आर्थिक विकास का मापन: पंज तरीके | Read this article in Hindi to learn about the five important ways used for measuring economic development. The ways are:- 1. विकास के सूचक के रूप में राष्ट्रीय आय (National Income as an Index of Development) 2. प्रति व्यक्ति वास्तविक आय (Per Capital Real Income) 3. तुलनात्मक धारणा (Comparative Concept) and a Few Others.

आर्थिक विकास दीर्घकाल में परिवर्तन की प्रक्रिया है, यद्यपि आर्थिक विकास को मापने के अनेक मानदण्ड अथवा सिद्धांत हैं, फिर भी, उनमें से कोई भी मानदण्ड आर्थिक विकास का सन्तोषजनक और सार्वभौम स्वीकार योग्य सूचक नहीं है ।

आर. जी लिप्से का मानना है कि देश के विकास की मात्रा को मापने के अनेक सम्भव उपाय हैं, जैसे प्रति व्यक्ति आय, अप्रयुक्त साधनों की प्रतिशतता, प्रति व्यक्ति पूंजी, प्रति व्यक्ति बचत और सामाजिक पूंजी की राशि ।

परन्तु आर्थिक विकास के सामान्यतया प्रयुक्त होने वाले मानदण्ड हैं- राष्ट्रीय आय में वृद्धि, प्रति व्यक्ति वास्तविक आय, तुलनात्मक अवधारणा, जीवन स्तर तथा समूह का आर्थिक कल्याण आदि ।

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इन मानदण्डों को भली-भांति समझने के लिये हम इनका विस्तृत अध्ययन करें:

Way # 1. विकास के सूचक के रूप में राष्ट्रीय आय (National Income as an Index of Development):

अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग का मानना है कि राष्ट्रीय आय की वृद्धि को आर्थिक विकास का सबसे उचित सूचक मानना चाहिये । ये अर्थशास्त्री हैं- साइमन कुजनैटस, मायर तथा बाल्डविन । प्रो. कुजनैटस ने इस विधि को आर्थिक विकास के माप का आधार स्वीकार किया है ।

इस प्रयोजन से, शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद (NNP) को कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) की तुलना में वरीयता दी जाती है क्योंकि यह राष्ट्र की प्रगति के सम्बन्ध में बेहतर जानकारी देता है ।

प्रो. मायर और बाल्डविन के अनुसार- “यदि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास के माप के रूप में लिया जाये तो, उसकी वास्तविक राष्ट्रीय आय के बढ़ जाने पर देश को विकसित न हुआ कहना अनुपयुक्त प्रतीत होगा यदि जनसंख्या भी उसी दर से बढ़ जाये ।”

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इसी तरह प्रो. मैकेड कहते हैं कि- ”कल्याण को मापने के लिये प्रति व्यक्ति आय की तुलना में कुल आय की धारणा अधिक प्रासंगिक है ।”

अत: आर्थिक विकास को मापने के लिये सर्वाधिक अनुकूल उपाय अन्तिम वस्तुओं और सेवाओं की गणना करना होगा, परन्तु उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान यन्त्रों और पूंजीगत वस्तुओं के प्रयोग पर ध्यान देना आवश्यक है ।

विकास के सूचक के रूप में राष्ट्रीय आय के पक्ष में तर्क:

वास्तविक राष्ट्रीय आय को आर्थिक विकास का माप स्वीकार करने के पक्ष में कुछ तर्क प्रस्तुत किये गये हैं:

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(i) प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि के लिये, विस्तृत वास्तविक राष्ट्रीय आय सामान्यतया एक पूर्वापेक्षा है । अत: बढ़ती हुई राष्ट्रीय आय को आर्थिक विकास का संकेत माना जा सकता है ।

(ii) यदि प्रति व्यक्ति आय को आर्थिक विकास के माप के लिये प्रयोग किया जाता है तो जनसंख्या समस्या को छुपाया जा सकता है क्योंकि जनसंख्या को पहले ही विभाजित किया जा चुका होता है ।

इस सम्बन्ध में प्रो. साइमन कुजनैट लिखते हैं- “प्रति व्यक्ति, प्रति इकाई अथवा आर्थिक विकास के माप के किसी भी एक उपाय के चयन के साथ अनुपात के हर (Denominator) की उपेक्षा का खतरा होता है ।”

(iii) यदि प्रति व्यक्ति आय में एक वृद्धि को आर्थिक विकास का माप माना जाता है, तो वास्तविक आय के बढ़ने पर यह कहना अनुचित होगा कि देश विकसित नहीं हुआ है जबकि उसी दर से जनसंख्या भी बढ़ गई है ।

