एक देश के पर्यावरण संबंधी मुद्दों और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about the environmental issues and economic development of a country.
पर्यावरण विकास और अर्थव्यवस्था के बीच सम्बन्ध का आर्थिक विश्लेषण, विकासात्मक प्रयत्नों के सफल आरम्भण के लिये पर्यावरणीय समस्याओं की समझ को आवश्यक बना देता है ।
यह मान्य है कि निर्धनता और पर्यावरणीय अधोगति के बीच अन्योन्य क्रिया एक स्ववर्धक प्रक्रिया में परिमाणित हो सकती है जिसमें लोग उन महत्वपूर्ण साधनों को समाप्त कर सकते हैं जो उनके जीवन के लिये अति महत्वपूर्ण है ।
पर्यावरणीय अधोगति, स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चों की उच्च लागतों एवं साधनों की घटी हुई उत्पादकता के साथ आर्थिक विकास की गति को और भी रोक सकती है । इसलिये कुछ मौलिक विषय विकास के पर्यावरण को परिभाषित कर सकते हैं ।
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ये विषय हैं:
(i) सतत विकास की धारणा और पर्यावरण के बीच संयोजन,
(ii) जनसंख्या और साधन,
(iii) निर्धनता,
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(iv) आर्थिक वृद्धि,
(v) ग्रामीण विकास,
(vi) शहरीकरण,
(vii) वैश्विक अर्थव्यवस्था ।
1. सतत विकास और पर्यावरण के बीच संयोजन (Sustainable Development and Its Linkage with Environment):
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पर्यावरण-शास्त्रियों ने आर्थिक वृद्धि और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच सन्तुलन को स्पष्ट करने के लिये एक प्रयास के रूप में ‘सततीयता’ शब्द का निर्माण किया है ।
सततीयता का अर्थ है विकास के एक प्रतिरूप की प्राप्ति जो उत्पादन को कम नहीं करता भविष्य की पीढ़ियों को हानि पहुंचाये बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिये अपनी योग्यताओं को बदलता है ।
सततीयता की अन्य परिभाषाएं भी हैं । यह भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से समझौता किये बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास है । अर्थशास्त्री विकास मार्ग को तभी सतत मानते हैं यदि समय के साथ पूंजी सम्पत्ति का भण्डार निरन्तर बना रहता है अथवा बढ़ता है ।
इस कथन से स्पष्ट है कि भविष्य की वृद्धि तथा जीवन की समग्र गुणवत्ता विशेषतया पर्यावरण की गुणवत्ता पर निर्भर करती है जिसमें प्राकृतिक साधन, देश का आधार, वायु जल और भूमि की गुणवत्ता जो समस्त पीढ़ियों की सांझी विरासत का प्रतिनिधित्व करती है सम्मिलित हैं ।
इस सीमित प्राकृतिक सम्पदा के अन्धाधुन्ध प्रयोग से बचने के लिये पर्यावरण आयोजन और व्यवस्था की आवश्यकता है ताकि समष्टिनिष्ठ स्तर पर नीति निर्णय पर्यावरण कारकों पर आधारित हो ।
पीयरसे (Pearce) दिखाए और वारफोर्ड (Warford) के अनुसार समग्र पूंजी सम्पत्ति में न केवल निर्मित पूंजी (यन्त्र, कारखाने और सड़कें) सम्मिलित हैं बल्कि मानवीय पूंजी (ज्ञान, अनुभव, निपुणता और पर्यावरण पूंजी (वन, भूमि की गुणवत्ता, भूमि का फैलाव) भी सम्मिलित हैं ।
