भारत में वित्तीय नीति | Read this essay in Hindi to learn about:- 1. भारत में राजकोषीय नीति का परिचय (Introduction to Fiscal Policy in India) 2.  वित्त आयोग (Finance Commission) 3. राजकोषीय असन्तुलन (Fiscal Imbalance) 4. मूल्यांकन (Evaluation) and a Few Others.

Contents:

  1. भारत में राजकोषीय नीति का परिचय (Introduction to Fiscal Policy in India)
  2. वित्त आयोग (Finance Commission)
  3. राजकोषीय असन्तुलन (Fiscal Imbalance)
  4. राजकोषीय नीति का मूल्यांकन (Evaluation of Fiscal Policy)
  5. अर्द्ध राजकोषीय घाटा (Quasi Fiscal Deficit)
  6. नई राजकोषीय नीति (New Fiscal Policy)

1. भारत में राजकोषीय नीति का परिचय (Introduction to Fiscal Policy in India):

भारत की राजकोषीय नीति संघीय वित्त प्रणाली के ढाँचे पर कार्य करती है । यह प्रान्तों की वित्तीय स्वाधीनता के सिद्धान्त को जो भारत सरकार एक्ट 1935 में स्वीकृत है पर आधारित है । संघीय वित्त को इस आधारभूत सिद्धान्त के साथ स्वतन्त्र भारत के संविधान में वित्तीय रूप से सुदृढ केन्द्र, केन्द्र व राज्य के मध्य वित्तीय शक्तियों के समर्थ आवण्टन, संसाधन हस्तान्तरण की तकनीक व वित्त आयोगों की सस्तुतियों को ध्यान में रख निष्पादित किया जाता है ।

वित्तीय अधिकारों के वितरण के अधीन केन्द्र व राज्य सरकारों के मध्य वित्तीय संसाधनों का स्पष्ट विभाजन किया गया है । केन्द्र के आगम साधनों में कर आगम के स्रोत सम्मिलित है । कर आगम के स्रोतों में कृषि आय व निगम कर को छोड़ कर अन्य 12 कर शामिल किये गये ।

ADVERTISEMENTS:

केन्द्र के गैर कर आगम स्रोतों में- (a) उधार, (b) सरकारी उपक्रमों एवं एकाधिकारों से प्राप्त आय, (c) सरकारी सम्पत्ति से आय, (d) ऋणों से प्राप्त ब्याज प्राप्तियाँ व राज्य सरकारी के वाणिज्यिक व गैर वाणिज्यिक उपक्रमों के अग्रिम, (e) उपहार व अनुदान (f) सुप्रिम कोर्ट में ली गयी फीस व संघीय सूची के मामलों में ली गयी फीस सम्मिलित है ।

राज्य के आगम स्रोत की कर आगम के स्रोत व गैर कर आगम के स्रोतों में बांटे गये है । कर आगम के स्रोतों में राज्यों को स्वतन्त्र कर शक्तियाँ दी गई है । अन्तर्राज्यीय आधार वाले करों को संघ द्वारा तथा आंचलिक आधार वाले करों को राज्य द्वारा लगाया जाता है । राज्य सूची में 19 मदों पर कर है जैसे-भूमि राजस्व, कृषि आय कर व बिक्री कर इत्यादि ।

केन्द्र सरकार द्वारा लगाए विभिन्न करों का विनियोजन निम्न बिन्दुओं से सम्बन्धित है:

(i) कर एवं ड्‌यूटी जो पूर्ण रूप से संघीय सरकार उपार्जित करती है; जैसे-कस्टम ड्‌यूटी, इसमें निर्यात ड्‌यूटी, निगम कर, परिसम्पत्ति के पूंजी मूल्य पर लगे कर (जिसमें व्यक्ति व व्यक्तियों की कृषि भूमि शामिल नहीं है) ।

ADVERTISEMENTS:

(ii) संघ द्वारा लगाए एवं एकत्रित किए कर जिनको राज्य के साथ बाँटा जाता है इनमें कृषि आय के अतिरिक्त आय पर लगने वाले कर, तम्बाकू पर लगी एक्साइज ड्‌यूटी इत्यादि (शराब व नशीली दवाएँ शामिल नहीं) हैं आय कर के अंश को राज्यों के मध्य बाँटना संघ की वैधानिक जिम्मेदारी है पर एक्साइज ड्‌यूटी का विभाजन अनुज्ञात्मक या विवेकाधीन है ।

(iii) कर एवं ड्‌यूटी जो केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं, परन्तु जिनको राज्यों द्वारा एकत्रित किया जाता के अन्तर्गत सम्पत्ति पर लगने वाला उत्तराधिकार कर कृषि भूमि को छोडकर सीमा कर या चुंगी, रेलवे भाडा व माल कर, समाचार-पत्रों की बिक्री व विज्ञापन कर सम्मिलित है ।

