शुम्पीटर के आर्थिक विकास मॉडल | Read this article in Hindi to learn about:- 1. शुम्पीटर द्वारा आर्थिक विकास के विश्लेषण (Introduction to the Economic Development Model of Schumpeter) 2. आर्थिक विकास का चक्र (Cycle of Economic Development) 3. उपक्रमी की भूमिका (Role of Entrepreneur) and Other Details.

Contents:

  1. शुम्पीटर द्वारा आर्थिक विकास के विश्लेषण (Introduction to the Economic Development Model of Schumpeter)
  2. आर्थिक विकास का चक्र (Cycle of Economic Development)
  3. आर्थिक विकास में उपक्रमी की भूमिका (Role of Entrepreneur in Economic Development)
  4. शुम्पीटर के संक्रांति अथवा व्यवसाय चक्र (Crisis or Business Cycle of Schumpeter)
  5. शुम्पीटर के विकास सिद्धांत की विकासशील देशों में सार्थकता (Relevance of the Schumpeterian Development Theory in Developing Countries)

1. शुम्पीटर द्वारा आर्थिक विकास के विश्लेषण (Introduction to the Economic Development Model of Schumpeter):

शुम्पीटर ने आर्थिक विकास के विश्लेषण को Theory of Economic Development पुस्तक में प्रस्तुत किया । यह पुस्तक 1911 में जर्मन भाषा में प्रकाशित हुई इसका अंग्रेजी संस्करण 1934 में प्रकाशित हुआ । तदन्तर विकास की व्याख्या को परिमार्जित कर उन्होंने अपनी पुस्तकों Business Cycles (1939) एवं Capitalism, Socialism and Democracy (1942) में विस्तृत रूप दिया ।

शुम्पीटर पूँजीवादी प्रणाली के समर्थक व प्रशंसक थे । उन्होंने पूंजीवाद के उदभव, इसकी कार्यप्रणाली एवं विकास की गहन पड़ताल की । उन्हें विलक्षण प्रतिभा का धनी कहा जाता था । विश्व के मुख्य विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर रहने के साथ वह ऑस्ट्रिया के वित्त मंत्री भी रहे । उन्होंने चार दशकों तक आर्थिक विज्ञान का अध्ययन किया इस अवधि में वह चार देशों व तीन महाद्वीपों में रहे ।


2. आर्थिक विकास का चक्र (Cycle of Economic Development):

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विकास के चक्र को शुम्पीटर ने चक्रीय प्रवाह के द्वारा समझाया । चक्रीय प्रवाह स्थिर संतुलन का आधार है ।

इसकी मुख्य प्रवृतियाँ निम्नांकित हैं:

(i) पूर्ण प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्था की दशा को ध्यान में रखा गया है जो स्थिर संतुलन की दशा में है अर्थात् यह माना गया है कि पूर्ण प्रतिस्पर्द्धी संतुलन विद्यमान है, कोई लाभ नहीं, ब्याज दरें नहीं हैं, कोई बचत नहीं, कोई विनियोग नहीं एवं अस्वैछिक बेरोजगारी नहीं इस संतुलन को शुम्पीटर ने चक्रीय प्रवाह कहा ।

(ii) चक्रीय प्रवाह में, समान वस्तुएँ समान तरीके से हर वर्ष उत्पादित की जाती हैं सभी उत्पादक वस्तुओं की समय माँग की जानकारी रखते है और इसी के अनुसार उत्पादन की पूर्ति को समायोजित करते है । इससे अभिप्राय है कि प्रत्येक समय बिंदु पर माँग व पूर्ति संतुलन की दशा में है ।

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(iii) आर्थिक प्रणाली में उत्पादन का अनुकूलतम स्तर विद्यमान है तथा इसका अधिकतम प्रयोग होता है । संसाधनों की बरबादी की कोई संभावना नहीं है ।

(iv) प्रणाली में कार्य कर रही फर्में प्रतिस्पर्द्धात्मक संतुलन की दशा में है अर्थात् फर्में अनुकूलतम आकार की हैं । उत्पादन के साधनों को उनके सीमांत उत्पाद के अनुसार भुगतान किया जाता है यह प्रवृतियाँ शुम्पीटर के विश्लेषण का आधार है । संक्षेप में स्थिर संतुलन की दशा में कोई विनियोग नहीं होता, जनसंख्या वृद्धि स्थिर है तथा पूर्ण रोजगार की दशा विद्यमान है ।

