आर्थिक विकास का शास्त्रीय मॉडल | Read this article in Hindi to learn about the classical model of development with its decline.
1750 के उपरान्त विकास की प्रवृत्तियों को दो समय अवधियों में बाँट कर अध्ययन किया जाना सम्भव है । पहली अवधि 1750 से 1914 की है व दूसरी द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त । 1750 से 1913 के मध्य की अवधि में पश्चिमी यूरोप एवं उत्तरी अमेरिका के आधुनिकीकरण की प्रवृत्तियों को प्रतिष्ठित मॉडल द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है ।
i. विकास को प्रतिष्ठित सिद्धान्त आधुनिक समाज के सामान्य लक्षण पर आधारित था जिसमें आर्थिक विकास को विशेष महत्व दिया गया था । उन्नीसवीं शताब्दी में आर्थिक विकास को राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि के रूप में देखा गया ।
इससे पूर्व वणिक वादियों ने आर्थिक विकास को एक लक्ष्य नहीं बल्कि राष्ट्र-राज्य के निर्माण का साधन माना । उन्होंने एक राष्ट्र की सम्पत्ति के प्रश्न को एक संचालित कोष के रूप में देखा जिसमें होने वाली वृद्धि राज्य की दशा को समृद्ध करती ।
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ii. प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने वार्षिक उत्पादन को महत्ता दी । इस प्रकार एक राष्ट्र का वार्षिक उत्पादन या आय प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण थी जिसने आर्थिक विकास सिद्धान्त में एक प्रभावशाली भूमिका प्रस्तुत की । उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय आय में होने वाली तीव्र वृद्धि आधुनिक तकनीक के प्रयोग व उत्पादन के पूंजीवादी तरीके को अपनाने से सम्भव बनी ।
मुख्य प्रवृत्तियाँ निम्न रहीं:
(a) मशीनें पूँजीपति द्वारा उपलब्ध करायी गयीं ।
(b) श्रमिक उत्पादन के साधनों के स्वामी नहीं थे वह केवल मजदूरी प्राप्तकर्ता थे ।
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(c) श्रम विभाजन का उच्च अंश विद्यमान था अर्थात् फलनात्मक विशिष्टता तथा संरचनात्मक विभिन्नता का उच्च अंश विद्यमान था ।
(d) उत्पादन प्रत्यक्ष उपभोग के लिए नहीं बल्कि बाजार के लिए किया जाता था ।
(e) अर्थव्यवस्था बाजार अर्थव्यवस्था बन गयी जिसमें उत्पादक एक दूसरे से प्रतियोगिता करते थे तथा एक स्वयं संचालित प्रक्रिया के द्वारा क्रियाएँ संचालित होती थीं एवं सन्तुलन की प्राप्ति सम्भव होती थी ।
(f) बाजार अर्थव्यवस्था स्वतन्त्र प्रतियोगिता की मान्यता पर आधारित थी जिसमें माना गया था कि उत्पादन बढ़ती लागतों व घटकों या घटते प्रतिफल के अधीन होता था ।
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(g) बाजार की स्वयं संचालित प्रवृत्ति के कारण सरकारी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं थी । वस्तुएँ उपभोक्ता पर एवं उत्पादन विशेषत: निजी उपक्रमियों पर छोड़ दिए गए थे ।
(h) यह एक निजी उपक्रम प्रणाली, स्वतन्त्र उपक्रम प्रणाली एवं एक व्यक्तिगत प्रणाली थी ।
(i) अर्थव्यवस्था समर्थ रूप से कार्यशील थी जिसे राष्ट्रीय सम्पत्ति व राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता था ।
(j) संरचनात्मक रूप से विनिर्माण सापेक्षिक रूप से बढ़ रहा था तथा कृषि क्षेत्र की कमी हो रही थी जिसे औद्योगीकरण की प्रक्रिया द्वारा सम्बोधित किया गया ।
(k) आर्थिक निर्णय विवेक के आधार पर लिये जा रहे थे तथा विवेकपूर्ण विधियों एवं तरीकों को प्रयोग किया जा रहा था ।
(l) माना गया कि आधुनिक तकनीक व भूमि प्राकृतिक संसाधन दिए हुए है अर्थात् परिवर्तनों को अनदेखा किया गया ।
(m) माना गया कि माँग हमेशा पूर्ति के समकक्ष होती है व मुद्रा निष्क्रिय होती है । इस प्रकार प्रतिसार व बेरोजगारी की दशाओं को स्वयं संचालित प्रक्रिया द्वारा सुधारने की बात कही गई ।
iii. उन्नीसवीं शताब्दी में प्रतिष्ठित विचारधारा के अधीन यदि आर्थिक वृद्धि एकल राष्ट्रीय उत्पादन की वृद्धि के सन्दर्भ में आर्थिक विकास का मूल्यांकन किया जाए तो इसे एक सफलता कहा जा सकता है । साइमन कुजनेट्स ने आर्थिक वृद्धि की परिभाषा में- (1) उत्पादन की वृद्धि एवं (2) प्रति व्यक्ति उत्पाद की वृद्धि को सम्मिलित किया ।
इसे निम्न प्रवृत्तियों के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है:
मध्य युग में आर्थिक वृद्धि की दर शून्य या ऋणात्मक थी, वर्ष 1,000 से 1750 तक पश्चिमी यूरोप में प्रति व्यकित आय की वार्षिक औसत वृद्धि 0.1 प्रतिशत वार्षिक थी । 1770 से 1870 के मध्य प्रति व्यकित सकल राष्ट्रीय उत्पाद की औसत वृद्धि दर पश्चिम में 1 प्रतिशत के आसपास थी ।
1870 से 1913 के मध्य यू.के. एवं यू.एस.ए. में प्रति व्यक्ति आय लगभग साढ़े पाँच गुना बढ़ी । इस अवधि में यू.एस.ए. में जनसंख्या वृद्धि 27 गुना तथा सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 150 गुनी वृद्धि हुई । यू.के. में जनसंख्या 4.4 गुना व सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 24 गुनी वृद्धि हुई । इस अवधि में सकल राष्ट्रीय उत्पाद, जनसंख्या एवं प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि जर्मनी में क्रमश: 33.2 प्रतिशत, 13.6 प्रतिशत व 18.5 प्रतिशत, रूस (1860) में क्रमश: 30.2 प्रतिशत, 13.8 प्रतिशत व 14.4 प्रतिशत तथा जापान (1860) में 37.8 प्रतिशत, 10.9 पतिशत व 24.3 प्रतिशत थी ।
iv. उन्नीसवीं शताब्दी में अर्थव्यवस्थाएँ दुर्बलताओं से मुक्त नहीं रहीं । व्यापक निर्धनता आय का विषम वितरण पूंजीपतियों व श्रमिकों के मध्य बढ़ता संघर्ष, व्यापारिक प्रतिसार, बेरोजगारी व उपनिवेशों का फैलाव ऐसे कुछ मुख्य लक्षण थे । निर्धनता के प्रश्न पर प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का आश्रय लेते हुए निर्धनों को उनकी विपन्नता का कारण ठहराया, वठयोंकि वह बहुत अधिक बच्चों को जन्म देते थे ।
संक्षेप में, प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व विकास स्थितियों को निम्न मुख्य प्रवृतियों से अभिव्यक्त किया जा सकता है:
(1) तकनीकी क्रान्ति,
(2) स्वतन्त्र उपक्रम प्रणाली के अधीन पूँजीवाद,
(3) संगठन का नौकरशाही स्वरूप, विशेष रूप से सार्वजनिक प्रशासन में,
(4) प्रतिनिधि सरकार की प्रणाली के अधीन राजनीतिक प्रजातन्त्र,
(5) राष्ट्रवाद या राष्ट्र-राज्य का निर्माण,
(6) भौतिकवादी एवं मशीनी संस्कृति ।
प्रतिष्ठित मॉडल का पतन (Decline and Fall of Classical Model):
उन्नीसवीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप व उत्तरी अमेरिका में सफल होने के बावजूद प्रतिष्ठित मॉडल विवाद एवं कमियों से मुक्त नहीं रह पाया । राष्ट्र-राज्य के निर्माण, राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि एवं देशी व्यापार की वृद्धि के बाद भी घरेलू अर्थव्यवस्था में निर्धनता व विदेशों में उपनिवेशों का फलना-फूलना जारी रहा ।
प्रतिष्ठित मॉडल के पतन के कारणों व परिस्थितियों का संक्षिप्त अवलोकन निम्न बिन्दुओं के द्वारा सम्भव है:
(i) सकल राष्ट्रीय उत्पाद में होने वाली वृद्धि ने खुशहाली उत्पन्न नहीं की बल्कि विपिन देशों के मध्य व देशों के भीतर आय के विषम वितरण की स्थिति उत्पन्न की ।
(ii) आर्थिक वृद्धि की प्राप्तियों को आर्थिक अस्थायित्व व समय-समय पर उत्पन्न होने वाली बेकारी की कीमत चुकानी पड़ी । मशीनी तकनीक व संगठन के नौकरशाही स्वरूप के विवेकपूर्ण व समर्थ होने के बावजूद यह व्यविठतत्त्व शून्य एवं अमानवीय था ।
(iii) प्रतिष्ठित मॉडल के आलोचकों में कार्ल मार्क्स व उसके अनुयायियों का मत है कि पूँजीवादी प्रणाली एवं सरकार का प्रतिनिधि स्वरूप ऐसा था जिसमें श्रमिकों का शोषण किया जा सके । इससे पूंजीपति एवं श्रमजीवी वर्ग के मध्य वर्ग संघर्ष बढ़ता गया । बाजार अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्धा के बजाय व गलाकाट प्रतियोगिता बढ़ती गई । आय की विषमता में वृद्धि होती गई तथा पूंजीवादी व्यवस्था अन्तत पतन को प्राप्त हुई ।
(iv) यद्यपि प्रतिष्ठित मॉडल, मार्क्स के पूर्वानुमान के अनुरूप अन्तिम परिणति को प्राप्त नहीं हुआ लेकिन 1914 में इसका पतन हो गया । बढ़ते हुए साम्राज्यवादी शिकंजे और उपनिवेशों के लिए संघर्ष तथा प्रतिष्ठित प्रणाली की अन्य विसंगतियों से घटनाओं की ऐसी शृंखला उत्पन्न हुई जिससे उन्नीसवीं शताब्दी की यह प्रणाली बिखर गयी ।
इन घटनाओं में रूस की बोल्शेविक क्रान्ति, अतिस्फीति एवं कई पश्चिमी यूरोपीय देशों में फासीवाद का उदय होना था । तीसा की महामंदी ने बाजार अर्थव्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न कर दिए थे तथा विदेशी व्यापार के ढाँचे को तोड़कर रख दिया था । एकाधिकारात्मक प्रवृत्तियाँ बढ़ी तथा यू.एस.एस.आर व जापान के अभ्युदय ने विश्व शविठत के ध्रुवीकरण को चरितार्थ किया । इनके साथ ही महत्वपूर्ण तकनीकी, संस्थागत, सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तनों ने आपस में संयोजित होकर प्रतिष्ठित मॉडल की बुनियाद को हिला दिया ।
(v) स्वतन्त्र उपक्रम के रूप में पूँजीवाद एवं प्रतिनिधि सरकार के रूप में प्रजातन्त्र को तीन ओर से आक्रमण झेलना पड़ा । इनमें प्रथम, कार्ल मार्क्स के अनुयायी थे जो पूँजीवादी प्रणाली के साथ पश्चिमी प्रजातन्त्र के पतन के सिद्धान्त को लेकर चल रहे थे । दूसरा, फ्रेंकलिन डी. रूजवेल्ट जैसे राजनेता, जार्ज मेनार्ड कींज जैसे अर्थशास्त्री कल्याणकारी राज्य के समर्थक थे जो प्रतिष्ठित मॉडल को सरकारी हस्तक्षेप एवं सुधार के उपायों से सम्बन्ध करना चाहते थे ।
तीसरा, फासिज्म की ओर से उत्पन्न प्रतिक्रियात्मक आन्दोलन था । यह प्रतिक्रियात्मक शनिठतयाँ विश्व को सत्ता द्वारा शासित करना चाहती थीं । द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने पर प्रतिष्ठित मॉडल को पुन: आघात पहुँचा तथा आधुनिक विकास का एक नया पक्ष प्रारम्भ हो गया ।