आर्थिक विकास के नए मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति एवं विकास के नए मॉडल (Second Industrial and New Development Models) 2. तकनीकी नव-प्रवर्तन एवं अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन (Technological Innovation and Changes in the Structure of the Economy) and Other Details.
द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति एवं विकास के नए मॉडल (Second Industrial and New Development Models):
द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त की सबसे महत्वपूर्ण घटना पूर्व उपनिवेशों एवं अर्द्ध उपनिवेशों का स्वतन्त्र होना था । अर्द्धविकसित व विकासशील देशों ने सार्थक रूप से विश्व में अपनी उपस्थिति जता दी थी । इन देशों की राजनीति के केन्द्र में विकास की भावना भरी थी । प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व अर्द्ध-विकसित देश जहां विकास का प्रतिष्ठित मॉडल अपनाने पर ही बाध्य थे वहीं दूसरे विश्व युद्ध के उपरान्त उनके सम्मुख कई विकल्प मौजूद थे ।
1. 1940 के दशक के उत्तरार्द्ध एवं 1950 के दशक के विकासशील देशों के सम्मुख मुख्यत: तीन विकास मॉडलों में चुनाव की समस्या थी:
(i) प्रतिष्ठित मॉडल
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(ii) यू.एस.एस.आर. मॉडल
(iii) एक मिश्रित मॉडल जो पहले दो में किसी भी प्रणाली से सम्बन्धित हो सकता था ।
संयुवठत राज्य अमेरिका ने ऐसे सुदृढ़ प्रयास किए जिससे अधिक से अधिक देश उसके प्रजासत्तात्मक शिविर में शामिल हो जाएँ । दूसरी तरफ सोवियत संघ ने सभी समाजवादी देशों में कठोर नियन्त्रण बनाए रखा तथा यह प्रयास किया कि अन्य देश भी उसके विकास मॉडल को अनुसरण करें । अधिकांश विकासशील देश इनसे किसी कैम्प या खेमे में शामिल होना नहीं चाहते थे । उन्होंने अपने आपको तीसरी दुनिया द्वारा सम्बोधित किया । अधिकांश ने एक मिश्रित प्रणाली अपनायी जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था कहा गया ।
2. यूनाइटेड नेशन्स की स्थापना से सामूहिक सुरक्षा की प्रणाली द्वारा शान्ति स्थापित करने के साथ ही ऐसे संगठन की नींव रखने का प्रयास हुआ जो परतन्त्र राष्ट्रों को स्वतन्त्र राज्यों में रूपान्तरित कर सके तथा विकास के द्वारा विश्व के निवासियों की सामाजिक स्थिति में सुधार करें । असुरक्षा से मुबिठत एवं आवश्यकताओं की स्वतन्त्रता से जनतन्त्र एवं समानता के सिद्धान्तों को व्यापक आधार देने के साथ ही इनके विकास मॉडल भी प्रतिष्ठित विश्लेषण से भिन्न हो गए ।
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3. इस विचारधारा को समर्थन मिलने लगा कि आज के विश्व में राजनीतिक प्रजातन्त्र एवं राजनीतिक समानता ही नहीं बल्कि आर्थिक प्रजातन्त्र एवं आर्थिक समानता की आवश्यकता है । एक विकासशील देश आज मुख्यत: इस समस्या से जूझ रहा है कि राजनीतिक प्रजातन्त्र को आर्थिक प्रजातन्त्र से या राजनीतिक समानता को आर्थिक समानता से किस प्रकार संयोजित किया जाये ।