इस दशा को विकास हेतु प्रावैगिक एवं संगतिपूर्ण बनाने के लिए प्रवाह प्रणाली में परिवर्तन लाने आवश्यक होंगे । शुम्पीटर के अनुसार- व्यवसाय में असीमित अवसर होते है जिनका उपक्रमी विदोहन करता है । इस द्वितीय प्रकिया की शुरुआत नवप्रवर्तन के द्वारा होती है ।


3. आर्थिक विकास में उपक्रमी की भूमिका (Role of Entrepreneur in Economic Development):

आर्थिक विकास की प्रक्रिया में उपक्रमी की भूमिका निम्न पक्षों से संबंधित है:

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उपक्रमी की भूमिका सामाजिक वातावरण का एक उत्पाद है जो उसे नवप्रवर्तन के लिए उत्साहित करता है । शुम्पीटर की व्याख्या उपक्रमी के योगदान को महत्वपूर्ण मानती है और विकास के रंगमंच में उसे प्रमुख पात्र बनाती है ।

(i) नवप्रवर्तक एवं नवप्रवर्तन (The Innovator and Innovation):

शुम्पीटर ने विकास प्रक्रिया को स्वाभाविक एवं अनियमित परिवर्तनों से संबंधित किया । यह पूर्व में विद्यमान संतुलन की दशा को बदलती है । उच्च अंश के जोखिम एवं अनिश्चितता वाले विश्व में दृढ़ इच्छाशक्ति एवं कार्य की योग्यता व कुशलता रखने वाला व्यवसायी ही नवप्रवर्तन की क्रिया सम्पन्न करता है अर्थात् नवप्रवर्तक नवप्रवर्तन कर उपक्रमों की स्थापना करता है तथा लाभ के अवसरों का विदोहन करता है । परन्तु उपक्रमी या नवप्रवर्तक केवल लाभ की लालसा से ही उत्पादन नहीं करता बल्कि व्यवसाय जगत में सृजन के सुख एवं अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाने के वृहतर लक्ष्य की सोच रखता है ।

उपक्रमी या नवप्रवर्तक इस प्रकार मात्र लाभ की दर पर निर्भर रह उत्पादन हेतु प्रेरित नहीं होता बल्कि उसे तो एक अनुकूल सामाजिक वातावरण प्रेरणा प्रदान करता है ।

नवप्रवर्तक ऐसे समाज में अपनी क्षमता विकसित एवं सिद्ध करेगा जहाँ उसके कार्यों की प्रशंसा हो, उसे सम्मान मिले तथा अपनी क्षमताओं के प्रदर्शन द्वारा उसे प्रसिद्धि प्राप्त हो । संक्षेप में नवप्रवर्तक सामाजिक पुरस्कार एवं प्रतिष्ठा से विकास की गति को गत्यात्मक या प्रावैगिक बनाता है । अत: उसके परिवेश की दशाएँ एवं सामाजिक मूल्य उसके प्रति अनुकूल होने चाहिएँ ।

इस प्रकार नवप्रवर्तक विकास का एजेंट है । उसकी अपनी सोच, कल्पनाएँ एवं विचार को कार्य रूप में बदलने की क्षमताएँ हैं । वह नए प्रयोग करता है, नयी खोज करता है । वह संसाधनों के नवीन संयोग प्रस्तुत करता है जिनसे तकनीकी परिवर्तन होते हैं ।

नवप्रवर्तक द्वारा सम्पन्न की जा रही नवप्रवर्तन की क्रिया मुख्यत: निम्न पक्षों से संबंधित हैं:

(a) एक नयी अथवा नवीन वस्तु का परिचय जिससे उपभोक्ता परिचित नहीं है या इसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है ।

