एक देश का आर्थिक विकास: सार्वभौमिक आउटलुक | Read this article in Hindi to learn about the universal outlook of economic development.

इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि विश्व की तीन चौथाई से अधिक जनसंख्या पद-दलित है तथा विकासशील देशों में रहती है । वर्षा और धूप से बचने के लिये उनके पास आश्रय नहीं, तन को ढकने के लिए वस्त्र नहीं, भूख और प्यास मिटाने के लिए आहार और जल का अभाव है ।

उनका स्वास्थ्य निर्बल है, वे पढ़ या लिख नहीं सकते, बेरोजगार हैं तथा उनके लिये एक अच्छे जीवन की सम्भावनाएं बहुत कम अथवा अनिश्चित है । जीवन स्तरों में यह विश्व स्तरीय अन्तर स्पष्ट दिखाई देते हैं । आज का गतिशील संसार विविध दृश्य प्रस्तुत करता है तथा उन विभिन्न रूपों पर प्रकाश डालता है जिनमें आज का समाज रहता है ।

इसके विपरीत संसार में, अनेक अभागे लोग हैं, जो निरन्तर मानसिक तनाव और शारीरिक दबावों में रहते हैं, उनमें भी विश्राम का आनन्द लेने, घूमने फिरने, ताजी हवा में सांस लेने, स्वच्छ जल पीने, गहरे लाल रंग का सूर्यास्त देखने की इच्छा होती है, परन्तु उन्हें खिलने और सुगन्ध देने का अवसर नहीं प्राप्त होता ।

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हमारे ग्रह के विभिन्न भागों में जीवन की पहली झलक विभिन्न प्रश्न खड़े करने के लिये पर्याप्त है । समृद्धि और अत्याधिक निर्धनता का सहवास न केवल भिन्न-भिन्न महाद्वीपों में परन्तु एक ही देश और यहां तक कि एक ही शहर में क्यों है?

क्या परम्परावादी, कम उत्पादक, निर्वाह स्तर पर रहने वाले समाजों को आधुनिक, उच्च उत्पादन और उच्च आय वाले राष्ट्रों में बदला जा सकता है ? निर्धन देशों की विकास प्रत्याशाएं समृद्ध देशों की आर्थिक गतिविधियां में किस सीमा तक सहायतक अथवा बाधक होती हैं?

किस प्रक्रिया द्वारा और किन परिस्थितियों में निर्वाह स्तर के ग्रामीण किसान, नाइजीरिया, ब्राजील और फिलपाइन जैसे दूरस्थ क्षेत्रों में सफल व्यवसायिक किसान बन जाते हैं? अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय अन्तरों के सम्बन्ध में-जीवन के स्तरों में अन्तर तथा स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, रोजगार, जनसंख्या वृद्धि और जीवन प्रत्याशा सम्बन्धी अन्तर से सम्बन्धित अनेक प्रश्न हैं ।

विकास अर्थशास्त्र का अध्ययन क्यों? कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न (Why Study Development Economics? Some Critical Questions):

आर्थिक विकास एक जटिल परिदृश्य है । बेड़ियों को तोड़ कर उन्नति और समृद्धि की प्राप्ति कठिन हो गई है । हम प्राय: बहुत से प्रश्नों के बीच घिरे होते हैं जिनका उचित समाधानों के साथ उत्तर देना होगा ।

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यह प्रश्न हैं:

1. विकास का वास्तविक अर्थ क्या है? विभिन्न आर्थिक धारणाएं और सिद्धान्त विकास प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने में कैसे योगदान कर सकते हैं?

2. राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धि के स्त्रोत क्या हैं? ऐसी वृद्धि से किसको लाभ पहुंचता है और क्यों? कुछ देश तीव्र उन्नति क्यों करते हैं जबकि अन्य बहुत से देश निर्धन रहते हैं?

3. विकास के कौन से सिद्धान्त सबसे अधिक प्रभावशाली है तथा क्या वे अनुकूल हैं? क्या अल्प विकास एक आन्तरिक (घरेलू) नया बाहरी (अन्तर्राष्ट्रीय) रुप में प्रेरित परिदृश्य है ?

