आर्थिक विकास के माल्थस सिद्धांत | Malthus’s Theory of Economic Development in Hindi.

थामस रोबर्ट माल्थस ने Principles of Political Economy (1820) के दूसरे भाग The Progress of Wealth में आर्थिक विकास से सम्बन्धित विचारों को प्रस्तुत किया । वस्तुत: माल्थस का विश्लेषण जनसंख्या के सिद्धान्त के कारण बहुचर्चित रहा । उनकी समर्थ माँग सम्बन्धी व्याख्या पर आधारित रहकर कीन्ज एवं केलेकी ने अपनी व्याख्या प्रस्तुत की ।

माल्थस के अनुसार- विकास की प्रक्रिया स्वचालित नहीं होती बल्कि इसके लिए व्यक्तियों के निरन्तर प्रयास आवश्यक हैं । माल्थस के अनुसार- विकास की समस्या केवल जनसंख्या वृद्धि से ही सम्बन्धित नहीं है बल्कि इसके लिए यह आवश्यक है कि पूँजी की मात्रा में वृद्धि हो । जनशक्ति के द्वारा आर्थिक विकास केवल तब गतिशील हो सकता है, जबकि साथ ही साथ प्रभावपूर्ण माँग में भी वृद्धि हो ।

माल्थस ने विकास हेतु धन एवं मूल्य में होने वाली वृद्धि को महत्वपूर्ण माना । विकास मात्र उत्पादन के साधनों एवं उनकी क्षमता पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि इनके अनुकूल वितरण से भी प्रभावित होता है ।

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1. पूँजी संचय (Capital Accumulation):

माल्थस ने आर्थिक विकास हेतु पूंजी की भूमिका को महत्वपूर्ण माना । यदि पूँजी में एक नियमित वृद्धि नहीं होती तो सम्पत्ति में एक स्थायी व नियमित वृद्धि हो पाना सम्भव नहीं होगा । माल्थस के अनुसार- जब तक अभिव्यक्ति वस्तुओं की पूर्ति होती रहती है तब तक पूँजी संचय सामान्यत: स्वत: ही होता रहता है ।

पूँजी संचय के कारण एक ओर वस्तुओं के उत्पादन की मात्रा बढ़ती है तो दूसरी ओर व्यक्ति रोजगार प्राप्त करते है । माल्थस के अनुसार- पूंजी संचय एक स्थायी प्रकृति नहीं रख पाता, क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि जिन वस्तुओं का उत्पाद किया जाए उनकी पूर्ति होती रहे ।

माल्थस ने जे.बी.से. के नियम पूर्ति अपनी माँग स्वयं पैदा कर लेती है का समर्थन नहीं किया । इसका कारण से के नियम की वह मान्यता है जिसके अनुरूप विनिमय की प्रक्रिया में वस्तुओं के बदले वस्तुओं का ही विनिमय होता है । पारस इस मान्यता को गलत मानते थे, क्योंकि वस्तुएँ श्रम या अन्य वस्तुओं या द्रव्य की सहायता से भी प्राप्त की जाती है ।

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माल्थस के अनुसार- आर्थिक विकास का सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक पूंजी संचय है । पूँजी संचय का श्रोत बढ़ता हुआ लाभ है । लाभों की प्राप्ति केवल पूँजीपतियों द्वारा की गयी बचत द्वारा सम्भव होती है । माल्थस के अनुसार- श्रमिकों की बचत करने की शक्ति शून्य होती है ।

उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि यदि पूँजीपति अधिक बचत करें तथा अधिक लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से अत्यन्त न्यून उपभोग करें तो आर्थिक वृद्धि निरूत्साहित होगी । माल्थस ने बचत की अनुकूलता प्रवृति के विचार को प्रस्तुत किया । उनके अनुसार- यदि बचतें एक सीमा से अधिक होने लगें तो इससे उत्पादन के उद्देश्य पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा ।

2. पूंजी संचय एवं मानव संसाधन (Capital Formation and Human Resources):

