भुगतान के संतुलन के सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about the three main theories of balance of payments. The theories are:- 1. प्रतिष्ठित सिद्धान्त (Classical Theory) 2. आय सिद्धान्त (Income Theory) 3. प्रदर्शन प्रभाव सिद्धान्त (Demonstration Effect Theory).
भुगतान सन्तुलन समायोजन हेतु सामान्यतः निम्न सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाता है:
(1) प्रतिष्ठित सिद्धान्त ।
(2) आय सिद्धान्त ।
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(3) प्रदर्शन प्रभाव सिद्धान्त ।
(1) प्रतिष्ठित सिद्धान्त (Classical Theory):
प्रतिष्ठित सिद्धान्त सापेक्षिक लागतों व कीमतों के द्वारा भुगतान संतुलन के असाम्य को स्पष्ट करता है । इस सिद्धान्त के अनुरूप यदि किसी देश में शेष विश्व के सापेक्ष लागत व कीमतें अधिक हों तो प्रतिकूल भुगतान सन्तुलन की सम्भावना होगी ।
यह निष्कर्ष इस मान्यता पर आधारित है कि घरेलू एवं विदेशी वस्तुओं के मध्य प्रतिस्थापनीयता की काफी अधिक सम्भावना है । अतः घरेलू रूप से महँगी वस्तुओं की माँग सस्ती विदेशी वस्तुओं द्वारा प्रतिस्थापित होती है ।
प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री यह मानते थे कि भुगतान सन्तुलन की असाम्यता स्वयं सन्तुलित होने की प्रवृति रखती है । यदि घरेलू कीमत स्तर अन्तर्राष्ट्रीय कीमत स्तर से अधिक हो तो आयात प्रोत्साहित व निर्यात हतोत्साहित होंगे । जब आयात प्रोत्साहित होते है तथा निर्यातों की मात्रा में कमी होती है तो स्वर्ण का बर्हिप्रवाह होगा व विदेशी विनिमय कोष कम होंगे ।
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इस दशा में मौद्रिक अधिकारी मुद्रा की पूर्ति कम करेंगे, जबकि यह माना जा रहा हो कि मौद्रिक पूर्ति स्वर्ण कोषों व विदेशी विनिमय कोषों द्वारा नियमित होती है । इसी प्रकार बैंक कोषों में होने वाली जिसके अधीन घरेलू रूप से विधि ग्राह्य मुद्रा स्वर्ण व विदेशी विनिमय समाहित है पर साख की पूर्ति के संकुचन का प्रभाव पड़ेगा ।
मुद्रा रख साख की पूर्ति में होने वाला संकुचन, असन्तुलन को दो प्रकार से सुधारेगा । पहला इससे घरेलू कीमत स्तर कम होगा जो निर्यातों को प्रोत्साहित कर आयातों को हतोत्साहित करेगा । दूसरा मुद्रा व साख की पूर्ति में होने वाला संकुचन ब्याज की घरेलू दर को बढाएगा जिससे पूँजी का अर्न्तप्रवाह अधिक होगा तथा बर्हिप्रवाह कम होगा । अतिरेक प्राप्त करने वाले देश में ठीक विपरीत स्थिति देखी जाएगी ।
जब कोषों की मात्रा में वृद्धि होती है तथा बैंकों द्वारा मुद्रा एवं साख की अधिक पूर्ति की जाती है तब कीमत स्तर बढ़ेगा व ब्याज की दर में कमी होती है । कीमत स्तर में वृद्धि से आयात प्रोत्साहित व आयात हतोत्साहित होते है । ब्याज की दर कम होने पर पूंजी का अप्रवाह हतोत्साहित व बर्हिप्रवाह प्रोत्साहित होता है । इस प्रकार भुगतान सन्तुलन की असाम्यावस्था स्वचालित रूप से सुधरने की प्रवृति रखती है ।
प्रतिष्ठित सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन करते हुए हम पाते हैं कि यह सिद्धान्त:
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(i) पूर्ण प्रतियोगिता की अविश्वसनीय मान्यता पर आधारित है ।
(ii) यह केवल एक चर यथा सापेक्षिक कीमत को ध्यान में रखता है तथा अन्य चरों; जैसे आए उत्पादन, स्टॉक, पूँजीगति में होने वाले परिवर्तनों को ध्यान में नहीं रखता ।
