महालानोबिस भारी उद्योग विकास की पक्षपातपूर्ण रणनीति | Read this article in Hindi to learn about Mahalanobis heavy-industry biased strategy of economic development.

अविरत वृद्धि से संगति रख सकने में समर्थ, उत्तरोत्तर अवधियों में विनियोग, आय व उपभोग की दरों का विवेचन हैरोड-डोमर मॉडल में किया गया । वस्तुत: हैरोड-डोमर मांडल विनियोग कार्यक्रमों का एक विस्तृत आयाम व भावी वृद्धि का प्रदर्शन करता था ।

विनियोग नियोजन के लिए आवश्यक वास्तविक विधि जिससे एक योजना को क्रियान्वित किया जा सके ऐसा महत्वपूर्ण पक्ष है जिस पर प्रो॰ प्रशान्त चन्द्र महालनोबीस ने विचार किया ।

1952-55 की अवधि में प्रस्तुत अपने नियोजन मॉडल में हैरोड-डोमर के प्रतिपादन से आगे जाते हुए उन्होंने क्षेत्रीय विधि की प्रस्तावना रखी । प्रो॰ महालनोबीस ने हैरोड व डोमर द्वारा प्रस्तुत वृद्धि मॉडल को परिपक्व एवं परिमार्जित किया ।

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यद्यपि महालनोबीस का मॉडल आर्थिक धारणा की दृष्टि से किसी तक हैरोड-डोमर-फेल्डमैन के मॉडलों के समीप था परन्तु निर्वहन एवं प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से उसने अपनी अलग पहचान बनाई ।

अपरिहार्य रूप से महालनोबीस के मॉडल कींजियन विश्लेषण के शुद्ध समग्रों पर आधारित थे । इनके अनुसार राष्ट्रीय आय या उत्पादन इसलिए बढता है, क्योंकि एक धनात्मक शुद्ध विनियोग उत्तरोत्तर अवधियों में आय के अतिरिक्त प्रवाहों को जन्म देता है । विनियोग एवं आय के अतिरिक्त प्रवाहों के मध्य फलनात्मक सम्बन्ध को विनियोग की उत्पादकता या पूंजी-उत्पाद अनुपात के व्युत्क्रम द्वारा स्पष्ट रूप से बिम्बित किया गया ।

प्रो॰ महालनोबीस का प्रारम्भिक मॉडल (The Earliest Model of Prof. Mahalanobis):

1952 में प्रस्तुत महालनोबीस का प्रारम्भिक मॉडल अपनी विधि में हैरोड-डोमर मॉडल के सादृश्य था ।

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महालनोबीस ने वृद्धि की दर को निर्धारित करने के लिए तीन मुख्य चरों की पहचान की:

(1) विनियोग हेतु प्रयुक्त शुद्ध राष्ट्रीय आय का भाग जिसे (α) कहा गया ।

(2) शुद्ध राष्ट्रीय आय (प्रति इकाई समय) में होने वाली वृद्धि जो इस अतिरिक्त आय से सम्बन्धित है इसे (β) कहा गया ।

(3) जनसंख्या में होने वाली वृद्धि जिसे (ρ) कहा गया ।

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वृद्धि की दर जिसे प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि की दर द्वारा परिभाषित किया गया (α β – ρ) द्वारा प्रारम्भिक मॉडल में महालनोबीस ने उस रीति व तरीके के बारे में कुछ नहीं बताया जिससे विनियोग की दर, आय वृद्धि के स्तर हेतु बढ़ती । इस प्रकार उन्होंने बचतों की औसत व सीमान्त दरों के मध्य कोई भेद नहीं किया ।

प्रो॰ महालनोबीस के द्विक्षेत्रीय एवं चार क्षेत्रीय मॉडल (Bi-Sector and Four Sector Model of Prof. Mahalanobis):

नियोजन हेतु उपयुक्तता एवं सामूहिकीकरण के अंश की दृष्टि से प्रो॰ महालनोबीस ने दो मॉडल प्रस्तुत किये:

(A) एक द्विक्षेत्रीय मॉडल व

(B) एक चार क्षेत्रीय मॉडल ।

द्वि-क्षेत्रीय मॉडल 1953 में प्रस्तुत किया गया जिसका विस्तार 1955 में चार क्षेत्रीय मॉडल के रूप में हुआ । भारत की द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मूल सैद्धान्तिक आधार चार क्षेत्रीय मॉडल था ।

