आर्थिक विकास: अर्थ और परिभाषा | Read this article in Hindi to learn about the meaning, definition and trends of economic development.

आर्थिक विकास की परिभाषाओं (Meaning and Definition of Economic Development):

आर्थिक वृद्धि से अभिप्राय है- संसाधनों की उपलब्धता एवं कुशलता में वृद्धि के द्वारा प्राप्त बढ़ता हुआ उत्पादन ।

वहीं आर्थिक विकास से आशय न केवल अधिक उत्पादन है बल्कि यह:

1. आदा व प्रदा की संरचना

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2. उत्पादन की तकनीक

3. सामाजिक दृष्टिकोण एवं सांस्कृतिक स्वरूप-तथा संस्थागत ढाँचे में होने वाले परिवर्तन को भी समाहित करता है ।

विकास की धारणा को निम्न परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:

(i) सोसाइटी फार इन्टरनेशनल डेवलपमेन्ट ने विकास को एक धारणीय प्रक्रिया के द्वारा निरूपित किया । यह व्यक्तियों के बहुल समुदाय की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से सम्बन्धित है न कि अल्प समुदाय के हितों से ।

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(ii) डैग हैमरस्कजोल्ड रिपोर्ट के अनुसार विकास एक सम्पूर्ण मूल्य समन्वित सांस्कृतिक प्रक्रिया है । यह प्राकृतिक वातावरण सामाजिक सम्बन्धों शिक्षा उत्पादन उपयोग एवं बेहतर जीवन की अभिवृद्धि को सूचित करती है । विकास अर्न्तजात है । यह प्रत्येक समाज के हृदय से प्रस्फुटित होती है ।

(iii) प्रसिद्ध अर्थशास्त्री महबूब उल हक ने अपनी पुस्तक में विकास की प्रक्रिया को निर्धनता के विगलित स्वरूप में आक्रमण की भाँति लिया । उन्होंने स्पष्ट कहा कि विकास के उद्देश्य कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी एवं असमानता को दूर करने से सम्बन्धित होना चाहिए ।

(iv) प्रो. साइमन कुजनेट्‌स, ए.जे. यंगसन तथा मेयर व बाल्डविन ने राष्ट्रीय आय में वृद्धि के आधार पर आर्थिक विकास को परिभाषित किया । मेयर व बाल्डविन के अनुसार- “आर्थिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक अर्थ व्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय दीर्घकाल में बढ़ती है ।”

(v) प्रति व्यक्ति आय में होने वाली वृद्धि के द्वारा आर्थिक विकास की परिभाषा देते हुए विलियमसन तथा बर्टिक ने स्पष्ट किया कि आर्थिक विकास उस प्रक्रिया को सूचित करता है जिसके द्वारा किसी देश अथवा प्रदेश के निवासी उपलब्ध संसाधनों का अयोग प्रति व्यक्ति वस्तु व सेवाओं के उत्पादन में नियमित वृद्धि के लिए करते हैं ।

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आर्थर लेविस के अनुसार आर्थिक विकास से अभिप्राय प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि है ।

बुचानन एवं एलिस के अनुसार विकास से आशय विनियोग का प्रयोग करते हुए अर्द्धविकसित देशों में वास्तविक आय की सम्भावनाओं को बढ़ाना मुख्य उद्देश्य है । जिनसे उन उत्पादन संसाधनों को गतिशील किया जा सके जो प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में होने वाली वृद्धि को सुनिश्चित करती है ।

प्रो. पाल ए बैरन ने आर्थिक विकास को प्रति व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के उत्पादन के रूप में अभिव्यक्त किया । वाल्टर क्राउज के मतानुसार आर्थिक विकास से अभिप्राय अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि की उस प्रक्रिया से है जिसका मुख्य उद्देश्य उच्च एवं बढ़ती हुई प्रति व्यक्ति वास्तविक आय प्राप्त करना होता है ।

जैकब वाइनर ने स्पष्ट किया कि- ”आर्थिक विकास प्रति व्यक्ति आय के स्तरों में वृद्धि अथवा आय के विद्यमान उच्च स्तरों के अनुरक्षण से संबन्धित है ।”

इरमा एडलमैन का मत है कि आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक ऐसी अर्थव्यवस्था जहाँ प्रति व्यक्ति आय की निम्न या ऋणात्मक दर ऐसी अर्थव्यवस्था में रूपान्तरित होती है जिसमें प्रति व्यक्ति आय में उच्च दर से वृद्धि होना एक स्थायी व दीर्घकालीन विशेषता बन जाती है ।