(iii) यह सिद्धान्त स्वतंत्र बाजार के अस्तित्व को ध्यान में नहीं रखता । राजकीय हस्तक्षेप की अनुपस्थिति में सापेक्षिक कीमतें निर्यातों एवं मात्रा तथा संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है ।
व्यावहारिक स्थितियों का अवलोकन करते हुए हम पाते हैं कि आर्थिक नियोजन के द्वारा आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के प्रयास में राजकीय हस्तक्षेप स्वाभाविक रूप से बढ़ा है जिसका प्रभाव अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर पड़ता है । उदाहरणार्थ, विकासशील देशों में सरकार विलासिता व अनावश्यक उपभोग की वस्तुओं के आयात पर रोक लगा सकती है व उन वस्तुओं के निर्यात की अनुमति नहीं देती जो घरेलू उपभोग हेतु आवश्यक हैं ।
(iv) स्वचालित समायोजना की प्रक्रिया इस परिकल्पना पर आधारित है की उत्पादन के सभी साधन पूर्ण रूप से लगे हैं तथा मुद्रा एवं साख में होने वाला कोई भी परिवर्तन आय उत्पादन एवं रोजगार परिवर्तन कर सकता है । चूंकि इस सिद्धान्त में केवल कीमतों में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखा गया है अतः इस सिद्धान्त की विश्वसनीयता पर सन्देह होना स्वाभाविक है ।
(v) प्रतिष्ठित सिद्धान्त में यह सकल्पना की गई है कि देश में मुद्रा व साख की घरेलू पूर्ति में परिवर्तन करते हुए कीमत स्तर को स्वर्ण व विदेशी विनिमय कोषों में परिवर्तन करते हुए, कीमत स्तर को स्वर्ण व विदेशी विनिमय कोषों में परिवर्तन के प्रत्युतर द्वारा प्रभावित किया जा सकता है ।
परन्तु यह तब ही सम्भव है, जबकि स्वर्णमान प्रणाली विद्यमान हो । प्रबन्धित करेन्सियों की प्रणाली में स्वर्ण व विदेशी विनिमय कोषों में परिवर्तन करते हुए कीमत स्तर को स्वर्ण व विदेशी विनिमय कोषों में परिवर्तन के प्रत्युत्तर द्वारा प्रभावित किया जा सकता है ।
परन्तु यह तब ही सम्भव है, जबकि स्वर्णमान प्रणाली विद्यमान हो । प्रबन्धित करेन्सियों की प्रणाली में स्वर्ण व विदेशी विनिमय कोषों के परिवर्तन से मुद्रा एवं साख की पूर्ति पर एवं इसके परिणामस्वरूप कीमत स्तर या ब्याज की दर पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता ।
(2) आय सिद्धान्त (Income Theory):
आय सिद्धान्त भुगतान सन्तुलन असाम्य को प्रतिष्ठित विश्लेषण की भाँति सापेक्षिक लागत व कीमतों के अन्तर द्वारा नहीं समझाता बल्कि विभिन्न देशों में आय के सापेक्षिक परिवर्तनों द्वारा स्पष्ट करता है ।
इस सिद्धान्त के अनुसार एक देश अपने भुगतान सन्तुलन में घाटे या प्रतिकूलता का अनुभव तब करेगा, जबकि इस देश में आय की वृद्धि दर व्यापार के साथ ही अन्य देशों में होने वाली आय वृद्धि दर से अधिक हो ।
यदि आयातों को आय का फलन माना जाये तो उस देश के आयातों में अधिक वृद्धि होगी जहाँ आय में सापेक्षिक रूप से तीव्र हो रही है । इसके परिणामस्वरूप इस देश के भुगतान सन्तुलन में असाम्य उत्पन्न हो जाता है ।
यह सिद्धान्त इस संकल्पना पर आधारित है कि सभी देशों में आयात की सीमान्त प्रवृति समान होती है । यदि सभी देशों में आयात की सीमान्त प्रवृति समान न हो तो एक देश की आय में होने वाली वृद्धि भुगतान सन्तुलन में असाम्य उत्पन्न नहीं करेगी ।
उदाहरणार्थ, यदि आयातों की सीमान्त प्रवृति A देश में B से कम हो तो A देश में B देश की तुलना में होने वाली आय की वृद्धि A देश के भुगतान सन्तुलन में घाटा उत्पन्न नहीं करेगी । इसी प्रकार असन्तुलन तब उत्पन्न होता है जब दोनों देशों की आयात की सीमान्त प्रवृतियों में अन्तर हो एवं दोनों देशों में आय की वृद्धि दर समरूप हो ।