इस परिभाषा के अनुसार, सतत विकास के लिये आवश्यक है कि समग्र पूंजी सम्पत्ति कम न हो और सतत राष्ट्रीय आय अथवा सतत शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद का सही माप वह मात्रा है जिसका उपभोग पूंजी मात्रा को घटाये बिना किया जा सकता है ।
संकेतक रूप में, NNP = GNP – Dm – Dn
जहां NNP सतत राष्ट्रीय आय है, Dm निर्मित पूंजी सम्पत्ति का मूल्यह्रास है तथा Dn पर्यावरणीय पूंजी का मूल्यह्रास है ।
NNP = GNP – Dm – Dn – R – A
जहां Dm और Dn पहले जैसे हैं, R पर्यावरणीय पूंजी (वायु प्रदूषण, जल और मृदा की गुणवत्ता) के विनाश को रोकने के लिये वांछित व्यय है ।
2. जनसंख्या, साधन और पर्यावरण (Population, Resources and Environment):
पर्यावरणीय विषयों पर अधिक चिन्ता इस बोध से उत्पन्न होती है कि हम लोगों की संख्या की उस सीमा तक पहुंच गयी हैं जिनकी आवश्यकताएं धरती के सीमित साधनों द्वारा पूरी की जा सकती है ।
नई प्रौद्योगिकीय खोजों की क्षमताओं की उपस्थिति में यह सम्भव हो सकता है और नहीं भी परन्तु यह स्पष्ट है कि तीव्र पर्यावरणीय अधोगति के मार्ग पर चलते हुये, वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई का सामना करना पड़ेगा ।
अत: जनसंख्या वृद्धि दर को धीमा करने से ही पर्यावरणीय समस्याएं कम होंगी, परन्तु इसके लिये राष्ट्रीय सरकारों को ऐसी आर्थिक एवं संस्थानिक परिस्थितियों की रचना करनी होगी जो इस कार्य में सहायक हों ।
तीसरे विश्व के देशों की तीव्रतापूर्वक बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि, जल तथा ईंधन के लिये लकड़ी का अभाव हो गया है और सफाई एवं स्वच्छ जल के अभाव में शहरी स्वास्थ्य संकट उत्पन्न हो गया है ।
अत: यदि हम पर्यावरणीय अधोगति को बढ़ाना जारी रखते हैं तो यह वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं की पूर्ति की क्षमता को बुरी तरह से हानि पहुंचायेगा ।
इसलिये, जन्म दर घटाने के लक्ष्य से उचित जनसंख्या नीति का निर्माण आवश्यक है क्योंकि इससे बहुत सी पर्यावरणीय समस्याओं की गहनता कम होगी ।
बहुत से निर्धन देशों में, बढ़ती हुई जनसंख्या के घनत्व ने उन्हीं साधनों का घोर विनाश किया है जिन पर वहाँ की जनसंख्या जीवन के लिये निर्भर है । वर्तमान साधनों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिये इस प्रक्रिया को रोकना होगा, जिससे अधिक लोगों को विशेषतया निर्धन लोगों को लाभ होगा ।
3. निर्धनता और पर्यावरण (Poverty and Environment):
उच्च जनन क्षमता दर को प्राय: निर्धनता से सम्बन्धित समस्याओं का कारण माना जाता है । उदाहरण के रूप में चीन में प्रति एकड़ कृषि योग्य भूमि का जनसंख्या घनत्व भारत से दुगना है फिर भी उत्पादन भी दुगना ही है ।
यद्यपि यह स्पष्ट है कि पर्यावरणीय विनाश और उच्च उर्वरकता साथ-साथ चलते हैं, वे दोनों एक तीसरे भाग के प्रत्यक्ष परिणाम है अर्थात् निरपेक्ष निर्धनता । यदि सरकार वास्तव में अपनी पर्यावरणीय नीतियों की सफलता चाहती है तो इस समस्या का समाधान आवश्यक है ।