माल्थस ने पूंजी संचय एवं मानवीय संसाधनों के अर्न्तसम्बन्ध पर विचार प्रस्तुत किया । माल्थस के अनुसार जनसंख्या में होने वाली वृद्धि किसी सीमा तक मनोवैज्ञानिक व वैयक्तिक घटकों पर निर्भर करती है । जनसंख्या में होने वाली एक वृद्धि व्यावहारिक रूप से आर्थिक विकास को प्रेरणा प्रदान नहीं करती, वठयोंकि श्रमिकों की माँग कम होने के कारण उनकी क्रय शक्ति सीमित होती है । जिससे उनके द्वारा वस्तुओं की समर्थ माँग में वृद्धि का किया जाना सम्भव नहीं बनता ।

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पूर्ववर्ती प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की भाँति माल्थस का यह विचार था कि श्रम की माँग पूँजी संचय की दर पर निर्भर करती है लेकिन वह यह नहीं मानते थे कि बचतें हमेशा विनियोग के बराबर होती हैं । पालम ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि उपभोग कम हो अथवा कंजूसी की जा रही हो तो इससे प्रभावपूर्ण माँग सीमित हो जाती है ।

3. प्रभावपूर्ण माँग (Effective Demand):

माल्थस ने स्पष्ट किया कि बढ़ते हुए उपभोग से ही समर्थ माँग में वृद्धि होती है । एक उन्नत अर्थव्यवस्था में ही उपभोग बचत एवं विनियोग तेजी के साथ बढ़ते है । प्रभावपूर्ण माँग को पूँजी संचय नयी तकनीक के प्रयोग श्रम बचत उपाय एवं मशीनों के प्रयोग से बढ़ाया जा सकता है । इसके साथ ही वितरण व्यवस्था में सुधार भी किया जाना चाहिए ।

डस हेतु सम्पत्ति (विशेषत: भूमि सम्बन्धी) का विभाजन आवश्यक है । सम्पत्ति का समान वितरण होने पर उत्पादन की मात्रा में वृद्धि होती है । दूसरा घटक है बाजार के क्षेत्र में होने वाला विस्तार जो माँग एवं उत्पादन की वृद्धि करता है । इससे आन्तरिक एवं वाहय बचतें प्राप्त होती हैं । पूँजी संचय प्रोत्साहित होता है तथा विकास की प्रक्रिया गति प्राप्त करती है ।

वितरण व्यवस्था में सुधार तब सम्भव है जब अनुत्पादक उपभोक्ताओं को रोजगार प्रदान किया जाए । अनुत्पादक उपभोक्ता वह है जो भौतिक पदार्थों को उत्पादित नहीं कर सकते । माल्थस के अनुसार- अर्द्धउपभोग के परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में अवरोध उत्पन्न होता, जबकि पूँजीपति कृपण होते है तथा उत्पादक श्रमिक मात्र जीवन निर्वाह मजदूरी ही प्राप्त कर पाते है । इसलिए अनुत्पादक श्रमिकों को रोजगार प्रदान कर माँग में वृद्धि की जा सकती है ।

माल्थस ने समर्थ माँग में वृद्धि करने एवं बेरोजगारी दूर करने के लिए सार्वजनिक निर्माण कार्यों को उपयोगी बतलाया । सड़क निर्माण एवं अन्य सार्वजनिक कार्यों के द्वारा श्रमिकों को रोजगार प्रदान कर उपभोक्ता की क्रय शक्ति में वृद्धि सम्भव है । इससे उपभोग एवं उत्पादन के मध्य का सन्तुलन रहना चाहिए ।

4. संरचनात्मक परिवर्तन (Structural Change):

माल्थस संरचनात्मक परिवर्तनों को महत्वपूर्ण मानते थे । उनके अनुसार- अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे आगे गति करती है कृषि क्षेत्र की सापेक्षिक महत्ता कम होती जाती है तथा उद्योग क्षेत्र विकसित होता है । औद्योगिकीकरण के द्वारा साहस प्रवृति एवं कुशलताएँ बढ़ती है । माल्थस कृषि व उद्योग के सन्तुलित विकास को महत्वपूर्ण मानते थे ।