(A) दो क्षेत्र मॉडल (The Two Sector Model):

1953 में प्रस्तुत महालनोबीस का दो-क्षेत्र मॉडल अर्थव्यवस्था को दो भिन्न क्षेत्रों में विभाजित करता है:

(i) विनियोग वस्तु क्षेत्र जिसे (k) द्वारा निरूपित किया गया ।

(ii) उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र जिसे (c) द्वारा निरूपित किया गया ।

इन दोनों क्षेत्रों के मध्य ऊध्र्व एकीकरण विद्यमान माना गया । विनियोग वस्तुओं के लिए कच्चा माल उत्पादित करने वाले क्षेत्र, उन क्षेत्रों के साथ सामूहिकीकृत है जो विनियोग वस्तुएं उत्पादित करते है तथा यह ऊध्र्व एकीकरण उपभोक्ता वस्तु क्षेत्रों में भी लागू होता है ।

दो क्षेत्रों k एवं c के उत्पादन-पूँजी अनुपात βk व βc है । यह माना गया है कि सभी उत्पादकताएं नियोजन अवधि के 5 वर्षों हेतु स्थिर हैं, उत्पादन-पूंजी अनुपात ही शुद्ध विनियोग की औसत एवं सीमान्त उत्पादकताएँ भी है । माना पूँजी-वस्तु क्षेत्र की ओर होने वाला शुद्ध विनियोग का अनुपात

λ κ है ।

उपभोक्त वस्तु क्षेत्र की ओर होने वाला शुद्ध विनियोग का अनुपात λc है ।

अत: λ κ + λc = 1

प्रो॰ महामनोबीस ने माना कि शुद्ध विनियोग I, किसी समय बिन्दु ‘t’ पर दो भागों में विभाजित होता है:

विनियोग वस्तु क्षेत्र की ओर जाने वाला भाग λκIt जो इसकी उत्पादन क्षमता बढ़ाता है ।

उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र की ओर बाने वाला भाग λcIt

अत: It = λκIt + λcIt

यदि विनियोग वस्तुओं में होने वाली वृद्धि ΔIt

उपभोग वस्तुओं में होने वाली वृद्धि ΔCt

ΔIt व ΔCt किसी समय t में होने वाली वृद्धि है जो पूर्ववर्ती समय It-1 में किए शुद्ध विनियोग के परिणामस्वरूप होती हैं ।

विनियोग (I) तथा अतिरिक्त प्रवाहों (Δ’s) के मध्य सम्बन्ध ज्ञात किए जाने सम्भव हैं ।

विनियोग की उत्पादकता या पूंजी-उत्पाद अनुपात का व्युत्क्रम दोनों को एक-दूसरे से निम्नांकित समीकरणों में शृंखलाबद्ध करता है:

 

राष्ट्रीय आय Y योग होती है विनियोग I एवं उपभोग C का, समय अवधियाँ (t) एवं (t-1) है, इनसे निम्न सम्बन्ध ज्ञात होते हैं:

 

उपर्युक्त सम्बन्ध से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर निर्भर करती है विनियोग वस्तुओं के उद्योग में किए जा रहे विनियोगों के आवण्टन एवं उसकी उत्पादकता पर भले ही अर्थव्यवस्था के उपभोग वस्तुओं के क्षेत्र में उत्पादक पूंजी कितनी ही अधिक या कम क्यों न हो ?

महालनोबिस के मॉडल में क्षेत्रीय विश्लेषण की प्रस्तावना के कारण आय का समय पथ संरचनात्मक गुणांको की अधिक संख्या से प्रभावित है । चूंकि β k तथा βc तकनीकी रूप से स्थिर हैं, इसलिए आय का समय पथ α0 पर निर्भर करता है जो आय में विनियोग का स्थिर अनुपात है तथा λκ पर, जो वह अनुपात है जिस पर चालू विनियोग का आवंटन विनियोग वस्तुओं के क्षेत्र की ओर होता है । λκ के ज्ञात होने पर λc का निर्धारण होता है ।

अत: यदि λκ के उच्च मूल्य का चुनाव किया जाए तो आरंभिक अवस्था में प्रणाली एक धीमी गति से बढ़ेगी, जबकि बाद की अवस्थाओं में प्रणाली में वृद्धि की दर उच्चतम स्तर पर प्रेरित होंगी । λκ के उच्च मूल्य के चुनाव होने पर नियोजित सीमांत बचतों की एक उच्च दर होनी चाहिए ।

