विकासशील देशों के लिए पूंजी प्रवाह | Read this article in Hindi to learn about:- 1. ब्रिटेन की नीति (Policy of Britain) 2. फ्रांस की नीति (Policy of France) 3. जर्मनी (Germany) and Other Details.

तीसरी दुनिया के देशों में प्रति व्यक्ति आय का निम्न स्तर, कुछ मुख्य फसलों एवं खनिजों पर निर्भरता, साधनों की सीमितता जिनमें अधिकांश अर्द्धशोषित हों, जनसंख्या वृद्धि की उच्च दर एवं बेरोजगारी के लक्षण उपस्थित होते हैं । रेल एवं सड़क यातायात सुविधाएं सीमित होती हैं । संवादवहन एवं औद्योगिक अन्तर्संरचना का अभाव होता है । विकास हेतु इन्हें अधिक संसाधन चाहिएँ जिनके लिए विदेशों पर निर्भरता बनी रहती है ।

द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरान्त औपनिवेशिक उत्पीड़न एवं पराधीनता से मुक्त देशों के विकास के लिए ऐसे आर्थिक एवं वित्तीय प्रयास सीमित मात्रा में किए गए जिनसे स्वतन्त्र देशों का आर्थिक आधार मजबूत बनता ।

(1) ब्रिटेन की नीति (Policy of Britain):

ब्रिटेन ने अपनी साम्राज्यवादी विस्तार की नीति के अधीन 1946 से 1970 के मध्य निर्धन देशों में 8000 से अधिक स्कीमें स्वीकृत कीं जिसके लिए 34 मिलियन पौण्ड की राशि उपलब्ध कराई गई । इसका लगभग 97 प्रतिशत भाग अनुदान एवं 3 प्रतिशत भाग ऋण के रूप में था ।

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सभी कोषों का लगभग 44 प्रतिशत भाग सामाजिक विकास हेतु था जिसमें शिक्षा पर लगभग 21 प्रतिशत भाग व्यय किया जाना था । सडक निर्माण में 17 प्रतिशत, कृषि एवं पशुपालन पर 12 प्रतिशत, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं पर 9 प्रतिशत तथा जल आपूर्ति एवं सफाई पर 7 प्रतिशत भाग व्यय किया गया ।

अधिकांश ऋण जो लगभग 68 मिलियन पौण्ड थे उन्हें औद्योगिक विकास पर व्यय किया गया । जहां तक भौगोलिक वितरण का प्रश्न है कोषों का 45 प्रतिशत भाग अफ्रीका, 22 प्रतिशत भाग वेस्टइंडीज, 8 प्रतिशत मेडिट्रेनियन, 7 प्रतिशत पश्चिमी सुदूर उपनिवेशों, 6 प्रतिशत दक्षिणी एशिया तथा लगभग 6 प्रतिशत राशि ब्रिटेन द्वारा सर्वेक्षण कार्य एवं समुद्र पार के देशों में नौकरशाही संचालन हेतु व्यय की गई ।

साठ के दशक में पूर्वार्द्ध में सहायता की नीतियों को विकासशील देशों के जीवन-स्तर में होने वाले सुधार के रूप में, अन्तराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग में वृद्धि तथा वित्तीय एवं तकनीकी सहायता की उपलब्धि के रूप में देखा गया ।

विकासशील देशों को सहायता प्रदान करने के लिए ब्रिटेन ने पुन: एक श्वेत पत्र जारी किया जिसमें विकासशील देशों में आत्मप्रेरित आर्थिक वृद्धि पर प्रकाश डाला गया । ब्रिटिश सहायता नीति में 1965 के उपरान्त पुन: आधारभूत परिवर्तन देखा गया ।

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बहुउद्देशीय सहायता के लाभों को स्वीकार किया गया तथा तकनीकी सहायता को प्राथमिकता दी गयी जिससे वह कुशल व्यक्तियों को शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्रदान कर सकें । यह एक पूर्व निर्धारित शर्त मानी गई जिससे देश वित्तीय सहायता का अधिक समर्थ उपयोग कर सकते थे ।

भविष्य की नीतियों के सन्दर्भ में यह प्रस्तावित किया गया कि ब्रिटिश सरकार एक दीर्घकालीन रणनीति को विकसित करेगी । भविष्य के कार्यक्रमों हेतु योजना तैयार करते हुए सहायता उन क्षेत्रों में वितरित की जानी थी जहाँ विकास पर इसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान होता ।

1975 में ब्रिटिश सहायता नीति में विश्व निर्धनता को दूर करने के उद्देश्य पर मुख्य ध्यान दिया गया । तब से साधनों का आवण्टन एवं प्रवाह, निर्धन एवं समस्याओं से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों की ओर किया गया ।

(2) फ्रांस की नीति (Policy of France):

ब्रिटेन की भाँति फ्रांस ने युद्ध के उपरान्त सहायता कार्यक्रम अपने औपनिवेशिक क्षेत्रों तक सीमित रखा, परन्तु इनके उद्देश्य ब्रिटिश प्रणाली की तुलना में अधिक जटिल थे । फ्रांस ने सहायता की 84 प्रतिशत राशि अपने परम्परागत साथियों को प्रदान की । इसका आधा भाग मुख्यत: तकनीकी सहायता के रूप में किया गया ।