एक देश सार्वजनिक उपक्रम एवं निजी उपक्रम के उचित संयोग का चुनाव करता है । अबन्ध नीति या स्वतन्त्र उपक्रम अर्थव्यवस्था की पुरानी प्रणाली समाप्त प्राय: है । पश्चिमी देशों में भी सार्वजनिक क्षेत्र के आकार एवं जटिलता में वृद्धि हुई है । निजी क्षेत्र में उत्पादन तेजी से बढ़ रहा हे जो न केवल बढ़ते हुए प्रतिफल की दशाओं का प्रदर्शन कर रहा है बल्कि साथ ही एकाधिकार व एकाधिकारात्मक प्रतिस्पर्द्धा के अधीन हो रहा है । इसके साथ ही बहुराष्ट्रीय निगमों में लगातार विस्तार हो रहा है । वर्तमान समय की अर्थव्यवस्था में नियोजन नियमन एवं नियन्त्रण सामान्य बात हो गयी है ।
4. न तो उन्नीसवीं शताब्दी के प्रतिष्ठित मॉडल एवं न ही युद्ध की अवधि में लागू मॉडल बीसवीं शताब्दी की समस्याओं के सन्दर्भ में विकास हेतु प्रासंगिक हो पाए ।
बीसवीं सदी के आर्थिक विकास के साहित्य में दो मुख्य प्रवृतियाँ दिखाई दीं:
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(i) आर्थिक वृति की अवस्थाओं से सम्बन्धित विश्लेषण जो 1950 के दशक एवं 1960 के पूर्वाद्ध में विश्लेषित किए गए । इन सिद्धान्तों में विकास की प्रक्रिया को उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाओं के रूप में देखा गया । जिनसे होकर हर देश गुजरता है । विकास को तीव्र समग्र आर्थिक वृद्धि का पर्याय माना गया ।
(ii) संरचनात्मक-अन्तर्राष्ट्रीयता मॉडल जो 1960 के दशक के उत्तरार्द्ध एवं 1970 के दशक में प्रतिपादित किए गए । इन मॉडलों में अर्द्ध-विकास को अन्तर्राष्ट्रीय एवं घरेलू शक्ति सम्बन्धों संस्थागत एवं संरचनात्मक आर्थिक दृढ़ताओं तथा द्वेत अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में व्याख्यायित किया गया ।
यह सिद्धान्त आर्थिक विकास में बाह्य एवं आन्तरिक संस्थागत परिसीमाओं को महत्व देता है । ऐसी नीतियों को प्रमुखता दी गयी जो निर्धनता के निवारण हेतु आवश्यक थीं तथा अधिक रोजगार सुविधाएँ प्रदान करते हुए आय की असमानताओं में कमी करतीं ।
मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार- आर्थिक विकास की धारणा हाल के वर्षों में तीव्र परिवर्तनों की सूचना देती है । अब यह मात्र ऐसी प्रक्रिया से ही सम्बन्धित नहीं है जिसमें एक दीर्घ समय अवधि में देश की राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती हैं । विकास का अभिप्राय केवल इतना नहीं है कि बढ़ती हुई आय व उत्पादन का ऐसा प्रभाव निर्धनों पर पड़े कि अमीरों की भांति इसके लाभ प्राप्त करें ।
इसे Trickle-Down Strategy कहा गया । आधुनिक अर्थशास्त्री इस मत को स्वीकार नहीं करते तथा उन रणनीतियों को प्रस्तावित करने पर बल देते है जो प्रत्यक्ष रूप से निर्धनों की आवश्यकता को पूर्ण कर सके ।
आर्थिक विकास को एक नए परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है, जिसके अनुसार यह ऐसी प्रक्रिया है जो एक देश के उपरना संसाधनों की उत्पादकता में सुधार करती है तथा उपभोग के अंश को बढ़ाती है । इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय आय की वृद्धि को प्रेरित करते हुए एक समुदाय के आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है ।
