तकनीकी प्रगति और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about:- 1. तकनीकी प्रगति की प्रस्तावना (Introduction to Technical Progress) 2. तकनीकी प्रगति से आशय (Meaning of Technical Progress) 3. तकनीकी प्रगति के खोज एवं नवप्रवर्तन (Invention and Innovation of Technical Progress) 4. तकनीकी परिवर्तनों की प्रक्रिया (Process of Technical Changes) 5. तकनीकी प्रगति एवं आर्थिक विकास (Technical Progress and Economic Development) and Other Details.
तकनीकी प्रगति की प्रस्तावना (Introduction to Technical Progress):
व्यापक अर्थों में तकनीक को साधन आदा या संसाधन की भांति देखा जाता है । यह तकनीकी ज्ञान से धनिष्ठ सम्बन्ध रखता है तथा इसके अन्तर्गत न केवल उत्पादन के इंजीनियरिंग सम्बन्धी पक्ष सम्मिलित है बल्कि आर्थिक एवं संगठनात्मक पक्षों के साथ प्रबन्ध एवं बाजार क्रियाओं को भी ध्यान में रखा जाता है ।
वस्तुतः तकनीक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अधीन विद्यमान संसाधनों से नयी वस्तु व सेवा उत्पादित की जाती है या विद्यमान संसाधनों का प्रयोग नए तरीके से किया जाता है ।
तकनीकी प्रगति से आशय (Meaning of Technical Progress):
तकनीकी प्रगति वस्तुतः ऐसे तकनीकी परिवर्तन को समाहित करती है जिससे प्रति इकाई श्रम से बढता हुआ उत्पादन प्राप्त होता है । आर्थिक क्रियाओं के सम्बन्ध में तकनीकी परिवर्तन से आशय उत्पदान फलन में होने वाला परिवर्तन है जो सभी प्रकार की ज्ञात तकनीक को ध्यान में रखता है ।
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तकनीक ज्ञान का वह रूप है जिसे उत्पादक प्रक्रिया में लागू किया जा सकता है तकनीक प्राथमिक रूप से उत्पादन की प्रक्रिया या उत्पादन फलन से सम्बन्धित होती है । इसका अभिप्राय यह है कि तकनीकी परिवर्तन उत्पादन फलनों में होने वाले परिवर्तन हैं ।
यह पूरी तरह से एक तकनीकी धारणा है जिसे इसे एक उत्पादक इकाई की आर्थिक गतिशीलता के सन्दर्भ में सुधारा जाना सम्भव होगा । आर्थिक गतिशीलता को प्रो॰ शम्पीटर ने खोज एवं नवप्रवर्तन के द्वारा स्पष्ट किया । वस्तुतः नवप्रवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें खोज का उपयोग किया जाता है । इस प्रकार नवप्रवर्तन विकास की प्रक्रिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है ।
सामान्यतः तकनीक को मशीन एवं प्रक्रियाओं से सम्बन्धित ज्ञान द्वारा व्यक्त किया जाता है । व्यापक अर्थों में यह कुशलता, ज्ञान एवं विधियों के उस रूप को सूचित करता है जिससे उपयोगी क्रियाओं को सम्पन्न किया जा सके ।
इस प्रकार तकनीक के अधीन उन विधियों को सम्मिलित किया जाता है जिनका प्रयोग बाजार के साथ ही गैर बाजार क्रियाओं में हो । तकनीक का विकास आवश्यक रूप से एक एतिहासिक प्रक्रिया है जिसमें विशेषताओं के एक समुच्चय वाली एवं तकनीक समय के अनुरूप एतिहासिक व आर्थिक परिस्थितियों के बदलने पर परिवर्तित हो जाती है ।
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आर्थिक विकास के प्रसंग में तकनीकी परिवर्तन आवश्यक रूप से समान संसाधनों से अधिक उत्पादन या कम संसाधनों से पहले जितने उत्पादन होने की दशा को प्रदर्शित करता है ।
पश्चिमी देशों में आधुनिक तकनीक का इतिहास औद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त आरम्भ हुआ जब नई वैज्ञानिक खोजों एवं उपक्रमियों के द्वारा सम्पन्न की गई नवप्रवर्तन की क्रियाओं से यन्त्र-उपकरण-मशीन व नित निरन्तर खोजी जा रही नई विधियों के द्वारा बाजार में नवीन वस्तु व सेवाएं बाजार में आई ।
नई वस्तुओं के उत्पादन में तकनीकी सुधार की प्रक्रिया अविरत चलती रही । औद्योगिकी क्रान्ति की समूची प्रक्रिया में खोज एवं नवप्रवर्तन ने मुख्य भूमिका का निर्वाह किया । नयी व आधुनिकतम तकनीक के दारा उत्पादन किये जाने की स्थितियों में उत्पादकों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा बढती गई ।