वस्तुत: आयात की सीमान्त प्रवृतियाँ अपात्र नहीं होती एवं यह प्रत्येक देश में भिन्न होती हैं । उदाहरणार्थ, आयात की सीमान्त प्रवृति एक ऐसे देश में अत्यन्त अल्प होगी जहाँ प्राकृतिक साधनों की बहुलता हो, खाद्यान्न उत्पादन काफी अधिक हों व उपभोक्ता वस्तु उद्योगों व पूँजी की अधिकता हो । दूसरी तरफ ऐसे देश में जहाँ कृषिगत कच्चे संसाधन, खनिज संसाधन, निर्माण एवं पूंजीगत वस्तुओं की कमी हो आयात की सीमान्त प्रवृति अधिक होती है ।
भुगतान सनुलन के आय सिद्धान्त में यह माना जाता है कि असाम्य की प्रकृति स्वत: समायोजित होने वाली होती है । माना A व B देशों के मध्य व्यापार होता है ।
कुछ स्वायत्त घटकों की उपस्थिति के कारण यदि A देश B देश से अधिक आयात करता है तो देश में आयातों के बढ़ने से उसका भुगतान सन्तुलन प्रतिकूल हो जाता है । चूंकि A देश के आयात B देश द्वारा किये गये हैं अत: यदि A देश के निर्यात बढ़ते है । तो इससे तात्पर्य है कि देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि होगी । अत: A देश अधिक आयात करेगा । यह प्रक्रिया स्वतः सन्तुलन प्रवृति रखती है ।
(3) प्रदर्शन प्रभाव सिद्धान्त (Demonstration Effect Theory):
सन्तुलन के प्रदर्शन प्रभाव सिद्धान्त की व्याख्या प्रो॰ रागनर नकर्से ने अपने अध्ययन Problems of Capital Formation in Underdeveloped Countries (1962) में की । इस सिद्धान्त के अनुसार निर्धन देशों की तुलना में समृद्ध देशों की आय में अपेक्षाकृत तेजी से वृद्धि होती है । फलत: समृद्ध देशों में जीवन-स्तर सापेक्षिक रूप से उच्च होता है ।
संवादवहन एवं यातायात के साधनों में वृद्धि होने से समृद्ध देशों के अपेक्षाकृत उच्च जीवन स्तर का ज्ञान निर्धन देश के निवासियों को रहता है एवं उनका प्रयास रहता है कि वह भी उच्च जीवन-स्तर की प्राप्ति करें । अतः समृद्ध देशों के उच्च उपभोग का प्रदर्शन प्रभाव निर्धन देशों पर पड़ता है ।
निर्धन देशों में भी अधिक उपभोग की प्रवृति होती है जिससे उनकी आयात प्रवृति बढ़ती है । आयातों के निर्यातों से अधिक होने पर भुगतान सन्तुलन असमायोजित होते है । प्रदर्शन प्रभाव सिद्धान्त असन्तुलन का कारण केवल बड़े हुए आयातों द्वारा सम्भव बनता है । यह नियति पक्ष पर ध्यान नहीं देता ।
इस सिद्धान्त में यह संकल्पना ली गई है कि एक देश के जीवन-स्तर व भुगतान सन्तुलन के मध्य विपरीत सम्बन्ध होता है । इस सिद्धान्त के अनुसार सामान्यतः समृद्ध देशों का भुगतान सन्तुलन अनुकूल होता है तथा निर्धन या कम विकसित देशों का भुगतान सन्तुलन विपरीत होता है किन्तु यह तथ्य वास्तविकता के विपरीत है ।
इस विश्लेषण में प्रदर्शन प्रभाव के विपरीत प्रभावों को ध्यान में रखा गया है, जबकि अनुकूल प्रभाव भी भुगतान सन्तुलन पर पडते है । उदाहरणार्थ, कम विकसित देशों में प्रदर्शन प्रभाव केवल उपभोग संरचना को बढ़ाने में सहायक नहीं होता बल्कि विकसित देशों की उत्पादक तकनीक का अनुसरण करने की प्रेरणा भी देता है जिससे कम विकसित देशों में उत्पादन बढ़ता है तथा लागतें कम होती है । निश्चय ही इस प्रवृति का भुगतान सन्तुलन पर अनुकूल प्रभाव पडता है ।
प्रदर्शन प्रभाव सिद्धान्त उन विकासशील देशों पर सफलतापूर्वक लागू नहीं हो सकता जहाँ? विनिमय नियन्त्रण लागू किया गया हो तथा अनावश्यक व विलासिता की उपयोग वस्तुओं पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है ।