हिगिन्स की तकनीकी द्विवाद की सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about:- 1. तकनीकी द्वैतता की प्रस्तावना (Introduction to Technological Dualism) 2. तकनीकी द्वैतता की व्याख्या (Explanation of Technological Dualism) 3. रिचर्ड यूकास की व्याख्या – उत्पादन एवं रोजगार का संघर्ष (Explanation of Richard Eckaus – Conflict of Output and Employment).
तकनीकी द्वैतता की प्रस्तावना (Introduction to Technological Dualism):
अर्द्धविकसित देशों में बेरोजगारी का समस्या के समाधान हेतु बूके का सामाजिक द्वैतता का विश्लेषण किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता । सामाजिक द्वैतता के स्थान पर तकनीकी द्वैतता के विचार को प्रो. बेंजामिन हिगिन्स ने द्वैतता एवं जनसंख्या विस्फोट के सन्दर्भ में अपनी पुस्तक Economic Development (1966) में प्रस्तुत किया ।
बेंजामिन हिगिन्स ने साधन अनुपातों की समस्या को मुख्य माना एवं यह स्पष्ट किया कि अर्द्धविकसित देशों में उत्पादक रोजगार के अवसरों का बेलोचदार होना समर्थ माँग का कमजोर होना नहीं बल्कि इन अर्थव्यवस्थाओं की तकनीकी रूप से द्वैत प्रकृति है ।
अर्थव्यवस्था में उन्नत एवं पिछड़े घरेलू क्षेत्रों में आधारभूत रूप से भिन्न उत्पादन फलन एवं साधन बहुलताओं के कारण बेरोजगारी की मात्रा बढ़ती चली जाती है ।
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बेंजामिन हिगिन्स ने आर.एस. यूकास द्वारा वर्णित साधन अनुपातों की समस्या का आधार लेते हुए स्पष्ट किया कि एक अर्द्धविकसित अर्थव्यवस्था के दो क्षेत्रों में बाजार अपूर्णता, विभिन्न साधन बहुलताओं एवं उत्पादन फलन के अन्तर विद्यमान होने के कारण उत्पादक रोजगार के सीमित अवसर उपलब्ध होते हैं ।
अत: द्वैतता एक ऐसी दशा है जिसमें उत्पादक रोजगार के सीमित अवसर होते हैं जिसका कारण समर्थ माँग की कमी से नहीं बल्कि दोनों क्षेत्रों में संसाधनों एवं तकनीकी भिन्नताओं खा उपस्थित होना है ।
अर्द्धविकसित देशों में साधन स्तर पर संरचनात्मक असन्तुलन विद्यमान होते हैं । इस कारण यह है कि या तो एकल साधन विभिन्न प्रयोगों से भिन्न प्रतिफल प्राप्त करता है या साधनों के मध्य कीमत सम्बन्ध साधनों की उपलब्धता के साथ एकरूपता नहीं रखता । रिचर्ड यूकास अपने लेख The Factor Proportion Problem in Underdeveloped Areas में लिखते है कि इस प्रकार का असन्तुलन अर्द्धविकसित देश में बेरोजगारी या अर्द्धरोजगार की स्थितियाँ दो प्रकार से उत्पन्न करता है ।
पहला, कीमत प्रणाली की अपूर्णताएँ या इनका सही ढंग से कार्य न करना एवं दूसरा विद्यमान तकनीक की सीमाएं या माँग की ऐसी संरचना जो गहन जनसंख्या वाले पिछड़े देशों में अतिरेक श्रम की समस्या उत्पन्न कर देती है । इस प्रकार संसाधनों के कुवितरण माँग की संरचना एवं तकनीकी सीमाओं के कारण अर्द्धविकसित देशों में अतिरेक श्रम की स्थितियाँ दिखायी देती हैं जिसे तकनीकी बेरोजगारी की संज्ञा दी जा सकती है ।
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I. परम्परागत ग्रामीण क्षेत्र की विशेषताएँ (Characteristics of Traditional Rural Sector):
अर्द्धविकसित देशों में परम्परागत ग्रामीण क्षेत्र प्राथमिक रूप से कृषि एवं दस्तकारी या छोटे उद्योगों में संलग्न रहता है । कृषि क्षेत्र की उत्पादन तकनीकों में विभिन्नता देखी जाती है अर्थात् उत्पादन में तकनीकी गुणांक परिवर्ती होते हैं । इससे अभिप्राय है कि वस्तुओं को विभिन्न तकनीकों के द्वारा उत्पादित किया जाता है जिसमें श्रम व पूँजी के वैकल्पिक संयोग होते हैं । इन देशों में साधन बहुलताएँ इस प्रकार के होते हैं कि श्रम उत्पादन का सापेक्षिक रूप से सम्पन्न साधन होता है । अत: उत्पादन की तकनीक श्रम गहन होती है । पूँजी उत्पादन का सापेक्षिक रूप से दुर्लभ साधन होता है ।
II. आधुनिक क्षेत्र की विशेषताएँ (Characteristics of Modern Sector):
आधुनिक क्षेत्र में बागान, खदान तेल क्षेत्र एवं बड़े उद्योग सम्मिलित होते हैं । आधुनिक क्षेत्र साधन प्रतिस्थापन अल्प अंश को निरुपित करता है । स्पष्ट है कि उत्पादन में स्थिर तकनीकी गुणांकों का प्रयोग किया जाता है । स्पष्ट है कि उत्पादन के साधनों के मध्य प्रतिस्थापन की लोच शून्य के समकक्ष होता है । तकनीकी प्रतिस्थापन की के कारण आधुनिक क्षेत्र में एक विशिष्ट का उत्पादन एक विशिष्ट तकनीक की अपेक्षा उत्पादन प्रक्रिया की प्रवृति उत्पादन गहन होती है ।
तकनीकी द्वैतता की व्याख्या (Explanation of Technological Dualism):
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प्रो. बेंजामिन हिगिन्स ने तकनीकी द्वैतता के सिद्धान्त को एक मॉडल की सहायता से विश्लेषित किया जिसमें उत्पादन के दो साधन, दो वस्तुएँ एवं दो क्षेत्र- आधुनिक एवं परम्परागत है । इन दोनों क्षेत्रों में उत्पादन के फलन एवं साधन की बहुलताएँ भिन्न-भिन्न है ।
औद्योगिक क्षेत्र- चित्र 1 में औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन फलन को प्रदर्शित किया गया है । X-अक्ष में श्रम एवं Y-अक्ष में पूंजी की मात्राओं को दिखाया गया है । चित्र में वक्र
O1, O2, O3, O4 सम-उत्पाद वक्र है जिसमें से प्रत्येक वक्र श्रम व पूँजी के विभिन्न संयोगों की सहायता से समान उत्पादन की सूचना देता है । जैसे-जैसे हम O1 वक्र से O2, O3, O4 की ओर आगे बढ़ते है वैसे-वैसे उत्पादन के उच्च स्तरों की प्राप्ति होती है ।
सम-उत्पाद वक्रों का समकोणीय आकार यह प्रदर्शित करता है कि उत्पादन के विभिन्न स्तरों का उत्पादन श्रम व पूँजी के एक विशिष्ट संयोग द्वारा उत्पादित किया जा सकता है । उदाहरण के लिए उत्पादन स्तर O1 = 100 का उत्पादन पूँजी की OC1 व OL1 मात्राओं के द्वारा किया जा सकता है ।
स्पष्ट है कि समकोणीय सम-उत्पादन रेखाएँ स्थिर तकनीकी गुणांकों की दशा को सूचित करती है । इस उदाहरण में उत्पादन की किसी मात्रा को प्राप्त करने के लिए श्रम व पूँजी के स्थिर अनुपातों के संयोग का प्रयोग किया जाता है । उत्पादन केवल तब बढ़ सकता है जब इन अनुपातों को बनाए रखने के लिए दोनों साधनों की मात्रा में वृद्धि की जाये ।
इस क्षेत्र में उत्पादन की प्रक्रिया भी पूँजीगहन होती है अर्थात् पूँजी की अपेक्षाकृत अधिक मात्राएँ एवं श्रम की अपेक्षाकृत अल्प मात्राओं का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार O1 उत्पादन प्राप्त करने के लिए पूँजी
की OC1 इकाई तथा श्रम की OL1 इकाईयों का प्रयोग किया जाता है । यदि श्रम की L2 इकाइयाँ उपलब्ध हैं तो अतिरिक्त श्रम पूर्ति (OL2 – OL1 = L1L2) उत्पादन की तकनीक पर कोई भी प्रभाव नहीं डालेंगी तथा L1L2 इकाई श्रम बेरोजगार ही रह जाएगा ।
समय के साथ-साथ जैसे-जैसे अधिक पूँजी उपलब्ध होती है अधिक श्रम को रोजगार दिया जाएगा तथा उत्पादन में वृद्धि होगी । चित्र में रेखा EP1 औद्योगिक क्षेत्र का विस्तार पथ है । इस पथ के अनुरूप औद्योगिक क्षेत्र के विनियोग उत्पादन में होने वाली वृद्धि रोजगार में होने वाली सापेक्षिक कम वृद्धि को प्रदर्शित करता है ।
बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार तकनीकी गुणांक इतनी दृढ़ता से स्थिर नही होते जैसा कि यहीं माना जाता है । इनमें लोचशीलता पायी जाती है । लोचशीलता को ध्यान में रखते हुए वास्तविक स्थिति को चित्र में बिन्दुदार रेखाओं के द्वारा सम-उत्पाद वक्र में दिखाया गया है । साधन बहुलताओं तथा उत्पादन के साधनों की सापेक्षिक कीमतों में अल्प परिवर्तन के परिणामस्वरूप उपक्रमियों द्वारा अपनायी गई तकनीकों में तब कोई परिवर्तन नहीं होगा जब उत्पादन बिन्दुदार रेखा के द्वारा दिखाया गया है । यदि साधन बहुलताओं एवं कीमतों में काफी व्यापक परिवर्तन दिखायी दें तो उन्हें चित्र में रेखा CoLn के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । रेखा CoLn प्रदर्शित करती है कि अधिक श्रम गहन तकनीक को अपनाया गया है ।
कृषि क्षेत्र:
चित्र 2 में ग्रामीण क्षेत्र के लिए उत्पादन फलन प्रदर्शित किया गया है जहाँ तकनीकी गुणांक परिवर्ती है अर्थात् समान उत्पाद प्राप्त करने के लिए श्रम व पूँजी के विभिन्न संयोगों एवं विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जाता है । यहाँ पूँजी में सुधरी भूमि को भी सम्मिलित किया गया है ।
चित्र में O1, O2, O3 व O4 सम-उत्पाद वक्र हैं । माना प्रत्येक क्षेत्र में उत्पाद रेखा O1 द्वारा प्रदर्शित उत्पादन से आगे बढ़ा दी जाती है तब पूँजी अधिकांश: विदेश से औद्योगिक क्षेत्र में प्रवाह आरम्भ करेगी । औद्योगिक क्षेत्र EPa रेखा पर वृद्धि करता है । बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार यह औद्योगीकरण जनसंख्या के विस्फोट को जन्म देता है ।
विभिन्न देशों में यह पाया गया कि विभिन्न अवधियों में जनसंख्या वृद्धि की दर औद्योगिक क्षेत्र में संचित होने वाली पूँजी की वृद्धि दर की अपेक्षा अधिक तेजी से बढ़ती है, क्योंकि इस क्षेत्र में वास्तविक या स्वीकृत स्थिर तकनीकी गुणांकों के कारण इस क्षेत्र में रोजगार के अवसर उस तेजी के साथ नहीं बढ़ते जितनी तेजी से जनसंख्या में वृद्धि हो जाती है ।
बेंजामिन हिगिन्स ने स्पष्ट किया कि औद्योगीकरण प्रारम्भ में औद्योगिक क्षेत्र में कुछ रोजगार के अनुपात में सापेक्षिक कमी करता है तथा यह सम्भव नहीं हो पाता कि ग्रामीण क्षेत्र से औद्योगिक क्षेत्र की ओर जनसंख्या का प्रवाह हो ।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि पूँजी गहन तकनीक एवं उत्पादन के स्थिर गुणांकों की दशा में औद्योगिक क्षेत्र के लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ रोजगार के अवसरों में वृद्धि करें । इसके परिणामस्वरूप इस क्षेत्र में श्रम का अतिरेक उत्पन्न हो जाता है ।
बढ़ती हुई जनसंख्या परम्परागत क्षेत्र या परिवर्ती गुणांक क्षेत्र में आजीविका प्राप्त करने का प्रयास करती है । प्रारम्भिक अवस्था में यह सम्भव होता है कि अधिक भूमि को कृषि के अन्तर्गत लाया जा सके जिससे श्रम की अतिरिक्त पूर्ति को खपाया जा सके । इस प्रकार जब श्रम एवं पूँजी (सुधरी हुई भूमि का अधिक अंश) के अनुकूलतम संयोग के द्वारा उत्पाद को O1 से O3 तक बढ़ाया जाना सम्भव होता है । अच्छी भूमि की दुर्लभता के कारण पूँजी में श्रम का अनुपात इस क्षेत्र में बढ़ता जाता है ।
इस क्षेत्र में तकनीकी गुणांक दुर्लभ है अत: इस क्षेत्र की तकनीक श्रम गहन होती चली जाती है । अंतत. एक ऐसा बिन्दु On पर प्राप्त होता है जहाँ सभी उपलब्ध भूमि उच्च श्रम गहन तकनीक के द्वारा कृषि के अधीन ले आई आती हैं । इसके साथ ही श्रम की सीमान्त उत्पादकता शून्य से नीचे गिर जाती है । इस प्रकार जैसे-जैसे जनसंख्या वृद्धि होती जाती है छद्म बेकारी बढ़ती चली जाती है ।
इन दशाओं में कृषकों या लघु उपक्रमियों के समूह के सामने ऐसी कोई प्रेरणा नहीं होती कि वह श्रम गहन क्षेत्र में पूँजी का सीमान्त व असम्बन्धित विनियोग करें भले ही विनियोग करने के लिए उनके पास पूँजी उपलब्ध हो । नए श्रम बचत नवप्रवर्तनों को प्रस्तावित करने का प्रयास नहीं किया जाता । एक समूह के रूप में श्रम भी अपने प्रयासों में कोई वृद्धि नहीं करता । इस कारण उत्पादन की विधियाँ श्रम गहन बनी रहती है तथा तकनीक का स्तर, उत्पादकता प्रति मानव घण्टा एवं आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण का स्तर निम्न ही बना रहता है ।
ग्रामीण क्षेत्र में छद्म बेकारी की यह प्रवृति तब और बढ़ जाती है जब तकनीकी प्रगति के द्वारा पूँजी गहन क्षेत्र और समृद्ध हो । व्यावहारिक रूप से भी यह देखा गया है कि कृषि एवं दस्तकारी के क्षेत्र में तकनीकी प्रगति अत्यन्त न्यून हुई है, जबकि बागान, खदान, एवं पेट्रोलियम क्षेत्र अपेक्षाकृत तेजी से बढ़े हैं ।
कृषि क्षेत्र में छद्म बेकारी की प्रवृति तब और अधिक बढ़ जाती है जब मजदूरी की दरें श्रम संघ की गतिविधियों या सरकारी नीतियों के फलस्वरूप कृत्रिम रूप से ऊँची रखी जाएँ । यदि औद्योगिक मजदूरी दर उत्पादकता के सापेक्ष उच्च है तो श्रम बचत उपायों को प्रस्तावित करने की प्रेरणा उत्पन्न होती है । इसके फलस्वरूप औद्योगिक क्षेत्र जनसंख्या वृद्धि को अवशोषित करने की क्षमता और कम हो जाती है ।
रिचर्ड यूकास की व्याख्या – उत्पादन एवं रोजगार का संघर्ष (Explanation of Richard Eckaus – Conflict of Output and Employment):
रिचर्ड यूकास ने अपने लेख “The Factor Proportions Problems in Underdeveloped Areas” (1955) में बेंजामिन हिगिन्स की संकल्पनाओं के सत्यापन के साथ-साथ यह भी प्रदर्शित किया कि एक अर्द्धविकसित देश में पूर्ण रोजगार एवं उत्पादन के अधिकतम होने के मध्य एक संघर्ष विद्यमान हो सकता है । यदि माँग की प्रवृतियों साधन बहुलताओं के साथ तादात्मय न रखें ।
अर्द्धविकसित देशों में साधन अनुपातों की समस्या को स्पष्ट करने के लिए यूकास ने माना कि अर्थव्यवस्था में उत्पादन को दो साधनों पूँजी एवं श्रम की सहायता से उत्पादित (मात्र एक वस्तु का) किया जाता है । यह मानते हुए कि साधनों को स्थिर अनुपातों में प्रयुक्त किया जाता है । यूकास ने पाया कि सापेक्षिक रूप से सम्पन्न साधन श्रम संरचनात्मक बेरोजगारी का सामना करता है ।
यदि उत्पादन हेतु अधिक श्रम गहन प्रक्रिया को प्रस्तावित किया जाये तब भी श्रम की संरचनात्मक बेकारी की प्रवृतियाँ विद्यमान रहती है । इसके बावजूद भी इस मान्यता को यूकास अपने निष्कर्षों हेतु आवश्यक नहीं मानते ।
यूकास ने राष्ट्रीय उत्पाद को दो भागों में विभाजित किया:
(I) पश्चिमी उपक्रमियों द्वारा किया गया उत्पादन जो सापेक्षिक रूप से पूंजी गहन है ।
(II) झेत्रीय उपक्रमियों द्वारा किया गया उत्पादन जो सापेक्षिक रूप से श्रम गहन है ।
यूकास के अनुसार एक उच्च श्रम-पूँजी अनुपात के विद्यमान होने पर भी श्रम की संरचनात्मक बेकारी विद्यमान रहती है तथा कीमत समायोजन या बढ़ी हुई समर्थ माँग के सृजन द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती है । अधिक श्रम गहन तकनीक में स्थिर गुणांकों के स्थान पर परिवर्ती गुणांकों का प्रयोग करने पर भी यह निष्कर्ष नहीं बदलता । संक्षेप में यूकास के अनुसार एक काफी अधिक उच्च श्रम पूँजी दर के साथ श्रम-गहन परिवर्ती गुणांक क्षेत्र में श्रम की संरचनात्मक बेकारी का दिखायी देना लगभग निश्चित होता है ।
यूकास ने यह भी प्रदर्शित किया कि संरचनात्मक बेकारी निम्न में से किसी भी दशा में उग्र हो सकती है:
(I) यदि मजदूरी को कृत्रिम रूप से श्रम संघों की किया या सरकारी नीति द्वारा ऊँचा रखा जा रहा हो ।
(II) यदि तकनीकी प्रगति ऐसा रूप ले जो पूँजी गहन क्षेत्र के पक्ष में हो ।
(III) यदि श्रम गहन क्षेत्र में जनसंख्या में होने वाली वृद्धि पूँजी संचय की दर से अधिक हो जाये ।
बेंजामिन हिगिन्स के अनुसार अर्द्धविकसित देशों की समस्याओं के लिए एक अधिक व्यावहारिक विधि प्रस्तावित करने के लिए उनका तकनीकी द्वैतता विश्लेषण बूके के सामाजिक द्वैतता के विश्लेषण से अधिक उपयोगी है । अर्द्धविकसित देशों में पायी जाने वाली दशाएँ ऐसी है कि साधनों का आबंटन जो एक अनुकूलतम उत्पादन प्रदान कर सकता है, बेरोजगारी को उस स्थिति में उत्पन्न करता है जब पूँजी की पूर्ति की तुलना में श्रमपूर्ति अधिक हो ।
अर्द्धविकसित देशों में माँग की वास्तविक प्रकृति ऐसी होती है कि वह अनुकूलतम उत्पादन एवं पूर्ण रोजगार के मध्य बढ़ते हुए द्वन्द्व को जन्म देती है ।
डल, यूकास के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में श्रम की अधिकता की समस्या को सुलझाने का एकमात्र उपाय यह है कि दुर्लभ साधनों की पूर्ति में वृद्धि की जाये । इन दुर्लभ साधनों में भूमि मुख्य है । पूँजी की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि का एकमात्र उपाय यह है कि भूमि में श्रम के अनुपात में वृद्धि की जाये । इस स्थिति में उत्पादन फलन काफी अधिक असतत हो जाता है ।
यूकास ने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया कि यदि एक परिवार के फार्म के आकार में 2 एकड़ से 3 एकड़ की वृद्धि की जाये तो पूँजी की सीमान्त उत्पादकता में वृद्धि नहीं होती । यदि आकार में 20 से 200 एकड़ की वृद्धि हो तो यन्त्रीकरण लाभदायक हो सकता है । उच्च जनसंख्या घनत्व के होने पर भूमि जोत के आकर में ऐसी वृद्धि केवल तब प्राप्त की जा सकती है जब लोगों को कृषि से औद्योगिक क्षेत्र की ओर लाया जाये ।
इस प्रकार के कार्यक्रम हेतु पूँजी पुन एक दुर्लभ संसाधन बन जाती है । यह आवश्यक हो जाता है कि उद्योग एवं कृषि क्षेत्र के विनियोग में भारी वृद्धि की जाये । ऐसे में विद्यमान भूमि जोतों पर किया कृषि सुधार या औद्योगीकरण इस विशिष्ट निर्धनता के दुश्चक्र को तोड़ नहीं पाएगा । कृषि क्रान्ति के बिना किया गया औद्योगीकीकरण अर्द्धविकसित देशों को उसी स्थिति में छोड़ देगा जहाँ वह पहले थे ।
बेंजामिन हिग्म्सि का विश्लेषण अर्द्धविकसित देशों के परम्परागत क्षेत्रों में विद्यमान अर्द्धरोजगार का स्पष्ट विवेचन करता है । ऐतिहासिक प्रमाणों पर आधारित होने के कारण यह वास्तविकता के निकट है, लेकिन आधुनिक क्षेत्र में तकनीकी गुणांकों में निश्चित होने की समस्या अवास्तविक है । यह भी सम्भव है कि एक साधन के स्थान पर दूसरे साधन का प्रयोग किया जाये ।
आधुनिक क्षेत्र में परम्परागत क्षेत्र के सापेक्ष साधनों के प्रतिस्थापन की सम्भावना कम रहती है, परन्तु इसका अनुपस्पित होना सम्भव नहीं । परम्परागत एवं आधुनिक क्षेत्र में साधन अनुपात को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक व संस्थागत घटकों पर ध्यान नहीं दिया गया है ।