स्पष्ट है कि विकास की प्रक्रिया को दो भिन्न सूचकों के अधीन देखा जाता है जिनमें पहला उत्पादन या राष्ट्रीय आय का सूचक है तो दूसरा समुदाय के आर्थिक कल्याण का । इनमें से उत्पादन या राष्ट्रीय आय को विकास के वृद्ध पक्ष के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है ।
दूसरी तरफ आर्थिक कल्याण का सूचक समुदाय के विभिन्न वर्गों या समूहों के बीच संसाधनों के आबंटन एवं आय के वितरण पर प्रकाश डालता है । इस प्रकार यह विकास समानता एवं वृद्धि पक्षों का संयोग प्रस्तुत करता है ।
इस विचारधारा को ध्यान में रखते हुए डेनिस गालेट ने आर्थिक विकास को निम्न तीन उददेश्यों की प्राप्ति से सम्बन्धित किया:
(i) आधारभूत जीवन धारण करने योग्य वस्तुओं; जैसे- भोजन, आवास एवं सुरक्षा की उपस्थ्यता में वृद्धि एवं इसके वितरण को व्यापक बनाना । यह तब ही सम्भव है जब वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में तेजी से वृद्धि हो ।
(ii) उच्च आय एवं अधिक वस्तुओं की उपलब्धता, बेहतर शिक्षा एवं सांस्कृतिक व मानवीय मूल्यों पर अधिक मान देते हुए जीवन-स्तर में वृद्धि के हर सम्भव प्रयास करना ।
(iii) आर्थिक एवं सामाजिक चुनाव की सीमा में वृद्धि करना । यह तब सम्भव हो सकता है जब व्यक्ति एवं राष्ट्र दासत्व एवं निर्भरता से मुक्ति पाएँ । इससे अभिप्राय मात्र किसी दूसरे देश के शासन एवं व्यक्तियों की अधीनता से मुक्त होना ही नहीं है बल्कि अज्ञान एवं दुखों से पाना भी है । इस प्रकार आर्थिक विकास का मूल्यांकन अन्तत: धनात्मक स्वतन्त्रता के उन्नत स्वरूप से है ।
गालेट के अनुसार- उपर्युक्त तीनों घटक अन्तर्संम्बन्धित है । गालेट ने स्पष्ट किया कि विकास को मात्र आधुनिकीकरण या औद्योगीकरण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता और न ही यह सरल रूप में उत्पबकता में होने वाली सामान्य वृद्धि विकास नहीं बल्कि विकास की सम्भावनाओं में एक है ।
गालेट ने तर्क दिया कि विकास की धारणा को मानवीय उद्गम द्वारा सबसे अच्छी तरह व्यक्त किया जा सकता है । यह मानवता का ऐसा सार है जिसमें आर्थिक, जैविकीय, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक, आध्यात्मिक, गूढ़ एवं श्रेष्ठ आयाम समाहित है । गालेट की परिभाषा में जिन तत्त्वों को सम्मिलित किया गया है वह भौतिक जगत से सम्बन्धित आर्थिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक तो है पर मापनीय नहीं ।
तकनीकी नव-प्रवर्तन एवं अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन (Technological Innovation and Changes in the Structure of the Economy):
बीसवीं शताब्दी में होने वाला महत्वपूर्ण परिवर्तन वस्तुत: नयी तकनीकी क्रान्ति से सम्बन्धित है । द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति ने तकनीकी एवं प्रबन्धकीय तकनीक का प्रचुर उपयोग किया है । यह मुख्यत: विवेकपूर्ण तकनीक पर आधारित रही जिसमें कुशलता एवं क्षमता उपयोग पक्ष को महता प्रदान की गई । एक ओर कार्य के मशीनी तरीके विकसित हुए जो स्वचालकता के द्वारा या कप्यूटर के प्रयोग से सुदृढ़ बनते गए तो दूसरी ओर इससे जटिलताओं में वृद्धि हुई ।
अत: संगठन की एक अधिक लोचशील विधि एवं कार्य के तरीकों में निरन्तर सुधार की आवश्यकता का अनुभव किया गया । द्वितीय औद्योगिक क्रान्ति की तकनीक विज्ञान आधारित, विशेषज्ञतापूर्ण, संख्या सम्बन्धी बड़े पैमाने से सम्बन्धित जटिल एवं संश्लिष्ट रहीं । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनके द्वारा उत्पादकता में तीव्र वृद्धि हुई ।
नए तकनीकी नव-प्रवर्तनों ने अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन को प्रेरित किया । पहली औद्योगिक क्रान्ति की तकनीक ने उत्पादन को कृषि एवं अन्य उद्योगों को विनिर्माण उद्योगों की ओर परिवर्तित किया । इस प्रकार औद्योगिक समाज का जन्म हुआ ।
यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि क्या मानवता संसाधनों के व्यर्थ उपभोग में रोक लगाने में सफल बनेगी ? जिससे पूर्ण क्षमता के अनुरूप उत्पादन हो, कार्य की कुशलता में वृद्धि हो, बेरोजगारी एवं संसाधनों का अर्द्ध उपयोग दूर हो सके तथा आय का समतापूर्ण वितरण भी सम्भव हो । क्या इसके परिणामस्वरूप एक औद्योगिक समाज, स्वयंसंचालित समृद्धता के समाज के रूप में रूपान्तरित हो जाएगा ? इस सम्बन्ध में जोन कीनिथ गालब्रेथ ने अपना महत्वपूर्ण अध्ययन 1958 में प्रस्तुत किया ।
तकनीकी सम्भावनाओं को देखते हुए यह आशा की जा सकती है कि मानव समाज भुखमरी, कुपोषण, अशिक्षा व अज्ञान से मुविठत प्राप्त करने में सफल हो जाएगा । लेकिन इससे यह अभिप्राय नहीं कि संसाथनों की दुर्लभता की समस्या को दूर कर लिया जाएगा ।
उत्तर औद्योगिक समाज (Post Industrial Society):
1. प्रो. डेनियल बैल ने अपनी पुस्तक The Coming of Post Industrial Society. A Venture in Social Forecasting, 1973 में स्तर औद्योगिक समाज का विश्लेषण प्रस्तुत किया । स्तर औद्योगिक समाज से आशय है कि एक सेवा समाज एवं एक ज्ञान समाज यह एक सेवा समाज इस कारण है क्योंकि इसमें रोजगार, वस्तुओं के उत्पादन से सेवाओं की उपलब्धि की ओर रूपान्तरित होता है । इस रूपान्तरण में विभिन्न अवस्थाओं के दर्शन होते हैं जिसका सम्बन्ध विविध सेवाओं की उपलब्धि से है ।
यह सेवाएँ निम्न प्रकार हैं:
(i) यातायात एवं सार्वजनिक उपयोगिता ।
(ii) वितरण-थोक एवं फुटकर व्यापार वित्त वास्तविक परिसम्पत्ति बीमा, इत्यादि ।
(iii) मनोरंजन खेल, यात्रा एवं रेस्टोरेण्ट, होटल, वाहन सेवाएँ इत्यादि ।
(iv) शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाएँ ।
(v) सरकार की वृद्धि विशेष रूप से राज्य एवं क्षेत्रीय स्तरों पर ।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यहाँ सेवाओं में व्यविठतगत प्रकार की सेवाएँ सम्मिलित नहीं हैं; जैसे- घरेलू नौकरों की सेवा इत्यादि । बेल के अनुसार यह शिक्षा, स्वास्थ, शोध एवं सरकार की सेवाएँ हैं जो स्तर औद्योगिक समाज के लिए निश्चित या असंदिग्ध हैं ।
2. उत्तर औद्योगिक समाज एक ज्ञान समाज है ।
इसके मुख्य घटक निम्न हैं:
(i) नव-प्रवर्तन के श्रोत एवं समाज हेतु नीति निर्माण के लिए सैद्धान्तिक ज्ञान का केन्द्रीय महत्व ।
(ii) तकनीकी वृद्धि का नियोजन एवं नियन्त्रण जो तकनीकी पूर्वानुमान की नयी तकनीकों से सम्पन्न हो ।