(b) उत्पादन की एक नई विधि का परिचय ।

(c) एक नये बाजार का खुलना ।

(d) कच्चे पदार्थ की आपूर्ति के एक नये स्रोत की खोज ।

(e) एक उद्योग में एक नये संगठन का परिचय ।

उपर्युक्त घटकों के नवीन संयोगों की उपस्थिति विकास प्रक्रिया के आरंभ होने के लिए आवश्यक है । यह प्रक्रिया अपने आप ही आरंभ नहीं होती । इसे विकास के एजेंट या नवप्रवर्तक द्वारा सम्पन्न किया जाता है । मूल नवप्रवर्तक व्यवसाय के अनगिनत अवसरों करने में नवप्रवर्तन की क्रिया सम्पन्न करता है मूल नवप्रवर्तक की सफलता से कई अन्य उपक्रमी उसका अनुसरण करते हैं ।

आर्थिक क्रियाओं का संवर्धन होता है । अर्थव्यवस्था गतिमान हो जाती है तथा यह तेजी कीमतों एवं मौद्रिक आय में वृद्धि करती है । विकास की पहली लहर नवप्रवर्तन युक्त विनियोग की दशा है । इससे प्रभावित होकर दूसरी लहर अनुकरण विनियोग की चलती है जो पहली लहर में समावेशित हो जाती है ।

(ii) साख की भूमिका (Role of Credit):

आर्थिक विकास के विवेचन में शुम्पीटर ने एक नये पक्ष को प्रस्तावित किया जो अशोषित संसाधनों व अप्रयुक्त तकनीकी ज्ञान के भण्डार का विदोहन संभव बनाता है । यह नया पक्ष साख है । अत: विकास हेतु साख आवश्यक है । साख के द्वारा नवप्रवर्तक उत्पादन के संसाधनों का क्रय करता है जो नए प्रयोगों एवं नवप्रवर्तन हेतु महत्वपूर्ण होते हैं ।

साख से अभिप्राय मात्र चालू आय से प्राप्त बचते नहीं है जो विनियोग के लिए कोष उपलब्ध करती है बल्कि यह बैंकिग प्रणाली द्वारा सम्पन्न साख का सृजन है । शुम्पीटर साख के सृजन को विकास की प्रक्रिया का अभिन्न भाग मानते हैं । कारण यह है कि नवप्रवर्तक अथवा उपक्रमी बैकों द्वारा सृजित साख द्वारा अपने व्यवसाय का विस्तार करते है । साख सृजन सुविधाओं का विस्तार विनियोगियों को बचत कर्ताओं के स्वैच्छिक मिताहारी व्यवहार से मुक्त रखने के सकेत देता है । बाहय बचतें पूँजी संचय का एक महत्वपूर्ण साधन बन जाती हैं ।

(iii) संरक्षित उपभोक्ता सम्प्रभुता (Restricted Consumers Sovereignty):

व्यवसाय में उपक्रमी या नवप्रवर्तक मात्र उपभोक्ता की रुचि एवं अधिमान के आधार पर वस्तुओं का उत्पादन नहीं करता बल्कि अपनी प्रावैगिक भूमिका में वह ऊर्जावान बन समर्थ बिकी अबस की रणनीतियों द्वारा या तो उपभोक्ता की रुचियों को बलता है या उनके सम्मुख नई इच्छाएँ या आकांक्षाएँ परोस देता है । ऐसा तब सम्भव होगा जब नवप्रवर्तक नवीन आकर्षण प्रदान करें व सृजन के नए आयाम सम्मुख रखे । अत: ऐसे प्रयास उपभोक्ता की सम्प्रभुता को सीमित करते हैं ।

(iv) अनियमित वृद्धि (Uneven Growth):

नवप्रतिष्ठित अर्थशास्त्री आर्थिक विकास की प्रक्रिया को क्रमिक एवं नियमित मानते थे । वहीं शुम्पीटर का विवेचन वृद्धि को अनियमित एवं असंगतिपूर्ण बताते हुए चक्रीय प्रवाह की अनिरंतर बाधाओं द्वारा स्पष्ट करता यह बाधाएँ नवप्रवर्तन के रूप में उभरती हैं ।

कारण यह है कि व्यवसाय जगत स्थैतिक न होकर प्रावैगिक है । स्थैतिक दशा में विवेकपूर्ण गणनाएँ सम्भव हैं तथा तर्कसंगत पूर्वानुमान संभव हो सकते हैं परन्तु प्रावैगिक विश्व जोखिम एवं अनिश्चितताओं से भरा है जहाँ नवप्रवर्तक नवप्रवर्तन युक्त द्धियाओं से नए विनियोग संभव बनाता है ।