उत्पादकों द्वारा उपभोक्ता को नवीनतम व तकनीकी दृष्टि से उत्तम गुणवत्ता वाली वस्तु उपलब्ध कराने की होड बढती गई । इस प्रकार खोज एवं नवप्रवर्तन की एक लहर ने दूसरी लहर को जन्म दिया । एलविन टाफलर ने तकनीकी परिवर्तन की इस प्रक्रिया को अपनी पुस्तक Future Shock में विस्तार से समझाया है कि किस प्रकार तकनीक में होने वाले परिवर्तन व्यक्ति एवं संगठन को प्रभावित करते हैं ।
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अपनी दूसरी पुस्तक Third Wave में टाफलर ने परिवर्तन की दिशा की व्याख्या की । इसी क्रम में तीसरी पुस्तक Power Shift में टाफलर इन परिवर्तनों पर नियंत्रण की दशाओं का विवेचन करते हैं ।
तकनीकी प्रगति के खोज एवं नवप्रवर्तन (Invention and Innovation of Technical Progress):
खोज एवं नवप्रवर्तन में भेद स्थापित करते हुए शुम्पीटर ने नई तकनीक के बाजार प्रयोग का आधार लिया । शुम्पीटर के अनुसार खोज सरल रूप से एक नई तकनीक या संसाधनों का संयोग है तथा दूसरी तरफ नवप्रवर्तन इस खोज का बाज़ार में उत्पादन हेतु व्यावहारिक उपयोग है ।
शुम्पीटर के अनुसार खोज की किया जहाँ वैज्ञानिक या खोजकर्ता के द्वारा सम्पन्न होती है वही नवप्रवर्तन उपक्रमी के द्वारा होता है । यह भी सम्भव है कि खोज एवं नवप्रवर्तन दोनों ही क्रियाएँ एक व्यक्ति के द्वारा की जाएँ लेकिन इसके बावजूद भी इनके मध्य का भिन्न चरित्र विद्यमान रहेगा । यह सम्भव है कि एक देश में मूल रूप से कोई खोज हो लेकिन इसका व्यवहार में प्रयोग दूसरे देश में किया जाये ।
उदाहरण के लिए रोस्टव के अनुसार 19वीं शताब्दी में फ्रांस में विशुद्ध विज्ञान एवं ब्रिटेन में व्यावहारिक विज्ञान की उच्च क्षमताएँ विद्यमान थीं । सामान्यतः जो भी खोज हुई वह फ्रांस के बाजार की अपेक्षा ब्रिटेन में शीघ्र अपना ली गई । तदन्तर स्थितियों में परिवर्तन हुआ और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में खोज का व्यावहारिक उपयोग किया जाने लगा ।
विशुद्ध एवं सैद्धान्तिक कार्य यूरोपियनों द्वारा किए गए तथा बाजार हेतु उनका उत्पादन संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में किया गया । रोस्टव ने विशुद्ध विज्ञान को विकसित करने की प्रवृति एवं बाजार में उत्पादन हेतु विज्ञान का प्रयोग करने की प्रवृत्तियों के मध्य विभेद किया । प्रो॰ ए॰ पी॰ अशर ने शुम्पीटर के द्वारा खोज एवं नवप्रवर्तन के मध्य किए गए अन्तर को स्वीकार नहीं किया ।
उन्होंने समस्त प्रकार की क्रियाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया:
(i) ऐसी जन्मजात या अर्न्तनिहित क्रियाएँ जो अर्न्तज्ञान के द्वारा प्राप्त की जाती है सीखने के द्वारा नहीं ।
(ii) कुशलता सम्बन्धी क्रियाएँ जो सीखने के द्वारा प्राप्त होती हैं या तो औपचारिक प्रशिक्षण के द्वारा या व्यक्तियों के अनुसरण के द्वारा ।
(iii) खोजपूर्ण क्रियाएं जो अर्न्तदृष्टि एवं पहले से संचित ज्ञान एवं अनुभव के संचयित स्टाक के उपयोग द्वारा सम्पन्न की जाती है ।
अशर ने रोस्टव द्वारा विशुद्ध विज्ञान को विकसित करने की प्रवृति एवं इसे बाजार हेतु उत्पादन करने में प्रयोग करने की प्रवृत्ति के संकीर्ण भेद में सुधार किया । उन्होंने कहा कि प्राथमिक खोजपूर्ण क्रिया एवं द्वितीयक खोजपूर्ण क्रिया के मध्य भेद किया जाना आवश्यक है ।
प्राथमिक खोजपूर्ण किया जिन्हें वाणिज्यिक उपयोग में लगाया जाता है तथा द्वितीयक खोजपूर्ण किया जो व्यावहारिक उपयोग की नई सम्भावनाओं से सम्बन्धित है । इसके साथ ही तृतीयक सुधार पर भी ध्यान रखना आवश्यक है जो एक दी हुई तकनीक को और अधिक परिष्कृत करते है ।