(iv) केन्द्र द्वारा लगाए गए जिन्हें राज्य एकत्रित व प्रयोग करता है । इनमें स्टाम्प शुल्क तथा चिकित्सा व प्रसाधन पर लगी एक्साइज ड्‌यूटी शामिल है । संघीय सरकार द्वारा बिक्री कर की दरें नियत होती है तथा राज्य सरकार इन्हें एकत्र एवं प्रयोग करती है ।

संसाधन हस्तान्तरण की तकनीक:

ADVERTISEMENTS:

केन्द्र राज्यों को होने वाले संसाधनों के हस्तान्तरण में मुख्यतः

(i) वह कर सम्मिलित है जिन्हें केन्द्र द्वारा लगाया एवं एकत्रित किया जाता है तथा इन्हें राज्यों को स्थानान्तरित किया जाता है । इनमें आय कर एवं उत्पादन शुल्क मुख्य है ।

(ii) केन्द्र से राज्यों की ओर सहायक अनुदान का प्रवाह होता है । अनुदानों को योजना एवं गैर योजना अनुदानों में वर्गीकृत किया जाता है । योजनागत अनुदान योजना आयोग की संस्तुति पर तथा गैर आयोजना अनुदान वित्त कमीशन की संस्तुति पर लगाए जाते है ।

(iii) केन्द्र राज्य सरकारों को कृपा प्रदान करती है ।


2. वित्त आयोग (Finance Commission):

वित्त आयोग संघ व राज्य के मध्य करों के बँटवारे तथा राज्यों में इनके आबंटन, राज्यों को सहायक अनुदानों के प्रवाह का केन्द्र राज्यों के मध्य होने वाले समझौते के जारी रहने व सुधार से सम्बन्धित हैं ।

भारत में केन्द्र व राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों में निहित मुख्य समस्याएँ निम्न हैं:

(i) राज्य स्वायत्तता की समस्या:

भारत के संविधान में केन्द्र व राज्य सरकारी की क्रिया, शक्ति व आगम स्रोतों के बारे में एक स्पष्ट विभाजन किया गया है । संघीय संरचना की संघटक इकाइयों को स्वतन्त्र व स्वायत्त इकाइयों के रूप में देखा गया है ।

वित्त आयोग राज्यों के संसाधन अन्तरालों को पाटने के यन्त्र के रूप में कार्य करता है । यह केन्द्र से राज्यों के मध्य संसाधनों के हस्तान्तरण सम्बन्धी सामान्य सिद्धान्त प्रतिपादित करता है ।

संसाधनों में विभाज्य तथा अनुज्ञापक संसाधन शामिल है । विभाज्य साधनों की प्रवृति जहाँ संगविधिक होती है वहीं अनुज्ञापक साधन केवल विवेकाधीन होते हैं । विगत वर्षों में अनुज्ञापक संसाधनों की सापेक्षिक दशा में वृद्धि हुई है, जबकि विभाज्य संसाधन कम हुए हैं । स्पष्ट है कि राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता बढी है ।

(ii) संसाधनों की कमी की समस्या:

राज्यों में संसाधनों की कमी की समस्या बढी है । यह कहा जाता है कि आगम के लोचशील स्रोत केन्द्र के पास है । अतः राज्य केन्द्र पर अधिक निर्भर बने है, परन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि अधिकांश कर; जैसे- आय कर, उत्पादन कर, सम्पदा शुल्क केन्द्र द्वारा लगाए जाते हैं तथा राज्यों के साथ बाटे जाते हैं ।

ऐसे में यह आरोप उचित प्रतीत नहीं होता कि केन्द्र द्वारा मुख्य आगम स्रोतों का विदोहन कर लिया जाता है । वस्तुतः राज्यों में वित्तीय अनुशासन की कमी रही है जिससे संसाधनों की कमी व इनकी उचित प्रयोग की समस्याएँ भी बढी है ।

(iii) राज्यों की ऋणग्रस्तता की समस्या:

यदि ऋणों को आय प्रदान करने वाली परियोजनाओं व परिसम्पत्तियों के निर्माण में लगाया जाये तो बढ़ता हुआ ऋण समस्या नहीं बनता । समस्या तो तब उत्पन्न होती है जब इन्हें अनुत्पादक क्षेत्रों की ओर लगाया जाये । ऐसे में राज्य ऋण सेवा भुगतान व पुनर्भुगतान करने योग्य भी नहीं रहते ।

(iv) अन्तर्राज्यीय विषमताओं में वृद्धि:

अन्तर्राज्यीय विषमताओं में वृद्धि की समस्या वास्तव में वृद्धि और समानता के उद्देश्य के मध्य विवाद उत्पन्न करती है । वृद्धि उद्देश्य के अधीन कुल उपलब्ध संसाधनों को अधिकतम उत्पादन के लिए व्यय किया जाता है अर्थात् राष्ट्रीय आय में वृद्धि को प्राथमिकता प्रदान की जाती है ।

