आर्थिक विकास के स्वर्ण युग और प्लैटिनम युग | Read this article in Hindi to learn about the golden and platinum ages of economic growth explained by Joan Robinson. The ages are:- 1. लंगड़ा स्वर्ण युग (Limping Golden Ages) 2. लीडन स्वर्ण युग (Leaden Golden Age) 3. प्रतिबन्धित स्वर्ण युग (Restrained Golden Age) and a Few Others.

श्रीमती जोन रोबिंसन ने स्वर्ण युग को एक ऐसी दशा के द्वारा निरूपित किया जिसमें पूँजी का पूर्ण उपयोग होता है तथा श्रम पूर्ण रोजगार की स्थिति में होता है । पूँजी संचय की दर इतनी अधिक होती है कि वह समस्त उपलब्ध श्रम को उत्पादक क्षमता की पूर्ति कर पाने में सक्षम होता है । लाभ की दर स्थिर होने की प्रवृति रखती है तथा प्रति व्यक्ति उत्पादन के साथ-साथ वास्तविक मजदूरी की दर में वृद्धि होती है । प्रणाली में आन्तरिक अविरोधों की अनुपस्थिति होती है ।

श्रीमती जोन रोबिंसन ने Essays in the Theory of Economic Growth (1963) में विभिन्न स्वर्ण एवं प्लेटिनम युगों का वर्णन किया:

1. लंगड़ा स्वर्ण युग

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2. लीडन स्वर्ण युग

3. प्रतिबन्धित स्वर्ण युग

4. सरपट दौड़ता हुआ प्लेटिनम युग

5. रेंगता हुआ प्लेटिनम युग

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6. विजान स्वर्ण युग

7. विजात प्लेटिनम युग

इनकी मुख्य प्रवृतियाँ निम्नांकित हैं:

1. लंगड़ा स्वर्ण युग (Limping Golden Ages):

लंगड़े स्वर्ण युग की अवस्था में पूँजी संचय की सतत् दर पूर्ण रोजगार स्तर से निम्न होती है । पूँजी का स्टॉक इतना पर्याप्त होता है कि वह संचय की वांछित दर को बनाए रखने में समर्थ हो लेकिन समूची श्रम शक्ति को रोजगार प्रदान करने के लिए यह अपर्याप्त होता है ।

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लंगड़ेपन की गहनता विभिन्न अंशों की सम्भव है जो रोजगार बनाम श्रम शक्ति में होने वाली वृद्धि या कमी पर निर्भर करती है । यदि रोजगार के स्तर में श्रम शक्ति के आकार के सापेक्ष कम वृद्धि हो तब बेरोजगारी में वृद्धि की दशा उत्पन्न हो जाएगी । दूसरी तरफ यदि रोजगार के स्तर में श्रम शक्ति के सापेक्ष अधिक वृद्धि हो तो रोजगार की अधिक सम्भावनाएँ विद्यमान होंगी ।

2. लीडन स्वर्ण युग (Leaden Golden Age):

यह ऐसी अवस्था है जिसमें बेरोजगारी का अनुपात पूँजी संचय की असमर्थ दर के कारण बढ़ता है । इसके परिणामस्वरूप श्रमिकों के जीवन-स्तर में गिरावट उत्पन्न होती है जब तक रोजगार प्राप्त श्रमिकों की वास्तविक मजदूरी में वृद्धि नहीं होती या स्वरोजगार के बेहतर अवसर उपलब्ध नहीं होते, जीवन-स्तर में गिरावट जारी रहेगी ।

पूँजी संचय की निम्न दर के कारण जीवन-स्तर में गिरावट आना वृद्धि के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करता है । यह अवरोध ठीक उसी प्रकार के हैं जैसे माल्थस द्वारा बताए गए थे । ऐसी स्थिति में आवश्यक हो जाता है कि जनसंख्या की वृद्धि दर को नियन्त्रित किया जाए । इसके साथ ही तकनीकी प्रगति की अनुपस्थिति में ऐसी दशा भी उत्पन्न हो सकती है जिसमें पूँजी संचय की दर तथा श्रम शक्ति में वृद्धि की दर बराबर हो जाएं । अत: बेरोजगारी बढ़ने एवं पूँजी संचय की दर के विपरीत होने की सम्भावनाएँ विद्यमान होती हैं ।

3. प्रतिबन्धित स्वर्ण युग (Restrained Golden Age):

प्रतिबन्धित स्वर्ण युग पूर्ण रोजगार की अवस्था है लेकिन इसमें संचय की वांछित दर संचय की सम्भावित दर से अधिक होने की प्रवृति रखती है । वस्तुत: संचय की वांछित दर को प्राप्त किया जाना सम्भव नहीं होता (भले ही प्लाक का स्टॉक इतना पर्याप्त होता है कि इसके द्वारा संचय की वांछित दर एवं पूर्ण रोजगार की दशा लो लाया जा सकता है), क्योंकि प्रति व्यक्ति उत्पादन की वृद्धि दर इतनी पर्याप्त नहीं होती कि यह अवस्था प्राप्त हो सके अत: संचय की दर को रोकना आवश्यक हो जाता है । यदि इसे वित्तीय नि के द्वाग सुधारा जाए तब भी अल्प कालीन स्थायित्व प्राप्त करना सम्भव नहीं बनता ।

4. सरपट दौड़ता हुआ प्लेटिनम युग (Galloping Platinum Age):

यह अर्थव्यवस्था की एक ऐसी दशा है, जब लाभ की दर बढ़ रही हो, उत्पादन की पूँजी-गहनता में वृद्धि हो रही हो लेकिन बेरोजगारी विद्यमान हो । इस अवस्था में यह सम्भव है कि पूँजी का ढाँचा, संचय की वांछित दर के साथ पूरी तरह समायोजित न हो पाए । इन परिस्थितियों में पूँजी वस्तु उद्योगों को एक बड़े बाजार की प्राप्ति होती है ।

इसके परिणामस्वरूप विनियोग क्षेत्र में अधिक विनियोग करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है । वास्तविक मजदूरी की दर के गिरने से अधिकाधिक श्रम रोजगार प्राप्त करता है जब तक कि तकनीकी प्रगति की दर काफी अधिक न हो । ऐसी दशा में लाभ की दर के बढ़ने की प्रवृति विद्यमान होती है । श्रम की लोचदार पूर्ति होने पर, उपक्रमी अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए निम्न पूँजी गहन तकनीक का प्रयोग करते है । ऐसी स्थिति में रोजगार की मात्रा में अपेक्षाकृत तीव्र वृद्धि होती है । संचय की दर तब तक रहेगी जब तक पूर्ण रोजगार की अवस्था या न्यूनतम स्वीकृत वास्तविक मजदूरी का स्तर प्राप्त नहीं हो जाता ।

5. रेंगता हुआ प्लेटिनम युग (Creeping Platinum Age):

रेंगता हुआ प्लेटिनम युग एक ऐसी दशा को अभिव्यक्त करता है जो पूर्ण रोजगार से सम्बन्धित है, जहाँ लाभ की दर गिरती है तथा उत्पादन में पूँजी की गहनता लगातार बढ़ती चली जाती है । इस दशा में बढ़ते हुए रोजगार अवसरों की पूर्ति हेतु श्रम शक्ति में पर्याप्त वृद्धि नहीं होती । श्रम पूर्ति की यह सापेक्षिक बेलोचता पुन: होने वाले संचय पर रोक को प्रस्तावित करती है ।

श्रम पूर्ति की मात्रा में कमी को रोकने के लिए यदि ब्याज की दर में वृद्धि की जाए, इससे पूँजी संचय पर रोक लगेगी । लाभ की दर में होने वाली कमी पूँजी संचय की वांछित दर को निम्न करती है । श्रम विनियोग क्षेत्र से हट कर वस्तु क्षेत्र में उपलब्ध होता है । अत: ब्याज की दरों में इस प्रकार वृद्धि की जानी चाहिए कि पूँजी संचय की दर में कमी हो पर बेरोजगारी उत्पन्न न हो ।