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4. नये विकसित विश्व में आर्थिक प्रगति के ऐतिहासिक अभिलेख से क्या सीखा जा सकता है? क्या आरम्भिक स्थितियां समकालीन अल्प विकसित देशों के लिये वैसी होती हैं या भिन्न, जैसी स्थितियों का विकसित देशों ने अपने औद्योगिकीकरण के समय सामना किया था ।

5. स्त्रियों की भूमिका और उनकी स्थिति में सुधार का विकास सम्भावनाओं पर विशेष रूप में लाभप्रद प्रभाव कैसे हो सकता है?

6. क्या तीव्र जनसंख्या वृद्धि विकासशील देशों के आर्थिक विकास के लिये भय का कारण बनी हुई है? क्या व्यापक निर्धनता और वित्तीय असुरक्षा के वातावरण में बड़े परिवार आर्थिक रूप में सार्थक हैं?

7. विकासशील संसार में विशेषतया शहरों में इतनी अधिक बेरोजगारी क्यों है ? लोग गांवों से शहरों की ओर स्थानान्तरित क्यों हो रहें हैं जबकि वहां उनके रोजगार प्राप्त करने के कम अवसर होते हैं?

8. क्या तीसरे विश्व की शैक्षिक प्रणाली वास्तव में आर्थिक विकास को बढ़ाती है अथवा वह केवल कुछ चुने हुये वर्गों के लोगों को सम्पत्ति, शक्ति और प्रभाव बनाये रखने के योग्य बनाती है?

9. जबकि बहुत से अल्प विकसित देशों की जनसंख्या का 60% से 70% भाग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है, कृषि और ग्रामीण विकास कैसे बढ़ाया जा सकता है? क्या कृषि वस्तुओं की ऊंची कीमतें अन्न उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये पर्याप्त हैं अथवा ग्रामीण संस्थागत परिवर्तनों (भूमि पुनर्वितरण, सड़कें, यातायात, शिक्षा, साख आदि) की भी आवश्यकता है?

10. ”पर्यावरणीय सतत विकास” से हम क्या समझते हैं? क्या सतत विकास को जारी रखने की गम्भीर आर्थिक लागतें हैं जो सरल उत्पादन वृद्धि के विपरीत है । विश्व स्तर पर पर्यावरणीय हानि के लिये मुख्यतया कौन उत्तरदायी है? समृद्ध उत्तर अथवा निर्धन दक्षिण ।

11. क्या विस्तृत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार निर्धन राष्ट्रों के विकास के दृष्टिकोण से वांछनीय है ? व्यापार से वास्तव में किसे लाभ होता है तथा राष्ट्रों में लाभों का वितरण कैसे किया जाता है ।

12. क्या प्राथमिक वस्तुओं जैसे कृषि वस्तुओं के निर्यात को उत्साहित किया जाये अथवा क्या सभी अल्प विकसित देशों को जितनी तीव्रता से सम्भव हो अपने भारी निर्माण उद्योगों को विकसित करके उद्योगीकरण का प्रयत्न करना चाहिये ।

13. विकासशील राष्ट्र कैसे गम्भीर विदेशी ऋण समस्याओं में फंस जाते हैं और अल्प विकसित एवं अधिक विकसित राष्ट्रों को अर्थव्यवस्थाओं के लिये इस ऋण के क्या उलझाव हैं ?

14. अल्प विकसित देशों की सरकारों को कब और किन परिस्थितियों में विदेशी विनिमय नियन्त्रण की नीति अपनानी चाहिये, शुल्क बढ़ाने चाहिये, अथवा कुछ “गैर आवश्यक” वस्तुओं के आयात का कोटा निश्चित करना चाहिये ताकि उनके अपने औद्योगिकीकरण का संवर्धन हो अथवा गम्भीर भुगतान सन्तुलन की समस्याओं में सुधार हो ?

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के ”स्थायीकरण कार्यक्रमों” और विश्व बैंक के ”संरचनात्मक समन्वय” भुगतानों के सन्तुलन पर ऋण तथा भारी ऋण से दबे हुये अल्प विकसित देशों की वृद्धि सम्भावनाओं का क्या प्रभाव रहा है ?

15. क्या बड़े और शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय निगमों को निर्धन राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं में निवेश के लिये प्रोत्साहित किया जाये तथा यदि ऐसा किया जाता है तो किन शर्तों पर ? ‘विश्व स्तरीय कारखाने’ और व्यापार एवं वित्त के विश्वीकरण की उत्पत्ति ने किस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित किया है?