दूसरी तरफ समानता का उद्देश्य यह अपेक्षा करता है कि संसाधन इस प्रकार वितरित किए जाएं कि आर्थिक रूप से पिछडे हुए क्षेत्र अधिक लाभ प्राप्त करेंगे । वित्त आयोगों द्वारा समानता के तर्क को अधिक महत्ता प्रदान की जाती है जिससे साधन हस्तान्तरण में पिछड़ेपन के आधार पर साधनों का प्रवाह किया जाये ।

(v) बढ़ते हुए बजट घाटे:

भारत में सरकारी व्यय पर निरन्तर दबावों और बजट में बढ़ते हुए घाटे से राजकोषीय असंतुलन सरकार के लिए चिन्ता का विषय बना है । निरन्तर और बढते हुए घाटे सरकार की वित्त व्यवस्थाओं के लिए हीं नहीं बल्कि कीमतों की स्थिरता व आर्थिक वृद्धि के लिए भी गम्भीर सकट उत्पन्न करते हैं ।

ऋणों के पुनर्भुगतान एवं ब्याज भुगतानों के लिए पिछले दायित्वों सहित इस प्रकार के घाटे को केन्द्रीय सरकारी द्वारा उधारों से पूरा किया जाता है । राजकोषीय घाटा भुगतान सन्तुलन की समस्याओं पर भी प्रभाव डालता है तथा अर्थव्यवस्था में मुद्राप्रसारिक दबाव उत्पन्न करता है । अतः राजकोषीय व्यवस्था में सुधार करना व उसे सुदृढ़ बनाना सरकार का मुख्य कर्त्तव्य बन जाता है ।

पारम्परिक बजट घाटा सभी प्राप्तियों एवं खर्चों (राजस्व रख पूँजीगत दोनों) के मध्य के अन्तर को प्रदर्शित करता है । यह राजकोषीय असन्तुलन का केवल एक आंशिक मान है, क्योंकि यह घरेलू बचतों पर सरकार के ड्राफ्ट तथा विदेशी उधारों की निर्भरता को प्रदर्शित नहीं करता । जहाँ तक मुद्रा पूर्ति में वृद्धि का प्रश्न है, यह उल्लेखनीय है कि मौद्रिक घाटे से तात्पर्य केन्द्रीय सरकार को प्रदान भारतीय रिजर्व बैंक ऋण में वृद्धि से है ।

यद्यपि बजट घाटा सरकार द्वारा जारी की गयी राजकोषीय हुंडियों में होने वाली वृद्धि और भारतीय रिजर्व बैंक के पास रहे नकदी शेष में से निकासी का कुल योग होता है तथापि मौद्रिकृत घाटा भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा घटित राजकोष हुंडियों की निबल वृद्धि का कुल योग तथा सरकार के बाजार उधारों में इसका योगदान होता है ।

अधिकांश देशों में प्रयुक्त होने वाले वृहत-आर्थिक असन्तुलन का एक पूर्ण मापदण्ड सकल राजकोषीय घाटा है, जो एक ओर सरकारी व्यय तथा निबल उधार व दूसरी और चालू राजस्व व अनुदान के मध्य अन्तर होता है ।

केन्द्र का राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पादन के रूप में 2002-03 के 5.9 प्रतिशत से गिरकर 2006-07 में 3.4 प्रतिशत रह गया जिसके 2007-08 तक गिरकर 3.2 प्रतिशत होने के अनुमान हैं ।

इसी प्रकार आगम घाटा वर्ष 2002-03 के 4.4 प्रतिशत से 2006-07 में आगम घाटा गिरकर 1.9 प्रतिशत हो गया था । राजकोषीय घाटे के प्रतिशत के रूप में आगम घाटा 2003-04 के 79.7 प्रतिशत से गिरकर वर्ष 2006-07 में 56.3 प्रतिशत रह गया जो परिसम्पति सृजन की दिशा में उधार लिए स्रोतों के बेहतर उपयोग का सूचक है ।

राजकोषीय सुधार एवं बजट प्रबन्ध एक्ट FRBMA (Fiscal Reforms and Budget Management Act) लागू होने के उपरान्त राज्यों का बजट घाटा भी, सकल घरेलू उन्माद के प्रतिशत के रूप में 2003-04 के 4.4 प्रतिशत से 2007-08 (BE) में 2.3 प्रतिशत रह गया  राज्यों का समग्र आगम घाटा वर्ष 2006-07 (RE) में 0.1 प्रतिशत था ।

आगम अतिरेक में होने वाली इस दशा हेतु एक सुदृढ़ प्रेरणा-आधारित राजकोषीय हस्तांतरण (Strong Incentive Based Fiscal Transfers Proposed by TFC) को वित्तीय सुदृढीकरण (Fiscal Consolidation) से संयोजित किया गया ।


3. राजकोषीय असन्तुलन (Fiscal Imbalance):

सकल घरेलू उत्पाद के सापेक्ष सरकार की कर प्राप्तियों 2002-03 के 14.4 प्रतिशत से लगातार बढते हुए 2006-07 (BE) में 17.3 प्रतिशत हो गए । कुल व्यय वर्ष 2002-03 में 28.3 प्रतिशत था जो आगे के वर्षों में 26.8-28.5 प्रतिशत बना रहा ।

2002-03 से सकल राष्ट्रीय उत्पाद के प्रतिशत के रूप में आगम एवं वित्तीय घाटी में कमी हो रही है । इस स्थिति को बनाए रखना आवश्यक है ताकि राजकोषीय सन्तुलन बना रहे जिससे व्यापक आर्थिक शृंखलाओं के द्वारा प्राप्त वृद्धि के लाभ प्राप्त हो तथा वित्तीय सुधार व बजट प्रबन्धन एक्ट (FRBM) के नाम प्राप्त हो सकें ।

भारत में राजकोषीय असाम्य के निराकरण हेतु आवश्यक है कि ब्याज के भुगतानों में कमी की जाए क्योंकि सरकारी निवेशों से आय बढ़ाना सम्भव नहीं है । दुर्भाग्य से ब्याज भुगतान 1991-92 में 24,955 करोड रु॰ से बढकर 1996-97 में 59,478 करोड रु॰ व 2004-05 में 1,26,540 करोड रुपये के हो गए ।

अतः सरकार हेतु ऋण दायित्वों में कमी करना जरूरी हो । विदेशी ऋणों का भुगतान करने के लिए विदेशी विनिमय कोषों का प्रयोग सम्भव है । साथ ही आन्तरिक ऋण सीमित करने आवश्यक हैं । इस हेतु सार्वजनिक उपक्रमों में विनिवेश एवं अपने स्वामित्व की भूसम्पत्ति की बिक्री कर संसाधन प्राप्त कर सकती है ।

राजा चैलेया ने अपने लेख Growth of Indian Public Debt (1992) में कहा था कि भारत में कर राजस्व में वृद्धि करने की अधिक सम्भवना नहीं है । इसलिए राजकोषीय घाटे को सीमित करने हेतु सभी गैर ब्याज व्ययों में वृद्धि की दर सीमित करनी होगी ।

अतः अनुदानों को कम करना, अकुशल सार्वजनिक उपक्रमों को पूंजीगत सहायता व सरकार के अनुत्पादक व्ययों में कमी करनी पड़ेगी । सरकार द्वारा सार्वजनिक उपक्रमों के निवेश कार्यक्रमों को प्रदत्त बजटीय सहायता में कमी की है । लगातार हानि पर चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों को बन्द कर, सरकारी कर्मचारियों की संख्या में कमी कर, सरकारी नौकरशाही द्वारा मितव्ययिता का दृष्टिकोण अपना कर असाम्य का किसी सीमा तक निवारण सम्भव है ।


4. राजकोषीय नीति का मूल्यांकन (Evaluation of Fiscal Policy):

1980 के दशक में केन्द्र राज्यों के पास राजस्व लेखों के अनुसार अधिशेष था, लेकिन इस स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया है । 1982-83 के उपरान्त राजस्व लेखा घाटे में रहा तथा इसकी मात्रा उत्तरोत्तर बड़ी है । सरकार ने अपने चालू व्यय की पूर्ति हेतु बहुत अधिक व बढती हुई मात्रा में उधार लिया गया है ।

ऋणों का नियन्त्रण जटिल हुआ है । विशेष समूहों को सहायता पहुँचाने के प्रशासनिक साधन के रूप में विभेदीकृत ब्याज दरों के कारण तथा इससे भी अधिक महत्वपूर्ण रूप में व्यक्तियों द्वारा अथवा सरकार द्वारा वास्तविक बचतों से असम्बद्ध रखकर परिमाण में की गई वृद्धि के कारण ऋण व्यवस्था दबाव के अधीन रही है ।

राजकोषीय सुधार हेतु वांछित परिवर्तन निम्नांकित पक्षों से सम्बन्धित किये जा सकते हैं:

(i) भारत में कर प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है । यद्यपि राष्ट्रीय आय में होने वाली वृद्धि के साथ भारत में कर आगम बड़े हैं, लेकिन कर आगम में होने वाली वृद्धि इतनी पर्याप्त नहीं है कि यह अर्थव्यवस्था की विकास आवश्यकताओं को पूर्ण करने हेतु यथोचित हो ।

(ii) भारत की कर प्रणाली समानता के आधार पर दुर्बल है । यद्यपि प्रत्यक्ष कर उच्च रूप से प्रगतिशील है, लेकिन अप्रत्यक्ष करों पर काफी अधिक निर्भरता बनी हुई है ।

(iii) भारत में करों को आरोपित करने के लक्ष्यों के बदलते अनिश्चितता उत्पन्न हुई है । उदाहरण के लिए एक अवस्था में निम्न कर सीमा का लक्ष्य किया गया तो कालान्तर में इसे बदल दिया गया । एक समय करो की अधिक संख्या को कर आधार व्यापक करने के लिए स्वीकार किया गया तो बाद में इन्हें कम रखा जाना तय किया गया ।

(iv) कर नियमों को सरल करने के साथ इन्हें अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के प्रति अधिक समर्थ व प्रत्युत्तर युक्त बनाया जाना चाहिए । इस उद्देश्य हेतु प्रशासनिक मशीनरी को सुदृढ बनाते हुए प्रवचन को रोकने तथा साथ ही कर नियमों की जटिलताओं में कमी की जानी आवश्यक है ।

(v) भारत में कृषि पर आरोपित प्रत्यक्ष कर न्यून हैं । इनसे कुल कृषि आय का अल्प प्रतिशत ही प्राप्त होता है । कृषि पर लगने वाला मुख्य कर भूमि राजस्व है जिसके दरें नियत है तथा यह प्रतिगामी प्रकृति का है । भारत में बडे कृषकों की आय में तेजी से वृद्धि हुई है ।

कारण यह है कि एक ओर तो मुख्य कृषि आदाओं का न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित किया गया है व दूसरी ओर विभिन्न आदाओं; जैसे- विद्युत, सिंचाई सुविधा को छूट युक्त दर पर तथा खाद को अनुदान प्रदान किया गया ।

कृषि क्षेत्र से अतिरिक्त संसाधनों को गतिशील करना आवश्यक है । यहाँ पर सावधानी रखनी होगी कि ऐसे प्रयोग कृषि की बढती उत्पादकता की प्रवृतियों पर दुष्प्रभाव न डालें ।

(vi) भारत में सार्वजनिक उद्यम अपने उत्पादों व सेवाओं के सम्बन्ध में पर्याप्त मूल्य वृद्धि एवं बावजूद प्रत्याशित अधिशेष सृजित करने तथा संसाधनों का प्रभावी रूप से उपयोग करने में असफल रहे है । सार्वजनिक विनियोग की साधारण वृद्धि के लिए भी वित्त व्यवस्था करने हेतु अधिकांशतः जनता व रिजर्व बैंक से ऋण लेना पडा है ।

आन्तरिक सार्वजनिक ऋणों में तेजी से वृद्धि हुई है । इसके साथ ही बाजार से लिए गए ऋण पर ब्याज दर में वृद्धि हो जाने के कारण ब्याज की अदायगी में तेजी से वृद्धि हुई है ।

(vii) भारतीय रिजर्व बैंक से ऋणों पर निर्भरता चिन्ताजनक स्थिति तक पहुंच गयी है । सातवीं योजना में 7.8 प्रतिशत के अनुमान के बजाय सार्वजनिक क्षेत्र के परिव्यय का लगभग 16.5 प्रतिशत रिजर्व बैंक से प्राप्त किया गया ।

(viii) केन्द्र एवं राज्य सरकारों को कर संग्रहण कर वंचन पर रोक एवं कठोर वित्तीय अनुशासन स्थापित करने की आवश्यकता है । इसके लिए गैर आयोजना एवं अनुत्पादक व्यय की वृद्धि पर रोक लगानी चाहिए । काले धन की विशाल और बढती हुई मात्रा से योजना व्यवस्था के बाहर तथा इसके प्रतिकूल समानान्तर अर्थव्यवस्था उत्पन्न हुई हो जो चिन्ताजनक है ।

(ix) भारतीय राजकोषीय प्रणाली में अतिरिक्त संसाधनों के सृजन हेतु ऐसी लोचशीलता विद्यमान नहीं है जिससे बढ़ती हुई परियोजना लागतों को स्वचालित रूप से वित्त प्रदान किया जा सके, क्योंकि मुद्रा प्रसार के कारण लागतों में वृद्धि स्वाभाविक प्रवृति बन गयी है ।

यह प्रयास किया जाना चाहिए कि योजना परिव्यय के वांछित स्तर व उपलब्ध संसाधनों के अन्तराल को दूर करने के लिए न्यूनता वित्त प्रबन्ध का आश्रय लेना पडे । अन्ततः यह मुद्रा प्रसारिक दबावों को उत्पन्न करती है जिससे नियोजित विकास की संरचना में विकृतियाँ उत्पन्न होती हैं ।

राजकोषीय सुधारों पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने योग्य बिन्दु संक्षेप में निम्न है:

(i) विशेष रूप से प्रत्यक्ष करों के संग्रहण की प्रभाविकता में पर्याप्त वृद्धि करना सरल कर कानून बनाना जिसमें अनेक छूट न हों । बाह्य हस्तक्षेप से मुक्त कुशल कर प्रशासन स्थापित करना ।

(ii) प्रशासनिक व गैर विकास व्ययों में तेजी से वृद्धि होने के कारण राजस्व बजट घाटा बढ़ता है जिससे भुगतान सन्तुलन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । इसे नियन्त्रित किया जाना आवश्यक है ।

(iii) गैर योजना व्यय पर नियन्त्रण रखना आवश्यक है इसके साथ ही परियोजनाओं में किए जा रहे नियोजित व्यय पर कडी निगरानी रखी जाए । इसके साथ ही काफी अधिक लागत व्यय कर तैयार की गई परिसम्पत्तियों की उचित देखभाल की जानी होगी ।

व्यय का वर्गीकरण गैर योजना के अन्तर्गत होने से अतीत में इन परिसम्पत्तियों का अनुरक्षण नहीं हो पाया । योजना व गैर योजना के मध्य व्यय के इन कृत्रिम विभेदों को जो अपने प्रभावी होने से कार्यात्मक के बजाय लेखात्मक प्रकृति के है को छोडने के प्रयास किए जाने चाहिएँ ।

(iv) बजट घाटों की चिन्ताजनक दशा का कारण मुख्यतः आन्तरिक सरकारी ऋण में होने वाली वृद्धि एवं ऋण पर ब्याज की दर में वृद्धि है । राजस्व घाटे को पूरा करने के लिए इस प्रकार के ऋणों पर अधिकाधिक निर्भर रहा गया है ।

वैकल्पिक रूप से उद्यमों से बॉण्ड जारी करके खुले बाजार में धनराशि प्राप्त करने की आशा की जा सकती है । लेकिन इस तरीके से भी उस समय तक बजट पर भार कम नहीं होगा जब तक उद्यमी और अधिक कुशल नहीं बन जाता और वह अपनी लागतों की पूरी तरह से पूर्ति नहीं कर पाता ।

यदि वह रेखा करने में असमर्थ रहते है जो बजट घाटे का सामना करना पड़ेगा । इसके साथ ही कर मुक्त बॉण्डों के तरीके को अधिक अपनाने से तात्पर्य है कि ऋण लेने की लागत में तेजी से वृद्धि होना । इसका कुछ भाग बजट द्वारा पूर्व निश्चित कर राजस्व के रूप में वहन किया जाता है ।

(v) सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों द्वारा लगातार क्षमता से कम उत्पादन करना व घाटे की चिरकालिक प्रवृतियों का प्रदर्शन निराशाजनक है । इसके निवारण हेतु कड़े कदम उठाए जाते है ।

(vi) अनुदान से सम्बन्धित पक्षों पर विचार करना महत्वपूर्ण है । खाद्य उर्वरक निर्यात की वस्तुओं को अनुदान दिये जाते रहे हैं । लोक वित्त में अनुदान अवयव काफी अधिक रहा है ।

इसका काफी बड़ा भाग बहुत कम लागत पर सिंचाई, बिजली, उच्च शिक्षा, सामान्य शिक्षा व अन्य लोक सेवाएँ उपलब्ध कराने के रूप में प्रदान की जाती हैं । अनुदान ऋण लेने की लागत से कम दरों पर ऋण प्रदान करने, ऋण प्राप्तकर्त्ताओं से ऋणों की वसूली न होने तथा ब्याज का भुगतान न हो पाने के रूप में भी दिया रहता है ।

इनका आकार उपलब्ध संसाधनों के सापेक्ष काफी अधिक रहा है । अतः अनुदानों के सम्पूर्ण मामले, उनके आकार के परिणाम के बारे में व्यापक समीक्षा करना आवश्यक है तथा यह भी कि इनसे कौन-से समूह/वर्ग/प्रदेश लाभान्वित होते हैं और किस सीमा तक अनुदान या राज सहायता प्रदान की जानी चाहिए ।

(vii) बढ़ते जा रहे राजकोषीय घाटे और कुल माँग पर पड़ने वाला उनका प्रभाव भुगतान संचलन पर पड़ने वाले दबाव के कारणों में है । निर्यात आय में वृद्धि न होना रियायती विदेशी ऋण में कमी तथा आयातों पर अत्यधिक निर्भरता से असमायोजन बढता रहा है । इन स्थितियों में विदेशी ऋणों में और वृद्धि विशेष रूप से अल्प समय अवधि तथा कठोर शर्तों पर प्राप्त ऋणों में हर सीमा तक कमी की जाये ।

उदारीकरण की नीति का आश्रय भी मध्यवर्ती एवं पूंजीगत वस्तु उत्पादक उद्योगों की प्रौद्योगिकी एवं कुशलता के सुधार से सम्बन्धित होना चाहिए जिससे घरेलू उत्पादकों द्वारा लागत में कमी की जा सके, वह विदेशी उद्योगों से प्रतिस्पर्द्धा कर सकें तथा आत्मनिर्भरता के लिए आधार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकें ।


5. अर्द्ध राजकोषीय घाटा (Quasi Fiscal Deficit):

केन्द्रीय बैंक के राजकोषीय कार्यों का मूल, वित्तीय तन्त्र तथा विनिमय तब के तथा अन्य सरकारी वित्तीय संस्थाएँ जिस मात्रा में वित्तीय बाजार में मध्यस्थता की भूमिका में समाहित है ।

विनिमय तन्त्र के साथ सम्बन्धित राजकोषीय कार्यों में निम्न को सम्मिलित किया जाता है:

(1) बहुविध विनिमय दर प्रथाएँ ।

(2) विनिमय दर गारण्टी ।

(3) केन्द्र बैंक आदि द्वारा विनिमय दर जोखिम लागू करना ।

(4) वित्तीय तन्त्र के सम्बद्ध कार्यों में अनुदानित उधार ।

(5) लागू की गयी उधार दरें ।

(6) कम जमानत वाले तथा मूल्य से कम मूल्य पर दिए गए ऋण ।

(7) ऋण गारन्टी ।

(8) प्रारक्षित निधि सम्बन्धी अपेक्षाएँ व ऋण की उच्चतम सीमा ।

(9) राहत कार्य एवं स्थिरीकरण कार्य ।

प्रचलित राजकोषीय घाटी से अभिप्राय है बजट उपायों के स्थान पर केन्द्रीय बैंक और सरकारी क्षेत्र की वित्तीय संस्थाओं की ओर से अप्रत्यक्ष कर एवं सहायता कार्यक्रम स्थापित करना जिनका सरकार पर तात्कालिक वित्तीय प्रभाव रहता है ।

ऐसी गतिविधियों से परम्परागत रूप से आकलित राजकोषीय घाटे को प्रभावित किए बिना समग्र सरकारी क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है और इसे ध्यान में न लिए जाने से कभी-कभी समसामयिक न्यून राजकोषीय घाटे एवं उच्च मुद्रास्फीत की समस्याएँ उभर सकती है ।

कई प्रकार की राजकोषवत् गतिविधियों से न केवल सरकारी क्षेत्र के समग्र शेष ही प्रभावित होते है बल्कि इनका अर्थव्यवस्था के संसाधन आबंटन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । राजकोषीय कार्यों से हानियाँ बढ़ती है या केन्द्रीय बैंक और अन्य सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं द्वारा लाये गए लाभ को समाप्त किया जा सकता है और मुद्रा विस्तार को बढ़ाया जा सकता है ।

इन दशाओं में अर्थव्यवस्था में सरकार के राजकोषीय शेष की सही मात्रा सामने नहीं आती तथा आकस्मिक एवं अनधिकृत देयताएं निर्मित होती है जो सरकार की सही वित्तीय देयताओं की कम सूचना देने के साथ-साथ दीर्घकाल में प्रतिकूल समष्टि आर्थिक परिणामों को तीव्र बना सकता है ।

राजकोषीय घाटे के अनुमान में कुछ धारणाएँ रख व्यावहारिक पक्ष सम्मिलित होते हैं । केन्द्रीय बैंक एवं अन्य सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं के लेखों के उपचय आधार पर सम्मिलित करने में वित्तेत्तर सार्वजनिक क्षेत्र के लेखों के नकद आधार पर आकलन में तुलन-पत्र समायोजन की आवश्यकता पड़ती है ।

केन्द्रीय बैंक एवं अन्य सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं की शुद्ध हानियों को राजकोषीय घटकों एवं अन्य भागों जो उसके नियमित-वाणिज्यिक कार्यों से सम्बन्धित हैं में पृथक करना भी आवश्यक है । धारणा की दृष्टि से स्थिरीकरण के प्रयोजन के लिए खुले बाजार कार्य केन्द्रीय बैंक की राजकोषीय गतिविधियों के एक भाग के रूप में हैं अथवा नहीं, इसका निर्धारण करना कठिन है ।

साथ ही मूल्यन परिवर्तन निजी ऋणों को अपनाने, संत्रस्त वित्तीय संस्थाओं की सहायता करने जैसी केन्द्रीय बैंक की गतिविधियों से उत्पन्न देयताओं को केवल राजकोषीय लक्ष्यों में रखने से वित्तीय तन्त्र के नियामक के रूप में केन्द्रीय बैंक के सही कार्य तथा कुछ राजकोषीय गतिविधियों के साझीदार के रूप में उसकी भूमिका के मध्य का अन्तर अस्पष्ट हो जाएगा ।

एक महत्वपूर्ण राजकोषीय कार्य जिससे बैंकों के तुलन-पत्र की संरचना बदल जाती है, वह है वाणिज्यिक प्रतिफल के सापेक्ष अधिमानी क्षेत्र के ऋण । वस्तुतः कुल आकस्मिक देयता को या निष्क्रिय देयता के केवल उसी भाग को जो जोखिम युक्त हो सकता है ध्यान में लिया जाना चाहिए । ऐसे पक्षों पर पूर्ण जानकारी के अभाव में मूल्यन एवं वर्गीकरण सम्बन्धी समस्याएँ आ सकती है ।


6. नई राजकोषीय नीति (New Fiscal Policy):

1990 के दशक में आर्थिक उदारीकरण की लहर में राजकोषीय नीति के स्वरूप में परिवर्तन आवश्यक समझे गए ।

इस हेतु आवश्यक था कि-

(1) ऐसी कर नीति का वातावरण बनाया जाये जिसमें स्थायित्व हो ।

(2) कर प्रशासन में सुधार करना जिससे करदाता को तनाव पूर्व दबाव की स्थितियों न झेलनी पड़ें ।

(3) राजकोषीय एवं मौद्रिक नीति के मध्य सम्बन्ध सुदृढ करना ।

(4) कर के ढाँचे एवं तत्सम्बन्धित कर कानून को व्यवस्थित रूप से सरल बनाना ।

(5) प्रत्यक्ष कर की दरों को विवेकपूर्ण बनाना ।

(6) कराधान के साधन आवण्टन एवं न्याय व कल्याण जनित प्रभावों को ध्यान में रखते हुए नीतियों का निर्माण करना ।

(7) तदर्थ विवेकाधीन भौतिक नियन्त्रणों से हटकर गैर विवेकाधीन राजकोषीय व वित्तीय उपकरणों को प्रयुक्त करना एवं

(8) व्यय नियन्त्रण हेतु प्रभावी उपाय करना ।

1990 के दशक में सन्तुलित बजट के साथ घाटे में नियन्त्रण की नीति सरकार द्वारा अपनाई गई । इस हेतु राजकोषीय दायित्व एवं बजट प्रबन्ध विधेयक प्रस्तुत करने के लिए एक समिति का गठन 17 जनवरी, 2000 को किया गया ।

यह सीमित सरकार के राजकोषीय उत्तरदायित्वों के सन्दर्भ में अधिनियम की रूपरेखा तय करती । दिसम्बर, 2000 में लोकसभा में राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबन्ध विधेयक प्रस्तुत किया गया जिसकी सहायता से सरकार विवेकपूर्ण राजकोषीय नीति के द्वारा व्यापक आर्थिक स्थायित्व प्राप्त करने में समर्थ बनती ।

इस विधेयक के निम्न उद्देश्य थे:

(i) राजकोषीय उत्तरदायित्वों के निर्वाह हेतु अधिकारों का प्रावधान

(ii) राजकोषीय प्रबन्ध में न्याय की व्यवस्था करना ।

(iii) दीर्घ समय अवधि के व्यापक आर्थिक स्थायित्व को प्राप्त करने के लिए राजस्व का अतिरेक एकत्रित करना

(iv) राजकोषीय घाटे के निवारण एवं मौद्रिक नीति के प्रभावी क्रियान्वयन में आने वाली राजकोषीय परिसीमाओं को दूर करना

(v) सार्वजनिक ऋणों व इनसे उत्पन्न घाटों को कम करना

(vi) सरकार की राजकोषीय क्रियाओं में पारदर्शिता ।

उपर्युक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए राजस्व एवं राजकोषीय घाटा, लोक ऋण एवं रिजर्व बैंक से उधार लेने हेतु निम्न लक्ष्य नियत किए गए:

(a) राजस्व घाटे में 1 अप्रैल 2001 से हर वित्तीय वर्ष में हर वर्ष सकल घरेलू उत्पाद के 0.5 प्रतिशत के बराबर कमी करना । इस प्रकार 31 मार्च 2006 तक राजस्व घाटा सून्य हो सकता है । यह माना गया कि यदि राजस्व घाटा शून्य हो जाए तब राजस्व आधिक्य की प्राप्ति करते हुए सरकार अतिरिक्त दायित्वों का भुगतान कर सकती है ।

राजकोषीय घाटे में 1 अप्रैल 2001 से हर वित्तीय वर्ष में सकल घरेलू उत्पाद के 0.5 प्रतिशत के बराबर कमी करना । इस प्रकार 31 मार्च 2006 तक राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत रह जाएगा ।

(b) लोक ऋण के अन्तर्गत 1 अप्रैल 2001 से अगले दस वर्षों तक यह प्रयास करना कि 31 मार्च तक सरकार के विदेशी ऋण सहित समस्त दायित्व कम होकर 50 प्रतिशत रह जाएँ ।

(c) रिजर्व बैंक से उधार लेने पर रोक लगे । लेकिन अस्थायी समायोजन हेतु केन्द्र सरकार व्यय के आय से अधिक होने पर रिजर्व बैंक से उधार ले सकती है ।

राजकोषीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबन्ध अधिनियम 5 जुलाई 2004 से लागू हो गया । इसके आधार पर केन्द्र सरकार का राजकोषीय घाटा मार्च 2008 तक कम होकर 3 प्रतिशत रह जाना चाहिए ।


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