आर्थिक विकास वांछनीय है? | Read this article in Hindi to know whether economic development is desirable or not.

अल्प विकसित देशों के लोग अपनी निर्धनता और समृद्ध देशों की तुलना में अपनी विषमता के प्रति बहुत सचेत हैं । वे इस सम्बन्ध में कुछ करने की तीव्र इच्छा रखते हैं । अल्प-विकसित देश सदैव हमारे साथ रहे हैं, परन्तु अब नई बात यह है कि अब वह इस सम्बन्ध में कुछ करने के लिये वह अधिक दृढ-निश्चयी हो गये हैं ।

दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् लैटिन अमरीका, अफ्रीका, मध्य पूर्व एशिया और यूरोप के कुछ देश अधिक विकास प्रवृतिक मन के हो गये हैं । इनमें से अनेक देशों ने आर्थिक विकास की योजनाओं का निर्माण और कार्यान्वयन किया है ।

इनमें जागृति और दृढ़ निश्चय की भावना उद्योगीकृत देशों की आर्थिक प्राप्तियों को देख कर उत्पन्न हुई है । कुछ अर्थशास्त्रियों ने इसे “अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शन प्रभाव” (International Demonstration Effect) का नाम दिया है ।

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आर्थिक रूप में उन्नत देशों के लोगों के जीवन स्तर और उन के अपने जीवन स्तर में विद्यमान तीव्र विषमता से उनसे छुपी नहीं रह पायी । इसी ने, किसी भी कीमत पर, तीव्र विकास की बढ़ती हुई मांग को जन्म दिया ।

अल्प-विकसित देशों में अधिक-से-अधिक लोगों ने अनुभव कर लिया है कि उनकी निर्धनता न तो आवश्यक है और न ही अनिवार्य । लोगों के इस अनुभव ने सुधार हेतु एक प्रोत्साहक का कार्य किया है ।

आर्थिक विकास में बढ़ते हुये दबाव का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण यह तथ्य है कि बहुत से अल्प-विकसित देश वर्षों के उपनिवेशन के पश्चात् हाल ही में स्वतन्त्र हुये हैं । अत: आर्थिक विकास के लिये उनकी इच्छा प्राकृतिक है ।

इन देशों में सामान्य राय यह है कि इन देशों की निर्धनता के लिये उपनिवेशी व्यवस्था अधिक उत्तरदायी थी और इस व्यवस्था की समाप्ति से लोगों को आशा है कि उनकी स्थितियों में सुधार होगा ।

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अत: इन देशों की नई सरकारों को विकास कार्यक्रमों की अत्यधिक आवश्यकता है । मार्क्स वादी विश्लेषण ने भी आर्थिक विकास की मांग को तीव्र करने में योगदान दिया है ।

मार्क्स ने कहा है- ”औद्योगिक रूप में अधिक विकसित देश कम विकसित देशों के भविष्य का चित्र प्रस्तुत करते हैं ।” इस अवलोकन ने अल्प-विकसित संसार की आर्थिक विकास की प्रत्याशाओं को पर्याप्त दृढ़ता प्रदान की है ।

अर्द्ध शताब्दी से भी कम समय में कुछ समाजवादी देशों के तीव्र आर्थिक विकास ने एक भिन्न समाज-आर्थिक व्यवस्था के अधीन पिछड़े क्षेत्रों में तीव्र आर्थिक उन्नति के लिये उच्च आशाएं उत्पन्न कर दी हैं । उन्हें बता दिया है कि अल्प काल में तीव्र आर्थिक विकास सम्भव है ।

पूंजीवादी और साम्यवादी देशों की दो भिन्न समाज-आर्थिक व्यवस्थाएं निर्धन देशों के विकास के लिये कड़ी प्रतियोगिता में हैं । प्रत्येक व्यवस्था के समर्थक अपनी प्रणाली को पिछड़े क्षेत्रों के लिये सर्वोत्तम मानते हैं । इस प्रकार की प्रतिस्पर्द्धा ने निर्धन देशों के आर्थिक विकास के संघर्ष को अतिरिक्त प्रोत्साहन दिया है ।

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अन्त में, निर्धनतर देशों का विकास सम्पूर्ण संसार के हित में भी है । विश्व के हित मांग करते हैं कि निर्धनतर देशों का समृद्ध होना आवश्यक है । निर्धन एवं समृद्ध देशों (जो लगातार समृद्ध हो रहे हैं) में विभाजित संसार एक स्थिर विश्व नहीं हो सकता । यह स्थिति आवश्यक रूप में संघर्ष की ओर ले जायेगी ।

एक बात जो अधिक महत्व रखती है वह यह है कि यदि इन देशों को सामान्य समृद्धि का एक हिस्सा प्राप्त नहीं होता तो निर्धनतर देशों में स्थितियां अनिवार्य रूप में अधिक कठिन हो जायेंगी । समृद्धि और निर्धनता के बीच बढ़ते हुये अन्तराल के कारण विश्व के दो हिस्सों के बीच सद्भाव निरन्तर घटता जायेगा ।

आर्थिक, राजनीतिक और संयुक्त मानवीय हित को ध्यान में रखते हुये, विकास के दावे निर्धन देशों में बढ़ती हुई दर और आग्रह से तीव्रता पकड़ रहे हैं । संसार यह अनुभव कर रहा है कि ऐसी स्थिति को अनिश्चित काल तक सहन नहीं किया जा सकता ।

‘निर्धनता कहीं भी हो यह समृद्धि के लिये प्रत्येक स्थान पर खतरा है ।’

(“Poverty anywhere is a Threat to Prosperity everywhere”) यदि स्थायी शांति प्राप्त करनी है तो अल्प-विकसित संसार की राजनैतिक स्वाधीनता तथा इससे पहले वहां की सामाजिक एवं आर्थिक स्वाधीनता आवश्यक है अर्थात् निर्धनता, अज्ञानता और रोग से मुक्ति आवश्यक है ।