(iii) नयी बुद्धिजीवी तकनीक का सृजन जिसमें आधुनिक प्रबंध की तकनीक शामिल है जो कम्प्यूटर से सम्बन्धित है ।
(iv) पेशेवर एवं तकनीकी रोजगार की वृद्धि एवं टेकनोक्रेट एवं पेशेवर लोगों में वृद्धि ।
एक उत्तर औद्योगिक देश एक ऐसा समाज है जिसमें सरकार एक प्रधान भूमिका निभाती है । विशेष रूप से अर्थव्यवस्था के नियोजन नियन्त्रण एवं नियमन में । सेवाओं के उत्पादन में होने वाली वृद्धि में सरकारी सेवाओं की भूमिका बढ़ती हुई होती है । कई महत्वपूर्ण पक्ष एवं उपक्रमों को सरकारी की ही सहायता से चलाया जा सकता है ।
अधिक उन्नत देशों में इसके अधीन कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रम एवं पक्ष सम्मिलित रहते हैं, जैसे बाह्य अन्तरिक्ष गहरे समुद्र की खोज, न्यूकिलीय ऊर्जा, सुपरसोनिक एयर क्राफ्ट, संसाधनों का संरक्षण, पर्यावरण संवर्ग, आर्थिक वृद्धि व सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले वित्तीय मौद्रिक एवं अन्य आय इत्यादि । इन क्षेत्रों में तकनीकी नव-प्रवर्तनों के लिए विशेषज्ञों के समुचित प्रशिक्षण, शोध एवं विकास के लिए आवश्यक पूँजी का प्रबन्ध, ज्ञान की संस्थाओं के निर्माण हेतु विशेष प्रयत्न एवं प्रयास आवश्यक होते हैं ।
विकासशील देशों में सरकारी एवं सामाजिक विकास का सम्पूर्ण क्षेत्र सरकारी नियोजन व सहयोग के बिना नहीं चल सकता । सरकार इस प्रकार जटिल आर्थिक व सामाजिक प्रणालियों को नियोजित एवं नियन्त्रित करने में प्रभावशाली भूमिका प्रस्तुत करती है ।
राष्ट्रीय विकास की पुनर्परिभाषा (National Development Re-Defined):
वर्तमान समय में आर्थिक विकास के उद्देश्य अधिक व्यापक हैं । विकास के प्रतिष्ठित मॉडल में पहली औद्योगिक क्रान्ति के परिणामस्वरूप होने वाले तकनीकी नव-प्रवर्तन एवं उस संस्थागत परिवर्तन को समाहित किया गया जिसमें जागीरदारी सामतशाही पर आधारित समाज आधुनिक पूंजीवादी समाज के रूप में परिवर्तित हुआ एवं इसका मुख्य लक्ष्य आर्थिक वृद्धि था ।
आर्थिक विकास के नए मॉडल न केवल पहली एवं दूसरी औद्योगिक क्रान्ति को समाहित करते थे बल्कि संस्थागत परिवर्तनों की बदलती दशाओं को भी ध्यान में रखते थे । अब आर्थिक वृद्धि के उददेश्य में न केवल आर्थिक वृद्धि को सम्मिलित किया गया बल्कि इसके भूमि सुधार, भूख और निर्धनता के खिलाफ लड़ाई, पूर्ण रोजगार की प्राप्ति, आर्थिक स्थायित्य, पूँजी संचय व विनियोग के उच्च स्तरों की प्राप्ति तथा पर्यावरण संवर्धन व परिस्थितियों सन्तुलन के पक्षों को भी सम्मिलित किया गया । इन विविध लक्ष्यों से सम्बन्धित रहते हुए विकास का कार्य काफी जटिल तथा इन लक्ष्यों के समन्वय व एकीकरण के लिए अधिक व्यापक प्रयास व उचित आवश्यक समझे गए ।
भविष्य को देखते हुए राष्ट्रीय विकास के मॉडल की पुनर्परिभाषा करते हुए निम्नांकित बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है:
i. विकास की प्रक्रिया में आर्थिक वृद्धि का केन्द्रीय स्थान होना । यदि विकसित व विकासशील देशों के मध्य की विषमता को दूर करना हो तो आवश्यक होगा कि विकासशील देशों में वृद्धि की उच्च दरें प्राप्त की जाएँ ।