हार्वे लीबिन्सटीन के अनुसार विकास एक अर्थव्यवस्था की प्रति व्यक्ति वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन करने की शक्ति में वृद्धि करता है, क्योंकि ऐसी वृद्धि जीवर स्तर को उच्च करने की पूर्व आवश्यकता होती है ।

(vi) आर्थिक कल्याण की दृष्टि से आर्थिक विकास को परिभाषित करते हुए प्रो. एम.एफ. जुस्सावाला ने स्पष्ट किया कि आर्थिक विकास आधारभूत रूप से एक देश की जनसंख्या में आर्थिक कल्याण के न्यूनाधिक रूप से होने वाले उच्च रहन-सहन के स्तर से सम्बन्धित है ।

प्रो.डी. ब्राइट सिंह ने आर्थिक विकास को एक समाज में अर्द्धविकसित अवस्था से एक उच्च स्तर की आर्थिक उपलब्धि की दशा के रूपान्तरण द्वारा अभिव्यक्त किया ।

उनके मत में आर्थिक विकास एक बहुआयामी प्रवृति है, यह न केवल मौद्रिक आय में होने वाली वृद्धि को समाहित करती है बल्कि वास्तविक आदतों, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अधिक आराम और वास्तव में सभी आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों में सुधार माता है जिनसे एक पूर्ण एवं संतुष्ट जीवन का निर्माण होता है ।

ओकन एवं रिचर्डसन ने आर्थिक विकास को भौतिक समृद्धि में ऐसा अनवरत दीर्घकालीन सुधार बताया जो वस्तु व सेवाओं के बढ़ते हुए प्रवाह के द्वारा प्रदर्शित होता है । सामान्य विकास को आर्थिक वृद्धि के अधिकतमीकरण की प्रक्रिया एवं वृद्धि के सूचक के रूप में प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है ।

प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पादन को बहुधा आराम या रहन-सहन के मापक के रूप में देखा जाता है, परन्तु यह उत्पादन का मापक है न कि “कल्याण” का । इसी कारण प्रो. बैंजामिन हिगिन्स ने आर्थिक विकास को कुल एवं प्रति व्यक्ति आय में होने वाली विचारणीय वृद्धि के द्वारा परिभाषित किया है ।

आर्थिक विकास को एक देश की संस्थाओं एवं मूल्य प्रणाली में होने वाले सुधार की ऐसी प्रक्रिया द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है जो सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीति के साथ आर्थिक चरित्र की बढ़ती हुई एवं विभिन्न भागों को पूर्ण करती है ।

यह परिभाषा विकास के कई पक्षों का प्रदर्शन करती है । मुख्यतः यह लाभप्रद रोजगार, कार्य एवं आराम के मध्य एक वांच्छित संतुलन बेहतर एवं विविधीकृत उपभोग, प्रदूषण निवारण एवं स्वास्थ्य सुधार एवं उच्च सांस्कृतिक स्तरों की प्राप्ति से सम्बन्धित है जिनसे जीवन की गुणवत्ता में सुधार आता है ।

डेविड कोलमन एवं फेड्रिक निक्सन ने अपनी पुस्तक Economics of Changes in Less Developed Countries 1978 में विकास को सुधार की ऐसी प्रक्रिया द्वारा विश्लेषित किया जिसमें मूल्यों के कुछ समुच्चयों को ध्यान में रखा जाता है तथा इन मूल्यों के सन्दर्भ में विभिन्न देशों के सापेक्षिक विकास स्तरों की तुलना की जाती है ।

आई.एम.डी. लिटिल ने भी आर्थिक विकास को कल्याण अर्थशास्त्र से समन्वित किया । उनके विचार में आर्थिक विकास तब उत्पन्न होता है जब प्रति व्यक्ति औसत भारित उपयोग के वर्तमान मूल्य में वृद्धि हो ।

उपभोग को बाजार कीमतों पर मापा जाता है या उस अधिकतम कीमत पर जिसे व्यक्ति अपने उपभोग के लिए देने को तत्पर रहता है । लिटिल के अनुसार आर्थिक विकास को परिभाषित करने की कठिनाई सामाजिक उद्देश्यों से सम्बन्धित निर्णयों के अन्तरों से उत्पन्न होती है ।