यह ध्यान रखना आवश्यक है कि खोज केवल भौतिक विज्ञान की संकुचित सीमा से ही सम्बन्धित नहीं है । यह अन्य क्षेत्रों जैसे वाणिज्य, व्यवसाय, प्रशासन, संवाद वहन, संचार एवं बाजार विपणन तकनीक विज्ञान इत्यादि से भी सम्बन्धित होती है ।
खोज की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के मुख्य सिद्धान्त दो हैं:
(i) शौर्य सिद्धान्त
(ii) क्रमिक सिद्धान्त
(i) शौर्य सिद्धान्त:
शौर्य सिद्धान्त के अनुसार खोज व्यक्तिगत प्रतिभा से प्राप्त उत्पाद है । एक विशिष्ट खोज एक विशिष्ट व्यक्ति की प्रेरणा, विचार, प्रतिभा व कर्म के सम्मिश्रण से उत्पन्न होती है ।
इस खोज अथवा आविष्कार के लिए वह व्यक्ति उत्तरदायी है जिसने उसे प्रस्तुत किया है । यद्यपि इस प्रक्रिया में आवश्यकता एवं आर्थिक आवश्यकताओं के दबावों की भी भूमिका है लेकिन मुख्य भूमिका में अर्न्तदृष्टि रखने वाला जीनियस रहता है ।
(ii) क्रमिकता का सिद्धान्त:
ऐसी भी कई दशाएँ सम्भव है जिसमें एक से अधिक व्यक्तियों ने एक-दूसरे से स्वतन्त्र रहकर एक जैसी खोज की । ऐसी दशा जिसमें समान हल प्रदान करने वाली खोज हो रही हो तो इसे शौर्य सिद्धान्त की अपेक्षा क्रमिक सिद्धान्त के द्वारा बेहतर समझा जा सकता है ।
गिलफिलान के अनुसार समानतापूर्ण खोजे एक-दूसरे से भिन्न हो सकती है परन्तु समान आवश्यकता को पूर्ण करती हैं । यद्यपि प्रत्येक खोज का उद्देश्य समान है लेकिन उन्हें प्राप्त करने के जो तरीके किए गए है वह भिन्न हो सकते है ।
यह भी देखा गया कि अधिकांशतः जो प्रमुख खोज हुई उनकी प्रकृति अर्न्तदृष्टि की क्रमिक क्रियाओं की संचयी परिणति हो न कि व्यक्तिगत प्रतिभा द्वारा आश्चर्यजनक रूप से किए गए प्रयास । यह खोजपूर्ण क्रियाओं के प्रति किए जा रहे व्यक्तिगत प्रयासों की लम्बी शृंखला का भी रूप लेती है ।
उस प्रक्रिया को जानने के बाद जिसमें खोज सम्पन्न हो रही है यह प्रश्न उभरता है कि खोज की समयावधि का निर्धारण कैसे हो ? वस्तुतः यह खोज की प्रकृति पर निर्भर करता है । ऐसी कुछ अपवाद की दशा छोड दें जब खोज अचानक हो रही हो, अधिकांश खोज प्रेरित होती है ।
अचानक हुई घटनाओं को टाजिग ने कठिनाइयों के बावजूद कुछ कर पाने में सफल होने की नैसर्गिक या मूल प्रकृति की संज्ञा दी । प्रेरित खोज अचानक नहीं होती । इनका उत्पन्न होना आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश से गहन रूप से सम्बन्धित होता है ।
मेयर व बाल्डविन के अनुसार एक प्रेरित खोज दो दशाओं के समुच्चय से सम्बन्धित होती है:
(a) खोज के प्रति प्रेरणाएँ (Inducements to Invention)
(b) अनुकूल दशाएँ (Permissive Conditions)
(a) खोज के प्रति प्रेरणाएँ (Inducements to Invention):
एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में खोज की आर्थिक प्रेरणाओं का वर्गीकरण उन इच्छाओं के आधार पर किया जा सकता है, जो:
(I) बाजारों के विस्तार में अंशदान करने
(II) व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने, तथा
(III) सापेक्षिक साधन कीमतों में होने वाले परिवर्तनों के लाभ लेने से सम्बन्धित है ।
(b) अनुकूल दशाएँ (Permissive Conditions):
खोज हेतु वातावरण निर्माण करने में निम्न दशाएं योगदान देती हैं:
(I) विशिष्टीकरण का विस्तार ।
(II) खोजों की संचयी प्रकृति ।
(III) विज्ञान की गतिविधियां ।
(I) विशिष्टीकरण का विस्तार:
श्रम के बढते हुए विशिष्टीकरण से खोज प्रभावित होती है । जैसे-जैसे विशिष्टीकरण बढ़ेगा श्रमिक का कार्य क्षेत्र एक सीमित या विशिष्ट क्षेत्र तक ही संकेन्द्रित हो जाएगा । तकनीक में होने वाला सुधार या तो उत्पादन में वृद्धि करता है या कुछ आदाओं की बचत करता है । औद्योगिक क्रान्ति की समय अवधि में विशिष्टीकरण के विस्तार ने खोज की दशाओं में अपेक्षित सुधार किया था ।
(II) खोजों की संचयी प्रकृति:
तकनीकी प्रगति की प्रक्रिया तब तीव्र होती है जब एक क्षेत्र में हो रही खोज जो दूसरे क्षेत्र के लिए उपयोगी बने अर्थात् खोजों का एक प्रति संचालन होता रहता है जिससे तकनीकी प्रगति सुगम रूप से चलती रहती है ।
(III) विज्ञान की गतिविधियाँ:
खोज की दशा में यह आवश्यक है कि इसे विशुद्ध विज्ञान Pure Science से फीड बैक मिलता रहे अर्थात् खोज की पूर्व दशा विशुद्ध विज्ञान की प्रगति है । औद्योगिक क्रान्ति की समय अवधि में विशुद्ध विज्ञान की प्रगति अपने विषयगत सन्दर्भ में एवं विधियों के निष्पादन से कई खोजों हेतु उत्तरदायी रही ।
औद्योगिक नवप्रवर्तन की प्रक्रिया (The Process of Industrial Innovation):
वस्तुतः खोज एक वैज्ञानिक तथ्य है तो नवप्रवर्तन इसका आर्थिक पक्ष है । आर्थिक विकास को नवप्रवर्तन की प्रक्रिया द्वारा तीव्र किया जाता है । अतः उन घटकों को निर्दिष्ट करना आवश्यक है जो खोज को नवप्रवर्तन में रूपान्तरित करते हैं । नवप्रवर्तनों के उत्पन्न होने के जो कारक है उन्हें मुख्यत- (i) आर्थिक कारण, एवं (ii) अन्य पूर्व प्राथमिकताओं में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
आर्थिक कारक (Economic Factors):
नवप्रवर्तक द्वारा नवप्रवर्तन किए जाने पर नयी वस्तु या सेवा को प्रस्तुत कराने के साथ लाभ प्राप्त करने की इच्छा भी अन्तर्निहित होती है । नवप्रवर्तन के द्वारा लाभ की वृद्धि सम्भव है, क्योंकि यह लागतों में कमी एवं माँग में विस्तार करती है ।
कुछ नवप्रवर्तन एक उत्पाद की प्रति इकाई लागत को कम करने में सहायक होते हैं तो कुछ समान लागतों पर ही वस्तु की श्रेष्ठ गुणवत्ता प्रस्तुत करते है । ऐसे भी कुछ नवप्रवर्तन हो सकते हैं जो पुरानी वस्तु के बदले नए उत्पादन का प्रतिस्थापन करते है । नवप्रवर्तन का कोई भी स्वरूप हो, वस्तुतः उपक्रमी का उद्देश्य लाभ में वृद्धि की आशा है ।
उपक्रमी का उद्देश्य जब लाभ में वृद्धि हो तब उन परिस्थितियों पर विचार करना होगा जो उपक्रमी को इस दिशा में प्रेरित करने के लिए बाध्य करती है । जब आर्थिक परिस्थितियों में परिवर्तन होता है अथवा पूर्ति था माँग की दशा परिवर्तित होती हैं तो उत्पादन की विधि में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस होती है ।
ऐसे में सापेक्षिक रूप से महँगे साधनों की लागत को कम करना आवश्यक होता है । यह भी सम्भव है बाजार के विस्तार एवं माँग में वृद्धि से उत्पादन में विस्तार किया जाये । यह भी सम्भव है कि माँग की प्रवृत्ति को बदला जाए, सभी प्रकार की आर्थिक प्रेरणाएँ उपक्रमी को नई तकनीक व विधि अपनाने के लिए बाध्य करती है ।
नवप्रवर्तन के पीछे लाभ की आशा के घटक के साथ ही अन्य कई पूर्व अपेक्षाएँ हैं:
(a) खोजपूर्ण क्रियाओं की मात्रा जिनका प्रयोग किया जाना सम्भव हो ।
(b) उपक्रमियों का योगदान जो नए अवसरों को जन्म दे ।
(c) नई तकनीक की प्रस्तावना में पूंजी की भूमिका ।
नवप्रवर्तन के प्रभाव (Effects of Innovation):
औद्योगिक क्रान्ति की अवधि में किए गए नवप्रवर्तनों ने कई महत्वपूर्ण प्रभावों को जन्म दिया जो निम्नांकित हैं:
(i) संसाधनों के संयोग में होने वाले परिवर्तन
(ii) उत्पादकता में सुधार ।
(iii) बाह्य मितव्ययिता ।
(iv) औद्योगिक संगठन का रूपान्तरण
(v) बढ़ता हुआ शहरीकरण
(i) संसाधनों के संयोग में होने वाले परिवर्तन:
नवप्रवर्तन के परिणामस्वरूप संसाधनों के संयोग में होने वाले परिवर्तन सबसे पहले महसूस किए गए । जब नवप्रवर्तन की प्रवृत्ति पूंजी बचत रही तो इसने प्रति इकाई उत्पादन में पूंजी से श्रम के अनुपात को बढाया । जब नवप्रवर्तन पूंजी उपयोग प्रकृति का था तो इसने प्रति व्यक्ति उत्पादन में श्रम से पूंजी के अनुपात को बढाया ।
सामान्यतः पूंजी उपयोग प्रकृति के नवप्रवर्तन को तब अपनाया जाता है जब व्यापार चक्र में तेजी की दशा दिख रही हो । दूसरी ओर पूंजी की बचत नवप्रवर्तन तब होते है जब व्यापार चक्र में मन्दी की दशा दिखाई दे रही हो । सम्भव है कि नवप्रवर्तन दीर्घकाल में पूंजी उपयोग से सम्बन्धित रहें ।
(ii) उत्पादकता में सुधार:
नवप्रवर्तन उत्पादन संसाधनों की एक दी हुई आपूर्ति को अधिक समर्थ रूप से प्रयोग करने की दशा में उत्पादकता एवं वास्तविक आय में वृद्धि करता है ।
(iii) बाह्य मितव्ययिता:
एक उद्योग में तकनीकी सुधार क्षमता में विस्तार को सम्भव बनाता है तथा कीमतों में कमी करता है । कीमतों में होने वाली यह कमियां अन्य उद्योगों के लिए सहायक रहती हैं जो नवप्रवर्तन हुए उद्योग के उत्पादों का प्रयोग कर रहे हैं ।
(iv) औद्योगिक संगठन का रूपान्तरण:
उत्पादन की नई तकनीकों की प्रस्तावना से परम्परागत तरीके से किए गए उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है । घरेलू प्रणाली के स्थान पर फैक्ट्री संगठन पनपने लगता है ।
(v) बढ़ता हुआ शहरीकरण:
फैक्ट्री प्रणाली पनपने से श्रम की गतिशीलता बढती है । कस्बों का विस्तार होता है तथा शहरीकरण होने लगता है । शहरीकरण के उपरान्त महानगरीयकरण होता है ।
तकनीकी परिवर्तनों की प्रक्रिया (Process of Technical Changes):
तकनीकी परिवर्तन का विश्लेषण करते हुए मुख्यतः चार आधारभूत घटकों पर ध्यान देना आवश्यक है:
(i) उत्पादन की तकनीकी कुशलता ।
(ii) उत्पादन क्रिया का विस्तार ।
(iii) साधन गहनता में परिवर्तन ।
(iv) प्रतिस्थापन की लोच ।
उपर्युक्त चारों घटकों के संयोग से तकनीकी परिवर्तन की पूरी तस्वीर उभरती है जो उत्पादन की प्रक्रिया से प्रदर्शित होती है ।
(i) तकनीकी कुशलता:
तकनीकी कुशलता से अभिप्राय इकाई उत्पादन को उत्पादित करने के लिए चाहे जाने वाले सभी साधनों की मात्राओं में कमी से है अर्थात् यह उत्पादन की लागत में होने वाली कमी को सूचित करता है । इसका प्रदर्शन उत्पादन फलन में होने वाले परिवर्तन द्वारा किया जा सकता है ।
(ii) उत्पादन क्रिया का विस्तार:
तकनीक का दूसरा संघटक उत्पादन की प्रक्रिया के विस्तार से है वहां तकनीकी कुशलता साधनों के स्थिर रहने की दशा में उत्पादन की अधिकतम मात्रा को सूचित करता है वहां उत्पादन का विस्तार ऐसे परिवर्तनों से सम्बन्धित है जो सभी आदाओं में अनुपाती परिवर्तन करता है ।
प्रतिफल के बढ़ते ह्रासमान एवं स्थिर नियमों की परिभाषा भी आदाओं में होने वाली वृद्धि के अनुपात में कुल उत्पादन में होने वाली अधिक वृद्धि, समान वृद्धि या समान वृद्धि से निरुपित की जा सकती है ।
(iii) साधन गहनता में होने वाला परिवर्तन:
साधन गहनता से अभिप्राय उत्पादन के साधनों पूँजी एवं श्रम के संयोग अनुपात में होने वाला परिवर्तन है । यह परिवर्तन साधन कीमतों में होने वाले परिवर्तन से होता है । यदि दो साधन K पूँजी, एवं L श्रम हों तो साधनों के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर r का निर्धारण किया जा सकता है, अर्थात्-
ऐसी तकनीक जहाँ पूंजी एवं श्रम के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर अल्प है, पूँजी प्रयोग करने वाली तकनीक कहलाती है । अर्थात् साधन गहनता पूंजी के प्रति अधिक रहेगी । ऐसी तकनीक जहां पूंजी व श्रम के मध्य प्रतिस्थापन की सीमान्त दर rKL अधिक है वह श्रम बचत तकनीक है ।
(iv) प्रतिस्थापन की लोच:
तकनीक का चौथा पक्ष प्रतिस्थापन की लोच है जो उस गहनता को सूचित करती है जिससे एक आदा को दूसरे के बदले प्रतिस्थापित किया जाता है, अर्थात्-
उपर्युक्त सूत्र तकनीक की दो विशेषताओं साधन गहनता r तथा लोच प्रतिस्थापन σ के मध्य अर्न्तसम्बन्ध को प्रकट करता है । पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में प्रतिस्थापन की सीमान्त दर की तुलना दोनों साधनों पूंजी एवं श्रम की कीमतों के अनुपात से की जाती है । यदि PL एवं PK क्रमश: श्रम को प्रदान की गयी मजदूरी एवं पूंजी की कीमत हो तब समीकरण (2) को निम्न प्रकार लिखा जा सकता है-
समीकरण (4) से स्पष्ट है कि पूंजी से श्रम के आनुपातिक सम्बन्ध में होने वाला परिवर्तन प्रतिस्थापन की लोच य एवं प्रतिस्थापन की सीमान्त दर dr/r में होने वाले परिवर्तन से सम्बन्धित होता है । यदि σ = 0 तथा dr/r = 0 हो तो ऐसे में पूंजी को श्रम से प्रतिस्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती ।
इससे अभिप्राय है कि साधन अनुपात स्थिर है । दूसरी ओर यदि σ = σ जो तब सम्भव होगा जब पूंजी एवं श्रम पूर्ण प्रतिस्थापक है । ऐसे में सापेक्षिक साधन कीमतों में होने वाले लघु परिवर्तन साधन अनुपातों में व्यापक परिवर्तन कर देंगे । यद्यपि यह दोनों ही दशाएँ σ = 0 तथा σ = σ सिरे की स्थितियाँ हैं । सामान्य रूप से σ, 0 व σ के मध्य रहता है अर्थात् 0 ≤ σ ≤ σ ।
स्पष्ट है कि तकनीकी प्रगति की दर एक अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है । तकनीकी प्रगति की दर एक अर्थव्यवस्था के पूंजी उत्पाद अनुपात, लाभ की दर एवं आय के वितरण को भी निर्देशित करती है ।
तकनीकी प्रगति की दर को दो प्रकार के घटक प्रभावित करते हैं:
(i) अर्न्तजात घटक ।
(ii) बर्हिजात घटक ।
(i) अर्न्तजात घटक:
घटकों में तकनीकी प्रगति पूंजी के स्टाक की वृद्धि, राष्ट्रीय उत्पाद में विनियोग के अंश, पूर्व में किए गए विनियोग इत्यादि सम्मिलित है ।
(ii) बर्हिजात घटक:
प्रगति पर कई अनार्थिक घटकों का महत्वपूर्ण प्रभाव पडता है जैसे कि शैक्षिक स्तर, वैज्ञानिक गतिविधियाँ, प्रबन्धकीय दक्षताएँ परिवर्तन के प्रति दृष्टिकोण, श्रम संघों की क्रिया इत्यादि ।
तकनीकी प्रगति एवं आर्थिक विकास (Technical Progress and Economic Development):
तकनीकी प्रगति आर्थिक वृद्धि को प्रभावित करती है । एडम स्मिथ के अनुसार तकनीकी प्रगति से बढते हुए श्रम विभाजन की दशा प्राप्त होती है जो बाजार की आवश्यकताओं के पूर्ण होने में सहायक है । दूसरी तरफ कार्लमार्क्स ने तकनीकी प्रगति को श्रमिक के शोषण की भाँति देखा । उनके विचार में श्रम अतिरेक मूल्य का सृजन करता है तथा तकनीकी प्रगति अतिरेक मूल्य का दोहन करने की पूंजीपति की क्षमता को बडा देती है ।
नवप्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों के अनुसार तकनीकी प्रगति अर्थव्यवस्था के उत्पादक आयामों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है । उत्पादन की विधियों में होने वाला कोई भी सुधार श्रमिकों एवं उपक्रमियों की विचारधारा पर प्रभाव डालता है । मार्शल ने समय घटक का प्रतिफल के नियमों एवं अल्प तथा दीर्घकाल में बाजार सन्तुलन पर पडने वाले प्रभाव की व्याख्या की ।
तकनीकी नवप्रवर्तन एवं आर्थिक विकास के आधारभूत सम्बन्धों की व्याख्या जे॰ ए॰ शुम्पीटर के द्वारा की गई । उनके अनुसार तकनीकी नवप्रवर्तन आर्थिक प्रगति की प्राथमिक शक्ति है ।
उपक्रमी वह महत्वपूर्ण व्यक्ति है जो नवप्रवर्तन करता है तथा उत्पादन संरचना को अधिक कुशलता के साथ संगठित करता है । जैसे-जैसे नवप्रवर्तन एक तीव्र प्रयास के साथ उभरते है । आर्थिक विकास की प्रक्रिया तीव्र होने लगती है ।
किंज ने एक तरफ तकनीकी परिवर्तन तो दूसरी तरफ पूंजी की सीमान्त क्षमता के मध्य शृंखला स्थापित की । उनके विचार में तकनीकी परिवर्तन आर्थिक प्रणाली की कुशलता को प्रभावित करते हैं ।
प्रो॰ फ्रेडरिक वान हायेक ने स्पष्ट किया कि तकनीकी परिवर्तन उत्पादन की समय अवधि को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते है जिसका वस्तुओं की पूर्ति पर प्रभाव पड़ता है । इससे वस्तुओं की आपूर्ति एवं बाजार में मुद्रा की आपूर्ति के मध्य का सन्तुलन भी प्रभावित होता है ।
प्रो॰ जे॰ के॰ गालब्रेथ के विचार में तकनीकी परिवर्तन एक समृद्ध समाज में केवल सहायक भूमिका का निर्वाह करते है । उन्होंने यह स्वीकार किया कि बढ़ता हुआ श्रम विभाजन एवं विशिष्टीकरण जो तकनीकी परिवर्तनों के प्रभाव से उत्पन्न होता इन समाजों में एक टेक्नोक्रेटिक प्रबन्धकीय क्रान्ति लाने में सहायक होता है ।
प्रो॰ ई॰ एफ॰ शूमाखर ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘Small is Beautiful’ एवं दम ‘A Guide for the Perplexed’ में तकनीकी परिवर्तनों से विकसित समाज में उत्पन्न व प्रकट हो गयी जटिलताओं का विश्लेषण किया । उन्होंने विकासशील देशों एवं तीसरी दुनिया के देशों के लिए मध्यवर्ती तकनीक की सिफारिश की तथा इसे ‘बेहतर एवं कारगर’ बताया ।
पीटर ड्रकर ने अपने ग्रन्थ ‘The Age of Discontinuity’ में तकनीकी परिवर्तनों से उत्पन्न संक्रमण का विश्लेषण प्रस्तुत किया तो एलविन टाफलर ने अपने ग्रन्थों ‘Future Shock’, ‘Third Wave’ तथा ‘Previews and Promises’ में तीव्र आधुनिकीकरण के कारकों एवं अर्थव्यवस्था पर इसके पड रहे प्रभाव का विश्लेषण प्रस्तुत किया जिनका आधार वस्तुतः तकनीकी कारक हैं ।
आर्थिक विकास में तकनीक का योगदान (Contribution of Techniques in Economic Development):
पश्चिमी देशों में आधुनिक तकनीक का इतिहास औद्योगिक क्रान्ति के उपरान्त आरम्भ होता है । नवीन वैज्ञानिक खोजों से सम्पुटित होकर उपक्रमियों द्वारा विभिन्न नवप्रवर्तन किए गए और बाजार नई वस्तुओं से भर गया । एक बार जब औद्योगिक क्रान्ति आरम्भ हुई तो उसने खोज एवं नवप्रवर्तन को लगातार प्रोत्साहन दिया ।
समुन्नत तकनीक के लिए प्रतिस्पर्द्धा बढती गई जिससे व्यावसायिक प्रतिद्वन्द्विता बढी व उपभोक्ता के सामने नवीनतम व तकनीकी दृष्टि से श्रेष्ठ वस्तुएँ उपलब्ध होती गई । एक क्षेत्र में हो रही खोज एवं नवप्रवर्तन ने अन्य क्षेत्रों में भी नवप्रवर्तन को प्रेरित किया अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होने पर खोज एवं नवप्रवर्तन के प्रसार प्रभाव व्यापार में सहभागिता कर रहे देशों के मध्य प्रसारित होते गए ।
इन सबके परिणामस्वरूप उत्पादकता में लगातार वृद्धि होती गई और ये देश आर्थिक प्रगति के पथ पर चलते रहे । केअरनक्रास के अनुसार विकास एक आगे जाने वाली प्रक्रिया के रूप में नई तकनीक के स्फुरणों से प्रभावित होती रही ।
पश्चिमी देशों में नवप्रवर्तनों की प्रकृति लागतों में कमी एवं माँग में वृद्धि करने की रही । औद्योगिक क्रान्ति के आरम्भिक वर्षों में खोज एवं नवप्रवर्तनों ने उत्पादन लागतों में कमी की जिससे बाजार में उपभोक्ताओं को नवीन वस्तुएं सुलभता से उपलब्ध होने लगीं । जैसे-जैसे उपभोक्ताओं ने नयी वस्तुओं का क्रय किया ।
मांग में होने वाली वृद्धि से उपक्रमियों को नई सुधरी व गुणवत्ता युक्त वस्तु बनाने की प्रेरणा मिली । इस प्रकार पश्चिमी देशों में उपभोक्ता वस्तुओं की बढी माँग ने औद्योगिक विकास की गति को लगातार बढाया ।
आर्थिक विकास में प्रदर्शन प्रभाव का विश्लेषण ड्यूजनबेरी एवं रागनर नकर्से द्वारा विश्लेषित किया गया जिसका अनुभवसिद्ध अवलोकन नवप्रवर्तन एवं खोज के औद्योगिक क्रान्ति पर पडे प्रभावों से स्पष्ट होता है ।
पश्चिमी देशों के साथ जापान में हुई तीव्र आर्थिक प्रगति ने तकनीक की महत्ता को रेखांकित किया । तकनीक ने अधिकतम सम्भव उत्पादन, कार्य के घण्टों की कमी, डिजाइन, अनुरक्षण, अभियान्त्रिकी कार्य के वातावरण में सुधार, प्रमापीकृत गुणवत्ता की नयी व बेहतर गुणवत्ता की नई व बेहतर वस्तुओं की स्थिति को कच्चे माल के समर्थ प्रयोग, अन्धविश्वास व परम्परागत ढाँचे की संकीर्णता को कम करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया ।
तकनीकी प्रगति का लागत पक्ष (The Cost Side of Technological Progress):
तकनीकी प्रगति प्रकृति का मुफ्त उपहार नहीं है । यह शिक्षा एवं प्रशिक्षण, शोध एवं विकास, प्लांट एवं यत्न उपकरणों की खरीद एवं प्रगति व आधुनिकीकरण के हर मात्रात्मक व गुणात्मक पक्ष पर किए जा रहे भारी विनियोग को समाहित करता है ।