इस प्रकार लाभ की दर एवं ब्याज की दर का अन्तर प्रत्येक अवस्था में कम होता जाए तथा विनियोग की ऐसी दर प्राप्त करने का उद्देश्य हो जो वस्तुओं की माँग का सृजन करने के साथ ही समूची श्रम शक्ति का अवशोषण करें । लाभ की दर के गिरने पर उपक्रमी द्वारा किया गया विनियोग अधिक मशीनों वाली प्रविधि पर किया जाएगा । यह प्रक्रिया तब तक चलेगी जब तक संचय की दर इतनी गिर जाए कि वह श्रम शक्ति की वृद्धि दर के साथ समानता रखे ।

6. विजात स्वर्ण युग (Bastard Golden Age):

विजात स्वर्ण युग की दशा में बेरोजगारी विद्यमान होती है लेकिन वास्तविक मजदूरियों गिरती हुई एवं दृढ़ होती है । यदि वास्तविक मजदूरी दर एक निश्चित स्तर से नीचे न गिरे तो कीमतों में वृद्धि होने लगती है । इस प्रकार पूँजी संचय पर रोक लगाने के उद्देश्य से विजात स्वर्ण युग की अवस्था में बेरोजगारी मुद्रा प्रसारिक दबाव एवं मौद्रिक मजदूरियों की बढ़ती दशाएँ देखी जाती हैं ।

विजात स्वर्ण युग दो प्रकार का होता है, उच्च स्तर एवं निम्नस्तर । उच्च स्तर विजात स्वर्ण युग से अभिप्राय ऐसी दशा से है जब वास्तविक मजदूरियाँ अधिक होती है । मौद्रिक मजदूरी-दरों में होने वाली वृद्धि संचय की दर को बढ़ाने हेतु अवरोध का कार्य करती है । निम्न स्तरीय विजात स्वर्ण युग ऐसी दशा है जब वास्तविक मजदूरी दर अपने न्यूनतम स्तर पर आती है । इस स्थिति में जीवन-स्तर के न्यूनतम होने के कारण पूँजी संचय की दर अधिक नहीं बढ़ पाती ।

7. विजात प्लेटिनम युग (Bastard Platinum Age):

संचय की दर में होने वाली वृद्धि एवं वास्तविक मजदूरियों के स्थिर रहने की दशा में (जब तकनीकी प्रगति भी साथ-साथ हो रही है) को विजात प्लेटिनम युग के द्वारा अभिव्यक्त किया गया । संक्षेप में यह ऐसी दशा है जब संचय तेजी के साथ बढ़ता है लेकिन मुद्रा प्रसारिक दबाव उत्पन्न नहीं होते ।

श्रीमती जोन रोबिंसन के अनुसार ‘स्वर्ण युगों’ में आरंभिक दशाएँ सतत् वृद्धि के लिए उपयुक्त होती हैं । वास्तविक एवं लंगडे स्वर्ण युग में प्राप्त वृद्धि दर की परिसीमा सम्भावित दर द्वारा नियत की जाती है । लीडन युग में सम्भावित दर वास्तविक मजदूरियों से परिसीमित होती हैं ।

लंगड़े स्वर्ण युग एवं विजात स्वर्ण युग दोनों ही किसी भी क्षण विद्यमान पूँजी का स्टॉक समस्त उपलब्ध श्रम शक्ति को रोजगार प्रदान करने के लिए पर्याप्त से कम होता है । लंगड़े स्वर्ण युग में पूँजीगत स्टॉक तेजी से नहीं बढ़ता तथा विजात स्वर्ण युग में यह स्फीतिक सीमाओं से बाधा का अनुभव करता है । प्लेटिनम युगों में आरम्भिक दशाएँ सतत् विकास के अनुरूप नहीं होती तथा संचय की दरें या तो बढ़ती है अथवा घटती हैं ।