आर्थिक विकास में पूंजी निर्माण का महत्व | Read this article in Hindi to learn about the importance of capital formation in economic development.

पूंजी उत्पादन की प्रक्रिया में मनुष्य निर्मित साधन । अत: इसकी पूर्ति मानव प्रयासों द्वारा बढ़ाया जा सकता है व इसकी गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है । इस अर्थ में पूंजी उत्पादन के अन्य साधनों से भिन्न हो जाती है जिनकी पूर्ति को आसानी से बदला जाना सम्भव नहीं होता ।

जब पूंजी निर्माण की एक उच्च दर को प्राप्त किया जाता है तब पूंजी वस्तुओं के स्टाक तथा मशीन, यन्त्र व उपकरण, संयन्त्र इत्यादि के स्टाक में वृद्धि होती है । इससे अर्थव्यवस्था अधिक उत्पादन करने में समर्थ होती है । अत: राष्ट्रीय आय व रोजगार बढ़ता है ।

केयरनक्रास ने अपने अध्ययन “The Place of Capital in Economic Progress” लिखा कि आर्थिक विकास में पूंजी का योगदान अतिरिक्त पूंजी परिसम्पत्तियों के सृजन तक ही सीमित नहीं है ।

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यह तीन विभिन्न प्रक्रियाओं में समाहित करता है:

(1) पूंजी की अधिकता उत्पादन की नवीनतम विधियों को प्रस्तावित करती है इससे उत्पादन बढता है तथा उत्पादन की लागतों में कमी होती है 1

(2) पूंजी संचय आर्थिक विस्तार का एक सामान्य लक्षण है । इसके अधीन उत्पादन की संरचना में फैलाव एवं विविधीकरण सम्भव होता है ।

यह प्रक्रिया निम्न दशाओं के अन्तर्गत सम्भव बनती है:

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(अ) औद्योगीकरण का बढ़ना ।

(ब) उद्योगों के मध्य सन्तुलन में परिवर्तन जिससे पूंजी हेतु अतिरिक्त माँग उत्पन्न होती है ।

(स) बाजार का विस्तार होना जो जनसंख्या में होने वाली वृद्धि से सम्बन्धित है ।

(द) व्यापार की शती का अनुकूल होना ।

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(य) अतिरिक्त प्राकृतिक संसाधनों की खोज ।

तकनीकी प्रगति को सम्भव बनाने के लिए अतिरिक्त पूंजी की आवश्यकता होती है । आर्थिक विकास के सिद्धान्तों में पूंजी के महत्व पर काफी प्रकाश डाला गया है तथा इसे एक महत्वपूर्ण कारक बताया गया है । रागनर नर्क्से ने स्पष्ट किया कि अविकसित देशों में निर्धनता के विषम दुश्चक्र को पूंजी निर्माण की सहायता से खण्डित किया जा सकता है । इन देशों में आय के निम्न स्तर के कारण माँग उत्पादन, आय व विनियोग अल्प होता है ।

प्रो॰ पाल एलबर्ट ने कहा कि विनियोग हेतु यदि घरेलू बचतें अपर्याप्त हैं तो यह आर्थिक विकास हेतु बाधा का कार्य करेंगी । यह देखा गया है विश्व में आर्थिक विकास की उच्च दरें प्राप्त करने में वह देश सफल रहे जहाँ उत्पादन हेतु विनियोग का निर्धारित अनुपात सापेक्षिक रूप से उच्च रहा ।

विकासशील देशों की सबसे बड़ी आवश्यकता प्रति व्यक्ति पूंजी की मात्रा में होने वाली वृद्धि की है । आर्थर लेविस के अनुसार इन देशों में तीव्र आर्थिक विकास तीव्र पूंजी निर्माण द्वारा सम्भव है जिसमें पूंजी के साथ ज्ञान एवं कुशलता को भी शामिल किया गया है । आर्थर लेविस ने पूंजी निर्माण को आर्थिक विकास की केन्द्रीय समस्या कहा ।

लेविस के अनुसार आर्थिक विकास की केन्द्रीय समस्या उस प्रक्रिया को समझना है जिसके अनुरूप एक समुदाय जो अपनी आय का 4 या 5 प्रतिशत बचत व विनियोग कर रहा है, अपनी अर्थव्यवस्था को ऐसे बदल देता है जहाँ स्वैच्छिक बचतें राष्ट्रीय आय की 12 से 15 प्रतिशत या उससे अधिक हो जाती है ।