(v)पूँजीवाद की व्यापक संभावनाएँ (Vast Potentialities of Capitalism):

क्लासिकल अर्थशास्त्री ह्रासमान प्रतिफल के नियम की क्रियाशीलता व जनसंख्या वृद्धि से चिंतित थे परन्तु शुम्पीटर इससे मुक्त रहे । उन्होंने मार्क्स के द्वारा वर्णित आय के कुवितरण की दशाओं पर भी ध्यान नहीं दिया उन्होंने अर्थव्यवस्था में अवरोध उत्पन्न करने वाले उन विचारों से भी सहमति प्रकट नहीं की जिसमें विनियोग के अवसरों की निरंतर कमी संस्थागत दृढ़ताओं से संयोजित रहते हुए पूर्ण रोजगार से निम्न संतुलन दिखाती है ।

शुम्पीटर को पूंजीवादी प्रणाली की उस क्षमता पर पूर्ण विश्वास था जो राष्ट्रीय उत्पादन एवं आय के नित नए बढ़ते स्तरों को प्रदान करती है । इस प्रक्रिया में आने वाले अल्पकालीन अवरोधों को उन्होंने अवश्य स्वीकार किया ।

(vi) पूँजीवाद के पतन की प्रक्रिया (Process of the End of Capitalism):

शुम्पीटर को पूँजीवाद की संभावनाओं पर अटल विश्वास था परन्तु मार्क्स की भाँति पूँजीवाद की सफलताओं के पतन एवं समाजवाद के उदय की विचारधारा से वह प्रभावित रहे । उन्होंने कहा कि यह पूँजीवाद की असफलता नहीं है बल्कि यह तो वह प्रवृति है जिसके अधीन सोने का अण्डा देने वाली मुर्गी को मार दिया जाता है ।

पूँजीवाद की धीरे-धीरे होने वाली अवनति के पीछे निम्न कारक हैं:

(i) उपक्रमशीलता के फलन की अवनति ।

(ii) बुर्जुआ एवं रूढ़िवादी परिवारों का विघटित होना ।

(iii) पूँजीवादी समाज के संस्थागत ढांचे का पतन ।

(i) उपक्रमी व्यवसाय को वृहत आकार दे पाने में समर्थ होते हैं । यह तकनीकी प्रगति के द्वारा संभव होता है जिसमें प्रशिक्षित विशेषज्ञों की टीम कार्य करती है । अब व्यवसाय का सारा जिम्मा प्रबंध की एवं निजी नौकरशाही द्वारा संभाला जाता है जो वेतन प्राप्त करते है । विपणन एवं प्रशासन की क्रियाएँ स्वचालित रूप में सम्पन्न होने लगती हैं ।

इन दशाओं में नवप्रवर्तन की क्रिया एक रुटीन बनकर रह जाती है । व्यवसाय का संकेन्द्रण एवं एकाधिकार में वृद्धि धीर-धीरे निजी स्वामित्व एवं संविदा की स्वतंत्रता की धारणाओं को कमजोर बना देता है । एक बड़े व्यावसायिक कारपोरेशन में स्वामित्व के हित शेयर या अंशधारियों के बीच जाने लगते हैं जो वस्तुत: व्यवसाय द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ तक ही सीमित रहते हैं ।

(ii) बुर्जुआ एवं परम्परागत परिवारों के विखण्डन एवं पारिवारिक पूँजी की संचय की प्रकृति भी विनिष्ट होती है । वह सामाजिक वर्ग जो पूँजीवाद को संरक्षित रखता था अपनी राजनीतिक शक्ति खोने लगता है । अब राजनीतिज्ञों का एक नया वर्ग पनपने लगता है जो सुविधा, अवसर, समझौता एवं तटस्थता के हित चिंतन में नियमों एवं कार्यप्रणाली को अवमूल्यित करते हैं ।

वह स्थापित उद्योगों एवं व्यापार को आश्रय देने के इच्छुक नहीं होते । वह वृद्धिजीवी जो पूँजीवाद से ‘स्वतंत्रता’ और ‘शक्ति’ प्राप्त करते हैं अब पूँजीवाद विरोधी वर्ग में सम्मिलित हो जाते हैं । शिक्षित बेरोजगार भी पूँजीवाद के विरुद्ध हो जाते हैं ।