आवश्यक नहीं कि ज्ञान के स्टाक में होने वाली हर वृद्धि आर्थिक वृद्धि में प्रत्यक्षत ही योगदान कर दे । इसका प्रभाव तो तब दृश्य होगा जब नवीन ज्ञानमय खोज समर्थ रूप से उत्पादन प्रणाली को सक्षम बनाए । एक बाजार अर्थव्यवस्था में तकनीकी ज्ञान का वाणिज्यिक शोषण वस्तुतः नए बाजार का सृजन करता है या विद्यमान फर्मों को उत्पादन की लागत में कमी करके प्रतिस्पर्द्धा से बचाता है ।
अर्थमितीय अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि तकनीकी ज्ञान का स्टॉक जो नवप्रवर्तन का आधार बनता है, शोध एवं विकास के कार्यों द्वारा सम्भव बनता है । यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि शोध एवं विकास कुल नवप्रवर्तन प्रक्रिया का निर्धारण नहीं करते बल्कि यह उसके अंग भर है ।
शोध एवं विकास कुल नवप्रवर्तन प्रक्रिया की प्रथम अवस्था है । तकनीकी प्रगति जो आर्थिक वृद्धि में योगदान देती हैं एक नियमित नवप्रवर्तन सुखला की आवश्यकता होती है जो वैज्ञानिक शोध, बाजार शोध, खोज, विकास की डिजाइनिंग, टूलिंग एवं नए उत्पाद के विपणन से सम्बन्धित होती है । सामान्य रूप से शोध एवं विकास एक सफल नवप्रवर्तन की कुल लागत का एक महत्वपूर्ण अंश होता है ।
तकनीक के ऋणात्मक प्रभाव (Effects of Technical Progress):
तकनीकी नवप्रवर्तनों का ऋणात्मक प्रभाव बेरोजगारी के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि मशीनों की स्थापना ने श्रम को प्रतिस्थापित कर दिया । यद्यपि कई अर्थशास्त्री इस विचार से सहमत नहीं है । उनके अनुसार तकनीकी परिवर्तनों की प्रस्तावना से श्रम लागतों में कमी होती है ।
लागतों में होने वाली कमी इन वस्तुओं का प्रयोग कर रहे उपभोक्ताओं को मिलने वाली सन्तुष्टि द्वारा अभिव्यक्त होती है । यदि इन उत्पादों की मांग लोचदार है तब माँग बेलोचशील है तब कुछ श्रमिकों का विस्थापन अवश्य होगा । यदि वस्तुएँ कम कीमत पर उपलब्ध हों तब उपभोक्ता के पास ऐसी क्रय-शक्ति बचेगी जिससे वह अन्य वस्तुओं का उपभोग कर सकता है ।
इस प्रकार रोजगार के अवसर अन्य उद्योगों में बढ़ेंगे । प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि दीर्घकाल में तकनीकी बेरोजगारी सम्भव नहीं है पर इस तर्क का विरोध श्रम संघों द्वारा किया जाता है, क्योंकि वह अल्पकाल में श्रमिकों के विस्थापन एवं बेरोजगारी से चिन्तित रहते है ।
तकनीकी परिवर्तनों से विस्थापित श्रमिकों पर भारी दबाव पड़ता है, वह वर्षों तक बेरोजगार रहते है या कुशलता के कम स्तरों पर कार्य करने को बाध्य होते हैं । फिलिप टाफ्ट के अनुसार अर्थशास्त्री जहाँ तकनीकी परिवर्तनों के लाभपूर्ण निष्कर्षों तथा उत्पादकता व उपभोग के प्रभावों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं वहीं श्रम संघ तकनीकी परिवर्तनों को इस दृष्टि में देखते हैं कि उनका बेरोजगारी व एक विशिष्ट वर्ग की आय पर क्या प्रभाव पड़ रहा है ।
वृद्धि पर तकनीक के प्रभाव को उत्पादन फलन विधि द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है । उत्पादन फलन का सामान्य रूप समग्र उत्पादन को साधन आदाओं एवं विद्यमान तकनीक के सम्बन्धों द्वारा प्रकट करता है, अर्थात्-
समीकरण (4) से स्पष्ट है कि उत्पादन में वृद्धि की दर = कुल उत्पादकता की वृद्धि दर + पूँजी में वृद्धि की तर जिसे उत्पादन की पूँजी के प्रति आशिक लोच से भारित किया गया है + श्रम की वृद्धि जिसे श्रम के प्रति उत्पादन की आशिक लोच से भारित किया गया है । उत्पादन में तकनीक के योगदान को उपर्युक्त समीकरण में Residual की भाँति प्राप्त किया गया है ।
उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण:
माना उत्पादन, पूंजी एवं श्रम की वृद्धि दर क्रमश: 4 प्रतिशत, 4 प्रतिशत तथा 1 प्रतिशत वार्षिक है । माना α = 0.25 तथा β = 0.75 इन मानों को प्रतिस्थापित करने पर-