माल्थस आर्थिक विकास में श्रम विभाजन की महत्ता को स्वीकार करते थे जिसके उपरान्त ही विशिष्टीकरण सम्भव बनता है ।

5. तकनीकी विकास (Technological Development):

माल्थस के अनुसार- तकनीकी परिवर्तनों के परिणामस्वरूप मशीनों का अधिक प्रयोग सम्भव होता है, उत्पादन बढ़ता है, बाजार का क्षेत्र विस्तृत होता है तथा रोजगार की मात्रा में वृद्धि होती है । माल्थस ने यह स्वीकार नहीं किया कि मशीनों के बढ़ते हुए प्रयोग से बेरोजगारी उत्पन्न होगी ।

6. द्वैतता (Dualism):

माल्थस के अनुसार– अर्थव्यवस्था में दो मुख्य क्षेत्र हैं:

(i) कृषि क्षेत्र एवं

(ii) औद्योगिक क्षेत्र ।

कृषि क्षेत्र घटते हुए प्रतिफल से प्रभावित होता है, जबकि औद्योगिक क्षेत्र में बढ़ते हुए प्रतिफल का नियम लागू होता है । इस अन्तर का कारण तकनीकी प्रगति की दर में व्याप्त भिन्नता है । माल्थस के अनुसार- अर्न्तराष्ट्रीय व्यापार की अनुपस्थिति में कृषि एवं उद्योग क्षेत्र एक दूसरे के उत्पादों के लिए बाजार का निर्माण करते थे ।

यदि किसी कारण से इनमें से किसी एक क्षेत्र का विकास धीमा पड़े तो इसके परिणामस्वरूप दूसरे क्षेत्र पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा । कृषि क्षेत्र में पूँजी का विनियोजन तब तक किया जाएगा जब तक उपयोगी भूमि को कृषि के अधीन नहीं लिया जाता । समस्त उपयोगी एवं उपजाऊ भूमि में कृषि हो जाने के उपरान्त ह्रासमान प्रतिफल के कारण लाभपूर्ण विनियोग की सम्भावना रहती है । अब विनियोग के अवसर औद्योगिक क्षेत्र में खोजे जाएँगे ।

माल्थस के अनुसार- भूमि में ह्रासमान प्रतिफल के प्रभाव को तब दूर किया जा सकता है, जबकि औद्योगिक क्षेत्र में तेजी से तकनीकी प्रगति की जा रही हो तथा औद्योगिक क्षेत्र द्वारा जनसंख्या वृद्धि का अधिकांश भाग अवशोषित कर लिया जाए । वस्तुत: माल्थस ने सन्तुलित वृद्धि के तर्क को सैद्धान्तिक रूप से स्पष्ट नहीं किया लेकिन लैटिन अमरीकी देशों का उदाहरण लेते हुए उन्होंने कहा कि एक पिछडी हुई अर्थव्यवस्था में औद्योगिक क्षेत्र का विकास कृषि क्षेत्र के अर्द्धविकास से परिसीमित होता है ।

माल्थस के अनुसार- एक कम विकसित देश में समर्थ माँग की कमी औद्योगिक एवं कृषि दोनों क्षेत्रों के विकास को अवरूद्ध करती है । ऐसी दशा में जब एक औद्योगिक क्षेत्र विकसित होता है तब इससे आर्थिक द्वैतता उत्पन्न होती है । इसका कारण यह है कि आधुनिक क्षेत्र में उच्च पूँजी गहनता वाली तकनीक का प्रयोग होने से रोजगार की सम्भावनाएँ सीमित होती है । दूसरी तरफ कृषि क्षेत्र में जनसंख्या का बहुत भाग व्यापक निर्धनता में फंसा रह जाता है ।

7. आर्थिक अवरोध (Economic Stagnation):

माल्थस ने ऐसे घटकों की व्याख्या की जो आर्थिक विकास हेतु बाधाकारी होते हैं । उनके अनुसार- अल्काल में श्रम की पूर्ति बेलोचदार होती है । जनसंख्या में होने वाली वृद्धि के सापेक्ष पूंजी की पूर्ति में तेजी से वृद्धि की जा सकती है । जब पूँजीपति पूँजी की पूर्ति में वृद्धि के लिए उत्पादक श्रम में विनियोग करता है तब प्रतिस्पर्द्धा के कारण मजदूरी बढ़ती है ।