श्रमिकों द्वारा व्यवस्था का विरोध एवं बुद्धिजीवियों द्वारा इन्हें नेतृत्व प्रदान करने की प्रवृतियाँ उभरती हैं । बुद्धिजीवी पूंजीवादी व्यवस्था के सामाजिक व राजनीतिक ढाँचे के विरुद्ध जनता में शंका एवं असहमति के बीज बोते है । सफेदपोश वर्ग एवं श्रमिक वर्ग के संयोजन या गठजोड़ से वह पूंजीवाद विरोधी राजनीतिक सुधार लाने में सफल होते हैं । इन सब कारकों से वह संस्थागत ढाँचा चरमराने लगता है जिस पर पूँजीवादी व्यवस्था अवलंबित रहती है । धीरे-धीरे समाजवाद की ओर गति संभव बनने लगती है ।


4. शुम्पीटर के संक्रांति अथवा व्यवसाय चक्र (Crisis or Business Cycle of Schumpeter):

व्यवसाय चक्र पर शुम्पीटर का विवेचन ऐतिहासिक, सांख्यिकीय एवं विश्लेषणात्मक है । उनका विश्वास था कि संक्रांति आर्थिक क्षेत्र में आवश्यक रूप से विद्यमान होती है परन्तु इसकी शुद्ध आर्थिक व्याख्या करना संदेहात्मक है । उन्होंने यह स्वीकार नहीं किया कि व्यावसाय चक्र या संक्रांति आवश्यक रूप से आर्थिक घटकों के कार्य करण से उत्पन्न होती है परन्तु यह स्वीकार किया कि संक्रांति के वास्तविक कारण आर्थिक क्षेत्र से बाहर विद्यमान हो सकते हैं ।

शुम्पीटर ने इस संक्रांति को ऐसी प्रक्रिया के द्वारा समझाया जिसमें आर्थिक जीवन स्वयं को नई दिशाओं के अनुरूप समायोजित कर लेती है ।

शुम्पीटर के व्यवसाय चक्र की प्रक्रिया को आर्थिक विकास के प्रसंग में चित्र 16.1 में निम्न प्रकार अभिव्यक्त किया गया है:

 

चित्र में द्वितीयक लहर Sw ने नवप्रवर्तन की प्राथमिक लहर Pw को पूरी तरह अपने में आरोपित कर लिया है । अति आशावाद एवं सहे की अवस्था में, विकास शीघ्र ही समृद्धि की अवस्था को प्राप्त करता है । जब प्रतिसार की दशाएँ उत्पन्न होने लगती हैं तब यह चक्र संतुलन स्तर से नीचे मंदी की स्थिति में जाने लगता है । इसके पुनरुद्धार हेतु नए नवप्रवर्तन की आवश्यकता होती है ।

स्पष्ट है कि तेजी के बाद मंदी या प्रतिसार की अवस्था आती है । कारण यह है कि नवप्रवर्तन ही शृंखलाओं से वस्तुओं की काफी अधिक पूर्ति होती है जिसे लाभदायक कीमतों पर बाजार में बेचा जाना संभव नहीं हो पाता । बैंकों द्वारा उधार वापसी की दशा में जबरन दिवालिया होने के प्रसंग दिखाई देते है । बैंक ऋणों का पुनर्भुगतान, अवस्फीतिकारी शक्तियों को उत्पन्न करता है ।

व्यवसाय के जोखिम बढ़ते हैं परन्तु भावी उपक्रमी इन्हें झेलने का साहस नहीं करते । ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में नवप्रवर्तन की क्रिया ठहराव में आ जाती है । समायोजन की इस कष्टप्रद अवधि में दुर्बल उपक्रमी व्यवसाय से बाहर हो जाते हैं । वहीं कुछ उपक्रमी इन विपरीत दशाओं में नवप्रवर्तन क्रियाओं के पुन: प्रयास करते है जिससे अर्थव्यवस्था एक नए संतुलन की ओर जाती है । अब नवप्रवर्तन की एक नई लहर चलती है तथा विकास का चक्र स्वयं को दोहराता है ।

 


5. शुम्पीटर के विकास सिद्धांत की विकासशील देशों में सार्थकता (Relevance of the Schumpeterian Development Theory in Developing Countries):