इसे केन्द्रीय समस्या इस कारण कहा गया, क्योंकि आर्थिक विकास का मुख्य पक्ष तीव्र पूंजी संचय है जिसमें पूंजी के साथ ज्ञान एवं कुशलता को भी शामिल किया गया है ।

प्रो॰ डी॰ एस॰ नाग ने आर्थिक विकास व पूंजी निर्माण की दर के साथ घनिष्ट सम्बन्ध व्यक्त करते हुए इसे निर्धन देशों के विकास की कुंजी बताया । प्रो॰ रोस्टोव का मत था कि यदि राष्ट्रीय आय के दस प्रतिशत से अधिक मात्रा में पूंजी संचय किया जाये तो यह विकास को स्वयं स्फूर्ति की अवस्था में पहुँचाने की पूर्व दशा उत्पन्न करता है । औस्कर लांगे के अनुसार यदि अर्द्धविकसित देशों में पूर्ण रोजगार स्तर प्राप्त करना हो तब पूंजीगत वस्तुओं की मात्रा में वृद्धि आवश्यक है ।

उपर्युक्त विवेचन के उपरान्त आर्थिक विकास में पूंजी निर्माण के महत्व को निम्नांकित बिन्दुओं के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

(1) पूंजी निर्माण एवं उत्पादकता की वृद्धि:

पूंजी निर्माण के द्वारा उत्पादकता क्षमता बढ़ती है । यह वृद्धि वर्तमान आय के उस अनुपात पर निर्भर करती है जिसे बचत व विनियोग के रूप में बदला जा रहा है । एक देश में जितना अधिक पूंजी संचय होगा उसकी विनियोग क्षमता उतनी ही अधिक होगी ।

पूंजी संचय द्वारा- (i) उत्पादन की जटिल विधियों का प्रयोग सम्भव होता है । (ii) उत्पादन में विशिष्टीकरण एवं बड़े पैमाने का उत्पादन सम्भव बनता है । (iii) पूंजी का गहन उपयोग व पूंजी का विस्तार सम्भव होता है । (iv) पूंजी निर्माण से आर्थिक व सामाजिक उपरिमद पूंजी की प्राप्ति होती है जिससे बाजार की अपूर्णताएँ दूर होती हैं । (v) पूंजी निर्माण पूंजी की मात्रा में वृद्धि करके पूंजी की गहनता एवं पूंजी के विस्तार को सम्भव बनाता है ।

(2) पूंजी निर्माण एवं रोजगार के अवसरों में वृद्धि:

क्रम विकसित देशों में जहाँ जनसंख्या अधिक हो वहाँ प्रति व्यक्ति उत्पादन की वृद्धि पूंजी-श्रम अनुपात की वृद्धि से सम्भव होती है । यदि यह देश पूंजी-श्रम अनुपात को बढाना चाहें तो मुख्य समस्या यह आती है कि जनवृद्धि के साथ-साथ पूंजी-श्रम अनुपात गिरता है इससे सीमित करने के लिए काफी अधिक मात्रा में शुद्ध विनियोग करने पडेंगे । अतः पूंजी निर्माण द्वारा उत्पादन के साथ रोजगार वृद्धि के प्रयास किये जाते है ।

(3) पूंजी निर्माण एवं तकनीकी प्रगति:

कम विकसित देशों में तकनीकी प्रगति की प्रस्तावना पूंजीगत संसाधनों की वृद्धि के द्वारा लाई जाती है । इन देशों में पूंजी का अभाव मुख्य समस्या है । अतः पूंजी गहन तकनीक को प्रारम्भ में अपनाया जाना व्यावहारिक नहीं होता । प्रो॰ शूमाखर ने मध्यवर्ती तकनीक को अल्पविकसित देशों के विकास हेतु बेहतर एवं कारगर उपाय बताया है ।

(4) मानवीय पूंजी का निर्माण:

मानवीय पूंजी से तात्पर्य है-शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा एवं समाज कल्याण की सेवाओं में किया विनियोग । प्रो॰ साइमन कुजनेट्‌स के अनुसार मुख्य पूंजी स्टाक व्यक्तियों को प्रशिक्षण, चरित्र एवं कार्यकुशलता है । इसमें किये गये विनियोग से श्रम की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है । वास्तव में आर्थिक विकास की प्रक्रिया को गतिशील करने में गुणात्मक घटकों का बहुमूल्य योगदान होता है ।

(5) आर्थिक कल्याण में वृद्धि:

पूंजी निर्माण के द्वारा देश के प्राकृतिक व मानव संसाधनों का अधिक दोहन सम्भव होता है । इससे उत्पादकता बढ़ती है । जनता वस्तु व सेवाओं की बढती हुई मात्रा व विविध किस्मों का उपभोग कर सकती है । उनकी विविध आवश्यकताएँ सन्तुष्ट होती है । उपभोग क्षमता में होने वाली वृद्धि से व्यक्तियों का जीवन-स्तर बढ़ता है तथा आर्थिक कल्याण सम्भव होता है ।

(6) मुद्रा प्रसारिक दबावों को सीमित करना:

पूंजी निर्माण द्वारा उत्पादन में वृद्धि सम्भव होती है जिससे आय बढ़ती है । आय की वृद्धि वस्तुओं की माँग बढ़ाती है । अल्पकाल में पूर्ति के अनुकूल माँग बढाती सम्भव नहीं होती लेकिन विनियोगों के समुचित प्रवाह द्वारा कुछ समय के बाद पूर्ति में वृद्धि होती है । अल्पविकसित देशों में ऐसी परियोजनाओं पर विनियोग किया जाना चाहिए जो अल्प अवधि में उत्पादन करने में समर्थ हों तथा अधिक जनशक्ति को रोजगार प्रदान करें । इससे मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न नहीं होते व अर्थव्यवस्था में आन्तरिक स्थायित्व सम्भव बनता है ।

(7) भुगतान सन्तुलन के असमायोजन का निराकरण:

कम विकसित देश प्रायः भुगतान सन्तुलन के असाम्य से पीड़ित रहते है । इसका कारण निर्यातों के सापेक्ष आयात का अधिक होना है । भुगतान सन्तुलन समायोजन हेतु निर्यातों में वृद्धि आवश्यक है जिसके लिए घरेलू उत्पादन में वृद्धि करनी होगी । दूसरी ओर आयात प्रतिस्थापन उद्योगों की स्थापना के द्वारा निर्मित व अर्द्धनिर्मित वस्तुओं के आयात में कमी की जानी सम्भव होती है । पूंजी गहन व पूंजी विस्तार तकनीक के प्रयोग द्वारा उत्पादन में यथेष्ट वृद्धि सम्भव बनती है ।

संक्षेप में पूंजी निर्माण विकास की प्रक्रिया में दोहरी भूमिका का निर्वाह करता है । (1) अर्थव्यवस्था में प्रभावपूर्ण माँग बढाना तथा (2) उत्पादन क्षमता का सृजन करना । इस कारण अर्द्धविकसित देशों की जटिल समस्याओं के निराकरण में पूंजी निर्माण सर्वाधिक महत्व रखता है ।

समीक्षा:

पूंजी आर्थिक वृद्धि की दरों में उल्लेखीय वृद्धि करती है परन्तु यह विकास का एकमात्र निर्धारक नहीं है । रागनर नर्क्से के अनुसार आर्थिक विकास का मानवीय संसाधनों, सामाजिक दृष्टिकोण, राजनीतिक दशाओं व एतिहासिक घटनाओं के साथ गहरा सम्बन्ध है । विकास के लिए पूंजी आवश्यक है परन्तु एकमात्र शर्त नहीं । डी॰ ब्राइट सिंह ने स्पष्ट किया कि आर्थिक विकास में पूंजी बेर योगदान की व्याख्या करते हुए अन्य घटकों के महत्व को भुलाया नहीं जाना चाहिए ।

मोसेस अबरामोटविटज् एवं रोबर्ट सोलोव के द्वारा किए गए अध्ययन भी पूंजी के साथ घटकों के सापेक्षिक महत्व को सूचित करते है जिनमें तकनीकी प्रगति के साथ-साथ शिक्षा या मानवीय पूंजी में किया विनियोग प्रबन्धकीय क्षमता पैमाने की मितव्ययिता जैसे घटक मुख्य है ।

विकासशील देशों के सन्दर्भ में यह बात और अधिक सार्थक हो जाती है, क्योंकि वहाँ उत्पादन के साधनों की कमी, विद्यमान साधनों का समुचित उपयोग कर पाने की असमर्थता, बाजार की अपूर्णताएँ, श्रम व उत्पादन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण जैसे घटक प्रभावी रहते है । ऐसे में मात्र पूंजी के द्वारा विकास की गति को बढ़ाया जाना सम्भव नहीं बनता ।