पूंजी निर्माण के चरण | Read this article in Hindi to learn about the three main stages of capital formation. The stages are:- 1. बचत की अवस्था (Situation of Saving) 2. बचत की गतिशीलता (Mobilization of Savings) 3. विनियोग की अवस्था (The Stage of Investment).
पूंजी निर्माण की प्रक्रिया मुख्यतः निम्न तीन अवस्थाओं से सम्बन्धित हैं:
(1) बचत की अवस्था (Situation of Saving):
बचत व्यक्तियों व कम्पनियों की वर्तमान आय का वह भाग है जो उनके चालू व्यय के उपरान्त शेष रह जाता है । आय का वह भाग जो उपभोग व्यय के बाद तथा कर अदा कर के बच जाता है उसे निजी बचत कहते है ।
बचत से अभिप्राय है उपभोग व्यय में कमी करना । बचत का विनियोग कर देश की वास्तविक पूंजी बढती है अतः बचत के परिणाम पर किसी देश की राष्ट्रीय आय व रोजगार निर्भर होते हैं ।
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किसी देश की बचत मुख्यतः- (i) परिवारिक बचत, (ii) व्यापारिक क्षेत्र की बचत, तथा (iii) सरकारी बचत से मिल कर प्राप्त होती है । पारिवारिक बचत से आशय परिवारों की आय एवं उपभोग का अन्तर है । व्यापारिक क्षेत्र की बचत व्यापार के लाभ में कर इत्यादि से प्राप्त होने वाली चालू आय में सरकारी चालू व्यय को घटाकर प्राप्त होती है । परिवार एवं व्यापारिक क्षेत्र की बचत निजी बचत तथा सरकारी बचतों को सार्वजनिक बचत कहते हैं ।
(अ) बचतों की मह्त्ता:
आर्थिक विकास हेतु आवश्यक है कि देश अपने संसाधनों के एक भाग को चालू उपभोग आवश्यकता से हटाकर पूंजी निर्माण की ओर लगाए । इस प्रकार चालू उपभोग संसाधनों का विवर्तन बचत कहलाता है ।
बचत ही वृद्धि का एकमात्र निर्धारक नहीं है लेकिन हैरोड-डोमर के अनुसार विकास हेतु महत्वपूर्ण घटक हैं । अर्थशास्त्री सामान्यतः इस बात पर सहमत है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में यथोचित वृद्धि हेतु GNP का 15 प्रतिशत बचतों के रूप में प्राप्त होना चाहिए ।
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बढ़ते हुए प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद की दशा में ही समाज में उपलब्ध संसाधनों का अधिक समर्थ प्रयोग सम्भव होगा । समाज की कुशलता में वृद्धि का एक तरीका यह है कि श्रम को अधिक पूंजी व यन्त्रों के साथ संयोजित किया जाये । अधिक पूंजी व यन्त्र प्राप्त करना इस बात पर निर्भर करता है कि समाज द्वारा कितना बचाया जा रहा है ?