16. समृद्ध देशों की विदेशी आर्थिक सहायता का क्या प्रभाव है ? क्या विकासशील देशों को ऐसी सहायता प्राप्त करते रखना चाहिये तथा यदि ऐसा है तो किन शर्तों पर ? किन उद्देश्यों के लिये ? क्या विकसित देशों को ऐसी सहायता देना जारी रखना चाहिये तथा यदि हां तो किन शर्तों और किन उद्देश्यों के लिये ?

17. क्या मुक्त बाजार और आर्थिक निजीकरण विकास समस्याओं का उत्तर है अथवा क्या तीसरे विश्व की सरकारों को अब भी उनकी अर्थव्यवस्थाओं में मुख्य भूमिकाएं निभानी हैं ?

18. आर्थिक विकास के संवर्धन में वित्तीय एवं राजकोषीय नीति की क्या भूमिका है? क्या भारी सैनिक व्यय आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करते हैं या प्रतिबन्धित?

19. भूतपूर्व सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद से पूंजीवाद में आर्थिक बदलाव अन्तर्राष्ट्रीय निजी निवेश तथा तीसरे विश्व के देशों को मिलने वाली विदेशी सहायता को कैसे प्रभावित करेगा?

20. इक्कीसवीं शताब्दी में विकासशील विश्व कौन सी अति महत्त्वपूर्ण समस्याओं का सामना कर रहा है? क्या प्रथम और तीसरे विश्व के राष्ट्रों के भीतर अधिक वैश्विक अन्तरनिर्भरता विकास सम्भावनाओं को बढ़ायेगी या रोकेगी?

यह प्रश्न पूछने तथा इनके उचित उत्तर प्राप्त करने का अन्तिम उद्देश्य अथवा प्रयोजन क्या है ? यहां इन्हें अध्ययन पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने का एक ही प्रयोजन है । यह आर्थिक समस्याओं का व्यवस्थित ढंग से अध्ययन करेगा तथा सम्बन्धित नियमों और विश्वसनीय सांख्यिक सूचना के आधार पर निर्णयों और निष्कर्षों का निर्माण करेगा ।

आधुनिक विश्व में बहुत सी जटिल समस्याएं हैं जिन्हें विशेष व्यवहार की आवश्यकता है । फिर भी, परम्परागत आर्थिक नियम विकास समस्याओं सम्बन्धी हमारे ज्ञान को सुधारने, स्थानीय स्थितियों की वास्तविकताओं पर ध्यान देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं ।

विकास अर्थशास्त्र में मूल्यों की भूमिका (Role of Values in Development Economics):

अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान है । यह मनुष्यों और सामाजिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित है जिसके द्वारा वह मौलिक भौतिक आवश्यकताओं (अर्थात् आहार, आश्रय, वस्त्र) और गैर-भौतिक आवश्यकताओं (जैसे- शिक्षा, ज्ञान, आध्यात्मिक सन्तुष्टि) की सन्तुष्टि के लिये अपनी गतिविधियों को व्यवस्थित करता है ।

अर्थशास्त्री और वैज्ञानिक कुछ असाधारण स्थिति का सामना करते हैं जिसमें उनके अध्ययनों की वस्तुएं-जीवन के सामान्य व्यवहार में मनुष्यों तथा उनको अपनी गतिविधियां उसी सामाजिक सन्दर्भ में स्थित होती हैं । भौतिक विज्ञानों के विपरीत, अर्थशास्त्र का सामाजिक विज्ञान न तो वैज्ञानिक नियमों तथा न ही सार्वभौम सत्यों का दावा कर सकता है ।

जैसे कि पहले वर्णन किया जा चुका है, अर्थशास्त्र में केवल प्रवृत्तियां हो सकती हैं और वह भी विभिन्न समयों पर विभिन्न देशों और संस्कृतियों में महान विविधताओं पर निर्भर है ।

