भारत का समावेशी विकास: अवधारणा और मापन! Read this article in Hindi to learn about:- 1. भारतीय समावेशी विकास के आशय (Concept of Inclusive Development of India) 2. भारतीय समावेशी विकास के मापन (Measurement of Inclusive Development of India) 3. समावेशी विकास एवं कृषि (Inclusive Development and Agriculture).

भारतीय समावेशी विकास के आशय (Concept of Inclusive Development of India):

एक ऐसी विकास की अवस्था समावेशी विकास कहलाती है, जिसमें आर्थिक विकास की उच्चतर जनित राष्ट्रीय आय के वितरण में समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों को उचित हिस्सा मिलता है । अर्थात् राष्ट्रीय आय का रिसाब प्रभाव नीचे की ओर अधिक होता है तब उसे हम समावेशी विकास कहते है ।

वर्तमान समय में भारत न केवल अपने अतीत की तुलना में बल्कि अन्य राष्ट्रों के मुकाबले में भी तेजी से बढ़ा है, लेकिन इसी में आत्मसंतोष नहीं किया जा सकता । वास्तव में आज आवश्यकता समावेश विकास की है । इसका आशय यह है, भारत अधिक तेजी से विकसित हो और विकास के लाभों को अधिक व्यापक तौर पर फैलाया जा सके ।

अर्थात् विकास का लाभ एक छोटे वर्ग तक सीमित न रहकर समस्त जनसंख्या को व्यापक तौर पर उपलब्ध हो । दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि देश एवं राज्य के विकास को बढ़ावा देने की ऐसी नीतियाँ होनी चाहिए, जो यह सुनिश्चित करें, कि अधिक से अधिक लोग विकास प्रक्रिया में भाग ले सके ।

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साथ ही ऐसा तंत्र बनाया जाए, जो ये लाभ उन लोगों को पुन: वितरित कर के, जो बाजार प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकते है, और पिछड़ जाते है । इन पिछड़े वर्गों में विशेषकर अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग की अधिकांश संस्था आती हैं, परन्तु अब प्रश्न उठता है कि हम समावेशी विकास की मापन कैसे करें ।

भारतीय समावेशी विकास के मापन (Measurement of Inclusive Development of India):

समावेशी विकास की दृष्टि से प्रगति का अनुमान लगाना कठिन है, क्योंकि समावेशिता एक व्यापक अवधारणा है, किन्तु यह भी सच है कि समावेशी विकास से यदि गरीबी के प्रतिशत में कमी होती है तो शिक्षा एवं स्वास्थ्य के स्तर में व्यापक सुधार हो साय ही यदि मजदूरी, रोजगार, पानी बिजली, सड़क, सफाई एवं आवास जैसी सुविधाओं की व्यवस्था में सुधार परिलक्षित होता है, तो निश्चित ही हम समावेशी विकास का अनुमान लगा सकते हैं, किन्तु मापन कठिन है ।

फिर भी समावेशी विकास की अवधारणा को स्पष्ट रूप देने का एक तरीका राष्ट्र की प्रगति को उसके सबसे गरीब हिस्से की प्रगति के आधार पर मापा जा सकता है । अर्थात जनसंख्या के निचले 20 प्रतिशत हिस्से की प्रगति के आधार पर इनके प्रति व्यक्ति आय को मापा जा सकता है ।

यदि इनके प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है, तो यह समावेशी विकास कहलाता है । तकनीकी रूप से निचले 20 प्रतिशत हिस्से की प्रति व्यक्ति आय को “क्विन्टाइल आय” नाम दिया गया है । इसीलिए समावेशी विकास की अवधारणा स्पष्ट रूप से इस तथ्य पर जोर देती हैं, कि भारत को उच्च विकास दर हासिल करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए, लेकिन इसके लिये यह सुनिश्चित करना चाहिए, कि समाज का सबसे कमजोर गरीब वर्ग इस विकास से लाभान्वित अवश्य हो, परंतु वर्तमान भारत में गरीबी की जो स्थिति है, वह सही अर्थों में समावेशी विकास और 9 प्रतिशत की विकास दर पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी की गई मानव विकास रिपोर्ट दर्शाती है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब रहते हैं ।

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इनकी संख्या वर्तमान में 61 करोड़ है, जो कि देश की आधी जनसंख्या से भी ज्यादा है । भारत के लिए यह प्रश्नचिन्ह है कि वह स्वयं तय करें कि भारत में गरीबों की संख्या है कितनी ? और सबसे अधिक किस क्षेत्र में है ?

समावेशी विकास एवं कृषि (Inclusive Development and Agriculture):

कृषि को देश एवं राज्य का सबसे बड़ा रोजगार दिलाने वाला नियोक्ता कहा जा सकता है, जिसकी सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान बहुत अधिक है, किन्तु यह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है । वर्ष 1950-51 में कृषि क्षेत्र का हिस्सा 55.40 प्रतिशत था, जो 2009-10 में घट कर 14.6 रह गया है, जो देश में समावेशी विकास का एक सशक्त माध्यम है, किन्तु इसे दुर्भाग्य कहा जा सकता है कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में कृषि के क्षेत्र में 4 प्रतिशत विकास के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका और यह ग्यारहवीं पंचवर्षीय के प्रथम 4 वर्षों में कृषि की विकास दर 3.2 प्रतिशत रही, लेकिन इसे बारहवीं योजना के दौरान प्राप्त करना बहुत जरूरी है, क्योंकि कृषि के विकास से न केवल ग्रामीण क्षेत्र की आय में सुधार होगा बल्कि मुद्रा स्थिति पर भी नियंत्रण होगा ।