ii. आर्थिक वृद्धि जनसंख्या में होनेवाली वृद्धि स्वीकार करती है । जनांकिकीय संक्रमण को ध्यान में रखते हुए एक उचित जनसंख्या नीति या परिवार नियोजन नीति का आश्रय लेना पड़ेगा जिससे तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या को नियन्त्रित करना सम्भव बन सके ।
iii. आर्थिक वृद्धि की नीति को सम्पादित व आय के समानतापूर्ण वितरण की नीति के साथ चलना होगा । विकासशील देशों में सुधार के उपाय विशेषकर भूमि सुधार पर अधिक ध्यान देना होगा । ऐसे प्रयास करने होंगे जिनसे एक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को स्थापित किया जा सके । निर्धनता एवं भूख से मुक्ति पाने के लिए हर सम्भव प्रयास करने होंगे ।
iv. बेरोजगारी एवं अर्द्ध रोजगार के विरूद्ध युद्ध हेतु मानवशक्ति नियोजन शिक्षा एवं पूर्ण रोजगार नीति का आश्रम आवश्यक होगा ।
v. नयी तकनीक एवं नवीन प्रबन्ध विधियों का कारगर एवं कौशलयुक्त प्रयोग करना होगा । ऐसे तकनीकी नव प्रवर्तनों पर अधिक ध्यान देना होगा जो कृषि सुधार, संसाधन संरक्षण, खनिज संसाधनों के बेहतर, प्रयोग, औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र हेतु नयी तकनीक के सन्दर्भ में श्रम बचत उपायों की अपेक्षा पूँजी बचत उपायों पर आधारित ही । संक्षेप में, आधुनिक समाज को एक विवेकपूर्ण समाज बनना पड़ेगा ।
vi. आर्थिक वृद्धि की उच्च दर के साथ विनियोग के उच्च स्तर को बनाए रखना आवश्यक है । विकासशील देशों के सन्दर्भ में इससे अभिप्राय है सकल राष्ट्रीय उत्पाद में विनियोग का अधिक अंश या शेयर होना ।
vii. वास्तविक विकास तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक एक देश यह स्वीकार न कर ले कि राष्ट्रीय विकास उसका उत्तरदायित्व है । जब तक देश के निवासी अनुशासित, दृढ़ संकल्पयुक्त, लक्ष्य के प्रति समर्पित एवं एकजुट नहीं होंगे तब तक विकास के मात्रात्मक व गुणात्मक स्वरूप की प्राप्ति असम्भव है । वस्तुत: मात्र बाह्य सहायता पर आश्रित रहते हुए विकास नहीं होता ।
viii. उत्पादन की संरचना में परिवर्तन विकास हेतु अपरिहार्य है । विकास की प्रक्रिया के गतिशील होने के साथ-साथ सेवा क्षेत्र और अधिक व्यापक होता जाता है जिसमें सरकारी सेवाओं का विस्तार महत्वपूर्ण है । विकासशील देशों में उत्पादन की संरचना कृषि से विनिर्माण एवं विनिर्माण से सेवा क्षेत्र की ओर सतत् रूप से विस्तृत होती है । इन तीनों क्षेत्रों के विकास में उचित सन्तुलन होना चाहिए ।
ix. स्थायित्य पूर्ण वृद्धि के लिए अर्थिक स्थायित्व को बनाए रखना आवश्यक है । इसे उचित मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों के संयोग द्वारा प्राप्त किया जा सकेगा ।
x. 1970 के दशक से विकास क्रियाओं के प्राकृतिक वातावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर ध्यान गया है । पर्यावरण के संरक्षण एवं संवर्धन को नियोजित विकास का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य नियत किया गया है ।