माल्थस के अनुसार- मजदूरी में होने वाली वृद्धि समर्थ माँग में हमेशा वृद्धि नहीं करती, क्योंकि श्रमिक बढ़े हुए उपभोग के सापेक्ष अधिक आराम करना चाहते हैं । ऐसी स्थिति में अर्द्धउपभोग की प्रवृति बढ़ती है । आयरलैण्ड एवं मैक्सिकों जैसे देशों का उदाहरण लेते हुए उन्होंने श्रमिक एवं प्रबन्धक दोनों के प्रयास के अधोगामी दाल वाले पूर्ति वक्रों को स्पष्ट किया ।

उनके अनुसार- इन देशों में बाजार की सीमितता होने से अधिक कार्य करने की प्रेरणाएँ अनुपस्थित होती यदि एक अर्थव्यवस्था संरचनात्मक रूप से औद्योगिक अर्थव्यवस्था के रूप में रूपान्तरित हो पाए तब वह आर्थिक अवरोध का सामना करती है ।

माल्थस के अनुसार- तकनीकी प्रगति होने से औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार के अधिक अवसरों की प्राप्ति होती है तथा कृषि में औद्योगिक क्षेत्र की ओर जनसंख्या का अधिक भाग रोजगार हेतु प्रयासशील रहता है लेकिन यदि भविष्य में तकनीकी प्रगति की सम्भावनाएँ न्यून हो जाएं तब औद्योगिक प्रगति के रुकने के फलस्वरूप आय की वृद्धि नहीं हो पाती । इससे बेरोजगारी बढ़ती है । ऐसी स्थिति में माल्थस ने व्यापक भूमि सुधार प्रस्तावित किए लेकिन इसे वह एक अस्थायी हल मानते थे ।

सार संक्षेप (Conclusion):

माल्थस का विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों की द्धैत प्रकृति को स्पष्ट करता है । माल्थस का जनसंख्या विश्लेषण इन देशों में प्रासंगिक है ।

माल्थस का विश्लेषण समर्थ माँग के विचार को प्रस्तुत करता है । जिसे बाद में कींज एवं केलेकी ने समर्थन दिया । उन्होंने आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले घटकों की व्याख्या की जिनमें तकनीकी, प्रगति, सम्पत्ति का समान वितरण, सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रमों, बेहतर प्रशासन एवं विदेशी व्यापार मुख्य थे ।

माल्थस ने आर्थिक घटकों के साथ-साथ अनार्थिक घटकों को भी महत्वपूर्ण माना है लेकिन उन्होंने इन घटकों का व्यापक विवेचन नहीं किया ।

माल्थस के अनुसार- पूँजी संचय अन्तत: अर्थव्यवस्था के विकास में सतत् अवरोध उत्पन्न करता है, जबकि सामान्यत: यह देखा जाता है कि पूँजी संचय उपभोक्ता वस्तुओं की माँग में कमी नहीं करता तथा लाभ में कमी का कारण नहीं बनता । वस्तुत: पूँजी संचय की अभिवृद्धि सकल आय में मजदूरी एवं लाभ के अंश को बढ़ाती है तथा उपभोक्ता वस्तुओं की माँग भी बढ़ती है ।

माल्थस यह भी मान कर चलते थे कि सभी वस्तुओं के अर्द्धउपभोग की एक स्थायी प्रवृति विद्यमान होती है जो सत्य नहीं है । माल्थस का यह मानना भी तर्कपूर्ण नहीं कि केवल भू-स्वामियों द्वारा बचत की जाती है । इन सीमाओं के बाद भी माल्थस के सिद्धान्त की कुछ विशेषताएँ विकसित देशों में निरूपित अथवा सतत् विकास को समझने के लिए एवं अर्द्धविकसित देशों में विकास कार्यक्रमों को अपनाने हेतु महत्वपूर्ण हैं ।