इससे स्पष्ट होता है कि प्रो॰ महालनोबीस के द्विपक्षीय मॉडल में केंद्रीय नीतिगत उपकरण या मुख्य रणनीति का चर जिससे दीर्घकाल की वृद्धि दर निर्धारित होती है विनियोग का वह अनुपात है जो प्रत्येक अवस्था में पूंजी वस्तु उद्योगों की ओर आवंटित किया जाता है ।

(B) प्रो॰ महालनोबीस का चार क्षेत्र मॉडल (The Four-Sector Model of Prof. Mahalanobis):

प्रो॰ महालनोबीस ने द्वि-क्षेत्र मॉडल का विस्तार कर चार-क्षेत्र मॉडल प्रस्तुत किया । चार क्षेत्र मॉडल के आधार पर प्रो॰ महालनोबीस ने द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मसविदा तैयार किया ।

मॉडल में वर्णित विस्तृत उपकरणों के संयोजन का मुख्य उद्देश्य विकास से संबंधित रोजगार के पक्ष थे । विशेष रूप से द्वितीय पंचवर्षीय योजना की अवधि में अतिरिक्त श्रम-शक्ति का अवशोषण किस प्रकार हो, मुख्य समस्या थी ।

प्रो॰ महालनोबीस ने द्वि क्षेत्र मॉडल का विस्तार कर इसे चार क्षेत्र में रूपान्तरित करने के लिए उपभोग वस्तु क्षेत्र C1 को तीन संघटकों में विभक्त किया:

1. फैक्ट्री उपभोक्ता-वस्तु क्षेत्र C1

2. उपभोक्ता-वस्तु उद्योग जिसमें कृषि उत्पाद शामिल थे जिनका उत्पादन लघु व परिवार इकाइयों के द्वारा होता था । इसे C2 क्षेत्र कहा गया ।

3. सेवाएँ जिसमें चिकित्सा, शिक्षा इत्यादि सम्मिलित थे । इसे क्षेत्र C3 कहा गया ।

उपर्युक्त तीनों का सामूहिकीकरण C क्षेत्र के अधीन किया गया, जबकि विनियोग वस्तुओं के क्षेत्र K में कोई परिवर्तन नहीं किया गया । उपभोग वस्तु क्षेत्र के विभाजन के पीछे प्रो॰ महालनोबीस का उद्देश्य एक नए चर-रोजगार की प्रस्तावना थी जो प्रत्येक क्षेत्र के पूंजी-श्रम अनुपातों के प्राचलों में अन्तर्निहित था ।

शुद्ध विनियोग के द्वारा चारों में से किसी भी क्षेत्र का विस्तार संभव हो सकता था, अतः चार भिन्न आवंटन प्राचल λ’s या विनियोग के अंश नियोजन अधिकारी के विवेक के आधार पर विभिन्न क्षेत्रों में आवंटित किए जाने तय हुए । प्रत्येक क्षेत्र में विनियोग की उत्पादकता के परिकलन हेतु चार उत्पादकता गुणांकों β’s या उत्पादन-पूँजी अनुपात विभिन्न क्षेत्र हेतु निर्दिष्ट किए गए ।

आवंटन प्राचलों से संबंधित पूंजी-श्रम अनुपात θ’s थे ।यह प्रति संलग्न व्यक्ति द्वारा चाहे जाने वाला शुद्ध विनियोग है जिसके द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि एक विशिष्ट क्षेत्र में अवशोषित हो सकने वाले श्रमिकों की संख्या ज्ञात हो सकती है जब यह ज्ञात हो कि प्रत्येक क्षेत्र में विनियोग की मात्रा क्या है ?

महालनोबीस ने यह भी माना कि:

1. उत्पादकता गुणांक स्वतन्त्र होता है पूंजी-श्रम अनुपातों θ’s से

2. नियोजन की अवधि में सापेक्षिक कीमत परिवर्तन मौजूद नहीं होते

3. राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर रेखीय होती है तथा

4. उत्पादन फलन कॉब -डगलस प्रकार का है पैमाने के स्थिर प्रतिफलों के अधीन

दूसरी पंचवर्षीय योजना के दो आधारभूत उद्देश्य:

प्रो॰ महालनोबीस ने चार क्षेत्र मॉडल की सरंचना भारत की दूसरी पंचवर्षीय योजना के दो आधारभूत उद्देश्यों से संबंधित की:

1 आय में वृद्धि की दर r, जिसे दूसरी योजना में 5 प्रतिशत वार्षिक नियत किया गया ।

2. रोजगार में वृद्धि N, जिसके अधीन दूसरी योजना अवधि में 11 मिलियन व्यक्तियों को रोजगार मिल सके ।

रोजगार में वृद्धि से आशय है नई नौकरियों के अवसर जो नियोजित विनियोग व उत्पादन के परिणामस्वरूप सृजित होंगे ।

मॉडल की सैद्धान्तिक संरचना (Theoretical Construction of Four-Sector Model):

चार क्षेत्रीय मॉडल की सैद्धान्तिक संरचना निम्नांमित समीकरणों पर आधारित रही:

 

 

 

प्रत्येक क्षेत्र i में राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि yi है । अत: समीकरण 4 के समुच्चय से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक क्षेत्र में शुद्ध विनियोग की उत्पादकता बराबर होगी राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि को उस विशिष्ट क्षेत्र में किए जा रहे विनियोग की मात्रा से भाग देकर प्राप्त राशि द्वारा ।

समीकरण 4 में समीकरणों के समुच्चय का सरल योग राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि को विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली वृद्धि के रूप में प्रकट करता है जो तत्संबन्धित क्षेत्रीय उत्पादकता गुणांक एवं विनियोग के क्षेत्रीय परिमाण के गुणनफल द्वारा सूचित होता है ।

यह समीकरण शुद्ध आय की क्षेत्रीय संरचना को प्रदर्शित करता है जिसे द्वितीय योजना अवधि में सृजित करने की योजना बनाई गई थी । इस मॉडल में इसे स्थिर लिया गया है । मॉडल में आय वृद्धि की दर खाए मुख्य उद्देश्य है न कि आय की क्षेत्रीय वृद्धियाँ yi’s ।

 

वास्तव में चार क्षेत्र मॉडल का निर्माण दो लक्ष्यों को ध्यान में रखकर किया गया:

(a) पहला आय में वृद्धि की दर जिसे एक निश्चित समय अवधि में सम्भव बनाना था व

(b) दूसरा रोजगार में वृद्धि जो इसी निश्चित समय अवधि में की जानी थी ।

महालननोबीस के मॉडल से ज्ञात होता है कि इस मॉडल में क्रियात्मक चर विनियोगों के वह अनुपात या अंश है जो अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को आवंटित किए जाते हैं । एक बार जब विनियोगों के इन अनुपातों को हम निश्चित कर लेते हैं तब विभिन्न क्षेत्रों में आय में होने वाली वृद्धि स्वचालित रूप से निर्धारित हो जाती है ।

आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation):

महालनोबीस ने यह माना कि प्राचल β तथा θ एक दूसरे से स्वतन्त्र है । यह एक विरोधाभास की दशा है । यह माना गया है कि सीमांत गुणांक = औसत गुणांक अतः परिभाषा β = Y/I तथा θ = I/L से θ = Y/L जो बराबर होता है औसत मजदूरी दर धन (+) प्रति श्रमिक अतिरेक मूल्य के ।

स्पष्टतः θ निर्भर करता है β पर । इस प्रकार मॉडल में मजदूरी दरों से संबंधित विचार अनुपस्थित है जो नियोजन मॉडल के निर्माण में समुचित महत्व रखते हैं ।

महालनोबीस ने विनियोग के दीर्घ समय अवधि अंतरालों की भी उपेक्षा की तथा उस समय की भी जिस पर आय बढ़ती है । अतः समीकरणों की प्रणाली स्थैतिक है, क्योंकि यह आवश्यक रूप से समय को समाहित नहीं करती ।

महालनोबीस के मॉडल में विनियोग कोषों को एकरूप माना गया है, जबकि वास्तव में विनियोग संसाधन न केवल अपनी सीमांत उत्पादकताओं में भिन्नता रखते हैं बाध्य इनका आवंटन भी अलग-अलग होता है । इससे मूल्यांकन की समस्या सामने आती है ।

यहाँ विनियोग की मद संरचना को महत्ता दी गई है न कि समरूप विनियोग कोष को । दूसरी तरफ, मान्यता में यह निहित नहीं है कि विद्यमान पूंजी स्टाक उपभोक्ता वस्तु क्षेत्रों व विनियोग वस्तु क्षेत्रों के मध्य मनमाने या स्वैच्छिक ढंग से विवर्तित किया जा सकता है ।