संतुलित विकास की सिद्धांत: परिचय, विकास और मूल्यांकन | Read this article in Hindi to learn about:- 1. सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की प्रस्तावना (Introduction to the Theory of Balanced Growth) 2. सिद्धान्त के विचार का विकास (Evolution of the Theory) 3. रोजेन्सटीन रोडान द्वारा समर्थन (Rosenstein Rodan Support) and Other Details.
Contents:
- सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की प्रस्तावना (Introduction to the Theory of Balanced Growth)
- सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त के विचार का विकास (Evolution of the Theory)
- रोजेन्सटीन रोडान द्वारा सन्तुलित वृद्धि का समर्थन (Rosenstein Rodan Support a Balanced Growth Approach)
- नर्क्से का सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण (Nurkse’s Thesis of Balanced Growth)
- सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की आर्थर लेविस द्वारा व्याख्या (Explanation of Arthur Lewis)
- सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of the Theory)
1. सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की प्रस्तावना (Introduction to the Theory of Balanced Growth):
कम विकसित देशों की अपर्याप्त बाजार संरचना को सुधारने के लिए सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त अर्थव्यवस्था के अधिक से अधिक क्षेत्रों में सम्भव, एक साथ होने वाले विनियोग को प्रस्तावित करता है जिससे एक उद्योग दूसरे के लिए एक बाजार एवं पूर्ति के स्रोत को उत्पन्न करें । यह सिद्धान्त सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में पूंजी के प्रसार के वृहद फैलाव को विकास की प्रक्रिया हेतु पूर्व आवश्यकता मानकर चलता है ।
सन्तुलित वृद्धि अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की समन्वित वृद्धि है । सन्तुलित वृद्धि का एक कार्यक्रम उत्पादन प्रक्रियाओं की पूरकताओं को अर्न्त-उद्योग सम्बन्धों की प्रणाली के द्वारा ध्यान में रखता है । इस प्रकार के कार्यक्रम सामान्यत: समाज में आर्थिक क्रियाओं हेतु राज्य द्वारा हस्तक्षेप की अपेक्षा रखता है ।
2. सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त के विचार का विकास (Evolution of the Theory):
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फेड्रिक लिस्ट ने कृषि उद्योग तथा वाणिज्य एवं उद्योग की विभिन्न शाखाओं के मध्य सन्तुलित विकास की प्रस्तावना रखी । एलन यंग ने दिसम्बर 1928 में प्रकाशित अपने लेख Increasing Returns and Economics Progress में एडम स्मिथ की इस संकल्पना का विश्लेषण किया कि श्रम विभाजन बाजार के आकार से सीमित होता है ।
उन्होंने यह तर्क दिया कि विनियोग की प्रेरणाएँ, बाजार के आकार से सीमित होती है । उन्होंने विभिन्न उद्योगों की पारस्परिक निर्भरता के विचार को स्पष्ट करते हुए कहा कि एक उद्योग के विकास की दर इस तथ्य पर निर्भर है कि दूसरे उद्योग किस दर से विकसित होते है । विभिन्न वस्तुओं की माँग व पूर्ति की लोच भिन्न-भिन्न होती है अतः कुछ उद्योग दूसरे उद्योगों के सापेक्ष तीव्र विकास करेंगे ।
1943 में रोजेन्सटीन रोडान ने अपने लेख Problems of Industrialization of Eastern and South Eastern Europe में सन्तुलित वृद्धि की दशा का प्रबल समर्थन किया, उन्होंने तर्क दिया कि बहुधा एक विनियोग का सामाजिक सीमान्त उत्पाद उसके निजी सीमान्त उत्पाद से भिन्न होता है ।
यदि किसी एक देश में उद्योगों के एक समूह को अनेक सामाजिक सीमान्त उत्पाद के अनुरूप स्थापित किया जाए तो अर्थव्यवस्था वृद्धि की एक उच्च दर को प्राप्त करती है जो अन्य किसी प्रकार सम्भव नहीं होती । निजी व्यक्तिगत उपक्रमी विनियोग के सामाजिक सीमान्त उत्पाद को जानने के उत्सुक नहीं होते, क्योंकि यह उनके निर्णयों को उनकी विनियोग क्रियाओं के सन्दर्भ में प्रभावित नहीं करते । उनका एकमात्र ध्यान विनियोग के निजी सीमान्त उत्पाद से सम्बन्धित रहता है ।
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रागनर नर्क्से ने अपनी पुस्तक Problems of Capital Formation in Underdeveloped Countries में सन्तुलित विकास के सिद्धान्त को बाजार के आकार एवं विनियोग के लिए प्रदान की जाने वाली प्रेरणा के सन्दर्भ में विश्लेषित किया ।
डबल्यू. आर्थर लेविस ने अपनी पुस्तक The Theory of Economic Growth (1955) में ‘सन्तुलित वृद्धि की नीति’ को निम्न दो तर्कों के आधार पर उपयुक्त माना:
(i) सन्तुलित वृद्धि इसलिए आवश्यक है क्योंकि जब अर्थव्यवस्था का विस्तार होता है तब अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के उत्पादों की सापेक्षिक कीमतें अपरिवर्तित रहेंगी । यह किसी एक क्षेत्र में व्यापार की शर्तों के विपरीत रहने पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव को रोकेगा ।
(ii) सन्तुलित वृद्धि की रणनीति को अपनाना इस कारण भी आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था के विस्तार की प्रक्रिया में विभिन्न क्षेत्रों की वृद्धि उनके उत्पादों के माँग की आय लोच के तदन्तर होनी चाहिए । में इन दोनों तकों को सन्तुलित वृद्धि की रणनीति हेतु उपयुक्त नहीं माना ।
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सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त मुख्यत: निम्न प्रकार स्पष्ट किए जा सकते हैं:
(1) सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त को संकीर्ण अर्थों में प्रो.पी.एन. रोजेन्सटीन रोडान ने अपने लेख Problems of Industrialization of Eastern and South Eastern Europe (1943) में हल्की उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन हेतु सन्तुलित वृद्धि कार्यक्रमों के सन्दर्भ में विश्लेषित किया । उनका तर्क था कि एक फैक्ट्री भले ही वह उत्पादन की सबसे अधिक कुशल विधि का प्रयोग कर रही हो, इस कारण असफल हो सकती है कि उसे अपने उत्पादन की बिक्री के लिए छोटे बाजार का सामना करना पड़े ।
अत: आवश्यक हो जाता है कि विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने वाली फैक्ट्रियों को स्थापित किया जाए जिससे रोजगार एवं क्रय शक्ति क्षमता में वृद्धि हो तो वह एक-दूसरे के लिए एक समर्थ बड़े बाजार को उपलब्ध करायें ।
(2) सिद्धान्त का दूसरा अर्थ उपभोक्ता वस्तु उद्योग एवं सामाजिक उपरि पूँजी में एक साथ किए जाने वाले विनियोग से सम्बन्धित है । सामाजिक उपरिमद पूँजी में किया गया विनियोग इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अधिकांश अर्द्धविकसित देशों में यातायात एवं संवाद वहन की पर्याप्त सुविधाएँ एवं विद्युत पूर्ति की कमी है । यह स्वीकार करते हुए कि सामाजिक उपरिमद पूँजी में किया जाने वाला व्यय काफी अधिक होता है । सिद्धान्त का यह पक्ष सामाजिक उपरिमद पूँजी में तकनीकी अविभाव्यताओं को रेखांकित करता है ।
(3) सन्तुलित वृद्धि का तीसरा अर्थ उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र, सामाजिक उपरिमद पूँजी एवं पूँजी वस्तु क्षेत्र में उद्योगों को एक साथ स्थापित किए जाने का पक्ष लेता है । इससे अभिप्राय औद्योगीकरण का एक व्यापक एवं समन्वित कार्यक्रम ।
एक देश के आर्थिक विकास को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए केवल बाजार के आकार को व्यापक करना एवं दीर्घस्तरीय उत्पादन की मितव्ययिताओं को प्राप्त करना ही आवश्यक नहीं है बल्कि बाह्य मितव्ययिताओं को प्राप्त करना भी आवश्यक है जो तब प्राप्त होंगी जब ऐसे उद्योग लगाए जाएँ तो एक-दूसरे से तकनीकी रूप से अन्तर्सम्बन्धित हों ।
अत: सन्तुलित वृद्धि के सम्बन्धों के लिए निम्न तीन प्रकार के सम्बन्ध आवश्यक माने गए:
(a) उपभोक्ता माँग में विस्तार की प्रवृत्तियों द्वारा निर्धारित विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं के मध्य एक क्षैतिज सन्तुलन ।
(b) उपभोक्ता एवं पूँजी वस्तु क्षेत्रों में सामाजिक उपरिमद विनियोग एवं प्रत्यक्ष उत्पादक क्रियाओं के मध्य सन्तुलन ।
(c) पूँजी वस्तु उद्योगों जिनमें मध्यवर्ती वस्तुएँ भी सम्मिलित है एवं उपभोक्ता वस्तु उद्योगों के मध्य ऊर्ध्व संतुलन ।
(d) सिद्धान्त का चौथा पक्ष अर्थव्यवस्था के औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्रों के मध्य सन्तुलन को रेखांकित करता है । कृषि एवं विनिर्माण के विस्तार एवं इनके मध्य के अर्न्तक्षेत्रीय सन्तुलन से दोनों ही क्षेत्र एक-दूसरे के लिए बाजार उपलब्ध कराते है । इस मत का समर्थन रागनर नर्क्से ने अपने अध्ययन The Case for Balanced Growth में किया ।
संक्षेप में सन्तुलित वृद्धि की रणनीति के मुख्य बिन्दु निम्नांकित हैं:
(1) सन्तुलित वृद्धि से आशय यह नहीं है कि सभी उद्योगों की वृद्धि एकसमान दर से हो । सम्भव है कि कुछ उद्योग हमेशा दूसरी के सापेक्ष अधिक वृद्धि करें । सन्तुलित वृद्धि से आशय है अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों की समरूप वृद्धि जिसमें विभिन्न उद्योगों एवं क्षेत्रों के उत्पाद सुविधा से बाजार पा सकें एवं किसी उद्योग या क्षेत्र में कोई अतिरेक या कमी की समस्या न रहे ।
(2) सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त केवल औद्योगिक क्षेत्र में ही भारी विनियोग का समर्थन नहीं करता वरन् कृषि क्षेत्र में विनियोजन को भी स्वीकार करता है जिससे कृषि व उद्योग दोनों क्षेत्रों का विकास हो ।
(3) सन्तुलित वृद्धि का विश्लेषण अर्थव्यवस्था के घरेलू एवं विदेशी क्षेत्रों के मध्य सन्तुलन का समर्थन करता है ।
सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण-बाजार का आकार एवं विनियोग प्रोत्साहन (Size of Market and Inducement to Invest):
(1) एक निर्धन देश में विनियोग का निम्न स्तर लाभ की निम्न आशाओं के कारण होता है क्योंकि वस्तुओं की माँग सीमित होती है तथा बाजार का आकार सीमित होता है । एक देश में लाभ पूर्ण विनियोग की मात्रा बाजार के आकार पर निर्भर करती है । यदि बाजार का आकार अथवा माँग सीमित है तब इसका प्रभाव विनियोग प्रोत्साहन पर विपरीत रूप से पड़ेगा ।
स्पष्ट है कि बाजार का लघु आकार या माँग का न्यून स्तर उपक्रमी द्वारा किए जा रहे सीमित विनियोग का उत्तरदायी है । संक्षेप में हम यह कह सकते है कि विनियोग प्रोत्साहन बाजार के आकार एवं व्यक्तियों की क्रय-शक्ति क्षमता को प्रभावित करता है । निर्धन देशों में बाजार के आकार का सीमित होना आर्थिक विकास की सबसे बड़ी बाधा है ।
यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि अर्द्धविकसित देशों में उपभोक्ता वस्तुओं की माँग मात्र देश में मौद्रिक पूर्ति के विस्तार द्वारा नहीं बढ़ायी जा सकती । वास्तविक माँग में तब तक वृद्धि होगी जब प्रति श्रमिक उत्पादकता में वृद्धि हो तथा इसके परिणामस्वरूप वास्तविक प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हो ।
(2) वस्तुओं की माँग या बाजार का आकार केवल तभी बढ़ नहीं सकता जबकि एक देश बड़ा हो या इसकी जनसंख्या काफी अधिक हो । यदि व्यक्तियों की निर्धनता के कारण व्यक्तियों की क्रय शक्ति क्षमता निम्न है तब देश में वस्तुओं की मांग निम्न होगी या बाजार का आकार सीमित होगा भले ही देश की जनसंख्या काफी अधिक हो ।
(3) निर्धन देशों में जहाँ व्यक्तियों की क्रय शक्ति क्षमता प्रति व्यक्ति आय के निम्न होने से सीमित होती है । वस्तुओं की माँग एवं इस प्रकार बाजार के आकार में बिक्री प्रसार तकनीकों, विज्ञापन व चतुर सेल्समैन के द्वारा वृद्धि नहीं की जा सकती । वस्तु की बिक्री तब बढ़ेगी जब काफी अधिक उपभोक्ता इसे खरीदें ।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि अर्द्धविकसित देशों में वस्तुओं की माँग या बाजार का आकार केवल मौद्रिक आय की वृद्धि या जनसंख्या में वृद्धि या सेल्समैन योग्यता या विज्ञापन या देश के बड़े आकार के द्वारा नहीं बढ़ायी जा सकती । बाजार का आकार केवल उत्पादकता में वृद्धि के द्वारा ही बढ़ सकता है । नर्क्से के अनुसार बाजार के आकार का महत्वपूर्ण निर्धारण उत्पादकता है । उत्पादकता में वृद्धि के परिणामस्वरूप आय एवं क्रय शक्ति में वृद्धि सम्भव है जो पुन: माँग में वृद्धि करेगी तथा बाजार के आकार में वृद्धि करेगी ।
3. रोजेन्सटीन रोडान द्वारा सन्तुलित वृद्धि का समर्थन (Rosenstein Rodan Support a Balanced Growth Approach):
रोजेन्सटीन रोडान ने सन्तुलित वृद्धि (बड़े धक्के अथवा प्रबल प्रयास) का समर्थन कम विकसित देशों में उपस्थित बाह्य आर्थिक मितव्ययिताओं के आधार पर किया । उनके अनुसार विनियोग के बड़े समन्वित व काफी अधिक बड़ी परियोजनाओं से सम्बन्धित होने पर लाभ प्राप्त होते है जो कि एक अकेली विनियोग परियोजना व छोटे-छोटे विनियोगों द्वारा सम्भव नहीं ।
बाह्य आर्थिक मितव्ययिताओं से अभिप्राय ऐसी सेवाओं से है जो एक उत्पादक द्वारा दूसरे को प्रदान किए जाते हैं । उदाहरण के लिए यदि A उद्योग के खुलने पर B वस्तु की माँग बढ़े तो B उद्योग को बाह्य आर्थिक मितव्ययिता प्राप्त होगी । यदि C उद्योग एक संयन्त्र स्थापित करता है जो D की आदाओं की लागत गिराए तो D संयन्त्र को बाह्य आर्थिक मितव्ययिताओं की प्राप्ति होगी । स्पष्ट है कि B व D दोनों को लाभ प्राप्त होता है, जबकि A व C इन प्रभावों से प्रत्यक्षत: लाभान्वित नहीं होते ।
एक विकासशील देश में बाह्य आर्थिक मितव्ययिता कई क्यों में हो सकती है । यदि एक सुदूर क्षेत्र में एक खदान खुले तथा अयस्क को लाने ले जाने के लिए सड़क-रेल का प्रबन्ध हो तो इस पूरे मार्ग में आने वाले शहर एवं व्यवसाय, यातायात के लाभ प्राप्त करेंगे । इसी प्रकार यदि एक क्षेत्र में आटा पीसने की चक्की लगे व इससे लागत में कमी आए तब बेकरी उद्योग भी लाभान्वित होगा । एक नगर विशेष में पर्यटकों हेतु एक पाँच सितारा होटल खुलने पर सभी पर्यटन से सम्बन्धित दुकानों को बाह्य आर्थिक मितव्ययिता की प्राप्ति होगी ।
रोजेन्सटीन रोडान ने सन्तुलित वृद्धि का समर्थन इसके श्रम पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर भी किया । कम विकसित देशों में औद्योगीकरण की मुख्य समस्या प्रशिक्षित श्रम की सीमित पूर्ति है । एक उद्योग विशेष के लिए यह सम्भव नहीं हो पाता कि वह पर्याप्त प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए । लेकिन यदि नए उद्योग स्थापित हों तथा वह प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाएँ तब प्रशिक्षण प्राप्त करने वालों का समूह विकसित हो सकता है जो विभिन्न उद्योगों में काम प्राप्त कर सकता है ।
रोजेन्सटीन रोडान ने सन्तुलित वृद्धि का तर्क इस आधार पर भी लिया कि यह गुणक प्रभाव की पूर्ण क्रियाशीलता हेतु आवम्पक है । अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में समरूपी विकम्स के द्वारा समाज के बहुल वर्गों में आय बढ़ती है तथा विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ उत्पादित होती है व बाजार में उपलब्ध होती है ।
बड़ी हुई आय से उपभोक्ता अपनी आय का अधिक अंश वस्तुओं पर व्यय कर सकता है । यदि विनियोग मात्र कुछ या एक उद्योग तक सीमित रहे तब गुणक प्रभाव समाप्त हो जाएगा, क्योंकि उपभोक्ता द्वारा क्रय करने के लिए वस्तुओं की कमी की समस्या आएगी ।
4. नर्क्से का सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण (Nurkse’s Thesis of Balanced Growth):
नर्क्से के अनुसार अर्द्धविकसित देशों में निर्धनता के दुश्चक्र को सन्तुलित विकास की रणनीति के द्वारा समाप्त किया जा सकता है । नर्क्से ने रोजेन्सटीन रोडान के जूता फैक्ट्री के उदाहरण को उदधृत करते हुए तथा निर्धनता के दुश्चक्र की दशाओं को अभिव्यक्त करते हुए विभिन्न उद्योगों में विनियोग की लहर के द्वारा सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त को विश्लेषित किया ।
नर्क्से ने ठीक रोजेन्सटीन रोडान की भाँति तर्क देते हुए स्पष्ट किया कि:
(i) निम्न वास्तविक आय से अभिप्राय निम्न उत्पादकता ।
(ii) निम्न उत्पादकता का कारण पूंजी की कमी ।
(iii) पूँजी की कमी का कारण बचत की निम्न क्षमता ।
(iv) बचत हेतु प्रेरणाओं का अभाव अत: विनियोग कम ।
(v) बाजार का आकार सीमित ।
(vi) बाजार के सीमित आकार का महत्वपूर्ण निर्धारक उत्पादकता ।
(vii) उत्पादकता उस अंश पर निर्भर करती है जिस पर पूँजी का प्रयोग उत्पादन हेतु किया जाता है ।
नर्क्से के अनुसार निर्धनता का विषम दुश्चक्र माँग एवं पूर्ति दोनों पक्षों से कार्य करता है । पूर्ति पक्ष में बचत करने की कम क्षमता का कारण निम्न वास्तविक आय है । निम्न वास्तविक आय का कारण निम्न उत्पादकता है जो पूँजी की कमी से उत्पन्न होती है । पुन: पूँजी की कमी बचत की निम्न क्षमता का फल होती है ।
माँग पक्ष के अन्तर्गत विनियोग प्रोत्साहन का कम होना न्यून माँग के कारण उत्पन्न होता है । यह व्यक्तियों की आय के न्यून स्तर को अभिव्यक्त करता है । उत्पादकता मुख्यत: पूँजी की मात्रा पर निर्भर करती है अर्थात् निम्न उत्पादकता उत्पादन में पूँजी की कम मात्रा का प्रयोग किए जाने का परिणाम है । एक व्यक्तिगत उपक्रमी पूंजी का कम प्रयोग इस कारण करता है, क्योंकि बाजार का आकार सीमित है जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता निम्न रहती है ।
वास्तविक आय का निम्न होना जिसे निम्न उत्पादकता का प्रतीक माना जाता है, मांग एवं पूर्ति दोनों चक्रों में समान रूप से पाया जाता है ।
यह नर्क्से द्वारा वर्णित निर्धनता का दुश्चक्र है:
(i) निर्धनता के दुश्चक्र को किस प्रकार खण्डित किया जाए कटल-निर्धनता के दुश्चक्र को खण्डित करने के लिए व्यक्तिगत विनियोग निर्णय ही काफी नहीं होते । माँग पक्ष के अन्तर्गत निर्धनता के दुश्चक्र को विभिन्न उद्योगों में एक साथ पूँजी का विनियोग कर तोड़ा जा सकता है । जन उपभोग से सम्बन्धित उद्योग एक-दूसरे के पूरक इस अर्थ में होते है कि वह एक-दूसरे के लिए बाजार उपलब्ध कराते हैं व इस प्रकार एक-दूसरे के सहयोगी होते है ।
सन्तुलित वृद्धि की दशा इस प्रकार मनुष्य द्वारा लिए गए सन्तुलित आहार की भाँति होती है । उद्योगों की व्यापक सीमा में किए गए विनियोग से उद्योगों में क्षैतिज व उर्ध्य एकीकरण एक बेहतर श्रम विभाजन, कच्चे पदार्थों एवं तकनीकी कुशलता की एक समान पूर्ति, बाजार के आकार का विस्तार एवं सामाजिक तथा आर्थिक उपरिमद पूंजी का बेहतर उपयोग सम्भव होता है ।
रोजेन्सटीन रोडान के अनुसार एक अर्द्धविकसित देश में निजी उपक्रम बाह्य मितव्ययिताओं का लाभ उठाने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि वह क्रियाओं की एक व्यापक सीमा में पूँजी विनियोगों की लहरें उत्पन्न करने के लिए काफी नहीं होता । दूसरी तरफ नर्क्से का विश्वास था कि निजी उपक्रमी के द्वारा भी वांछित नतीजे प्राप्त किए जा सकते हैं, जबकि उन्हें कुछ प्रेरणाएँ एवं प्रोत्साहन प्रदान किए जाएं ।
(ii) विनियोग हेतु उद्योगों का चुनाव:
ऐसे उद्योगों में एक साथ विनियोग किया जाना चाहिए जिनके द्वारा उत्पादित विनिर्मित उत्पाद उपभोक्ता की माँग एवं अधिमान को सन्तुष्ट करते है अथवा यह ऐसे उद्योग हों जिनके द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर विभिन्न उद्योगों में संलग्न व्यक्ति अपनी आय को व्यय करें । यह पूरक परियोजना हो जो एक-दूसरे के उपभोक्ताओं के लिए माँग उत्पन्न करें । ऐसे उद्योगों में एक साथ विनियोग किए जाने पर उत्पादन या पूर्ति अपनी स्वयं की पूर्ति उत्पन्न करती है ।
(iii) सन्तुलित वृद्धि के लिए विभिन्न क्षेत्रों के मध्य सन्तुलन आवश्यक:
सन्तुलित वृद्धि का विश्लेषण वृद्धि की प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के मध्य सन्तुलन आवश्यक मानता है । इस सिद्धान्त की आधारभूत संकल्पना यह है कि कृषि एवं उद्योग एक-दूसरे के पूरक है । यदि औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार बढ़ेगा तो इससे खाद्यान्नों की माँग बढ़ेगी । अत: खाद्यान्नों की पूर्ति का बढ़ना आवश्यक होगा । इसी प्रकार औद्योगिक क्षेत्र के विस्तार के साथ कच्चे पदार्थों की पूर्ति का बढ़ना भी आवश्यक है ।
(iv) सन्तुलित वृद्धि के लिए घरेलू क्षेत्र एवं विदेशी क्षेत्र के मध्य सन्तुलन आवश्यक:
सन्तुलित वृद्धि हेतु घरेलू क्षेत्र एवं विदेशी क्षेत्र के मध्य सन्तुलन आवश्यक है । नर्क्से ने स्पष्ट किया कि सन्तुलित वृद्धि अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अच्छा आधार होता है ।
नर्क्से का यह कथन निम्न दो संकल्पनाओं को ध्यान में रखता है पहला सार्वजनिक एवं निजी उपक्रमों के मध्य किए बाने वाले विनियोगों का चुनाव जो मुख्यत: एक प्रशासनिक समस्या है । दूसरा यदि मांग बेलोच या न्यूनाधिक रूप से स्थिर हो तो प्राथमिक वस्तुओं का निर्यात किया जाना दीर्घकालीन विकास की दृष्टि से उपयुक्त नहीं ।
नर्क्से ने विकास की प्रक्रिया को तीव्र करने के लिए यातायात सुविधाओं में सुधार को महत्वपूर्ण माना । उन्होंने यातायात लागतों में कमी, प्रशुल्कों का सुधार एवं बाजार की वृद्धि के लिए कस्टम यूनियन का सृजन महत्वपूर्ण माना । उन्होंने यह स्पष्ट किया कि विकासशील देश एक-दूसरे के उपभोक्ता होते है तथा अपनी माँग की आय लोच में सुधार के द्वारा कृषि व विनिर्मित वस्तुओं के प्रति व्यक्ति उपभोग को बढ़ाते है, जैसे ही घरेलू उत्पादन बढ़ता है विदेशी बाजार भी बढ़ने की प्रवृति रखता है ।
स्पष्ट है कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में संचालित विकास कार्यक्रम विनियोग को इस प्रकार बढ़ाता है कि कृषि व उद्योग के मध्य एवं घरेलू बाजार व विदेशी बाजार हेतु उत्पादन सन्तुलन विद्यमान रहे । वस्तुत: नर्क्से ने उपभोक्ता वस्तु उद्योगों में किए जा रहे विनियोगों को महत्वपूर्ण माना । उन्होंने अपने सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण में यह स्पष्ट नहीं किया कि पूँजी वस्तु उद्योगों तथा सामाजिक उपरिमद पूंजी में विनियोग किया जाना चाहिए ।
(v) सन्तुलित विकास एवं सरकार की भूमिका:
सन्तुलित विकास हेतु मात्र मूल्य यन्त्र परस्पर निर्भर विनियोगों की लहर उत्पन्न नहीं कर सकता । इस कारण सरकार के द्वारा केन्द्रीय नियोजन एवं क्रियान्वयन आवश्यक है । केन्द्रीय रूप से नियोजित अर्थव्यवस्था में उपलब्ध संसाधनों को विभिन्न उद्योगों एवं एक उद्योग के मध्य विभिन्न क्षेत्रों के मध्य इस प्रकार आबंटित किया जाना सम्भव बनता है कि साधनों का अनुकूल उपयोग सम्भव हो ।
5. सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की आर्थर लेविस द्वारा व्याख्या (Explanation of Arthur Lewis):
आर्थर लेविस के अनुसार विकास कार्यक्रमों में अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र एक साथ विकास करेंगे जिससे उद्योग एवं कृषि के मध्य तथा घरेलू उत्पादन एवं निर्यात हेतु उत्पादन के मध्य सन्तुलन स्थापित किया बा सके ।
लेविस ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था का उदाहरण लिया जिसके मुख्य तीन क्षेत्र है:
1. घरेलू बाजार के लिए कृषि उत्पादन
2. घरेलू बाजार के लिए औद्योगिक उत्पादन एवं
3. निर्यात
लेविस के अनुसार यदि घरेलू बाजार के लिए औद्योगिक उत्पादन बढ़ता है तब वह कृषि उत्पादनों के लिए माँग का विस्तार करेगा । लेविस यह मान कर चलते हैं कि कृषि वस्तुओं के लिए माँग की आय लोच शून्य से अधिक है । यह माँग वस्तुत: कृषि उत्पादन के बढ़ते उत्पादन द्वारा पूर्ण की जा सकेगी । यदि घरेलू माँग में यथेष्ट वृद्धि नहीं होती तब देश के निर्यातों में वृद्धि होगी । इस प्रकार कृषि विकास से औद्योगिक उत्पादों की माँग में वृद्धि होती है तथा इसके लिए घरेलू उपभोग हेतु औद्योगिक वस्तुओं के विस्तार की आवश्यकता होगी । यदि घरेलू बाजार में औद्योगिक उत्पादन नहीं बढ़ता तो देश के निर्यात बढ़ेंगे ।
लेविस के अनुसार घरेलू बाजार के कृषि व उद्योग दोनों क्षेत्रों में उत्पादन में होने वाली वृद्धि के ठीक बराबर निर्यातों की वृद्धि आवश्यक नहीं है । आर्धर लेविस वृद्धि की ऐसी रणनीति को स्वीकार नहीं करते जो पूर्णत: बढ़ते हुए निर्यातों पर निर्भर हो । उनके अनुसार इस प्रकार की नीति उस देश की व्यापार शर्तों को उसके विरूद्ध कर देगी ।
आर.वी. फिंडले ने सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण की व्यूहनीति के दो तर्कों में संगति न रहने के आधार पर आलोचना की । लेविस का पहला तर्क अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादों की साक्षेपिक कीमतों का अपरिवर्तित रहना एवं दूसरा तर्क आर्थिक विस्तार की प्रक्रिया में विभिन्न क्षेत्रों की वृद्धि उनके उत्पादों की माँग की आय लोच के तदन्तर रहने से सम्बन्धित था ।
फिण्डले ने दो वस्तुओं के मॉडल के सन्दर्भ में स्पष्ट किया कि उत्पादन फलनों के दिए होने पर लेविस के दोनों तर्क तब संगति नहीं रखेंगे यदि पूँजी निर्माण की दर, कार्यकारी जनसंख्या में वृद्धि के बराबर अथवा निम्न हो । वस्तुत: अर्द्धविकसित देशों की वर्तमान दशा को देखते हुए फिण्डले के निष्कर्ष भी विवादास्पद है, क्योंकि इन देशों में पूँजी निर्माण की दर श्रम शक्ति में होने वाली वृद्धि के सापेक्ष अधिक तीव्र है ।
एस.के. नाथ ने अपने शोध पत्र The Theory of Balanced Growth (1962) में स्पष्ट किया कि कृषि उद्योग एवं निर्यात जैसे क्षेत्रों के मध्य समन्वय ही आवश्यक नहीं है बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि इन मुख्य क्षेत्रों के अधीन विभिन्न उपक्षेत्रों की वृद्धि में भी समन्वय हो ।
6. सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त की आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Evaluation of the Theory):
सन्तुलित विकास से अभिप्राय अर्थव्यवस्था के विभिन्न भागों में साम्य की स्थापना करना है । इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि उपभोग एवं उत्पादन, उपभोग एवं पूँजी क्षेत्र एवं उत्पादन की प्रणाली में तालमेल बना रहे जिसके फलस्वरूप कच्चे संसाधनों, मध्यवर्ती वस्तुओं एवं औद्योगिक आवश्यकताओं में सन्तुलन बना रहे ।
सन्तुलित विकास अग्रगामी सन्तुलन एवं पश्चगामी सन्तुलन के दो तरीकों पर आधारित किया जा सकता है । अग्रगामी सन्तुलन में सर्वप्रथम कच्चे संसाधनों के विकास को प्राथमिकता प्रदान की जाती है जिसके उपरान्त इससे सम्बन्धित उद्योगों का विकास होता है । दूसरी तरफ पश्चगामी सन्तुलन में सर्वप्रथम उद्योगों का विकास किया जाता है तदुपरान्त आवश्यक कच्चे संसाधनों, पूँजीगत उपकरण, कुशल श्रम एवं अन्य आदाओं को जुटाया जाता है ।
सन्तुलित विकास के परिणामस्वरूप बाह्य मितव्ययिताओं की प्राप्ति होती है । इन्हें क्षैतिज मितव्ययिता एवं उधर्व मितव्ययिता के रूप में देखा जा सकता है, क्षैतिज मितव्ययिता के अधीन उपभोग प्रधान उद्योग का विकास अन्य उद्योगों को प्रोत्साहन प्रदान करता है जबकि क्षैतिज मितव्ययिता के अधीन भारी व आधारभूत उद्योग सर्वप्रथम स्थापित किए जाते है ।
सन्तुलित विकास की रणनीति पर आधारित रहने से उत्पादन व्यापक स्तर पर सम्भव बनता है जिससे श्रम विभाजन के लाभ प्राप्त होते है । इसके साथ ही कच्चे संसाधनों, पूँजीगत उपकरण, तकनीकी क्षमता एवं विदेशी सहायता का बेहतर प्रयोग सम्भव बनता है ।
संक्षेप में, सन्तुलित विकास विश्लेषण अर्थव्यवस्था में बाह्य मितव्ययिताएँ उत्पन्न कर बाजार का विस्तार सम्भव बनाता है । यह बड़े धक्के या प्रबल प्रयास की रणनीति पर आधारित है ।
सन्तुलित विकास विश्लेषण की आलोचना निम्न आधारों पर की जाती है:
(1) यह आवश्यक नहीं कि कम विकसित देशों में बाह्य आर्थिक मितव्ययिताएँ सन्तुलित वृद्धि उत्पन्न करें:
रोजेन्सटीन रोडान ने कम विकसित देशों में बाह्य आर्थिक मितव्ययिताओं की उपस्थिति के आधार पर सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त का समर्थन किया । जोसेफ एलोइस शम्पीटर के अनुसार पूँजी के काफी अधिक व्यय या विनियोग योजनाओं के एकीकरण जैसा ही प्रभाव नवप्रवर्तन द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । नवप्रवर्तन प्रशिक्षित श्रम की आवश्यकता को भी सीमित कर देता है ।
इस प्रकार यह एक दुर्लभ साधन को अर्थव्यवस्था के अन्य भागों में प्रयोग हेतु स्वतन्त्र करता है । नवप्रवर्तन पूँजी बचत करने वाले भी हो सकते हैं तथा यह कच्चे पदार्थों के अधिक समर्थ प्रयोग को प्रोत्साहित करते है । इससे आदाओं की माँग घटती है तथा नवप्रवर्तन की अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे क्षेत्रों को बाह्य आर्थिक मितव्ययिता प्रदान करता है । आलोचकों के अनुसार नवप्रवर्तन भी हमेशा बाह्य आर्थिक मितव्ययिता प्रदान नहीं करता, यह निष्क्रिय भी हो सकता है तथा बाह्य आर्थिक अमितव्ययिता भी प्रदान कर सकता है ।
(2) बाह्य आर्थिक मितव्ययिता अनुकूलतम विनियोग निर्णयों से हस्तक्षेप करती है:
एक विशिष्ट उद्योग में विनियोग किए जाने पर बढ़ता हुआ उत्पादन सामान्यत: वस्तुओं की कीमत को कम करता है तथा साधन आदाओं की लागत को बढ़ाता है । उत्पाद का प्रयोगकर्त्ता एवं उत्पादन के साधन के विक्रेता इस प्रकार लाभ प्राप्त करते है व विनियोगी को किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति नहीं करते । यदि विनियोग सामाजिक रूप से अनुकूलतम है तो प्राप्त होने वाले लाभ भी विनियोग निर्णयों से जुड़ जाते हैं ।
सामान्यत विनियोगी व्यक्तिगत लाभों को ध्यान में रखते हैं तथा समाज को लाभ प्राप्त होने वाले अतिरिक्त लाभों पर दृष्टिपात नहीं करते । जब बाह्य आर्थिक मितव्ययिताओं के कारण सामाजिक लाभ, निजी लाभों से अधिक हो जाते है तो निजी विनियोग सामाजिक रूप से अनुकूलतम नहीं रहता तथा विकास की प्रक्रिया इससे बाधा का अनुभव करती है ।
(3) संसाधनों की दुर्लभता:
सन्तुलित वृद्धि की आलोचना प्राय: कम विकसित देशों में साधनों की दुर्लभता की समस्या से सम्बन्धित की जाती है । कम विकसित देशों के लिए समन्वित अधिक विनियोग वाली परियोजनाओं को प्रारम्भ कर पाना सम्भव नहीं बन पाता । हर्षमैन का कथन है कि यदि कम विकसित देश इतने अधिक संसाधन विनियोग हेतु जुटा लें तब वह अर्द्धविकसित देश नहीं कहलायेंगे ।
यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त कृषि में विनियोग को भी प्रस्तावित करता है जिसमें किया जाने वाला विनियोग, बड़े धक्के के सिद्धान्त के निदेंश से कहीं अधिक होता है । सत्य तो यह है कि कम विकसित देश संसाधनों की कमी की समस्या का अनुभव करते है । अत. इनके लिए विनियोग का एक व्यापक कार्यक्रम सचालित करना कठिन होता है ।
(4) अर्द्धविकसित देशों की क्षमता से बाहर:
सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों की समस्याओं की वास्तविक प्रवृत्तियों से अनभिज्ञ रहने के कारण व्यावहारिक दृष्टि से संदेहास्पद हो जाता है । प्रो.एच. डब्ल्यू. सिंगर के अनुसार बहुमुखी विकास के लाभ अर्थशास्त्रियों के अध्ययन के लिए दिलचस्प हो सकते है किन्तु अल्पविकसित देशों के लिए वस्तुत: यह निराशापूर्ण खबर है ।
सिंगर ने सन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त को निम्न प्रकार अभिव्यक्त किया ‘एक हजार फूल उग सकते है जबकि एक फूल पोषण की कमी से मुरझा सकता है’ । सिंगर यह स्वीकार करते हैं कि अर्द्धविकसित देशों के लिए खण्ड-खण्ड या छोटी-छोटी चीजों के सापेक्ष बड़ी चीजों को सोचना एक अच्छी सलाह है परन्तु वर यह भी अनुभव करते है कि नर्क्से द्वारा प्रतिपादित सन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त को शंकाओं से मुक्त नहीं माना जा सकता ।
(5) विकास के एक सिद्धान्त के रूप में असफल:
प्रो.एच. डब्ल्यू सिंगर के अनुसार सन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त यह मान कर चलता है कि अल्पविकसित देशों में विकास की आरम्भिक दशाओं से ही विकास आरम्भ हो सकता है । हर्षमैन के अनुसार सन्तुलित विकास का सिद्धान्त एक विकास के सिद्धान्त के रूप में असफल है । विकास से तात्पर्य परिवर्तन की एक ऐसी प्रक्रिया से है जो एक प्रकार की अर्थव्यवस्था को कुछ अधिक नियमित रूप प्रदान करती है ।
सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त इस बात को ध्यान में नहीं रखता तथा यह सिफारिश करता है कि एक बिल्कुल नया तथा आत्मनिर्भर आधुनिक औद्योगिक क्षेत्र अवश्य ही एक जड एवं उतने ही आत्मनिर्भर परम्परागत क्षेत्र के ऊपर आरोपित हो जाए । प्रो. हर्षमैन के अनुसार न तो यह विकास है और न ही किसी पुरानी चीज पर नयी चीज का आरोपण है बल्कि यह पूर्णरूप से विकास का एक दोहरा प्रारूप है ।
(6) सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण विकसित देशों के अर्द्धरोजगार हेतु उपयुक्त:
यह तर्क दिया जाता है कि सन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त के समर्थक पिछड़ी एवं विकसित अर्थव्यवस्था में अन्तर स्थापित करने में असमर्थ रहे है । हर्षमैन के अनुसार सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त विकसित देशों में अर्द्धरोजगार की समस्याओं हेतु उपयुक्त नहीं है । विकसित देशों में आर्थिक गतिविधियों के मन्द पड़ने तथा अर्द्धरोजगार दशाओं की उपस्थिति देखी जाती है लेकिन इन देशों में साधन, मशीन व उपक्रमियों की सुलभता होती है ।
ऐसे में इन देशों में काफी अधिक उद्योगों में एक साथ विनियोग किया जाना उचित नीति है जिससे बाजार का आकार बढ़ेगा एवं सभी उद्योगों के उत्पाद की माँग में वृद्धि होगी । इससे अर्थव्यवस्था मन्दी एवं अर्द्धरोजगार की दशा से मुक्ति प्राप्त करती है । अर्द्धविकसित देशों में आवश्यक मशीनरी एवं उपक्रमशीलता का अभाव होता है । अत: बड़े उद्योगों में एक साथ भारी विनियोग किया जाना सम्भव नहीं होता ।
प्रो. हर्षमैन के अनुसार सन्तुलित वृद्धि विश्लेषण को अल्प रोजगार की स्थिति के लिए खोजे गए इलाज को अल्पविकास की स्थिति में लागू करना होगा व्यापार चक्रों की समुत्थान अवधि में आर्थिक क्रियाओं का एक सन्तुलित पुनरुत्थान हो सकता है, क्योंकि उद्योग, मशीन प्रबन्धक श्रमिक के साथ-साथ उपभोग की सभी आदतें विद्यमान होती हैं तथा यह अस्थायी रूप से रुके हुए अपने कार्यों एवं भूमिकाओं को फिर से प्रारम्भ करने के लिए प्रतीक्षा कर रहे होते हैं ।
लेकिन अर्द्धविकास की अवस्था में ऐसा होना सम्भव नहीं होता । इसके साथ ही साथ ऐसा कोई समाधान भी नहीं दिखायी देता भले ही सरकार द्वारा एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया जा रहा हो अथवा नहीं । हेंस सिंगर ने इसी कारण कहा कि सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त गलत नहीं बल्कि असामयिक है, क्योंकि यह अविरल वृद्धि की अगली अवस्था में लागू होता है न कि अर्थव्यवस्था के दुश्चक्र को तोड़ता है ।
(7) उत्पत्ति के साधनों में आनुपातिकता का अभाव:
सन्तुलित वृद्धि के सिद्धान्त में उत्पत्ति के साधनों की पूर्ति में आनुपातिकता का अभाव विकास हेतु कठिनाई उत्पन्न करता है । कुछ देशों में श्रम साधनों की सम्पन्नता होती है एवं पूँजी व उपक्रमशीलता व कौशल का अभाव होता है, जबकि दूसरे देशों में श्रम एवं पूँजी दुर्लभ है पर अन्य साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है । उत्पादन साधनों की पूर्ति में गैर आनुपातिकता सन्तुलित विकास की कार्यशीलता हेतु बाधा उत्पन्न करती है ।
(8) उद्योगों के मध्य प्रतिस्पर्द्धा का सम्बन्ध:
सन्तुलित वृद्धि का सिद्धान्त माँग की पूरकता पर आधारित है, क्योंकि विभिन्न उद्योगों में कार्य करने वाले व्यक्ति एक-दूसरे के क्रेता होते है तथा समस्त उत्पादन को खपाने के लिए माँग को उत्पन्न करते है । जे. मार्क्स फ्लेमिंग ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट किया कि अर्द्धविकसित देशों में संसाधनों की सीमितता के कारण विभिन्न उद्योगों के मध्य सम्बन्ध पूरक न होकर प्रतिस्पर्द्धी होते है, क्योंकि वह समान साधनों के लिए आपस में प्रतिस्पर्द्धा करते हैं ।
(9) ऐतिहासिक अवलोकन द्वारा सत्यापित नहीं:
हैंस सिंगर के अनुसार सन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त एतिहासिक अवलोकन के आधार पर प्रमाणिक नहीं है । वस्तुत: प्रत्येक अर्द्धविकसित देश ने विकास की प्रक्रिया को एक ऐसी दशा से प्रारम्भ किया जो पूर्व के विनियोग निर्णयों एवं भूतकाल में हुए विकास को अभिव्यक्त करता था । एतिहासिक रूप से आर्थिक वृद्धि सन्तुलित प्रकार से नहीं होती बल्कि यह असन्तुलित प्रवृति रखती है ।
प्रो. पाल स्ट्रटिन के अनुसार यह सन्तुलित विकास नहीं था बल्कि ऐसी दुर्लभताएँ व बाधाएँ थीं जिन्होंने खोज व आविष्कारों के लिए प्रेरणा प्रदान की जिसके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड एवं बाद में अन्य देशों ने तेजी से विकास किया । हर्षमैन के अनुसार नए बाजार एवं विनियोग अवसरों का सृजन प्राकृतिक रूप से बाधाओं के द्वारा होता है ।
सीटोवस्की ने सन्तुलित वृद्धि सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की कि यह अर्थव्यवस्था में अति विस्तार का खतरा उत्पन्न करता है । उन्होंने एक उद्योग के एक समय में होने वाले केन्द्रित विकास पर बल दिया ।