विकास के सूचक के रूप में राष्ट्रीय आय के विरुद्ध तर्क:

आर्थिक विकास के माप के रूप में राष्ट्रीय आय के पक्ष में तर्कों के बावजूद इस अवधारणा में कुछ त्रुटियां हैं जैसे:

(i) यदि आय का वितरण समरूप न हो तो राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने पर भी यह निश्चित रुप में नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक कल्याण बढ़ गया है ।

(ii) राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय के विस्तार से ही समृद्धि की पहचान नहीं की जा सकती क्योंकि कुल उत्पाद न की संरचना भी महत्व रखती है । उदाहरणतया, कुल उत्पादन में विस्तार के साथ प्राकृतिक साधनों में कमी भी हो सकती है या यह केवल शस्त्र उत्पादन द्वारा संघटित हो सकती है या फिर केवल पूंजी वस्तुओं का ही अधिक उत्पादन हो सकता है ।

(iii) इसे केवल इस बात पर विचार नहीं करना चाहिये कि क्या उत्पादित हो रहा है बल्कि इस बात पर विचार करना चाहिये कि कैसे उत्पादित हो रहा है ? यह सम्भव है जब वास्तविक राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ता है, तो वास्तविक लागत अर्थात् समाज का दर्द और त्याग भी बढ़ जाये ।

(iv) किसी अल्प-विकसित देश में कीमत परिवर्तनों के प्रयत्नों को समाप्त करने के लिये उचित उप-स्फीतिकों का निर्धारण कठिन है ।

(v) यह तब भी जटिल होता है जब औसत आय बढ़ रही हो परन्तु जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण बेरोजगारी भी विद्यमान रहे, ऐसी स्थिति विकास के अनुकूल नहीं होती ।

Way # 2. प्रति व्यक्ति वास्तविक आय (Per Capital Real Income):

कुछ अर्थशास्त्रियों का विश्वास है कि आर्थिक विकास व्यर्थ होगा यदि वह सामान्य लोगों के जीवन स्तर में सुधार नहीं लाता । अत: वे कहते हैं कि आर्थिक विकास का अर्थ कुल उत्पादन को बढ़ाना है । इस विचार के अनुसार आर्थिक विकास को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिये जिसके द्वारा वास्तविक प्रति व्यक्ति आय दीर्घकालिक अवधि में बढ़ती है ।

हार्वे लेबनस्टीन (Harvey Leibenstein), रोस्टो (Rostow), बैरन (Baron) बुच्चानन (Buchauan) तथा अनेक अन्य अर्थशास्त्री आर्थिक विकास के सूचक के रूप में प्रति व्यक्ति उत्पादन के पक्ष में हैं ।

अल्प विकसित देशों के आर्थिक विकास के माप के उपायों पर यू. एन. ओ. विशेषज्ञों ने अपने प्रतिवेदन में भी विकास के इस माप को स्वीकार किया है । चार्ल्स पी. किन्डलबर्गर ने भी इसी विधि का सुझाव दिया है, वे राष्ट्रीय आय के आंकड़ों का ध्यानपूर्वक परिकलन करने पर बल देते है ।

प्रति व्यक्ति आय के पक्ष में तर्क (Arguments in Favour of Per Capital Income):

 

प्रति व्यक्ति आय के मानदण्ड के पक्ष में तर्कों को इस प्रकार संक्षिप्त किया जा सकता है:

(i) विकास का मौलिक उद्देश्य निर्धनों के लिये उच्च उपयोग स्तर की प्राप्ति और बढ़ती हुई प्रति व्यक्ति आय को माना गया है । यदि विकास के परिणामस्वरूप लोगों का जीवन स्तर नहीं बढ़ता तो इसे आर्थिक विकास का सच्चा संकेतक नहीं कहा जा सकता ।

केवल कुल राष्ट्रीय आय में वृद्धि को आर्थिक विकास का सूचक नहीं माना जा सकता । इसलिए, यह अभीष्ट है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि के साथ लोगों के जीवन स्तर में भी वृद्धि हो । प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि से ही उपभोग स्तर में सुधार सम्भव है ।

(ii) अल्प-विकसित और विकसित देशों के बीच भिन्नता का मुख्य बिन्दु है- प्रति व्यक्ति आय के उत्पादन में उनकी क्षमता में अन्तर । अत: आर्थिक विकास का अर्थ आवश्यक रूप में अर्थव्यवस्था में जनसंख्या की प्रति व्यक्ति वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन की क्षमता में वृद्धि से है । यह इस बात का संकेत होगा कि विकास हो रहा है ।

