आर्थिक स्थिरीकरण में वित्तीय नीति की भूमिका | Read this article in Hindi to learn about the role of fiscal policy in economic stabilization.

आर्थिक स्थायित्व का अर्थ है घरेलू कीमतों और विदेशी विनिमय में न्यूनतम सम्भव परिवर्तन । इस प्रकार यह सुस्थिर कीमतों पर पूर्ण रोजगार की संभाल की स्थिति है । परम्परावादी अर्थशास्त्री राजकोषीय नीति के पक्ष में नहीं थे ।

वे आर्थिक क्रिया-कलापों में स्वतन्त्र व्यापार और सरकार द्वारा हस्तक्षेप न करने के समर्थक थे । वर्ष 1929-30 की बड़ी विश्व मन्दी के पश्चात् केन्ज़ ने आर्थिक स्थायित्व की प्राप्ति के लिये राजकोषीय नीति की भूमिका पर बल दिया ।

अत: स्फीति और अवस्फीति के दौरान आर्थिक स्थायित्व की प्राप्ति के लिये राजकोषीय नीति निम्न प्रकार से सहायक हो सकती है:

(क) स्फीति के दौरान राजकोषीय नीति (Fiscal Policy during Inflation):

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केन्ज़ ने स्फीति को रोकने में राजकोषीय नीति की भूमिका पर बल दिया । मूलत: स्फीतिकारी स्थिति अत्यधिक मांग के कारण उत्पन्न होती है, जब उपभोग और निवेश वस्तुओं पर निजी व्यय और विदेशी व्यय पूर्ण रोजगार उत्पादन से बढ़ जाता है ।

केन्ज़ का कहना है कि वास्तविक स्फीति केवल पूर्ण रोजगार के बाद आरम्भ होती है । परन्तु वास्तविक व्यवहार में स्फीतिकारी दबावों का अनुभव पूर्ण रोजगार से पहले भी किया जाता है जोकि कारक पूर्ति की अड़चनों और अन्य कठोरताओं के कारण होता है । दूसरे शब्दों में, मांग खींच (Demand Pull) और लागत धकेल (Cost Push) की दो शक्तियां बहुत प्रभावित करती हैं ।

अर्थव्यवस्थायें ऐसी स्थितियों को रोकने के लिये निम्नलिखित राजकोषीय उपाय अपना सकती हैं:

1. सार्वजनिक व्यय पर नियन्त्रण (Control over Public Expenditure):

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स्फीति को दबाने का सर्वोत्तम समाधान सार्वजनिक व्यय को नियन्त्रित करना है । इसलिये अनावश्यक व्यय को न्यूनतम सम्भव सीमा तक घटाने के प्रयत्न किये जाने चाहिये ।

2. करों में वृद्धि (Increase in Taxes):

मुद्रा स्फीति को रोकने का एक अन्य ढंग है सरकार द्वारा नये करों का लगाया जाना । परन्तु, सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि कर देश के उत्पादन को विपरीत प्रभावित न करें ।

3. सार्वजनिक ऋण में वृद्धि (Increase in Public Borrowing):

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निजी व्यय को कम करने के लिये सार्वजनिक ऋण द्वारा निजी क्षेत्र की क्रय शक्ति को कम करने के लिये कदम उठाये जायें । यह बॉण्डों, शेयरों और प्रतिभूतियों की बिक्री द्वारा सम्भव हो सकता है ।

4. पुराने ऋणों के भुगतान में विलम्ब (Delay in Payment of Old Debts):

स्फीति को रोकने के लिये सरकार को चाहिये पुराने ऋणों की वापसी को रोक दे । इससे देश में मुद्रा का वर्तमान प्रचलन प्रतिबन्धित हो जायेगा ।

5. अतिरेक बजट (Surplus Budget):

स्फीति को रोकने की एक अन्य विधि जो सरकार द्वारा अपनायी जा सकती है, वह है एक अतिरेक बजट तैयार करना । लोगों की क्रय-शक्ति कम होगी जब सरकार की आय इसके व्यय से अधिक है । अत: मांग पूर्ति के स्तर गिरेंगे ।

6. धन का अधिक मूल्यांकन (Over-Valuation of Money):

ऐसा अनुभव किया जाता है कि स्फीति का आधारभूत कारण मुद्रा का अवमूल्यन है । इसलिये स्फीति को नियन्त्रित करने के लिये इसका अधिक मूल्यांकन आवश्यक है । परिणाम में यह निर्यातों को कम करने और आयातों को बढ़ाने में सहायक होगा ।

(ख) राजकोषीय नीति और अवस्फीति (Fiscal Policy and Deflation):

अवस्फीति के दौरान, कीमतों के गिरने की प्रवृत्ति होती है ।

अत: अवस्फीति के नियन्त्रण के निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं:

1. सार्वजनिक व्यय में वृद्धि (Increase in Public Expenditure):

मन्दी के दौरान सार्वजनिक व्यय अवश्य बढ़ना चाहिये जिसके परिणामस्वरूप मांग बढ़ेगी । बढ़ी हुई मांग कीमतों के गिरने की प्रवृत्ति को रोकेगी । इसलिये, सार्वजनिक व्यय की अतिरिक्त खुराकें अर्थव्यवस्था की स्थिरता की दलदल से बाहर निकालने में सहायक होगी ।