(vii) प्रो. जोसेफ एलोइस शुम्पीटर ने अपने चक्रीय प्रवाह मॉडल में विकास की प्रक्रिया को अनियमित बाधाओं के द्वारा स्पष्ट किया । प्रो. फ्रीडमैन ने भी विकास को अनियमित लेकिन नव प्रर्वतनों की संचयी प्रक्रिया के द्वारा होने वाले संरचनात्मक रूपान्तरण की क्रमिक शृंखला द्वारा अभिव्यक्त किया जो एक समाज की सृजनात्मक सम्भावनाओं को बताता है ।

(viii) प्रो. गुन्नार मिर्डल ने विकास को मूल्य प्रस्तावना के उपकरणों द्वारा सम्बोधित किया ।

जिनमें वह निम्न को महत्वपूर्ण मानते हैं:

(a) विवेकशीलता,

(b) विकास एवं विकास नियोजन,

(c) उत्पादकता में वृद्धि,

(d) जीवन स्तर में वृद्धि,

(e) सामाजिक व आर्थिक समानता,

(f) सुधरी हुई संस्थायें एवं दृष्टिकोण,

(g) राष्ट्रीय आस्था,

(h) राष्ट्रीय स्वतन्त्रता,

(i) आधार स्तर पर प्रजातन्त्र,

(j) सामाजिक अनुशासन ।

(k) पीटर डाउनसेंड ने विकास की व्याख्या स्तरीकरण की प्रणाली के सम्बन्ध में अभिव्यक्त की ।

उनके अनुसार-सामाजिक विकास के निम्न तीन स्तर हैं:

(1) सभी समाज समान तथा एक रूप तरीके से उन्नत होते हैं । गतिशीलता अनुपस्थिति होती है तथा स्तरीकरण का स्वरूप स्थिर होता है ।

(2) कुछ समाज गतिशील होते हैं, वह अपनी स्थिति को अन्य की तुलना श्रेष्ठ बनाते हैं लेकिन स्तरीकरण का रूप एवं फैलने की गतिविधि स्थिर रहती है ।

(3) केन्द्र अभिमुख होने की प्रवृति विद्यमान रहती है । पीटर डाउनसेंड के अनुसार विकास के अधिकांश सिद्धान्त इनमें पहली धारणा पर आधारित हैं ।

(l) विज्ञान एवं तकनीक के सन्दर्भ में विकास को उपयोगी संसाथन आवश्यकताओं प्रणालियों विधियों या प्रविधियों उत्पादन अनियंत्रण एवं डिजाइन की तैयारी से लिया जाता है । इस प्रसंग में शोध एवं विकास शब्द बहुचर्चित हैं ।

विकास की मुख्य प्रवृत्तियों (Trends in Economic Development):

एक परम्परागत समाज के आधुनिक समाज में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया अथवा विकास की मुख्य प्रवृत्तियों को संक्षेप में निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है ।

1. विकास की सबसे सामान्य-प्रवृति है, वृद्धि (Growth) विकास से अभिप्राय है वृद्धि की एक प्रक्रिया द्वारा उन्नत होना, आगे जाना, फैलाव या विस्तार करना । एक आधुनिक समाज वह है जो वृद्धि कर रहा है विस्तार कर रहा है या उन्नति कर रहा है । यद्यपि उतार चढ़ाव हमेशा आते रहते है लेकिन यदि एक देश विकास कर रहा है तो वृद्धि की प्रवृत्ति अनिवार्य होती है ।

दूसरी सामान्य प्रकृति है, अग्र दृष्टि या आगे को देखना जो आधुनिक समाज में पायी जाती है । परम्परागत समाज पश्चगामी दृष्टि रखते हैं ।

तीसरी सामान्य प्रवृति है, जटिलता एक आधुनिक समाज एक जटिल समाज है जिसमें उच्च अंश का श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण विद्यमान होता है । इसके साथ ही विभिन्न व्यक्तियों एवं संगठनात्मक इकाइयों के मध्य उच्च अंश की अर्न्तनिर्भरता विद्यमान होती है । मैक्स बेबर एवं टेलर्कोट पारसन्स ने विकास को जटिल शृंखलाओं एवं आदा प्रदा सम्बन्धों की विशेषता द्वारा अभिव्यक्त किया ।

2. विकास आधुनिक तकनीक द्वारा सम्भव होता है । वस्तुओं के उत्पादन हेतु मशीनों का प्रयोग किया जाता है । उत्पादन कृषि क्षेत्र से विनिर्माण क्षेत्र की ओर परिवर्तित होता है । एक आधुनिक समाज वह है जो एक औद्योगिक क्रान्ति या तकनीकी नव प्रवर्तन की प्रक्रिया से गुजरती है । यह एक तकनीकी समाज है । जिसमें तकनीक मनुष्य की सेवा के उपकरण के रूप में उसके अधीन कार्य करती है ।