बहुत से तथाकथित सामान्य अर्थशास्त्र के मॉडल वास्तव में मानवीय व्यवहार और आर्थिक सम्बन्धों पर आधारित है जिनका विकासशील अर्थव्यवस्थाओं से बहुत थोड़ा अथवा कोई सम्बन्ध नहीं होता । इस सीमा तक, उनके सामान्य निष्कर्ष और सामान्यता और उद्देश्य वास्तविक न होकर अधिक काल्पनिक हो सकते हैं ।

आर्थिक जांचों को उनके संस्थानिक, सामाजिक और राजनैतिक सन्दर्भों से अलग नहीं किया जा सकता । विशेषतया जब कोई मानवीय समस्या भूख, निर्धनता और रुग्ण स्वास्थ्य से सम्बद्ध हो जिसकी पकड़ में संसार की भारी जनसंख्या है ।

इसलिये, यह आवश्यक है कि आरम्भ से ही उन नैतिक तथा नियामक मूल्य आधार वाक्यों को पहचाना जाये कि सामान्य रूप में क्या वांछनीय है तथा क्या नहीं विशेषतया विकास अर्थशास्त्र के संदर्भ में ।

आर्थिक विकास और आधुनिकीकरण की मुख्य धारणाएं अस्पष्ट और स्पष्ट मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती है जो उन वांछनीय की प्राप्ति से सम्बन्धित है जिन्हें महात्मा गांधी ने एक बार ”मानवीय क्षमताओं की प्राप्ति” कहा था ।

धारणाएं एवं लक्ष्य जैसे आर्थिक और सामाजिक समानता, निर्धनता का उन्मूलन, सार्वभौम शिक्षा, जीवन के बढ़ते हुए स्तर, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता, संस्थाओं का आधुनिकीकरण, राजनीतिक एवं आर्थिक भागीदारी, व्यापक प्रजातन्त्र निर्भरता और व्यक्तिगत सन्तुष्टि तथा अच्छा और वांछनीय क्या है और क्या नहीं के सम्बन्ध में सभी व्यक्तिपरक मूल्य निर्णय ।

ऐसे भी, विरुद्ध मूल्य क्या है? उदाहरणतया निजी सम्पत्ति की पवित्रता वह चाहे कैसे भी प्राप्त की गई हो तथा असीमित व्यक्तिगत धन संचय के अधिकार, परम्परावादी श्रेणीबद्ध सामाजिक संस्थाओं का संरक्षण कठोर असमतावादी श्रेणी संरचना और कल्पित ‘प्राकृतिक आधार’ कुछ मार्गदर्शन करते हैं जबकि अन्य अनुसरण करते हैं ।

 

सामाजिक व्यवस्था के रूप में अर्थशास्त्र : सरल अर्थशास्त्र से आगे जाने की आवश्यकता (Economic as Social System: The Need to go beyond Simple Economic):

अर्थशास्त्र और विशेषतया तीसरे विश्व में आर्थिक व्यवस्थाओं को, परम्परावादी अर्थशास्त्र द्वारा कल्पित धारणाओं से हट कर उदार परिदृश्य में देखना चाहिये । उनका विश्लेषण, किसी देश की सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में करने के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय तथा सार्वभौम सन्दर्भ में भी करना चाहिये ।

सामाजिक व्यवस्था से हमारा अभिप्राय है तथाकथित आर्थिक एवं गैर आर्थिक कारकों के बीच परस्पर-निर्भरता सम्बन्धों जिसमें कथित रूप से जीवन के प्रति अभिवृत्तियां, कार्य और प्राधिकार, सार्वजनिक और निजी, नौकरशाही, वर्ग, वैधानिक तथा प्रशासनिक ढांचे, रिश्तेदारी और धर्म के प्रतिरूप, सांस्कृतिक परम्पराएं, भूमि काश्तकारी की प्रणालियां, सरकारी अभिकरणों के प्राधिकार एवं सत्यनिष्ठा, विकास निर्णयों और गतिविधियों में लोकप्रिय भागीदारी की मात्रा तथा आर्थिक और सामाजिक श्रेणियों की लोच अथवा कठोरता सम्मिलित हैं ।

स्पष्टतया यह कारक विश्व के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, संस्कृतियों और सामाजिक व्यवस्थाओं में एक दूसरे से भिन्न हैं । अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमें व्यवस्था तथा विश्व-स्तरीय अर्थव्यवस्था के संचलन सम्बन्धी नियमों पर भी विचार करना चाहिये वे कैसे निर्मित किये गये, उन्हें कौन नियन्त्रित करता है तथा उनसे सबसे अधिक लाभ किनको प्राप्त है ।

