आर्थिक विकास: अर्थ और विशेषताएं | Read this article in Hindi to learn about the meaning, definition and features of economic growth.
आर्थिक वृद्धि की आशय एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Economic Growth):
वृद्धि एक प्रक्रिया है । आर्थिक वृद्धि इस प्रक्रिया का एक पक्ष है । बहुधा आर्थिक वृद्धि का मापन राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर या प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय की वृद्धि दर द्वारा किया जाता है ।
विकास को वृद्धि से भिन्न देखा गया है । विकास से अभिप्राय है, वृद्धि + परिवर्तन विकास की प्रक्रिया के गुणात्मक आयाम है, जिन्हें प्राय: एक अर्थव्यवस्था की वृद्धि अर्थात् राष्ट्रीय उत्पादन में होने वाली वृद्धि तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन वृद्धि से ही अभिव्यक्त नहीं किया जाता ।
विकास अर्थशास्त्री मात्र राष्ट्रीय उत्पादन में होने वाली वृद्धि से सन्तुष्ट नहीं होते बल्कि वह वृद्धि प्रक्रिया को महत्वपूर्ण मानते हैं । पीटर हाल के अनुसार- बिना वृद्धि के विकास नहीं हो सकता । “विकास” मात्र वृद्धि से अधिक एवं इससे भिन्न है…… यह आदर्श कथन यह प्रदर्शित करता है कि विकास अवश्य ही निर्धनता के निवारण एवं वितरण सम्बन्धी पक्ष को ध्यान में रखता है ।
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संक्षेप में आर्थिक वृद्धि, बढ़ती हुई राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय को प्रभावित करती है जबकि विकास इससे आगे संरचनात्मक परिवर्तन संसाधन खोज एवं क्षेत्रीय अंतरालों को न्यून करने से संबंधित है ।
आर्थिक वृद्धि के विशेषताएँ (Features of Economic Growth):
सामान्य रूप से वृद्धि से अभिप्राय है बढ़ना, अत: प्रति व्यक्ति आय, सकल राष्ट्रीय उत्पादन, सकल घरेलू उत्पादन में होने वाली वृद्धि, आर्थिक वृद्धि की सूचक है ।
लायड जी रेनाल्डस ने वृद्धि को दो भागों में बांटा:
(1) विस्तृत वृद्धि एवं
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(2) गहन वृद्धि ।
आर्थिक वृद्धि को परिभाषित करने का विश्लेषणात्मक तरीका सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि में जनसंख्या वृद्धि का घटाना है । उत्पादन में होने वाली वृद्धि या तो जनसंख्या की वृद्धि के द्वारा अवशोषित होती है या प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि या दोनों के द्वारा ।
ऐसी दशा को जब उत्पादन की बढ़ी हुई क्षमता का पूर्ण अवशोषण जनसंख्या के द्वारा किया जाता है एवं प्रति व्यक्ति आय में कोई वृद्धि नहीं दिखायी देती तो इसे विमत वृद्धि कहा जाता है । एक ऐसी दशा जिसमें जनसंख्या वृद्धि के सापेक्ष उत्पादन की क्षमता में तीव्र वृद्धि हो जिससे प्रति व्यक्ति आय तेजी ये बड़े तो इस दशा को गहन वृद्धि कहा जाएगा ।
आर्थिक वृद्धि की सूचना उद्योग में लगी पूंजी, व्यापार के विस्तार उपभोग में वृद्धि या सामान्य रूप से प्रति व्यक्ति जनसंख्या पर उत्पादन की वृद्धि द्वारा प्राप्त होती है । अत: वृद्धि को सम्पत्ति में होने वाली वृद्धि के द्वारा सूचित किया जा सकता है । आर्थिक वृद्धि को जनसंख्या में परिवर्तन तथा परिवार व कमी द्वारा की गयी कुल बचत व संचय के द्वारा भी परिभाषित किया जाता है ।
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इस प्रकार आर्थिक वृद्धि को प्रणाली से पृथक रखकर इस आधार पर देखा जा सकता है कि जनसंख्या एवं बचत में होने वाले परिवर्तन वर्तमान या चालू समय में अवशोषित हो जाते हैं तथा चक्रीय उच्चावचनों को जन्म नहीं देते ।
(1) होजलिटस ने वृद्धि का वर्गीकरण निम्न तीन भागों में किया:
(i) विस्तारवादी बनाम स्वाभाविक जो कि प्रयोग में न लायी जाने वाली भूमि एवं अन्य उपलब्ध संसाधनों के अंश पर निर्भर करती है ।
(ii) प्रधान बनाम अनुयायी जो अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार की महत्ता पर निर्भर करती है ।
(iii) स्वायत्त बनाम प्रेरित जो केन्द्रीय नियोजन के अंश पर निर्भर करती है ।
(2) प्रो. साइमन कुजनेट्स ने आर्थिक वृद्धि की परिभाषा देते हुए इसे प्रति व्यक्ति अथवा प्रति श्रमिक उत्पाद की स्थिर शुद्धि से सम्बन्धित किया जो बहुधा जनसंख्या में होने वाली वृद्धि एवं संरचनात्मक परिवर्तनों के पुर्णांक के साथ-साथ होती है ।
तदुपरान्त कुजनेटस ने में एक देश की आर्थिक वृद्धि को पूर्ति की क्षमता में होने वाली दीर्घकालीन वृद्धि के द्वारा परिभाषित किया जिसके द्वारा जनसंख्या को विभिन्न आर्थिक वस्तुओं की पूर्ति करना सम्भव बनता है ।
यह बढ़ी हुई उत्पादन क्षमता तकनीक के उन्नत होने एवं संस्थागत व वैचारिक समायोजनों पर निर्भर करती है जो इसकी मांग करते है । साइमन कुजनेट्स की परिभाषा में तीन घटक महत्वपूर्ण हैं ।
(i) एक राष्ट्र की आर्थिक वृद्धि वस्तुओं की पूर्ति में होने वाली वृद्धि के द्वारा अभिव्यक्त की जा सकती है । राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने से उपभोग के स्तर में सुधार आता है, इसके साथ ही भौतिक व मानवीय आवश्यकताओं के लिए किया जाने वाले विनियोग हेतु साधनों का अधिक आवंटन किया जाना सम्भव होता है ।
(ii) आर्थिक वृद्धि हेतु समुन्नत तकनीक अत्यन्त महत्वपूर्ण घटक है । यह जनसंख्या को विविध प्रकार की वस्तुओं की पूर्ति कराने में सहायक होता है । कुजनेट्स के अनुसार तकनीकी प्रगति आर्थिक वृद्धि के लिए एक आवश्यक दशा है लेकिन यह अपने आप में पर्याप्त नहीं है ।
(iii) तकनीक के व्यापक व समर्थ प्रयोग एवं इसके विकास हेतु संस्थागत एवं वैचारिक समायोजन आवश्यक हैं । इससे नव प्रवर्तनों का सार्थक प्रयोग सम्भव होता है । यहाँ यह ध्यान रखना है कि तकनीकी प्रगति के श्रोत एवं संस्थागत व वैचारिक समायोजन विश्व के विभिन्न भागों में एक रूप तरीके से सम्भव नहीं होते ।
प्रो. कुजनेट्स ने आधुनिक आर्थिक वृद्धि के निम्न छह लक्षणों की व्याख्या की:
(i) प्रति व्यक्ति उत्पादन एवं जनसंख्या वृद्धि की उच्च दरें ।
(ii) उत्पादन के साधनों की उत्पादकता में वृद्धि ।
(iii) संरचनात्मक रूपान्तरण की उच्च दरें ।
(iv) तीव्र सामाजिक व वैचारिक रूपान्तरण ।
(v) विकसित देशों का वाह्य विस्तार ।
उपर्युक्त बिन्दुओं की व्याख्या निम्नांकित है:
(i) प्रति व्यक्ति उत्पादन एवं जनसंख्या वृद्धि की उच्च दरें:
प्रो. साइमन कुजनेट्स ने ऐतिहासिक प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट किया कि अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं उन्नीसवीं शताब्दी में प्रति व्यक्ति आय के साथ-साथ जनसंख्या वृद्धि की तीव्र दर दिखाई दी ।
(ii) उत्पादन के साधनों की उत्पादकता में वृद्धि:
आधुनिक आर्थिक वृद्धि का महत्वपूर्ण लक्षण साधन उत्पादकता में होने वाली तीव्र वृद्धि है । इसमें श्रम की मात्रा में होने वाली वृद्धि महत्वपूर्ण है । इस प्रकार आधुनिक आर्थिक वृद्धि को प्रति व्यक्ति उत्पाद की दर में वृद्धि के द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है ।
यह मुख्यत: आदाओं की गुणवत्ता से सम्बन्धित है । संक्षेप में अधिक कुशलता या प्रति इकाई आदा के द्वारा उत्पादकता बढ़ती है । कुजनेट्स के अनुसार उत्पादकता में होने वाला यह सुधार मात्र एक या दो क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं, यह व्यापक प्रवृत्ति रखता है ।
यह प्रवृत्ति उन्नत अर्थव्यवस्था के लगभग प्रत्येक उत्पादन क्षेत्र में दिखायी देती है । यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में उत्पादकता एक ही दर से नहीं बढ़ती । कृषि क्षेत्र की तुलना में औद्योगिक क्षेत्र अधिक तेजी से विस्तार करता है । साथ ही यातायात व संवाद वहन की सुविधाएँ भी बढ़ती हैं ।
राष्ट्रीय उत्पादन के बढ़ने का एक मुख्य कारण जनसंख्या में होने वाली वृद्धि है । इससे अर्थव्यवस्था को अतिरिक्त श्रम शक्ति उपलब्ध होती है । कुजनेट्स के अनुसार राष्ट्रीय उत्पादन में होने वाली वृद्धि पूंजी संचय एवं पुर्नउत्पादनीय पूँजी में वृद्धि करती है ।
विकसित देशों में आर्थिक वृद्धि प्रति व्यक्ति मानव घण्टों में कमी करती है । यह प्रवृत्ति कुशलता या उत्पादकता की सूचक है । यह पाया गया कि प्रायः सभी विकसित देशों के राष्ट्रीय उत्पादन में पुर्नउत्पादनीय पूंजी खा अनुपात बढ़ा । यह भी देखा गया कि शुद्ध घरेलू वृद्धिमान पूंजी-उत्पाद अनुपात में वृद्धि हुई ।
(iii) संरचनात्मक रूपानतरण की उच्च दरें:
कुजनेट्स के अनुसार आधुनिक आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया में कृषि व सम्बन्धित उद्योगों के शेयर में कमी आती है तथा विनिर्माण क्षेत्र, सार्वजनिक उपयोगिता एवं सेवा क्षेत्र बढ़ता है । इन परिवर्तनों के साथ ही श्रम शक्ति के क्षेत्रीय आवंटनों में सुधार होता है ।
व्यावसायिक संगठनों का आकार व स्वरूप बदलता है । विशाल व्यावसायिक उपक्रमों की स्थापना होती है । श्रम शक्ति की अंत: औद्योगिक एवं अंत पेशेगत गतिशीलता में परिवर्तन आता है । अधिक कौशल युक्त क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं ।
(iv) तीव्र सामाजिक एवं वैचारिक रूपान्तरण:
आधुनिक आर्थिक विकास की प्रक्रिया तीव्र सामाजिक एवं वैचारिक परिवर्तनों को समाहित करती है । इनमें सबसे महत्वपूर्ण है दृष्टिकोण का परिवर्तन साथ ही संस्थागत ढाँचा भी तेजी से बदलता है । श्रम उत्पादकता, कुशलता, प्रतिस्पर्द्धा आर्थिक व सामाजिक गतिशीलता तथा जीवन स्तर में परिवर्तन होता है । विवेकशीलता, समन्वय, कार्यनिष्ठा व कार्य के प्रति समर्पण की भावना से अर्न्तवैयक्तिक सम्बन्ध विकसित होते है ।
आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया में कुजनेट्स शहरीकरण को महत्वपूर्ण मानते है । शहरीकरण से श्रम विभाजन व विशिष्टीकरण तथा बाजार अभिमुख क्रियाएँ बढ़ती हैं । उपभोक्ता व्यय में वृद्धि होती है ।
शहरी जीवन महंगा हो जाता है । आम आदमी को आवाम पानी साफ-सफाई, यातायात व अन्य आधारभूत सेवाओं की प्राप्ति हेतु अधिक प्रयास करने पड़ते हैं । इसके साथ ही प्रदर्शन प्रभाव के कारण उपभोक्ता मनोरंजन व विलासिता की वस्तुओं का अधिक प्रयोग करना चाहते है ।
(v) विकसित देशों का वाह्य विस्तार:
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कुजनेट्स ने स्पष्ट किया कि कुछ देश अन्य के सापेक्ष अधिक तेजी से विकास करते हैं । इंग्लैण्ड में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से प्रथम औद्योगिक क्रान्ति का सूत्रपात हुआ तथा इसका फैलाव अन्य यूरोपीय देशों में होता गया ।
जापान व सोवियत संघ में आर्थिक वृद्धि उन्नीसवीं शताब्दी में हुई । पिछड़े देशों व उपनिवेशों में 1940 के दशक के उपरान्त वृद्धि की प्रक्रिया गति प्राप्त कर पाई । निर्धन देशों में एक स्थायी एवं लोचशील राजनीतिक एवं सामाजिक ढांचा विद्यमान न था । जिससे संरचनात्मक परिवर्तन तेजी के साथ न हो पाए ।
साम्राज्यवादी नीतियों ने उपनिवेशों के संसाधनों का शोषण तो किया लेकिन निर्धन देशों में एक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था का रूप प्रदान करने की पहल नहीं की । यातायात व संचार के साधनों का विकास होने से पश्चिमी देश अन्य देशों के निकट सम्पर्क में आए ।
इसके परिणामस्वरूप उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से प्रथम विश्व युद्ध की अवधि तक व्यक्ति, वस्तुओं एवं पूँजी का व्यापक अर्न्तराष्ट्रीय प्रवाह सम्भव बना । इस अवधि में प्रवास की प्रवृत्तियों भी उल्लेखनीय रहीं ।
संक्षेप में, साइमन कुजनेट्स ने आधुनिक आर्थिक वृद्धि के घटकों की व्याख्या करते हुए आय व उत्पादन की वृद्धि दरों संरचनात्मक रूपान्तरण व अतंर्राष्ट्रीय विस्तार की प्रवृत्तियों को मुख्य बताया । कुजनेट्स के अनुसार यह घटक आपसी अर्न्तनिर्भरता रखते है । इनमें तकनीक का जन उपभोग वह आधारभूत घटक है जो वृद्धि के अन्य कारणों को भी प्रभावित करता है ।
(3) आर्थिक वृद्धि के मुख्य लक्षण:
आर्थिक वृद्धि के मुख्य लक्षण निम्न बिन्दुओं द्वारा अभिव्यक्त किए जा सकते हैं:
(i) यह बढ़ती हुई राष्ट्रीय एवं प्रति व्यक्ति आय को सूचित करती है ।
(ii) यह क्रमिक व दीर्घकाल में स्थिर होती है ।
(iii) इसके अधीन प्रणाली के एक या अधिक आयामों में विस्तार होता है ।
(iv) सामान्यतः इसे विकसित देश की समस्याओं से सम्बन्धित किया जाता है ।
(v) यह एक मात्रात्मक प्रक्रिया है ।
(vi) इससे अभिप्राय दी हुई संस्थागत दशाओं में आर्थिक प्राचलों के मूल्य में होने वाला परिवर्तन है ।
(vii) आर्थिक वृद्धि एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है ।
(4) आर्थिक वृद्धि:
गणितीय निरूपण- आर्थिक वृद्धि को गणितीय रूप से निम्न प्रकार अभिव्यक्त कर सकते हैं:
उपर्युक्त व्याख्या से निम्न बिन्दु स्पष्ट होते हैं:
i. आार्थक वृद्धि को वास्तविक राष्ट्रीय उत्पादन (आय) या प्रति व्यक्ति वास्तविक उत्पादन (आय) की वृद्धि के द्वारा सूचित किया जाता है ।
ii. आर्थिक वृद्धि के पूर्ति घटकों में:
(a) एक राष्ट्र के प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा एवं गुणवत्ता
(b) इसके मानवीय संसाधनों की माता व गुण
(c) इसकी पूँजी सुविधाओं का स्टाक एवं तकनीक सम्मिलित की जाती है । यदि अर्थव्यवस्था अपनी वृद्धि सम्भावनाओं को प्राप्त करना चाहती है तो दो अन्य घटक समग्र माँग का यथोचित स्तर एवं आवंटन कुशलता अत्यन्त आवश्यक है ।
iii. यदि एक या अधिक संसाधनों की पूर्ति स्थिर हो, तब ह्रासमान प्रतिफल का नियम, वृद्धि हेतु बाधाकारी होता है ।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वृद्धि की आधारभूत धारणा निर्धनों की आवश्यकता से प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सम्बन्ध नहीं रखती है । कारण यह है कि पूँजी संचय विनियोग तकनीक इत्यादि पर निर्धनों का कोई नियन्त्रण नहीं होता ।