3. एक आधुनिक समाज एक विवेकपूर्ण समाज है । आर्थिक एवं अन्य क्षेत्रों में भौतिक एवं अन्य सामाजिक समस्याओं का समाधान करने के लिए विवेकपूर्ण विधियों को बढ़ावा दिया जाता है ।

आधुनिक समाज इस अर्थ में विवेकशील कहा गया कि यह परम्परा, देवीय एवं अतीन्द्रिय घटकों से शासित न होकर तर्क पर आश्रित होता है व इसके द्वारा निर्णय लेता है । संक्षेप में आधुनिक समाज तर्कपूर्ण विधि व रीतियों से कार्यों को संपादित करता है ।

4. विकास की एक और सामान्य प्रवृति विकास की इकाई के रूप में राष्ट्र राज्य का निर्माण है । इसी कारण आधुनिक विकास को राष्ट्रीय विकास के नाम से जाना जाता है ।

अनुभव सिद्ध अवलोकन से स्पष्ट होता है कि पश्चिमी यूरोप में सार्वभौमिक या तकनीकी क्रान्ति के उपरान्त राष्ट्र राज्य का अभ्युदय हुआ । राजनीतिक पक्ष से यह दिव्य विधान पर आधारित सत्ता के विरूद्ध संघर्ष के रूप में सामने आया । आर्थिक पक्ष से यह जागीरदारी, सामंतशाही व अर्थव्यवस्था के बदले राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को स्थापित करने वाला आन्दोलन बना ।

5. विकास का एक महत्वपूर्ण पक्ष न्याय व्यवस्था व कानून का उन्नत होना है । आवश्यक वैधानिक ढाँचे की स्थापना व व्यवस्था, शान्ति एवं सुरक्षा बनाये रखना एक लोकप्रिय सरकार के मुख्य दायित्व हैं । किसी देश का कानून उस देश की सरकार एवं निवासियों की इच्छाशक्ति की अभिव्यक्ति है ।

विकास के प्रयासों की सफलता मुख्यत: इस बात पर निर्भर करती है कि सामाजिक अनुशासन का किस सीमा तक पालन किया जा रहा है । प्रो. गुन्नार मिरडल ने एक ऐसे राज्य को नरम राज्य कहा जहाँ सामाजिक अनुशासनहीनता विद्यमान हो ।

आधुनिक राज्य में नियम एवं कानून में संशोधन की सम्भावना विद्यमान होती है तथा प्रणाली इतनी लोचशील होती है कि वह परिवर्तन व नव प्रवर्तन को स्वीकार करती है जिससे नयी परिस्थितियों में विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के साथ तालमेल सम्भव हो सके ।

6. विकास संस्थागत परिवर्तनों की सूचना देता है । संस्थागत परिवर्तन एवं तकनीकी नव प्रवर्तन अर्न्तसम्बन्धित है ।

सामान्यत: संस्थाओं को निम्न तीन वर्गों में रखा जा सकता है:

(i) संस्था सम्बन्धी संगठन जैसे फैक्ट्री उपक्रम, कारपोरेशन, सिविल सेवाएँ, सेना प्रान्तीय व केन्द्र सरकार, चेम्बर ऑफ कॉमर्स, श्रम संघ, कृषकों के संगठन, स्कूल इत्यादि । इन संगठनों की संख्या, आकार एवं महत्ता में होने वाली वृद्धि प्रत्याक्षत: विकास की दशा को अभिव्यक्त करती है । इस प्रकार आधुनिक समाज एक संगठन समाज है ।

(ii) एक सामाजिक प्रणाली एक बार स्थापित होने पर एक संस्था बन जाती है । आधुनिक नियम कानून व व्यवस्था की प्रणाली, छोटे परिवार की प्रणाली, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था, प्रजातान्त्रिक राजनीतिक प्रणाली इत्यादि आधुनिक समाज की सामाजिक संस्थाओं के उदाहरण है ।

(iii) कुछ महत्वपूर्ण धारणों के संस्थानीकरण से संस्थाओं का अभ्युदय होता है जैसे Technicism, Scientism, Rationalism, Nationalism, Equalitarianism, इत्यादि । विकास की प्रक्रिया में परम्परागत या सामन्तशाही संस्थाओं के स्थान पर आधुनिक समस्याओं का स्वरूप उभरता है ।