यह सब देखते हुये, अब यह स्पष्ट है कि वृद्धि तथा इसके सोपानों तथा पूंजी और निपुणताओं की व्यवस्था के साथ विकास सिद्धान्तवादियों ने संस्थागत और संरचनात्मक समस्याओं की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है ।

अर्थशास्त्रियों ने सार्वभौमिक सत्य के साथ भ्रामक सिद्धान्त बनाये हैं । इसलिये उन्होंने गैर-आर्थिक कारकों की भी उपेक्षा की । वास्तव में ये कारक विकास प्रयत्नों की सफलता और असफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं ।

विकास से हमारा क्या अभिप्राय है? (What do we mean by Development?):

विकास शब्द का भिन्न-भिन्न लोगों के लिये भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकता है । आरम्भ में ही यह महत्वपूर्ण होगा कि हमारे पास कुछ क्रियाशील परिभाषाएं हो । ऐसे परिदृश्य तथा कुछ मान्य माप मानदण्डों के बिना, हम यह निर्धारित करने में असमर्थ होगे कि कौन-सा देश वास्तव में विकास कर रहा है तथा कौन सा देश विकास नहीं कर रहा ।

परम्परागत आर्थिक मानदण्ड (Traditional Economic Measures):

आर्थिक सन्दर्भ में विकास का परम्परागत अर्थ किसी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की वह क्षमता है, जिसकी आरम्भिक आर्थिक स्थितियां लगभग एक लम्बे समय के लिये स्थिर रही हो तथा इसके कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में 5% से 7% अथवा अधिक वार्षिक वृद्धि उत्पन्न हुई हो अथवा कायम रखी गई हो जी. एन. पी. जैसा एक माप, जो कुल घरेलू उत्पाद अथवा जी. डी. पी. के रूप में जाना जाता है, का भी प्रयोग किया जाता है ।

विकास का एक सामान्य वैकल्पिक आर्थिक सूचक प्रति व्यक्ति आय अथवा प्रति व्यक्ति जी. एन. पी. की वृद्धि दर का प्रयोग रहा है जिसमें किसी राष्ट्र की जनसंख्या के वृद्धि दर से तीव्र उत्पादन की वृद्धि की क्षमता को ध्यान में रखा गया है ।

“वास्तविक” प्रति व्यक्ति जी. एन. पी. के स्तर और प्रति व्यक्ति वृद्धि की दर (प्रति व्यक्ति जी. एन. पी. की मौद्रिक वृद्धि-मुद्रा स्फीति दर) का प्रयोग प्राय: जनसंख्या के समग्र आर्थिक कल्याण को मापने के लिये किया जाता है अर्थात् एक औसत नागरिक को उपभोग एवं निवेश के लिये कितनी वास्तविक वस्तुएं और सेवाएं उपलब्ध हैं ।

भूतकाल में आर्थिक विकास को विशेषतया उत्पादन एवं रोजगार के नियोजित ढांचे के सन्दर्भ में देखा गया था । इस सन्दर्भ में, कृषि का भाग घटता है तथा निर्माण और सेवा उद्योगों का भाग बढ़ता है ।

इसलिये विकास रणनीतियों को प्राय: तीव्र उद्योगीकरण पर केन्द्रित किया जाता है, यह प्राय: कृषि एवं ग्रामीण विकास की लागत पर होता है । अन्त में, विकास के ये मुख्य आर्थिक उपाय गैर-आर्थिक सामाजिक संकेतकों जैसे साक्षरता में लाभ, स्कूली जीवन, स्वास्थ्य स्थितियां और सेवाएं तथा निवास व्यवस्था के अस्थायी सन्दर्भों द्वारा समर्थित किये गये हैं ।