ऐसा करना समावेशी विकास के लिए महत्वपूर्ण होगा, इसके लिए आधुनिक कृषि तकनीकों के साथ-साथ अनेक कई क्षेत्रों पर काम करना होगा, जिसमें कृषि शोध एवं सिचाई सुविधाओं का नाम प्रमुखता से आता है, तथा जिसमें अधिक खर्च करने की जरूरत है ।

इस समय भारत में कृषि अनुसंधान विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का 0.6 प्रतिशत हिस्सा ही खर्च हो रहा है, जबकि अमेरिका में सकल घरेलू उत्पाद का 4 प्रतिशत है, जो भारत की तुलना में बहुत अधिक है । देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खाद्यान्न की बढ़ती मांग और महँगाई पर चिता व्यक्त करते हुए इसमें निवेश की सीमा को बढ़ाने की बात कही है और 2020 तक इसमें दो से तीन गुना तक वृद्धि करने की जरूरत बताई है, ताकि बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न मांग को पूरा किया जा सके ।

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इसी प्रकार जल प्रबंधन नीति विकसित करके उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है । विशेषकर कृषि के क्षेत्र में जल के किफायती उपयोग पर ध्यान आकर्षित करना होगा, साथ ही देश एवं राज्य को गुजरात राज्य की तरह काम करना होगा, जैसे कि सिचाई सुविधा बढ़ाने के लिए गुजरात सरकार ने भू-जल प्रबंधन पर सर्वाधिक बल दिया है और वर्षा की प्रत्येक बूंद का संग्रहण कर इसे सिचाई के काम में लाने की रणनीति बनाई इसके तहत पूरे गुजरात में (चेक डैम) रोक बांध बनाने का अभियान चलाया गया ।

पिछले एक दशक के दौरान पाँच लाख से अधिक बाँध, तालाब, कुएँ जैसे जल संचय के साधन तैयार किये गए । इससे वर्षा जल के भू-जल बनने के रास्ते खुले और जल स्तर में 3-5 मीटर तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई । साथ ही कृषि को बड़े बाँधों व नहरों से अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा था । इसीलिए सिचाई के क्षेत्र में सूक्ष्म रणनीति अपनाई गई ।

यही कारण है कि जब देश में कृषि की विकास दर 2 से 3.5 प्रतिशत के बीच उलझी हुई थी, उस दौरान गुजरात में कृषि विकास औसत से तीन गुना अधिक था, तकनीक के बेहतर इस्तेमाल और पानी के उचित प्रबंधन के बल पर राज्य ने यह उपलब्धी प्रान्त की, साथ ही इसमें बिजली, वित्त और विपणन जैसी सहायक सुविधाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।

यही कारण है कि हरित क्रांति के क्षेत्र में आगे रहे पंजाब व हरियाणा के किसान भी गुजरात के किसानों की ओर देख रहे है । इसी प्रकार निवेश के क्षेत्र में भी काम करना होगा । कृषि में सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में निवेश के ऊँचे स्तर से बेहतर परिणाम हो सकते है ।

वर्ष 2003 में निवेश सकल घरेलू उत्पाद का 10 प्रतिशत से भी कम हो गया था । इसमें पर्याप्त रूप से वृद्धि की गई और वर्तमान में यह निवेश कृषि के 21 प्रतिशत से भी अधिक है । इसके लिए केन्द्र को राज्यों के साथ नीतियों और कार्य नीतियों पर तालमेल पर कंधे से कंधा मिलाकर काम करना होगा, ताकि कृषि के विकास में वृद्धि हो सके एवं बारहवीं पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य का पूरा किया जा सके ।

पिछले दो वर्षों में खाद्य की कीमतों में वृद्धि होना है । चूंकि भारत एक विकासशील देश है जो उभरती हुई अर्थव्यस्था से संबंधित है जिसे BRICS नाम दिया गया हैं । जैसे- ब्राजील, रशिया, इण्डिया, चाइना, इन देशों से यह पता चलता है कि यदि कृषि में एक प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में कम से कम दो से तीन गुना अधिक वृद्धि प्रभावशाली होती है ।

तो इससे यह ज्ञात होता है कि इन देशों में जो वृद्धि हुई और वह औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्रों से हुई है न कि कृषि क्षेत्र से, जबकि गरीबी को दूर करने में कृषि की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है । इसीलिए कृषि उत्पादकता को बढ़ाना आवश्यक है ।

सुझाव:

(1) कृषि अनुसंधान शोध कार्यों को बढावा देना चाहिए ।

(2) कृषि विकास के लिए दीर्घकालीन नीति बनानी चाहिए ।

(3) कृषि के क्षेत्र में दूसरी हरित क्रांति अपनाने की जरूरत पर जोर देना चाहिए ।

(4) सार्वजानिक एवं निजी दोनों ही क्षेत्रों में निवेश करना चाहिए ।

(5) किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए प्रोत्साहन एजेंसियां बनानी चाहिए ।

(6) सिंचाई के विस्तार में वृद्धि करनी चाहिए ।

(7) नई तकनीकों का प्रयोग करना च हिए ।

(8) उन्नत किस्म के बीजों का इस्तेमाल करना चाहिए ।

(9) बाजार की सुविधाये होनी चाहिए ।

(10) किसानों को सस्ते दर पर ऋण उपलख होनी चाहिए ।

(11) चकबंदी खेती -को अपनाने पर जोर होना चाहिए ।

(12) कृषि से संबंधित- बिजली, पानी एवं खाद्य तकनीकियों पर लम्बी अवधि के लिए सब्सिडी देनी चाहिए ।

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