पूंजी निर्माण में बैंक उधार की भूमिका | Read this article in Hindi to learn about the role of bank credit in capital formation.

पूंजी का सृजन मात्र लाभों के तारा ही नहीं होता इसे मुद्रा की पूर्ति में एक शुद्ध वृद्धि विशेषत: बैंक साख के द्वारा सृजित किया जा सकता है । एक अर्द्धविकसित देश में जहाँ व्यर्थ पड़े साधनों की प्रचुर मात्रा एवं पूंजी की कमी होती है, साख का सृजन पूँजी निर्माण पर लाभ प्रदान करने का समान प्रभाव उत्पन्न करता है । इसके परिणामस्वरूप उत्पादन एवं रोजगार में वृद्धि होती है ।

साख सृजन के द्वारा होने वाला पूँजी निर्माण कीमतों में कुछ समय तक वृद्धि करने की प्रवृति रखता है । इसका कारण यह है कि देश में व्यक्तियों के पास क्रय शक्ति तो तुरन्त बढ़ जाती है लेकिन उत्पादन में कुछ समय अन्तराल के उपरान्त वृद्धि होती है । कीमतों में होने वाली इस वृद्धि की प्रवृति अस्थायी होती है ।

जैसे ही विनियोग के परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होने लगती है मुद्रा प्रसारिक प्रवृतियाँ समाप्त हो जाती है । आर्थर लेविस ने स्पष्ट किया कि पूँजी निर्माण हेतु किया गया मुद्रा प्रसार एक भिन्न प्रवृति रखता है तथा यह स्वयं नष्ट होने की प्रवृति रखता है ।

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कीमतें बढ़ने की प्रवृति रखती हैं लेकिन जब उत्पादन में होने वाली वृद्धि (जो शीघ्र हो या अपेक्षाकृत लम्बे समय में) इन मुद्रा प्रसारिक शक्तियों को ठीक कर देती है । अत: कीमतें उस स्तर से नीचे हो जाती है जैसे कि वह प्रारम्भ में थीं । मुद्रा प्रसार की प्रक्रिया तब भी समाप्त होने लगती है जब स्वैच्छिक बचतें एक ऐसे स्तर तक बढ़ती हैं जहाँ वह विनियोग के मुद्रा प्रसारिक स्तर के बराबर हो जाती हैं ।

पूँजी निर्माण की प्रक्रिया के निर्बाध रूप से चलते रहने के कारण उत्पादन एवं रोजगार निरन्तर रूप से बढ़ते है तथा लाभ भी बढ़ता है । पुन अधिक लाभ से अधिक बचतें प्राप्त होती है तथा इतनी अधिक हो जाती है कि इसके द्वारा नए विनियोग को वित्त प्रदान किया जा सके तथा बैंक साख की आवश्यकता न रहे ।

लेविस ने यह भी स्पष्ट किया कि लाभ से आशय केवल व्यक्तिगत पूँजीपतियों को प्राप्त होने वाले लाभ से ही नहीं है बल्कि यह राज्य क्षेत्र को प्राप्त होने वाले लाभ को भी सम्मिलित करता है । इसका कारण यह है कि सरकार घाटे की वित्त व्यवस्था के अधीन व्यय की गयी मुद्रा के कुछ अंश को करों के रूप में प्राप्त कर लेती है ।

यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि जब उत्पादन के बढ़ने से आय में वृद्धि होती है तब घाटे की वित्त व्यवस्था का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं होती । यदि श्रम की प्रचुर पूर्ति हो तथा भौतिक संसाधन सीमित हों तब पूँजी निर्माण के प्रभाव जो भले ही करारोपण द्वारा प्राप्त हों या साख सृजन द्वारा उत्पादन पर समान प्रभाव डालते हैं ।