इसलिये, समग्र रूप में, 1970 के दशक से पहले, विकास को सदा एक आर्थिक परिदृश्य के रूप में देखा गया था जिसमें, समस्त और प्रति व्यक्ति जी. एन. पी. वृद्धि में तीव्र लाभ या तो कार्यों तथा अन्य आर्थिक अवसरों के रूप में जन समूहों तक पहुंच जायेंगे अथवा वृद्धि के आर्थिक एवं सामाजिक लाभों के विस्तृत वितरण की आवश्यक स्थितियों की रचना करेंगे । निर्धनता की समस्याएं बेरोजगारी और आय वितरण का महत्व, वृद्धि कार्य को पूरा करने से दूसरे क्रम पर था ।

विकास का नया आर्थिक दृष्टिकोण (New Economic View of Development):

सन् 1950 और 1960 के दशकों के अनुभव, जब अनेक तीसरे विश्व राष्ट्रों ने अपनी आर्थिक वृद्धि लक्ष्यों को प्राप्त किया परन्तु अधिकांश लोगों का जीवन स्तर अपरिवर्तित रहा जबकि उन्होंने विकास की संकीर्ण परिभाषा को अपनाया ।

बहुत से अर्थशास्त्री और नीति-निर्माता अब जी. एन. पी. को अपदस्थ करने के इच्छुक थे तथा उन्होंने विस्तृत एवं पूर्ण निर्धनता, आय वितरण में बढ़ती हुई असमानताओं और बढ़ते बेरोजगार पर सीधा आक्रमण किया ।

संक्षेप में 1970 के दशक के दौरान आर्थिक विकास को बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में निर्धनता असमानता और बेरोजगारी को कम करने या समाप्त करने के रूप में परिभाषित किया गया । ”वृद्धि द्वारा पुन:वितरण” एक सामान्य नारा बन गया ।

डुडले सीयरस (Dudley Seers) ने विकास के अर्थ के सम्बन्ध में आधारभूत प्रश्न का उत्तर देते हुए दृढ़तापूर्वक कहा:

“किसी देश के विकास के सम्बन्ध में पूछे जाने वाले प्रश्न हैं: निर्धनता को क्या हो रहा है? बेरोजगारी को क्या हो रहा है? असमानता को क्या हो रहा है? यदि ये तीन उच्च स्तरों से नीचे आये हैं, तो निश्चित रूप में यह समय सम्बन्धित देश के लिये विकास का समय रहा है । यदि इन केन्द्रीय समस्याओं में से एक या दो बद से बदतर हुई तो परिणाम को “विकास” नहीं कहा जा सकता । चाहे प्रति व्यक्ति आय दुगनी भी क्यों न हो जाये ।”

परन्तु विकास का परिदृश्य अथवा अल्प विकास की दीर्घकालिक स्थिति केवल अर्थशास्त्र अथवा आय रोजगार और असमानता के मात्रात्मक परिमाप का प्रश्न नहीं है ।

अल्प विकास विश्व के तीन बिलियन लोगों से अधिक के लिये जीवन का एक वास्तविक तथ्य है- मन की एक स्थिति तथा राष्ट्रीय निर्धनता की स्थिति । एग्गर ओवेन्स (Edger Owens) ने भी डैनिस गाउलेट के विचारों का समर्थन किया है ।

यहां तक कि विश्व बैंक ने भी 1980 के दशक में आर्थिक वृद्धि का विकास के लक्ष्य के रूप में समर्थन किया, उदार परिदृश्य के साथ अवलोकनकर्त्ताओं के समूह गान का साथ दिया, जब सन् 1991 में ‘विश्व विकास प्रतिवेदन’ दृढ़तापूर्वक कहा- “जीवन की गुणवत्ता को सुधारना विकास की चुनौती है । विशेषतया, विश्व के निर्धन देशों में, जीवन की बेहतर गुणवत्ता प्राय: उच्च आय की मांग करती है-परन्तु इसमें इससे कहीं अधिक सम्मिलित है । इसमें बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के उच्च स्तर, कम निर्धनता, साफ सुथरा वातावरण, अवसर की अधिक समानता, व्यापक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा एक समृद्ध सांस्कृतिक जीवन आदि सम्मिलित है जो अपने आप में ध्येय है ।”

इसलिये विकास को एक बहुआयामी प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिये जिसमें सामाजिक ढांचे में मुख्य परिवर्तन, लोकप्रिय लक्षण और राष्ट्रीय संस्थाएं तथा आर्थिक वृद्धि का त्वरण, असमानता में कमी और निर्धनता का उन्मूलन सम्मिलित है ।