समस्याएं जटिलतापूर्वक, भूमिहीनता, निर्धनता, संस्थागत साधनों तक पहुंच के अभाव, असुरक्षित भूमि काश्तकारी अधिकारों, साख एवं आगतों के अभाव से सम्बन्धित है और सूचना की अनुपस्थिति प्राय: निर्धन लोगों को साधन-संवर्धक निवेशों से रोकती है जो उन पर्यावरणीय सम्पत्तियों के संरक्षण में सहायता करते हैं जिनसे वे अपनी जीविका प्राप्त करते हैं ।
इसलिये पर्यावरणीय अधोगति से बचाव निर्धन लोगों को व्यर्थ बैठ कर पर्यावरणीय अधोगति को देखने के स्थान पर संस्थागत सम्बर्द्धन की व्यवस्था को आवश्यक बनाती है । अत: मानव जाति की मौलिक आवश्यकताओं के अनुकूल पर्यावरणीय संरक्षण के लक्ष्य निर्धारित करना आवश्यक है ।
4. वृद्धि एवं पर्यावरण (Growth and Environment):
पर्यावरणीय विनाश के सबसे बुरे कर्ता धरती के लाखों समृद्धतम और लाखों निर्धनतम लोग हैं । इसलिये, यह कहना सही नहीं होगा कि केवल निर्धन लोग ही पर्यावरण की हानि के लिये उत्तरदायी है, यद्यपि अधिक दोष उन्हें ही दिया जाता है ।
इसका अभिप्राय यह है कि यदि निर्धनतम लोगों की आर्थिक स्थिति सुधरती है तो पर्यावरण के संरक्षण को सहायता प्राप्त होगी । यद्यपि यदि आर्थिक वृद्धि के कारण सब लोगों की आय और उपभोग का स्तर ऊपर उठता है तो पर्यावरणीय विनाश में भी स्वत: वृद्धि होगी ।
अत: आर्थिक विकास की प्राप्ति और पर्यावरणीय अधोगति को न्यूनतम बनाये रखना एक छोटा कार्य नहीं है । यह अनुभव किया गया है के उचित पर्यावरणीय प्रबन्ध वास्तव में वृद्धि दर में योगदान कर सकता है ।
यही कारण है कि बढ़ती हुयी संख्या में देश सतत विकास के लिये कार्यक्रम और नीतियों का निर्माण करने में व्यस्त हैं- अर्थात् “विकास की प्राप्ति के अधिकार को पूरा करना आवश्यक है ताकि वर्तमान एवं भविष्य की पीढ़ियों की विकासात्मक और पर्यावरणीय आवश्यकताओं को उचित रूप में पूरा किया जा सके ।”
पर्यावरणीय अर्थशास्त्र के नियम सुधरे हुये राष्ट्रीय पर्यावरणीय प्रबन्ध का आधार प्रस्तुत करते हैं । इस प्रयोजन से सामाजिक लाभों और सामाजिक लागतों को पहचानना आवश्यक है और इन लाभों और लागतों की समपार्श्विका का ध्यान रखा जाना चाहिये ।
बाध्यताओं का अस्तित्व एक महत्त्वपूर्ण कारक है जो आर्थिक दक्षता की प्राप्तियों को रोकता है । बाध्यताओं का सम्बन्ध किसी आर्थिक इकाई (एक फर्म, एक उपभोक्ता अथवा एक उद्योग) के दूसरों पर लाभप्रद अथवा हानिकारक प्रभावों से होता है ।
लाभप्रद बाध्यताएं बाहरी मितव्ययताओं के रूप में जानी जाती हैं और हानिकारक बाध्यताओं को बाहरी अभितव्ययताऐं कहा जाता है । जब एक आर्थिक इकाई अन्यों के लिये लाभों की रचना करती है जिसके लिये उसे कोई भुगतान नहीं होता तो बाहरी मितव्ययताएं विद्यमान होती हैं ।
दूसरी ओर, बाहरी अभितव्ययताऐं तब होती हैं जब एक आर्थिक इकाई अन्यों पर लागतें थोपती है जिसके लिये उसे भुगतान की आवश्यकता नहीं । बाध्यताएं बाहरी मितव्ययताओं और बाहरी अभितव्ययताओं दोनों को प्रच्छन्न करती है ।
आर्थिक विकास बाध्यताओं की ओर ले जाता है । बाध्यताओं की अनुपस्थिति में, उत्पादकों और उपभोक्ताओं द्वारा किये गये सभी खर्चे तथा प्राप्त किये गये सभी लाभ बाजार कीमतों में प्रतिबिम्बित किये जायेंगे तथा निजी और सामाजिक लागतों (अथवा लाभों) के बीच कोई विचलन नहीं होगी ।