xi. आर्थिक विकास प्रयासों की सफलता व्यक्तियों के आत्म अनुशासन समर्पण एवं त्याग पर निर्भर करती है । विकास हेतु अनुकूल वातावरण बनाने में संस्थाओं का योगदान महत्वपूर्ण है । विकासशील देशों में आज भी नवीन तकनीक द्वारा प्रदान किए गए अवसरों का पूर्ण लाभ लेने में असमर्थ रहे है । इसका मुख्य कारण यह है कि समाज की संरचना व दृष्टिकोण इस प्रकार नहीं बदल पायीं कि वह तकनीकी नव-प्रवर्तनों का लाभ उठाने में सक्षम बनें । कहने का अभिप्राय यह है कि संस्थाएँ इस तेजी के साथ नहीं बदल पायीं कि वह कम्प्यूटर एवं न्यूकिलीय तकनीकी का लाभ उठाने में सफल हों ।
इसे संस्थाओं का अन्तराल एवं अभौतिक संस्कृति के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है जो भौतिक संस्कृति के पक्षों से हमेशा पीछे रहते है । इस प्रवृत्ति को सांस्कृतिक अन्तराल के द्वारा अभिव्यक्त किया बा सकता है । संक्षेप में विकासशील देश में सुदृढ़ सरकार, एक विवेकपूर्ण सार्वजनिक नीति निर्धारक प्रक्रिया, एक श्रेष्ठ वैधानिक प्रणाली, सामाजिक अनुशासन, सार्वजनिक उपक्रम शीलता, एक समर्थ नियोजन प्रणाली तथा कुशल प्रशासनिक प्रणाली विकास प्रयासों के सफल क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती है ।
xii. राजनीतिक विकास की दृष्टि से क्षमता पक्ष पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है । राजनीतिक समता की वृद्धि से तात्पर्य है आर्थिक विकास की प्राप्ति के लिए सरकार की कुशलता में वृद्धि करना ।
कोलमन ने अपने अध्ययन Crisis and Sequences in Political Development 1971 में एक आधुनिक राजनीतिक प्रणाली हेतु आवश्यक विशेष क्षमता को एक समन्वित प्रत्युत्तर युक्त अपनाने योग्य एक नव-प्रवर्तन की क्षमताओं द्वारा उाभिव्यकत किया । इसमें समर्थता एवं विवेकशीलता का गुण होना भी आवश्यक है ।
आल्मंड एवं बिंधम ने अपनी पुस्तक (Comparative Politics: A Development Approach 1966) में विकास की प्रक्रिया को राजनीतिक सन्दर्भों में स्पष्ट किया ।
इल्वमैन एवं अपहौफ ने अपने अध्ययन The Political Economy of Change 1971 एवं The Political Economy of Development 1972 में राजनीतिक विकास के क्षमता पक्षों का विवेचन प्रस्तुत किया । उन्होंने राजनीतिक विकास को बदलती हुई एवं बदती हुई माँगों को पूरा करने एवं प्रेरित करने की क्षमता के द्वारा अभिव्यक्त किया ।
xiii. आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के सामाजिक पक्ष भी महत्वपूर्ण हैं । सामाजिक विकास से तात्पर्य है जीवन-स्तर, सामाजिक कल्याण सामाजिक न्याय, आपसी सहभागिता सामाजिक संरचना एवं सामाजिक प्रणाली में परिवर्तन, शहरीकरण, छोटे परिवार, सामाजिक गतिशीलता में वृद्धि इत्यादि ।
द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त कई देशों में सामाजिक सम्बन्ध तनावपूर्ण बन गए । समाज के विभिन्न वर्गों के मध्य बढ़ता हुआ वैमनस्य व कटुता, अलगाव एवं विभेद के लक्षण मुखर हो गए । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि व्यक्तिवाद की जगह सामूहिक रूप से कार्य करने की भावना विकास को गति करती है ।