(iii) प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि लोगों के कल्याण में वृद्धि का एक अच्छा सूचक होगा । विकसित देशों में मुख्य प्रवृत्ति यह है कि उनकी कुल आय उनकी जनसंख्या में वृद्धि से कहीं अधिक तीव्रता से बढ़ी है ।

अत: ऐसी स्थिति में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय लगातार बढ़ रही है और परिणामस्वरूप वहां के लोगों के कल्याण में वृद्धि हो रही है । इस प्रकार प्रति व्यक्ति आय को लोगों के कल्याण का बेहतर सूचक माना जा सकता है ।

प्रति व्यक्ति आय के विरुद्ध तर्क (Arguments against Per Capital Income):

विकास के सूचक के रूप में प्रति व्यक्ति आय की अनेक अर्थशास्त्रियों ने आलोचना की है ।

उनके द्वारा प्रस्तुत तर्क निम्न हैं:

(i) जहां तक कि ध्यानपूर्वक गणना किये गये राष्ट्रीय आय के अनुमान और सर्वोत्तम उपलब्ध आंकड़ों से प्राप्त की गई प्रति व्यक्ति आय भी आर्थिक विकास के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं की उपेक्षा कर देती है । आर्थिक वृद्धि एक बहुमुखी परिदृश्य है, इसमें न केवल मौद्रिक आय सम्मिलित है, बल्कि सामाजिक गतिविधियों जैसे शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अधिक आराम आदि में सुधार भी सम्मिलित हैं ।

(ii) प्रति व्यक्ति के आय के अनुमान हमें समाज में धन के वितरण के सम्बन्ध में कुछ नहीं बताते । सम्भव है कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही हो और फिर भी सम्पदा के कुछ ही हाथों में अत्यधिक केन्द्रीकृत होने के कारण लोग निर्धन हों । अत: वास्तविक आर्थिक विकास में न केवल बढ़ती हुई प्रति व्यक्ति आय ही सम्मिलित है बल्कि लोगों के बीच आय का उचित वितरण भी आवश्यक है ।

इसलिये, यह निश्चित रूप में दावा नहीं किया जा सकता कि आर्थिक कल्याण बढ़ा है या नहीं । प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि अपने आप में आर्थिक विकास के लिये पर्याप्त शर्त नहीं है । अन्य शब्दों में ये लोगों के कल्याण की केवल आंशिक सूचक है ।

(iii) प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय के आंकड़े प्राय: अशुद्ध भ्रामक और अविश्वसनीय होते हैं, क्योंकि राष्ट्रीय आय के आंकड़ों में और इसकी गणना में अशुद्धियां होती हैं । अत: प्रति व्यक्ति आय के परिकलन में कुछ बाधाएं और समस्याएं हैं ।

उपरोक्त त्रुटियों के बावजूद, प्रति व्यक्ति आय को आर्थिक विकास का एक उचित और तर्क संगत सूचक स्वीकार किया जाता है ।

“किसी देश का आर्थिक विकास मुख्यतया बेहतर पोषण और बेहतर शिक्षा, बेहतर जीवन यापन की स्थितियों और विश्व के निर्धन लोगों के लिये काम और आराम के विस्तृत अवसरों से सम्बन्धित होता है । यदि, यह आर्थिक विकास के अन्तिम उद्देश्य है तो प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि निश्चित रूप में उनकी प्राप्ति के लिये महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक साधन है ।” –गारलैण्ड एम. मायर

Way # 3. तुलनात्मक धारणा (Comparative Concept):

आर्थिक विकास एक तुलनात्मक धारणा है तथा इसे आसानी से समझा और मापा जा सकता है । एक सरल रूप में, तुलनात्मक धारणा से हम सुनिश्चित कर सकते हैं कि किसी देश ने कितना आर्थिक विकास प्राप्त किया है ।

किसी समय अवधि में तुलना दो विधियों द्वारा की जा सकती है:

(क) देश के भीतर तुलना,

(ख) अन्य देशों के साथ तुलना ।

(क) देश के भीतर तुलना (Comparison within the Make it Hold Country):

किसी देश के आर्थिक विकास की किसी समय अवधि में तुलना के लिये हमें दीर्घ काल पर विचार करना होगा तथा इसे विभिन्न समय अवधियों में विभाजित करना होगा । उदाहरणार्थ सन् 1970 में राष्ट्रीय आय 1000 करोड़ रुपये थी जो सन् 1975 में 1200 करोड़ रुपये तक तथा सन् 1980 में 1800 करोड़ रुपये तक बढ़ गई । सन् 1985 में इसे 2250 करोड़ रुपये पंजीकृत किया गया । इसलिये पाँच वर्षों के दौरान अर्थात् 1970 से 1975 तक राष्ट्रीय आय 20 प्रतिशत बढ़ती है ।