शुम्पीटर का विश्लेषण आर्थिक जीवन में होने वाले परिवर्तनों को अन्तर्जात घटकों का कारक मानता है, जबकि बहिर्जात घटक इस पर आरोपित किए जाते हैं । अन्तर्जात घटकों द्वारा विकास की मूलभूत व सर्वाधिक महत्वपूर्ण गति का विचार विकासशील देशों में शुम्पीटर के विकास सिद्धांत की सार्थकता को सीमित कर देता है ।

मुख्य तर्क निम्न हैं:

(i) कम विकसित एवं विकासशील देशों में सामाजिक आर्थिक संस्थाएँ दृढ़ एवं पुरातन शैली की होती है । इन देशों में न्यून बचत संभावनाएं होती है तथा साख संस्थाएँ कार्यकुशल नहीं होती । तकनीक का स्तर परम्परागत होता है । इन कारकों की उपस्थिति विकास की आन्तरिक उत्प्रेरणाएँ उत्पन्न नहीं कर पातीं । अपनी विकास आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए यह देश पूँजी तकनीक व कौशल का आयात करते हैं अर्थात् वाहय निर्भरता अधिक होती है ।

(ii) शुम्पीटर के विश्लेषण में अन्तर्जात घटकों द्वारा विकास की स्वत: प्रवर्तित एवं अनियमित प्रक्रिया जनसंख्या वृद्धि के योगदान की उपेक्षा करती है । शुम्पीटर ने जनसंख्या को बहिर्जात रूप से निर्धारित किया उन्होंने कहा कि जनसंख्या में होने वाली वृद्धि एवं वस्तु व सेवाओं के प्रवाह के मध्य कोई पूर्ववर्ती संबंध विद्यमान नहीं होता ।

वास्तव में कम विकसित देशों में जनसंख्या की अधिकता से उत्पन्न दबाव उन्हें बाध्य करता है कि वह कृषि उत्पादन की विधियों एवं तकनीक में परिवर्तन कर कृषि उत्पादन को बढ़ाएं । कीन्ज के उपरांत कई अर्थशास्त्रियों ने जनसंख्या वृद्धि को स्वायत्त विनियोग की अभिप्रेरणा हेतु महत्व दिया ।

(iii) शुम्पीटर का विकास विवेचन व्यवसाय जगत में अभिजात वर्ग अर्थात् उपक्रमी या नवप्रवर्तक की उपस्थिति को आवश्यक मानता है । इसके द्वारा नवप्रवर्तन की क्रियाएँ तकनीकी प्रगति या उत्पादन फलन में किए जा रहे सुधार से संबंधित होती है । परन्तु कम विकसित देशों में इस वर्ग की न्यूनता होती है । ऐसे सामाजिक समूह की निष्क्रियता एवं उपक्रम को प्रोत्साहन देने में सक्षम सामाजिक वातावरण का अभाव होने के कारण विकास की प्रक्रिया को इन देशों की राष्ट्रिय सरकार द्वारा नियोजित किया जाता है ।

सामाजिक उपरिमद पूँजी अवस्थापना एवं अन्तर्सरंचना निर्माण मुख्य उद्देश्य होते हैं, क्योंकि भारी व आधारभूत परियोजनाओं के दीर्घ समय अवधि अंतराल को देखते हुए निजी क्षेत्र के पूँजीपति इनमें रुचि प्रकट नहीं करते । सरकार द्वारा राजकोषीय एवं मौद्रिक उपकरणों एवं विदेशी ऋण एवं सहायता द्वारा पूँजीगत साधनों को गतिशील किया जाता है ।

(iv) शुम्पीटर के मॉडल में वर्णित नवप्रवर्तन किया का कम विकसित देशों की विकास प्रक्रिया में सीमित महत्व होता है । वालिच एवं सिंगर स्पष्ट करते हैं कि प्रदर्शन प्रभाव के कारण कम विकसित देश विकसित देशों की तकनीक व उत्पादन विधियों का आयात करते हैं तथा नवप्रवर्तन के जोखिम नहीं लेते । अत: इन देशों में घरेलू या देशी नवप्रवर्तन के स्थान पर व्युत्पन्न नवप्रवर्तन की प्रक्रिया चलती है ।