किसी के कार्यों के लाभों और लागतों को तब आन्तरिकृत कहा जाता है जब किसी को उसे पूर्णतया वहन करना पड़ता है । बहुत से प्रकरणों में, बाध्यताओं का आन्तरिकीकरण इतनी सरलता से पूरा नहीं होता हे ।
एक सार्वजनिक अच्छाई वह है जो सबको लाभ पहुंचाती है तथा एक व्यक्ति द्वारा उसका उपभोग किसी भी प्रकार अन्यों को उसकी उपलब्धता कम नहीं करता । ऐसी अच्छाई का एक अच्छा उदाहरण स्वच्छ वायु और राष्ट्रीय सुरक्षा है ।
एक सार्वजनिक बुराई अथवा बुरी स्थिति वह है जो एक गैर-थकाऊ ढंग से अन्यों के कल्याण को कम करती है । मानवीय प्रकृति जैसी है तथा यह तथ्य कि व्यक्ति अपने कार्यों से सम्बन्धित पूर्ण लागतों का भुगतान नहीं करते, इससे अत्यधिक सार्वजनिक बुराई होगी जिसके सामाजिक रूप में अवांछित प्रभाव होंगे ।
इसे रोकने के लिये, बेहतर मूल्य नीतियां एवं दक्ष आवश्यकताएं लागू करने की जरूरत है ताकि दुर्लभ साधनों का अनुकूलतम प्रयोग किया जा सके । जहां उपभोक्ताओं को उत्पादन से कम लागत पर दुर्लभ साधन उपलब्ध किये जाते हैं, वहां कृत्रिम दुर्लभताएं उत्पन्न हो गई हैं ।
नियन्त्रणों के कारण ऐसी रियायतें प्राय: उच्च आय वाले लोगों को लाभ पहुंचाती हैं । अत: रियायतों के कारण लाभ, निर्धन एवं सीमान्त किसानों की लागत पर समृद्ध किसानों को प्राप्त होते हैं ।
इसलिये, एक न्यायसंगत मूल्य नीति तथा कर-रियायत प्रक्रिया का इस प्रकार अनुकरण किया जाये कि दुर्लभ साधनों का अनुकूलतम प्रयोग हो तथा पर्यावरण की सुरक्षित रहे । इससे सामाजिक कल्याण में निश्चित रूप में वृद्धि होगी ।
5. ग्रामीण विकास और पर्यावरण (Rural Development and Environment):
निर्धन देशों में तीव्रतापूर्वक बढ़ती हुई जनसंख्या की बढ़ती हुई आहार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनुमान लगाया गया है कि इन देशों में खाद्य पदार्थों के उत्पादन को दुगना किया जाये ।
इन देशों में भूमि के उपयोग पर अत्याधिक दबाव को ध्यान में रखते हुये, खाद्य पदार्थों के उत्पादन को दुगना करना एक बहुत कठिन कार्य है । इसके लिये अभिवृत्तियों, नीतियों, प्रयोग और कृषि क्षेत्र को उपलब्ध साधनों की मात्रा में आधारभूत परिवर्तन की आवश्यकता है ।
स्त्रियां, जोकि इन साधनों में से अधिकांश की रखवाल हैं, को आगे लाकर पर्यावरणीय कार्यक्रमों से जोड़ना चाहिये ताकि पर्यावरणीय हितैषी निर्धनता आबंटन प्रयास कुछ उन्नति कर सकें जिससे उनकी असतत तथा पर्यावरणीय रूप में उत्पादन की हानिकारक विधियों पर अधिक निर्भरता प्रकट होती है ।
वास्तव में, स्त्रियों को आने वाली विपत्ति और उत्पादन के परम्परागत ढंगों में कुछ सुधार लाने की आवश्यकता के सम्बन्ध में ग्रामीण लोगों को सचेत करने के लिये सम्मिलित किया जाना चाहिये । यदि उत्पादन की परम्परागत विधियां बिना किसी रुकावट के जारी रहती हैं तो पर्यावरण खतरे में पड़ेगा ।
6. शहरी विकास और पर्यावरण (Urban Development and Environment):
जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण जनसंख्या का ग्रामीण एवं शहरी आधार पर विभाजन हुआ है क्योंकि निर्धन लोग नौकरियों तथा बेहतर जीवन स्थितियों की तलाश में गांवों से आकर शहरों में बस गये हैं । इससे शहरों की जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है ।
कभी-कभी यह वृद्धि दर प्राकृतिक (जनसंख्या) वृद्धि दर से दुगनी हो जाती है । यह चिन्ताजनक स्थिति पर्यावरणीय संरक्षण के लिये एक जोखिमपूर्ण अपशगुन है । फलत: बहुत कम सरकारें वर्तमान शहरी जल पूर्ति और सफाई सुविधाओं के बढ़े हुये बोझ का सामना करने के लिये तैयार हैं ।
इससे उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय बुराइयां लोगों की बढ़ती हुई जनसंख्या को अत्याधिक स्वास्थ्य जोखिमों का सामना करने के लिये विवश कर देती हैं । ऐसी स्थितियां वर्तमान शहरी संरचना को अस्तव्यस्त कर देती है और ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है जो महामारियों और राष्ट्रीय स्वास्थ्य संकटों को जन्म देती हैं ।
ये स्थितियां, इस तथ्य के कारण और भी कटु हो जाती हैं कि वर्तमान कानून व्यवस्था के अन्तर्गत अधिकांश शहरी गृह अवैध है । इससे निजी घरेलू निवेश जोखिमपूर्ण हो जाते हैं तथा शहरी जनसंख्या के बड़े भाग को सरकारी सेवाओं के अयोग्य बना देते हैं ।
संकलन, वाहनों और उद्योगों का धुआं तथा कम प्रकाश और हवा वाले घर शहरी जनसंख्या की पर्यावरणीय लागतों को और भी बढ़ा देते हैं । रुग्ण श्रमिकों की खोई हुई उत्पादकता, विद्यमान जल साधनों का दूषण, संरचना का नाश और इसके अतिरिक्त दैनिक प्रयोग के लिये जल को उबालने पर होने वाला ईंधन व्यय कुछ ऐसी सामाजिक-आर्थिक लागतें हैं जो निर्धन देशों को करनी पड़ती हैं ।
शोधकर्त्ताओं ने चेतावनी दी है कि शहरी जनसंख्या के घटने के कोई संकेत दिखाई नहीं देते और सीमान्त पर्यावरणीय लागतें दिन-प्रतिदिन बढ़ती रहेंगी जब तक कि शहरी विकास को उचित ढंग से व्यवस्थित करने के लिये ईमानदारी से प्रयत्न नहीं किये जाते ।
7. सार्वभौम पर्यावरण (Global Environment):
सम्पूर्ण विश्व की जनसंख्या और आय वृद्धि के साथ सार्वभौम पर्यावरणीय अधोगति और भी बिगड़ेगी । एकदम आतंकित हो जाने के स्थान पर सार्वभौम पर्यावरणीय प्रयत्नों में सभी देशों का सहयोग प्राप्त किया जाये ताकि इस समस्या का सामना किया जा सके तथा यह संसार जीवन के लिये एक बेहतर स्थान बन सके ।
साधनों के अधिक दक्ष प्रयोग तथा साफ-सुथरी प्रौद्योगिकी अपनाने से, अनेक पर्यावरणीय परिवर्तन वास्तव में आर्थिक बचतें उपलब्ध करेंगे तथा अन्यों को बहुत कम लागत पर प्राप्त किया जा सकेगा । इसके लिये समृद्ध एवं निर्धन देशों के बीच समीपी और सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है ।
यदि कम आय वाले देशों को पर्याप्त सहायता नहीं मिलती तो पर्यावरणीय प्रयत्न निश्चित रूप में अन्य सामाजिक कार्यक्रमों की लागत पर होंगे जैसे स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और रोजगार योजनाएं आदि जो स्वस्थ सार्वभौमिक पर्यावरण के संरक्षण के लिये कम महत्वपूर्ण नहीं है ।