(200 × 100/1000 =20%) सन् 1975 से 1980 तक यह 50 प्रतिशत बढ़ी (600 × 100/1200) और सन् 1980 से 1985 तक यह 25 प्रतिशत बढ़ी (450 × 100/1800 =25%) । इसे रेखाचित्र 1.1 द्वारा प्रदर्शित किया गया है ।

रेखाचित्र 1.1 दर्शाता है कि सन् 1970 में राष्ट्रीय आय 1000 करोड़ रुपये थी जो सन् 1975 में बढ़कर 1200 करोड़ रुपये और सन् 1980 में बढ़कर 1800 करोड़ रुपये हो गई । इसलिये 5 वर्षों की अवधि में राष्ट्रीय आय में वृद्धि दर क्रमश: 20 प्रतिशत, 50 प्रतिशत और 25 प्रतिशत रही है ।

 

(ख) अन्य देशों के साथ तुलना (Comparison with Other Countries):

रेखाचित्र 1.2 में समय को क्षैतिज अक्ष OX पर और राष्ट्रीय आय को ऊर्ध्व अक्ष OY पर दिखाया गया है । वक्र रेखा PP’ देश A के विकास का पथ दर्शाता है (आय में धीमी वृद्धि दर्शाते हुये) । वक्र रेखा mm’ देश B के विकास का मार्ग दर्शाती है ।

काल अवधियों के आरम्भ में देश B की राष्ट्रीय आय देश A की राष्ट्रीय आय कहीं उच्च स्तर पर है । परन्तु कुछ ही समय में, देश A के विकास की दर देश B की विकास की दर से बढ़ जाती है ।

बिन्दु E अर्थात् समय अवधि 5 पर दोनों देशों की राष्ट्रीय आय बराबर है, दीर्घकाल में अथवा कुछ समय अन्तराल के पश्चात् देश A की राष्ट्रीय आय देश B से अधिक हो जाती है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि देश A की अर्थव्यवस्था अधिक विकासशील है और देश B की अर्थव्यवस्था तुलनात्मक रूप में क्षय हो रही है ।

Way # 4. आर्थिक कल्याण का मानदण्ड (Economic Welfare Criteria):

कुछ अर्थशास्त्रियों का सुदृढ़ विश्वास है की आर्थिक विकास का अन्तिम उद्देश्य लोगों के आर्थिक कल्याण को बढ़ाना है । इसलिये आर्थिक कल्याण में वृद्धि आर्थिक विकास का अधिक प्रासंगिक सूचक होगा ।

कल्याण की दृष्टि से हमें केवल इस बात का ही ध्यान नहीं रखना कि क्या उत्पादित हुआ है बल्कि यह भी देखना कि यह कैसे उत्पादित हुआ है तथा यह कैसे वितरित हुआ है ।

इसका अर्थ है कि हम मूल्य निर्णय में रुचि रखते हैं । इस सन्दर्भ में प्रो. गैराल्ड एम. मायर ने भी कहा है कि प्रति व्यक्ति वास्तविक आय आर्थिक कल्याण की केवल आंशिक सूचक है क्योंकि आर्थिक कल्याण में वितरण की वांछनीयता का निर्णय भी सम्मिलित है ।

इसलिये यह विश्वासपूर्वक कहना सम्भव नहीं कि प्रति व्यक्ति आय के बढ़ने पर आर्थिक कल्याण भी बढ़ा है जब तक हम आय के वर्तमान वितरण के सम्बन्ध में सन्तुष्ट न हों ।

वास्तव में, आर्थिक विकास में केवल वितरणात्मक न्याय का प्रश्न ही सम्मिलित नहीं होता बल्कि उत्पादन की संरचना और इस उत्पादन के मूल्यांकन का प्रश्न भी सम्मिलित हो सकते हैं ।

इसमें यह प्रश्न भी सम्मिलित हो सकती हैं कि किस सामाजिक लागत पर यह उत्पादित हुआ है । किसी विद्वान ने सत्य ही कहा है कि- “आर्थिक विकास कि मात्रा के निर्धारण के लिये अपनाये जाने वाले सभी मानदण्डों में वास्तविक प्रति व्यक्ति आय का मानदण्ड सबसे कम संतोषजनक है ।”