विकास की प्रक्रिया में समाज द्वारा जितनी अधिक बचत की जाएगी उतनी अधिक वृद्धि दरें प्राप्त होंगी, क्योंकि श्रम को अधिक पूंजी प्राप्त होना सम्भव बनेगा ।
साइमन कुजनेट्स पाया कि अधिकांश विकसित देशों में अपने तीव्र वृद्धि काल में राष्ट्रीय आय का 10 से 20 प्रतिशत तक बचाया । दुर्भाग्य से कम विकसित देशों में बचत का औसत राष्ट्रीय आय के 5 से 10 प्रतिशत तक ही हो पाया है ।
(ब) कम विकसित देशों में बचतों की कमी (The Paucity of Saving in Less Developed Countries):
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विकसित देशों के सापेक्ष कम विकसित देशों में आय का स्तर निम्न होता है । अतः निरपेक्ष रूप से बचत भी कम होती है । साइमन कुजनेट्स के अनुसार कम विकसित देशों में राष्ट्रीय आय का 30 से 40 प्रतिशत भाग समृद्ध वर्ग के 5 प्रतिशत व्यक्तियों के हाथों में चला जाता है ।
यही वर्ग बचत की अधिक क्षमता रखता है । दूसरी ओर मध्य वर्ग अपनी आय के अल्प भाग को ही बचा पाते हैं तथा निर्धन वर्ग में बचत क्षमता अति अल्प या शून्य होती है । कम विकसित देशों में यह भी देखा गया है कि बचतों को अनुत्पादक क्रियाओं में लगा दिया जाता है ।
(स) कम विकसित देशों में बचत से सम्बन्धित समस्याएँ (Problems Related with Savings):
कम विकसित देशों में बचत से सम्बन्धित समस्याएँ मुख्यतः निम्न है:
(a) आन्तरिक बचत के उस स्तर को प्राप्त करना जो पूंजी संसाधनों के प्रवाह हेतु आवश्यक है ।
(b) बचत को उत्पादक विनियोग की ओर गतिशील करना ।
(a) आन्तरिक बचत की वृद्धि हेतु आवश्यक है कि उपभोग में यथा सम्भव कमी की जाये तथा दूसरी ओर उत्पादन एवं आय का स्तर बढाया जाये । उपभोग की प्रवृति मुख्यतः समाज के रीति-रिवाज, जनसंख्या के परिमाण व इसकी संरचना व निवासियों के जीवन-स्तर पर निर्भर करती है ।
कम विकसित देशों में निर्धनता के दुश्चक्र के कार्यशील रहने पर आय का स्तर न्यून बना रहता है जिसे जीवन निर्वाह आवश्यकताओं पर व्यय कर दिया जाता है ।
दूसरी ओर आय व उत्पादन का बढ़ना अल्पकाल में सम्भव नहीं, क्योंकि देश में अर्न्तसंरचना के अभाव, कुशलता की कमी व संसाधनों की न्यूनता बनी रहती है । संक्षेप में बचतों के उस न्यूनतम स्तर को बनाए रखना आवश्यक है जिस पर उत्पादन की वर्तमान दर हेतु वांछित पूंजीगत संसाधन जुटाए जा सके ।
(b) बचत को उत्पादक क्रियाओं में लगाते हुए यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्पादक अपनी आय के अधिकाधिक भाग को बचाकर विनियोग करना चाहता है ताकि उसे अधिक लाभ की प्राप्ति हो । निर्धन व्यक्ति द्वारा अधिक बचत नहीं की जाती ।
(द) बचतों में वृद्धि (Increasing Savings):
कम विकसित देशों में निजी घरेलू बचतों को अधिक करने के लिए अर्थशास्त्रियों ने निम्न सुझाव दिए हैं:
(a) उपभोग में स्वैच्छिक कमी करना ।
(b) बेरोजगार या अर्द्धबेकार श्रम को उत्पादक क्रियाओं में लगाना या अवशोषित करना जिससे राष्ट्रीय आय बढे व बचतों की सम्भावना अधिक हो ।
(c) सरकार द्वारा दीर्घकालीन बॉण्ड जारी किया जाना ।
(d) निर्यातों को प्रोत्साहन जिससे विदेशी मुद्रा प्राप्त हो तथा आयातों को नियन्त्रित रखना जिससे अनावश्यक उपभोक्ता वस्तुओं की पूर्ति नियन्त्रित हो सके ।
(e) ऐसा वातावरण निर्मित करना जिससे देशवासी अधिक बचत के लिए प्रेरित हों । युद्ध या प्राकृतिक आपदा के समय व्यक्ति अधिक त्याग करने को तत्पर रहते हैं ठीक इसी प्रकार विकास के प्रति संवेदनशील दृष्टिकोण होने पर देशवासी अधिक बचत हेतु प्रयास कर सकते है ।
(f) सरकार द्वारा बचत के लिए प्रत्यक्ष प्रेरणा प्रदान करना, सामान्यतः ब्याज की उच्च दरें व्यक्तियों को बचत की अधिक प्रेरणा देती है ।
(g) वित्तीय संस्थाओं में वृद्धि करना ।
(h) आय का ऐसा पुर्नवितरण करना जिसमें बचतों की अधिक सीमान्त क्षमता वाले व्यक्तियों वो पास बचतों का प्रवाह बढे । लेविस ने इसे उपक्रमशील वर्ग के पास संसाधनों के प्रवाह द्वारा अभिव्यक्त किया ।
(2) बचत की गतिशीलता (Mobilisation of Savings):
विनियोग हेतु आवश्यक है कि बचतों का एकत्रित करना एवं उन्हें गतिशील करना । कम विकसित देशों में एक ओर तो उपभोग व्यय अधिक होने के कारण बचतों की अधिक मात्रा एकत्रित नहीं हो पाती और दूसरी ओर जो बचते प्राप्त हुई है उन्हें विनियोजित करने की इच्छा एवं कुशलता का अभाव होता है ।
प्राप्त बचतों को विनियोग में बदलने हेतु वित्तीय संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । वित्तीय संस्थाएँ मुख्यतः बचतों को विनियोजित करने से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों की सूचना प्रदान करती हैं एवं मध्यस्थ के रूप में शृंखला का कार्य करती है ।
(3) विनियोग की अवस्था (The Stage of Investment):
बचतों के प्राप्त होने एवं इनकी गतिशीलता के उपरान्त इन्हें वास्तविक पूंजीगत वस्तुओं के निर्माण की ओर लगाया जाता है । इससे अभिप्राय है कि बचते व्यवसायियों को उपलब्ध करायी जाती है जो इनका विनियोग करते है यह पूंजी निर्माण की तीसरी अवस्था है ।
बचतों के विनियोजन में वित्तीय संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है । वित्तीय संस्थाओं में बैंक, विनियोग गृह, बीमा कम्पनी, सहकारी संस्थाएँ, स्कन्ध विनिमय बाजार मुख्य है । वित्तीय संस्थाएं अर्थव्यवस्था में सरलता बढ़ाने में सहायक बनती हैं ।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि पूंजी निर्माण का उद्देश्य मात्र वित्तीय संस्थाओं यथा वित्त कारपोरेशन, विनियोग ट्रस्ट, बैंक इत्यादि के सृजन द्वारा ही प्राप्त नहीं होता बल्कि पूंजी की गतिशीलता एवं वांछित दिशाओं में बचतों को प्रवाहित करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है ।
एक समुचित वित्त एवं साख की व्यवस्था पूंजी निर्माण के लिए आवश्यक है परन्तु समर्थ दशा नहीं । वास्तविक पूंजी निर्माण तो अतिरिक्त बचतों एवं उत्पादक विनियोग के द्वारा ही सम्भव बनता है ।
पूंजी निर्माण की आवश्यकताओं को मात्र मौद्रिक विस्तार के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता । जब तक अतिरिक्त वास्तविक साधन नहीं होंगे मौद्रिक विस्तार से केवल मुद्रा प्रसार ही बढ़ेगा ।
यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि विकास की लागत का मापन वास्तविक रूप में किया जाये न कि मौद्रिक रूप में । साधनों से सम्बन्धित वास्तविक लागतें विकास कार्यक्रमों की गतिशीलता हेतु महत्वपूर्ण हैं जिनमें विदेशी व घरेलू सेवाएँ, पदार्थ एवं यन्त्र एवं ऐसी अतिरेक वस्तु व सेवाएँ है जिनके द्वारा अधिक माँग अप्रत्यक्ष रूप से विकास व्यय के द्वारा उत्पन्न होती है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पूंजी निर्माण की क्रिया तीन स्वतन्त्र क्रियाओं से सम्बन्धित है:
(1) वास्तविक बचतों के परिमाण में होने वाली वृद्धि जिसके अन्तर्गत उपभोग उद्देश्य में प्रयोग किए जा रहे साधनों को पूंजी निर्माण उद्देश्य की ओर लगाया जाये ।
(2) एक वित्त एवं साख प्रणाली जिसके द्वारा उपलब्ध संसाधन निजी विनियोगी या सरकार के द्वारा पूंजी निर्माण की ओर लग सकें ।
(3) विनियोग की क्रिया जिससे संसाधनों का प्रयोग पूंजी वस्तुओं के लिए किया जा सके ।