2. करों में कमी (Decrease in Taxes):

मन्दी के दौरान कर कम कर दिये जाने चाहिये । स्पष्ट करों जैसे आयकर, निगम कर आदि में कमी के परिणामस्वरूप निवेशकर्त्ता अधिक निवेश और अधिक उपभोग करना चाहेंगे । इस प्रकार कुल मांग बढ़ेगी और अवस्फीति नियन्त्रित होगी । रेनोल्ड (Reynold) के अनुसार करों में कमी, व्यय से बेहतर ढंग है ।

3. समाज कल्याण में व्यय की वृद्धि (Increase in Social Welfare Expenditure):

सरकार को शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवा, सामाजिक सुरक्षा, अनुदान, सड़कें, नहरों आदि जैसे समाज कल्याण के कार्यों पर अधिक व्यय करना चाहिये जिससे जन कल्याण बढ़ेगा ।

इस प्रकार का सरकारी व्यय क्षतिपूरक व्यय का कार्य करता है । यह निवेश को उत्साहित करके समग्र मांग को बढ़ाता है । इस प्रकार गिरती हुई कीमतों की प्रवृत्ति रुक जाती है । यह व्यय गुणक और त्वरण प्रभावों द्वारा आय, रोजगार और उत्पादन का स्तर बढ़ा देंगे ।

4. कीमत समर्थन नीति (Price Support Policy):

अवस्फीतिकारी शक्तियों को नियन्त्रित करने का एक अन्य ढंग कीमत समर्थन नीति है । यह इसलिये क्योंकि कीमतें प्राय: भारी रूप में गिरती हैं । इसलिये सरकार को कीमत समर्थन नीति का अनुकरण करना पड़ता है ।

इस समय के दौरान सरकार स्वयं खरीदती है और आवश्यक वस्तुओं की निश्चित कीमत पर पूर्ति करती है जिसे समर्थन कीमत कहा जाता है । इस विधि द्वारा कीमतों के गिरने की प्रवृत्ति को रोका जाता है ।

5. घाटे की वित्त व्यवस्था (Deficit Financing):

घाटे की वित्त व्यवस्था की अतिरिक्त खुराकें कुल मांग को बढ़ाने में सहायक होती हैं । इससे कीमतें ऊपर की ओर बढ़ती हैं ।

6. पम्प प्राइमिंग (Pump Priming):

पम्प प्राइमिंग का अर्थ है पम्प को चालू करने से पहले थोड़ा सा जल डालना, ताकि यह निरन्तर जल प्रवाह दे । इसी प्रकार, आय की धारा में नई क्रय शक्ति डाल कर हम निजी निवेश को बढ़ा सकते हैं ।

हम जानते हैं कि मन्दी के दौरान निजी व्यय का स्तर न्यूनतम होता है, इसे बढ़ाने के लिये सरकारी निवेश आवश्यक है जो पुनरुत्थान की प्रक्रिया को आरम्भ करता है और इसे एक सन्तोषजनक स्तर तक बढ़ा देता है ।

यह निम्न दो प्रकार से निवेश को प्रोत्साहित करता है:

(i) सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिये सरकार बैंकों से ऋण लेती है । बैंक अपनी निष्क्रिय नगदी सरकार को उधार दे देते हैं । इस प्रकार बैंकों द्वारा साख का निर्माण किया जाता है तथा निवेश को प्रोत्साहन प्राप्त होता है ।

(ii) सार्वजनिक निवेश में वृद्धि के कारण, गुणक के प्रभाव के अन्तर्गत कुल आय में कई गुणा अधिक वृद्धि होती है । इससे निजी निवेश का भी संवर्धन होता है । आय में अत्यधिक वृद्धि के कारण प्रभावपूर्ण मांग में भी अनुकूल वृद्धि होती है । इसलिये पम्प प्राइमिंग निजी निवेश को विशेषतया मन्दी के दौरान बढ़ाने में बहुत सहायक होता है ।

(ग) विनिमय स्थायित्व और राजकोषीय नीति (Exchange Stability and Fiscal Policy):

विनिमय स्थायित्व का अर्थ है विदेशी विनिमय दरों में न्यूनतम उतार-चढ़ाव । विनिमय स्थायित्व की प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि जहां तक सम्भव हो भुगतानों के सन्तुलन में समत्व हो । यदि किसी देश के आयात निर्यात से बढ़ जाते हैं तो भुगतानों का सन्तुलन प्रतिकूल होगा और विनिमय दर में उतार-चढ़ाव आयेंगे ।

विनिमय दर स्थायी करने के लिये आवश्यक है कि निर्यात के संवर्धन और आयातों को प्रतिबन्धित करके भुगतानों के विपरीत सन्तुलन को ठीक किया जाये । इसलिये निर्यातकों को वित्तीय सहायताएं दी जायें, आयातों पर भारी आयात शुल्क लगाये जायें ।

अनावश्यक वस्तुओं के आयातों का निषेध किया जाये । आयात प्रतिस्थापन के संवर्धन के लिये, सम्बन्धित उद्योगों को वित्तीय सहायताएं दी जाये और उन्हें कराधान से मुक्त किया जाये । इस विधि द्वारा, विनिमय स्थायित्व कायम रखा जा सकता है और राजकोषीय नीति द्वारा सदा ऐसा किया जाता है ।

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