इसी प्रकार कोलिन क्लार्क (Colin Clark) आर्थिक कल्याण के संवर्धन, वास्तविक आय और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को यद्यपि आर्थिक कल्याण बढ़ाने के लिये आवश्यक मानते हैं, परन्तु किसी भी प्रकार से यह इसके लिए आवश्यक शर्त नहीं है । इसके अतिरिक्त, उत्पादक सम्पत्ति में वृद्धि का आर्थिक विकास पर प्रभाव है ।

“किसी देश द्वारा प्राप्त कल्याण के मानक का एक संकेत, इसके द्वारा अर्जित उत्पादक सम्पत्ति की मात्रा है । जैसे ही एक अर्थव्यवस्था उन्नत होती है, तो नये उत्पादन साधन खोजे जाते हैं, वर्तमान संसाधनों का बेहतर उपयोग होता है और राष्ट्रीय एवं मानवीय पूंजी का संवर्धन होता है । किसी देश के पास ये साधन जितने अधिक होंगे उतनी ही उस देश की आर्थिक स्थिति बेहतर होगी ।” -डी. ब्राइट सिंह

निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि आर्थिक कल्याण की धारणा त्रुटिहीन नहीं है क्योंकि इस धारणा की प्रकृति विषयगत (Subjective) है जिसे निर्धारित करना बहुत कठिन है । इसके अतिरिक्त आर्थिक विकास एक सापेक्ष परिदृश्य है तथा व्यक्ति से व्यक्ति और स्थान से स्थान परिवर्तित होता है ।

Way # 5. जीवन स्तर का मानक (Standard of Living Criterion):

आर्थिक विकास के माप का एक अन्य मानदण्ड जीवन का स्तर है । इस विचार के अनुसार जीवन स्तर को आर्थिक विकास का संकेत माना जाना चाहिये न कि प्रति व्यक्ति आय या राष्ट्रीय आय में वृद्धि को, लोगों के विकास का मूल उद्देश्य है लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाकर अथवा जीवन स्तर को ऊपर उठा कर उन्हें बेहतर जीवन उपलब्ध कराना ।

अन्य शब्दों में इसका अर्थ है व्यक्ति के औसत उपभोग स्तर में वृद्धि । परन्तु व्यवहार में यह मानक सत्य नहीं है । आओ हम कल्पना करें कि राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय दोनों बढ़ते हैं, परन्तु सरकार भारी कराधान अथवा अनिवार्य जमा योजना या किसी अन्य ढंग से आय की इस वृद्धि को प्राप्त कर लेती है ।

ऐसी स्थिति में औसत उपभोग स्तर अर्थात् जीवन स्तर के बढ़ने की कोई सम्भावना नहीं होती । इसके अतिरिक्त, निर्धन देशों में, उपभोग की प्रवणता पहले ही बहुत ऊँची होती है तथा बचतों और पूंजी निर्माण के प्रोत्साहन के लिये व्यर्थ उपभोग को कम करने के लिये कड़े प्रयत्न किये जा रहे हैं । पुन: ‘जीवन स्तर’ एक अवास्तविक धारणा है जिसे वस्तुपरक मानदण्ड से मापा नहीं जा सकता ।

निष्कर्ष:

अन्य अर्थशास्त्रियों अनुसार कुछ अन्य मानदण्ड भी हैं जैसे वितरण का प्रतिरूप और व्यावसायिक संरचना का मानदण्ड जो आंशिक रूप में आय के आंकडों को मापते है ।

प्रो. आर. एफ. हैरोड वृद्धि की तीन भिन्न दरों G, Gw और Gn का वर्णन करते हुये कहते हैं कि ऊपर परिचर्चित सभी विधियों में किसी भी विधि को अधिक महत्त्वपूर्ण अथवा महत्वहीन संकेत कहना कठिन है ।

विभिन्न विधियां अन्तर्सम्बन्धित और परस्पर निर्भर हैं । वास्तव में, दो विधियों के चयन में बड़ा विवाद पाया जाता है- राष्ट्रीय आय का मानदण्ड और प्रति व्यक्ति आय का मानदण्ड, जिनके अपने-अपने लाभ और हानियां हैं ।

परिचर्चा को संक्षिप्त करते हुये हम कह सकते हैं कि ‘प्रति व्यक्ति वास्तविक आय’ को विकासशील देशों के लिये सर्वोत्तम उपलब्ध मानदण्ड माना जा सकता है जबकि ‘राष्ट्रीय आय सूचक’ विश्व के उन्नत देशों के लिये अधिक उपयुक्त है ।