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सहायता से जुड़े दीर्घकालिक पक्ष आर्थिक एवं राजनीतिक लाभ की प्राप्ति थे । इनमें उन देशों के साथ अच्छे कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करने को प्राथमिकता दी गयी जो क्षेत्रीय प्रबन्धों एवं विश्वगोष्ठियों में सहायक बनते ।

इन देशों का सहयोग प्राप्त करना सुरक्षा एवं व्यूहनीति सम्बन्धी उद्देश्यों हेतु भी आवश्यक था । फ्रांस ने समुद्र पार के देशों से अधिक लाभ प्राप्त करने चाहे तथा उच्च कोटि की मशीनों के निर्यात पर सर्वाधिक ध्यान दिया । अन्तत: राजनीतिक लाभों की प्राप्ति हेतु सहायता कार्यक्रम संयोजित किए गए ।

(3) जर्मनी की नीति (Policy of German):

जर्मनी विकासशील देशों में दीर्घकालीन पूंजी के मुख्य निर्यातक के रूप में उभरना चाहता था । इसके लिए उसने सहायता प्राप्त करने वाले देशों में निजी उपक्रमों की स्थापना पर अधिक बल दिया । अन्ततः जर्मनी ने दीर्घकालीन निजी पूंजी के निर्यात को महत्ता दी ।

(4) जापान की नीति (Policy of Japan):

जापान के सहायता कार्यक्रम भी स्वतन्त्र उपक्रम प्रणाली के निर्माण एवं विकास हेतु निजी पूंजी के अर्न्तप्रवाहों पर अवलम्बित रहे । जापान ने अमेरिकी एवं ब्रिटिश प्रणालियों के सहायता कार्यक्रम के सामान्यीकृत स्वरूप से हटकर परियोजना सहायता पर अधिक ध्यान दिया ।

जापानी सहायता का अधिकांश भाग जापानी निर्यातों से सम्बन्धित रहा । इसका भुगतान आयात-निर्यात बैंक द्वारा प्रदत्त साख द्वारा किया गया । जापान से वाणिज्यिक एवं आर्थिक हस्तान्तरणों को बढाने के लिए 1950 में आयात-निर्यात बैंक की स्थापना की गई ।

(5) अमेरिका की नीति (Policy of American):

तीसरी दुनिया के देशों में बढते हुए सोवियत प्रभाव को देखते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका ने ऐसे कई कार्यक्रम निर्धन देशों में प्रारम्भ किए जिनसे तकनीकी ज्ञान का आदान-प्रदान सम्भव बनता ।

अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रूमैन ने Point IV कार्यक्रम प्रस्तावित किया जो तकनीकी सहयोग पर आधारित था । ट्रूमैन प्रशासन ने विकास कार्यों के लिए ऋण एवं अनुदानों पर आश्रय प्रकट नहीं किया । उन्होंने यह स्पष्ट किया कि निजी उपक्रम, आयात-निर्यात बैंक एवं विश्व बैंक द्वारा प्रदान की गई सहायता द्वारा विकासशील देश पूंजी की वांछित प्राप्ति कर सकते है ।

Point IV कार्यक्रम 34.5 मिलियन डालर की लागत समाहित करता था जिसमें संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रमों के अंशदान भी शामिल थे । विकासशील देशों के लिए यह निराशाजनक रहा, क्योंकि यह मार्शल योजना जैसे समुन्नत कार्यक्रम की आशा कर रहे थे ।

1961 में राष्ट्रपति कैनेडी ने विकास का दशक मनाने की अपील की । इसके लिए एक नए संगठन अन्तर्राष्ट्रीय विकास संगठन AID की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया जो सभी सहायता कार्यक्रमों को समन्वित करता ।

यह एजेन्सी मुख्यतः निम्न आधारभूत सिद्धान्तों पर आश्रित रही:

(1) सहायता प्राप्तकर्ता देश यह स्वीकार करेंगे कि वह अपने विकास की पूरी जिम्मेदारी लेंगे ।

(2) समन्वयीकृत कार्यक्रमों के दीर्घकालिक प्रभाव सुनिश्चित किए जाएँगे ।

(3) संयुक्त राज्य अमेरिका सहायता प्राप्त करने वाले देशों से दीर्घकालिक सम्बन्ध बनाए रखेगा ।

(4) विकासशील देश के निवासियों में सामाजिक प्रगति की जागरूकता का प्रसार किया जाएगा ।

(5) विश्व के अन्य देशों से अधिकता सहयोग एवं समन्वय किया जाएगा ।

विकासशील देशों को होने वाले अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी प्रवाहों की प्रवृत्ति एवं दिशा विभिन्न उद्देश्यों से निर्धारित हुई । एक तरफ तो इनमें मानवीय पक्ष प्रबल रहा जो प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति के लिये सहायता के कार्यक्रमों के संचालन हेतु प्रबल आधार था । ऐसे कार्यक्रमों की प्रवृति अस्थायी रही ।

दूसरी तरफ तात्कालिक सहायता उपायों से हट कर साख प्रदान करने वाले देशों के सहायता कार्यक्रम मुख्यतः आर्थिक स्वार्थों से सम्बन्धित रहे जिनमें निर्यात बाजारों का विस्तार एवं अधिग्रहण शामिल था ।

इसके साथ ही आन्तरिक रूप से स्थापित उद्योगों के लिए कच्चे संसाधनों की आपूर्ति बनाए रखना मुख्य उद्देश्य था । इसे प्राप्त करने के लिए राजनीतिक सैन्य एवं कूटनीतिक आधारों को ध्यान में रखा गया ।