(v) नवप्रवर्तन की प्रवृति सम्पत्ति एवं शक्ति प्राप्त करने की मूलभूत इच्छा का संकेत है, जबकि नियोजित अर्थव्यवस्थाओं में विकास क्रियाओं का मूल उद्देश्य सामान्य व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार एवं सामाजिक न्याय की प्राप्ति है । इस प्रकार दोनों प्रणालियों के लक्ष्य एवं उद्देश्य भिन्न-भिन्न है ।

(vi) शुम्पीटर के विश्लेषण में उपक्रमी या नवप्रवर्तक द्वारा सम्पन्न की जा रही नवप्रवर्तन की किया देश के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से गति प्राप्त करती है, परन्तु अधिकांश कम विकसित व विकासशील देशों में समाजवादी व्यवस्था की घोषणा व लोकतंत्र के प्रति आस्था निजी उपक्रमशीलता के लिए अनुकूल वातावरण व धनात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न नहीं करती ।

इन देशों में संरक्षण एवं प्रतिबन्धात्मक नीतियाँ अपनाई जाती हैं । सार्वजनिक क्षेत्र का अस्तित्व होता है । आय पर सीलिंग एवं लाभों की सीमा तय की जाती है । सामाजिक सुरक्षा के उपायों को अधिक महत्व दिया जाता है । श्रम संघ एवं मजदूरी संबंधी कानून विद्यमान होते है जो शुम्पीटर द्वारा वर्णित दशाओं के अनुकूल नहीं रहते ।

(vii) शुम्पीटर के मॉडल की प्रकृति उत्पादन-उन्मुख है । मॉडल में उपक्रमशीलता हेतु अभिप्रेरणा, चक्रीय प्रवाह में नवप्रवर्तन की क्रियाशीलता तथा लाभ की आशा जैसे तीन हैं । यह उत्पादन की क्रिया के आरंभ एवं उसकी नियमितता हेतु आधारभूत कारक बनाते है । दूसरी ओर, कम विकसित व विकासशील देशों में विकास की मूल प्रक्रिया उपभोग-उन्मुख होती हैं ।

कल्याणकारी राज्य की स्थापना एवं जीवन-स्तर में वृद्धि के उद्देश्य से संबंधित रह उपभोग एवं माँग, विकास प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है । आय की असमानताओं में कमी, सामाजिक सुरक्षा व सामाजार्थिक कल्याण प्राथमिक महत्व के होते है न कि लाभों की वृद्धि व व्यावसायिक सफलता जैसा शुम्पीटर पूँजीवाद हेतु चाहते थे ।

(viii) शुम्पीटर के मॉडल में, विकास प्रकिया के गतिशील होने पर मुद्राप्रसारिक दबाव उत्पन्न होना स्वाभाविक है । उपक्रमीं की नवप्रवर्तन क्रियाएं बैंकिंग प्रणाली के साख सृजन द्वारा वित्त प्राप्त करती हैं । साख सृजन से समुदाय की क्रयशक्ति में तो वृद्धि होती है लेकिन उत्पादन में तत्संबंधित वृद्धि नहीं होती । बढ़ी हुई क्रयशक्ति के परिणामस्वरूप उत्पादन सेवाओं एवं उपभोक्ता वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है । बढ़ी हुई माँग, मुद्रा के चलन में बढ़े हुए परिमाण के साथ सामान्य कीमतों में उछाल पैदा करती है ।

शुम्पीटर का साख-मुद्रा प्रसार अल्प समय तक चलता है । दीर्घ काल में कीमत स्तर स्थिर हो जाता है । कारण यह है कि लंबी समय अवधि में यह उच्च उत्पादन प्रदान करने में समर्थ होता है जिससे वस्तुओं की पूर्ति बढ़ती है ।

दूसरी ओर, उपभोग उन्मुख विकास प्रक्रिया जो अल्प विकसित देशों में दिखाई देती है की प्रवृत्ति तीव्र व संचयी प्रकार के मुद्रा प्रसार को उत्पन्न करने की होती है ।

शुम्पीटर के मॉडल के कुछ पक्ष सार्वभौमिक रुप से क्रियात्मक हैं । भले ही अर्थव्यवस्था का स्वरूप कुछ भी हों या वह विकास की किसी भी अवस्था में विद्यमान हो, ‘नवप्रवर्तन’ की महत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता ।