जेएस मिल की आर्थिक विकास की सिद्धांत | Read this article in Hindi to learn about the classical theory of J.S. Mill.
जान स्टुअर्ट मिल की व्याख्या, समृद्धि के ऐसे समय में सामने आई जब पूँजीपति एवं भू-स्वामी के मध्य द्वन्द्व काफी कम हो गया था । 1848 में मिल का ग्रन्थ Principles of Political Economy with Some of their Application to Social Philosophy प्रकाशित हुआ । मिल ने राष्ट्रों की सम्पत्ति पर विचार उस समय प्रस्तुत किए जब औद्योगिक क्रान्ति के परिणाम सामने आने लगे थे । उनका ग्रन्थ एक देश के आर्थिक विकास को प्रभावित करने वाले घटकों की व्यापक शृंखला को समाहित करते हुए वृद्धि की व्याख्या प्रस्तुत करता था ।
आर्थिक विकास के घटक (Factors of Economic Development):
मिल ने आर्थिक विकास को श्रम भूमि एवं पूंजी का फलन माना । सम्पत्ति में वृद्धि मात्र तब सम्भव है जब भूमि एवं पूँजी उत्पादन को बढ़ाने में श्रम शक्ति के सापेक्ष अधिक तेजी से योगदान दें । मिल ने पूँजी निर्माण हेतु बचतों की वृद्धि को आवश्यक माना ।
उनके अनुसार- पूँजी संचय की दर (1) देश में विभिन्न उद्योगों में कुल उत्पादन की मात्रा तथा (2) बचत करने की शक्ति एवं क्षमता पर निर्भर करती है । बचतें वस्तुत: कुल उत्पादन विशेष रूप से लाभ एवं लगान से ही प्राप्त होती है । अत: वह घटक जो देश के कुल उत्पादन की मात्रा में वृद्धि करते है वह देश में पूँजी संचय की मात्रा में भी वृद्धि करते हैं ।
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जे.एस. मिल ने आर्थिक विकास में अनार्थिक घटकों का महत्व भी स्पष्ट किया । इनके अन्तर्गत उन्होंने आदत, रीति-रिवाज एवं संस्थाओं की भूमिका उल्लेखनीय मानी । आर्थिक विकास में अवरोध उतन करने के घटकों में उन्होंने प्रशासनिक अकुशलता, राजनीतिक अस्थायित्व एवं अन्य विश्वासयुक्त आदतों व सामाजिक रीति-रिवाज को मुख्य माना । मिल के अनुसार- आर्थिक विकास हेतु संस्थागत परिवर्तन अत्यन्त आवश्यक हैं ।
राज्य की भूमिका (Role of the State):
प्रो. मिल व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्षपर थे । अत: उन्होंने अनन्य नीति पर विश्वास प्रकट किया । उन्होंने आर्थिक क्षेत्र में सरकार की अकुशलता को ध्यान में रखते हुए राज्य के हस्तक्षेप को उचित नहीं माना । मिल के अनुसार- शिक्षा सार्वजनिक निर्माण कार्यों, भूमि सुधार एवं निजी उपक्रम हेतु बेहतर वातावरण बनाने में सरकार को आगे आना चाहिए ।
i. उत्पादन एवं वितरण के नियमों की व्याख्या (Explanation of Law of Production and Distribution):
मिल के उत्पादन सिद्धान्त की केन्द्रीय संकल्पना मूल्य के नियम से सम्बन्धित है । उन्होंने श्रमिकों एवं पूँजी के पूर्ति कर्ताओं को, भुगतान किए पारिश्रमिक के रूप में लागत की परिभाषा दी । मिल के अनुसार- पूँजी संयम या उपभोग स्थगन का फल है इसलिए उत्पादन या इसका मूल्य इतना पर्याप्त होना चाहिए कि वह न केवल श्रमिकों की आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त पुरस्कार दे बल्कि उन्हें भी लाभान्वित करें जिनके द्वारा श्रमिकों के विभिन्न वर्गों को पुरस्कार प्रदान किया जाता है ।
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मिल ने अपने सिद्धान्त में लागत धटकों को स्वीकार किया लेकिन उन्होंने पूर्ति एवं माँग की प्रवृत्तियों को अधिक महत्ता दी । उनके अनुसार- माँग एवं पूर्ति हमेशा एक सन्तुलन की ओर भागते है लेकिन स्थायी सन्तुलन की दशा तब आती है जब वस्तुओं का एक दूसरे के लिए विनिमय उनकी उत्पादन लागत के अनुसार होता है या जब वस्तुएँ अपने प्राकृतिक मूल्य पर होती है ।
रिकार्डो के मॉडल में लाभ श्रमिकों को भुगतान की गयी मजदूरी के मूल्य एवं श्रमिकों के उत्पादन के मूल्य के मध्य अन्तर द्वारा निर्धारित होता था । मिल ने लाभ को उत्पादन की लागत पर निर्भर बतलाया । मिल ने लाभ की दर पर ध्यान दिया जो लाभ का अग्रिम पूँजी के साथ अनुपात था । मिल ने यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि स्थिर पूँजी से प्रवाहित पूंजी का अनुपात जितना अधिक होगा लाभ की दर उतनी ही न्यून होगी ।
मिल ने अपनी व्याख्या में न्यूनतम लाभ की प्रवृति की प्रस्तावना भी रखी जो तब प्राप्त होती है जब पूंजीपति पूँजी का संचय जारी रखते है तथा उसे उपयोग में विनियोजित करते हैं । सीनियर का अनुसरण करते हुए उन्होंने ब्याज को संयम का पुरस्कार माना ।
उत्पादन के सिद्धान्त की व्याख्या को मिल ने माल्सस के जनसंख्या सिकन्त तथा प्रतिफल के गिरते नियम के मध्य सप्तम को महत्ता दी । उत्पादन मात्रा में होने वाली वृद्धि पूँजी या भूमि की कमी से बाधा अनुभव करती है । इसी प्रकार पूँजी की कमी से भी उत्पादन की वृद्धि पर रोक लगती है ।
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मिल के अनुसार- उत्पादन मुख्यत: शिक्षा की प्रगति विज्ञान व कला के विकास विशिष्टीकरण की अभिवृद्धि आर्थिक संगठन एवं उपक्रमों के बढ़ने तथा रीति रिवाज विस्वास एवं सृजन की विचारधारा से बढ़ता है । मिल ने स्पष्ट किया कि उत्पादन मानव के गुणों पर अधिक निर्भर करता है ।
मिल श्रम विभाजन के महत्व को स्वीकार करते थे जिससे श्रमिकों की कुशलता बढ़ती है, तकनीक यन्त्र एवं उपकरणों का अधिक उपयोग होता है तथा बढ़े पैमाने के उत्पादन को लाभ व मितव्ययिता प्राप्त होती है ।
ii. जनसंख्या एवं मजदूरी कोष पर मिल के विचार (Mill on Population and Wage Fund):
मिल ने माल्थस के जनसंख्या सिद्धान्त का समर्थन किया । जनसंख्या से उनका अभिप्राय केवल कार्यशील वर्ग से था । उन्होंने कार्यशील वर्ग की दशाओं में सुधार करने हेतु जनसंख्या नियन्त्रण की विधियों को आवश्यक माना ।
मिल के अनुसार- मजदूरी कोष पूँजी संचय, उद्योग एवं उत्पादकता का हृदय है । मिल के विश्लेषण में रिकार्डो द्वारा वर्णित मजदूरी कोष के सभी घटकों का उल्लेख मिलता है । सर जोन हिक्स ने अपने ग्रन्थ (Capital and Time, 1973) में जे.एस. मिल के मजदूरी कोष विश्लेषण का स्पष्टीकरण दिया ।
इसे निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है:
यदि- W = मजदूरी का स्तर
Bt = कुल वार्षिक उत्पाद
WAT = एक वर्ष का मजदूरी बिल जहाँ, At समय अवधि t पर श्रम के रोजगार को सूचित करें ।
तब कुल अतिरेक 0t को निम्न सम्बन्ध द्वारा ज्ञात किया जा सकता है:
0t = Bt – WAT…..
अर्थात् कुल अतिरेक 0t, कुल वार्षिक उत्पाद Bt तथा एक वर्ष के मजदूरी बिल WAT के अन्तर द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है ।
मिल के अनुसार- प्रतियोगिता की दशाओं के अन्तर्गत, जनसंख्या के दिए होने पर मजदूरी W का स्तर मजदूरी कोष पर निर्भर करता है जो निश्चित समय के अधीन अपरिवर्तित रहता है । जनसंख्या के दिए होने पर जब श्रम की माँग पूर्ति से अधिक होती है तब पूँजीपतियों के मध्य मजदूरी की दर में वृद्धि हेतु प्रतिस्पर्द्धा होती है । मजदूरी में होने वाली प्रत्येक वृद्धि से तात्पर्य है उत्पादन में लगे श्रमिकों को प्रदान करने के लिए अधिक वित्त उपलब्ध करवाना ।
दूसरी ओर जब श्रम की पूर्ति माँग से अधिक हो जाती है तब मजदूरी गिरती है तथा एक नियत दिए हुए मजदूरी कोष द्वारा अधिक श्रमिकों को रोजगार प्रदान किया जाता है । अत: वास्तविक मजदूरी का स्तर उस बिन्दु पर नियत होता है जहाँ वास्तविक रूप में मजदूरी कोष कुल श्रमशक्ति को रोजगार देने हेतु पर्याप्त होती है । मिल ने जनसंख्या में होने वाली वृद्धि की समस्या से मजदूरी कोष पर पड़ने वाले प्रभाव की व्याख्या की ।
जनसंख्या के तीव्र गति से बढ़ने पर या स्थिर वास्तविक मजदूरी पर अधिक श्रमिकों को रोजगार देने में मजदूरी कोष को बढ़ाने की कठिनाइयों पर मिल द्वारा विचार किया गया । उन्होंने तर्क दिया कि कोष में अधिक तेजी से वृद्धि तब की जा सकेगी यदि बचतों की मात्रा अधिक हो, जबकि उत्पादकता में होने वाला सुधार संचय को आसान बना देता है ।
iii. स्थिर अवस्था (Stationery State):
मिल के अनुसार- स्थिर अवस्था में जनसंख्या अथवा पूँजी के स्टाक में कोई वृद्धि नहीं हो सकती तथा लाभ एवं न्यूनतम स्तर तक पहुँच जाते हैं । लगान एवं मजदूरी की दरों में होने वाली वृद्धि एवं लाभ की मात्रा में होने वाली कमी के परिणामस्वरूप जब पूँजीगत स्टाक बढ़ न पाए तब यह स्थिर अवस्था है ।
मिल ने भूमि को ऐसा मूल साधन माना जिसकी पूर्ति स्थिर है । उनके मॉडल में अर्थव्यवस्था की दीर्घकालीन प्रवृत्तियाँ, विनिर्माण में तकनीकी प्रगति तथा कृषि में ह्रासमान प्रतिफल के द्वन्दव पर निर्भर है ।
कृषि कीमतें गिरते हुए प्रतिफल के कारण दीर्घकाल में बढ़ने की प्रवृति रखती है, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में सभी वास्तविक कीमतें घटने की प्रवृति रखती हैं, क्योंकि तकनीकी प्रगति के कारण उत्पादकता में वृद्धि होती है । भूमि की पूर्ति के स्थिर होने के कारण दी गयी तकनीक पर अन्तिम सन्तुलन स्थिर अवस्था के रूप में प्राप्त होता है । मिल ने स्थिर अवस्था को विकास की प्रक्रियाओं का एक आवश्यक एवं अनिवार्य परिणाम माना ।
उपर्युक्त वृद्धि एवं इसके मार्ग में आने वाले संकटों की सम्भावना के सन्दर्भ में जे.एस. मिल को परम्परागत विचारधारा का समर्थक कहा जा सकता है कि वह पूर्णरूप से ‘से के नियम’ का विश्वास करते थे । मिल ने स्पष्ट किया कि उत्पादन बाजार के लिए माँग का सृजन करता है । अत: सामान्यत: अति उत्पादन या माँग से अधिक वस्तुओं की अधिकता की स्थिति असम्भव होती है । मिल के अनुसार- आर्थिक विकास वास्तविक विश्व में एक ‘चक्रीय लहर तुल्य प्रक्रिया’ है ।
आलोचनात्मक मूल्यांकन (Critical Appraisal):
मिल का विश्लेषण आर्थिक घटकों के साथ अनार्थिक घटकों के महत्व को स्वीकार करता था । आर्थिक कारकों के अधीन उन्होंने पूँजी संचय, तकनीकी प्रगति, जनसंख्या का समान वितरण एवं विदेशी व्यापार तथा अनार्थिक घटकों में परम्परा, रीति रिवाज, आदतों एवं संस्थाओं के योगदान पर प्रकाश डाला ।
अन्य प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों की भाँति वह मजदूरी कोष, माल्थस के जनसंख्या विश्लेषण, ह्रासमान प्रतिफल एवं अबन्ध नीति की मान्यताओं को ध्यान में रखते थे । इसी कारण उनकी व्याख्या आलोचना से मुक्त नहीं है ।