xiv. द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त सार्वजनिक प्रशासन में सुधार की प्रवृत्तियाँ दिखायी दीं । एक ओर तो 1950 के दशक से कम्प्यूटर का प्रयोग बढ़ने से सार्वजनिक प्रशासन में विवेकपूर्ण व मशीनी विधि सुदृढ़ हुई । वहीं दूसरी ओर संगठन के आकार व जटिलता में होने वाली शुद्धि से सार्वजनिक प्रशासन के लिए अधिक लचीली व गतिशील विधि के अपनाए जाने की आवश्यकता हुई । इनमें एक तरफ सार्वजनिक निर्माण में प्रशासकों की भूमिका उल्लेखनीय हुई एवं विशेषज्ञों की संख्या में वृद्धि हुई ।
इसके साथ ही दूसरी तरफ संगठन के गैर-नौकरशाही स्वरूप विकसित हुए । इनमें समूह-संगठन या कमेटी परियोजना संगठन सहभागी संगठन इत्यादि पर अधिक बल दिया गया । संक्षेप में पर्यावरण अन्तर्संगठनात्मक शृंखलाओं व संगठन एवं परिवर्तन के प्रावैगिक पक्षों पर अधिक ध्यान दिया गया ।
xv. विकास की इकाई के लिए राष्ट्र-राज्य सबसे अधिक उपयुक्त है, क्योंकि विकास नीतियों को राष्ट्रीय आधार पर चलाया जाता है । वस्तुत: विश्व को एक अन्त:निर्भर विश्व की भाँति देखा जाता है । विकास की स्थितियों का अवलोकन करते हुए इसके अन्तर्राष्ट्रीय पक्षों को भुलाया नहीं जा सकता ।
विकास को प्रभावित करने वाले घटक:
विकास के एक मुख्य उददेश्य के रूप में एक राष्ट्र के निवासियों के कल्याण को सर्वोपरि मानते हुए विकास को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक निम्नांकित हैं:
1. पूंजी विनियोग,
2. सामाजिक अनुशासन व न्याय तथा कानून,
3. समानता जिसमें सम्पत्ति एवं आय का समान वितरण सम्मिलित है,
4. राजनीतिक विकास,
5. प्रशासनिक विकास,
6. जनसंख्या एवं श्रम,
7. पूर्ण रोजगार,
8. प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव,
9. कीमत एवं आर्थिक स्थायित्व,
10. भूख एवं भुखमरी के खिलाफ युद्ध,
11. भूमि एवं संसाधन,
12. सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास,
13. तकनीकी नव-प्रवर्तन,
14. संस्थागत परिवर्तन,
15. आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में परिवर्तन,
16. बाह्य घटक जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था भी सम्मिलित है ।
1998 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित प्रो. अमर्त्य सेन ने अपने शोध ग्रन्थ The Choice of Technique (जिस पर उन्हें प्रो. मारिस डाब के दिशा निर्देश में शोध प्राप्त हुई) में केवल आर्थिक वृद्धि की उच्च दरों एवं सम्पत्ति पर ही ध्यान केन्द्रित नहीं किया बल्कि विकासशील देश के नागरिकों के जीवन की बेहतर गुणवत्ता एवं समता के साथ विकास की दशाओं को अपने अध्ययन का मुख्य विषय बनाते हुए सामाजिक चुनाव एवं निर्धनता पर विस्तार से लिखा ।
उनके अनुसार जीवन की गुणवत्ता विकास का मुख्य निर्देशांक है और विकासशील देशों को अपना मुख्य ध्यान व्यक्तियों को स्वास्थ्य व शिक्षा के बेहतर आयाम देने में लगाना चाहिए । उन्होंने सामाजिक चुनाव के पक्षों पर ध्यान केन्द्रित करते हुए सरकार द्वारा चुनी नीतियों द्वारा निर्धनता के निराकरण हेतु किए जा रहे प्रयासों को आवश्यक ठहराया । उन्होंने सार्वजनिक क्रियाओं द्वारा निर्धनता को दूर करने की नीति को उपयुक्त माना व कहा कि इसे स्वतन्त्र बाजार की क्रियाओं पर छोड़ दिया जाना तर्कसंगत नहीं है ।