ ही अविशिष्ट वित्त सुविधाओं, साख सुविधा, ऋण पुर्नवित्त व निर्यात पक्ष की समस्याओं को दूर करने हेतु विशेष उपाय भी ध्यान में रखे जाते हैं ।
दीर्घकालीन एवं मध्यमकालीन वित्त के अधीन दीर्घकालीन निजी विनियोग अन्तर्राष्ट्रीय सहायता व वाणिज्यिक ऋण सम्मिलित होते हैं । हालांकि आन्तरिक समायोजन व भुगतान समस्याओं को दूर करने के लिए दीर्घ व मध्यमकालीन वित्त की उपादेयता के कई तत्त्व सीमित होते है । फिर भी समायोजन हेतु इनका व्यापक उपयोग होता है ।
(IV) अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी विकास सहायता के अधीन सरकार व बहुपक्षीय संस्थाओं द्वारा आर्थिक विकास में सहायता पहुँचाने के लिए छूट सहित व आसान शर्तों वाले ऋण व अनुदान सम्मिलित होते है । सरकारी स्तर पर प्रदान की जाने वाली सहायता सामान्यतः कम विकसित देशों की दीर्घकालीन विकास आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए दी जाती है ।
कम विकसित देश विदेशी सहायता को अपने कुल साधनों में वृद्धि के उपाय के रूप में देखते है । सहायता प्रदान करने वाला देश इसे विनियोग वित्त के रूप में लेता है । विकसित देश कम विकसित देशों को सहायता प्रदान करते समय ऐसी दशाएं भी आरोपित करते हैं जिनसे उनके किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सके । वस्तुतः विकसित देशों द्वारा कम विकसित देशों को प्राप्त होने वाली सहायता की राशि में वृद्धि कम होती जा रही है ।
(V) किसी देश द्वारा विदेशी विनिमय कोषों को जमा किये जाने के पीछे मुख्यतः तीन कारण है । पहला, भुगतानों को वित्तीय रूप से क्रियाशील करने में नकद प्रवाहों की समस्याओं से निबटने के लिए इन्हें तरल रूप में रखा जाता है ।
दूसरा, भुगतान की अस्थायी कठिनाइयों से बचने के लिए कोषों का उपलब्ध रहना आवश्यक है, क्योंकि इनके द्वारा ऐसी दशा में जब अन्य उपायों को लागू करना सम्भव न हो, समायोजन करना सरल हो जाता है ।
तीसरा कोषों के उपलब्ध होने पर देश आर्थिक नीति निर्धारण में अधिक स्वतन्त्रता का अनुभव करते है तथा भुगतान के घाटी को पूरा करने के लिए बाह्य सहायता पर ही निर्भर नहीं करते ।
कम विकसित देशों में कोषों के यत्नपूर्वक प्रबन्ध की आवश्यकता बढ़ती जा रही है । इन देशों में ऐसे प्रबन्ध प्रशासनिक दुर्बलताओं, तकनीकी कौशल में कमी व वित्तीय केन्द्रों से उपयुक्त तालमेल व सम्प्रेषण के अभाव में अधिक कठिन बन जाते है ।
कम विकसित व विकासशील देशों के अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि विकसित देश उन पर ऐसे दबाव डालते हैं जिससे उनकी अर्थव्यवस्थाएँ व्यापार की वृद्धि के समुचित अवसर नहीं जुटा पाती ।
वह आर्थिक विकास हेतु विकसित देशों पर निर्भर हैं व इस उद्देश्य हेतु उन्हें पूंजी की पूर्ति, मध्यवर्ती वस्तु, तकनीकी जान व अन्य आवश्यक आयातों की प्राप्ति अनिवार्यत करनी पड़ती है । कम विकसित देश यह अनुभव करते हैं कि उनके निर्यात विकसित देशों के बाजारों में उचित कीमत प्राप्त नहीं कर पाते ।
प्रायः विकसित देश उनके निर्यातों पर उच्च व संरक्षणात्मक प्रशुल्क की दरें आरोपित करते हैं । इसके साथ ही विनिमय नियन्त्रण, करेन्सी अवमूल्यन, पूँजी प्रवाह के प्रतिबन्धों, आयात कोटा के द्वारा निर्यातों को सीमित करने का प्रयास किया जाता है । कम विकसित देशों की मुख्य समस्या अन्तर्संरचनात्मक ढाँचे के सुधार की है जिसके लिए उन्हें अधिक पूँजीगत आयातों पर निर्भर रहना पड़ता है ।
विकसित देश उच्च तकनीक युक्त पूंजीगत आयातों का मनमाना मूल्य लेते हैं । आयातों की अपेक्षा निर्यातों का कम मूल्य प्राप्त होना भुगतान सन्तुलन के असमायोजन का कारण बनता है । उनके सम्मुख तरलता की समस्या सदैव बनी रहती है ।