दीर्घकाल में, सहायता उनके अपने हित में भी उतनी ही होगी जितनी कि निर्धन लोगों के हित में है । विश्वीकरण के इस युग में सार्वभौम पर्यावरण की समस्याओं का सबके हित में सफलतापूर्वक सामना किया जा सकता है बशर्ते कि सभी सम्बन्धित दल सांझी राजनीतिक इच्छा और इरादा रखते हों ।
धरती ही ऐसा ग्रह है जो विभिन्न जीवन प्रणालियों का समर्थन करता है । धरती पर आदमी के मुख्य खिलाड़ी बनने से लाखों वर्ष पहले जीवों के बीच एक प्राकृतिक सन्तुलन था जो एक दूसरे को बनाये हुये थे तथा पुनर्जनन और पुनरोत्पादन के वृत में ऊर्जा उपलब्ध कराते थे ।
ज्यों ही मानवीय जीवों ने इस ग्रह पर अपना नियन्त्रण स्थापित करने का प्रयत्न किया तो पारिस्थितिकीय असन्तुलन, पर्यावरणीय अधोगति, प्राकृतिक साधनों की तीव्र समाप्ति और अन्य सम्बन्धित बुराइयां आरम्भ हो गई एक अत्यावश्यक एवं जटिल चुनौती जिसका सामना हमारी पीढ़ी कर रही है वह है सततीय विकास और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच सन्तुलन की प्राप्ति ।
परन्तु प्राकृतिक साधनों की समाप्ति तथा पर्यावरणीय हानियों की योजना-निर्माताओं तथा लोगों द्वारा समान रूप से निरन्तर उपेक्षा की जा रही है । पर्यावरणीय अधोगति की समस्या केवल विकासशील देशों तक सीमित नहीं है बल्कि इसने सार्वभौमिक आयाम प्राप्त कर लिया हैं ।
विश्व की जनसंख्या बढ़ने के साथ निर्धनता बढ़ती है तथा विश्व स्तरीय पारिस्थितिकी भी बिगड़ती है । ओजोन (Ozone) क्षीणता के सम्बन्ध में बढ़ते हुये प्रमाण और बढ़ती हुई विश्व-स्तरीय उष्णता सार्वभौम जलवायु के लिये गम्भीर उलझाव प्रस्तुत करते हैं ।
जलवायु परिवर्तन की सम्भावित लागते भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न हैं । विकासशील देशों के लिये पर्यावरणीय साधनों के संरक्षण और पुन: उनके पुर्नस्थापन की लागतों को सहन करना कठिन हो सकता है ।
जैव-विविधता, वर्षा वनों का विनाश और जनसंख्या वृद्धि जैसी अनेक समस्याएं विश्व के निर्धनतम देशों की ओर अन्तर्राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित करेंगी । इन निर्धन देशों को यदि वित्तीय सहायता प्राप्त नहीं होती तो पर्यावरणीय प्रयत्नों को सामाजिक कार्यक्रमों जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं की लागत पर उपलब्ध करना होगा ।
पर्यावरणीय संरक्षण की लागत को सहन करना विकसित एवं अल्प-विकसित देशों के बीच झगड़े का मूल कारण बन गया है जैसा कि सन् 1992 में “रियो अर्थ सम्मिट” (Rio Earth Summit) और इसके पश्चात् ‘क्योटा, जापान’ (Kyota, Japan) में हुये 1997 के सम्मेलन में देखा गया ।
देशों के प्रत्येक वर्ग की अपनी ही कार्य सूची थी । अन्तर्राष्ट्रीय अभिकरणों, जिनमें विश्व बैंक भी सम्मिलित है ने पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने के अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये । भविष्य में सफलता इन प्रयत्नों की क्षमता पर निर्भर करेगी जबकि निर्धन देश आर्थिक कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं ।