वित्तीय नीति और आर्थिक विकास पर निबंध | Read this essay in Hindi to learn about:- 1. राजकोषीय नीति का प्रस्तावना (Introduction to Fiscal Policy) 2. राजकोषीय नीति का उद्भव एवं महत्व (Evolution and Importance of Fiscal Policy) 3. उद्देश्य (Objectives) 4.राजकोषीय समायोजन की गुणवत्ता (Quality of Fiscal Adjustment).

राजकोषीय नीति का प्रस्तावना (Introduction to Fiscal Policy):

राजकोषीय नीति के द्वारा सरकार अर्थव्यवस्था को कराधान, सार्वजनिक व्यय, सार्वजनिक ऋण एवं राजकीय कोष के प्रयोग द्वारा प्रबन्धित करती है । राजकोषीय नीति में सरकार अपने व्यय एवं आगम कार्यक्रमों को राष्ट्रीय आय, उत्पादन एवं रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने एवं अवांछित प्रभावों को रोकने के लिए प्रयुक्त करती है ।

विकसित देशों में राजकोषीय नीति को पूर्ण रोजगार एवं आर्थिक स्थायित्व प्राप्त करने दृष्टि महत्वपूर्ण माना जाता है । कम विकसित देशों राजकोषीय नीति विकास की गति को तीव्र करने के लिए उपयुक्त मानी जाती है ।

 राजकोषीय नीति का उद्भव एवं महत्व (Evolution and Importance of Fiscal Policy):

1923-33 की महामन्दी एवं 1936 में किंज की पुस्तक के प्रकाशन के उपरान्त राजकोषीय नीति के परम्परागत विश्लेषण में तीव्र परिवर्तन आया । परम्परागत विश्लेषण में यह विश्वास किया गया था कि राजकोषोय नीति को स्टस्थ होना चाहिए एवं यह ख्यक्तियों की आर्थिक कियाओं को प्रभावित न करे ।

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प्रतिष्ठित विचारकों के अनुसार सरकार को केवल उतना ही आगम एकत्रित करना चाहिए जो उसकी न्यूनतम क्रियाओं यथा देश की सुरक्षा, न्याय व कानून को बनाए रखने तथा कुछ सार्वजनिक कार्यों के सम्पादन हेतु आगम एकत्रण तक ही सीमित होना चाहिए ।

सरकार के कार्यक्षेत्र को संकुचित करते हुए प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने राजकोषीय नीति का क्षेत्र भी सकीर्ण रखा । उनके मत में सरकार का बजट छोटे आकार का तथा सन्तुलित हो अर्थात् सरकार की चालू आय उसके चालू व्यय के बराबर हो । नवप्रतिष्ठित विश्लेषण की मान्यता थी कि राज्य को हस्तक्षेप की नीति त्याग देनी चाहिए एवं अधिकतम कल्याण की प्राप्ति हेतु सरकार का बजट बड़े आकार का होना चाहिए ।

एक आर्थिक यंत्र के रूप में राजकोषीय नीति की महत्ता 1930 की महामंदी एवं किंज के से स्वीकार की गई । महामन्दी काल में यह स्पष्ट हुआ कि निजी क्षेत्र पुनरूत्थान की एक प्रक्रिया को स्वयं प्रारम्भ नहीं कर सकता, जबकि विनियोग की प्रेरणा का अभाव हो । अतः ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा ही प्रभावी भूमिका का निर्वाह किया जा सकता है ।

किंज ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय आय के सन्तुलन स्तर पर भी बेरोजगारी की व्यापक सम्भावना विद्यमान होती है । किंज ने जे॰ बी॰ से के बाजार नियम को चुनौती देते हुए कहा कि प्रत्येक पूर्ति अपनी माँग का सृजन स्वयं नहीं करती । अतः पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अति उत्पादन की समस्या विद्यमान होती है ।

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कीन्ज के अनुसार प्रभावपूर्ण माँग की कमी से अति उत्पादन एवं बेरोजगारी उत्पन्न होती है । यदि प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि की जाये तो अति उत्पादन व बेकारी की समस्या का समाधान प्राप्त होगा । लीज ने प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि हेतु विनियोग व्यय में वृद्धि को आवश्यक माना ।

एक मन्दीग्रस्त अर्थव्यवस्था में निजी विनियोग में वृद्धि की अधिक सम्भावना विद्यमान नहीं होती, यद्यपि सुलभ मुद्रा नीति का अनुसरण कर निजी विनियोगों को बढाने का प्रयास किया जाता है । अतः रोजगार की वृद्धि हेतु सार्वजनिक विनियोग की वृद्धि आवश्यक है ।

यह राज्य का दायित्व है कि वह सडक, सिंचाई कार्य, भवन निर्माण जैसे सार्वजनिक कार्यों में अधिक विनियोग करें । इस प्रकार कील का विश्लेषण अल्पकालीन आर्थिक स्थायित्व एवं चक्रीय उच्चावचनों की समस्याओं के समाधान से सम्बन्धित रहा ।

राजकोषीय नीति को वर्तमान स्वरूप प्रदान करने में प्रो॰ ए॰ पी॰ लर्नर द्वारा प्रतिपादित क्रियात्मक विवेचन महत्वपूर्ण बना । लर्नर की व्याख्या कीन्ज पर आधारित थी । उनके अनुसार राजकोषीय नीति को व्यापार चक्र विरोधी होना चाहिए ताकि इसके द्वारा अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थायित्व लाया जा सके ।

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उन्होंने सरकार की सन्तुलित बजट नीति को उपयुक्त नहीं माना व कहा कि मन्दी काल व बेरोजगारी की दशाओं में घाटे का बजट तथा पूर्ण रोजगार की समय अतिरेक युक्त बजट होना चाहिए । मन्दी काल में सरकार अपने घाटे को पूरित करने के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था या न्यूनता वित्त प्रबन्ध की नीति का पालन करें ।

मुद्रा प्रसार की दशा में सरकार को बचत युक्त बजट की नीति अपनानी चाहिए तथा कर की मात्रा में वृद्धि कर व्यक्तियों की क्रय शक्ति में कमी करनी चाहिए तथा जनता से ऋण प्राप्त करने चाहिएँ ।

स्फीति की दशा में सरकार को अपने व्यय में कटौती नहीं करनी चाहिए । क्रियात्मक वित्त नीति अर्थव्यवस्था में आर्थिक स्थायित्व के उद्देश्य को मुख्य मानती है तथा इसके लिए असंतुलित बजट की नीति को प्रस्तावित करती है ।

विकसित पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय नीति के मुख्य उद्देश्य दो हैं:

(1) अर्थव्यवस्था में पूर्ण रोजगार की प्राप्ति रच इसे बनाए रखना ।

(2) आर्थिक स्थायित्व को प्राप्त करना ।

उपर्युक्त उद्देश्य हेतु सरकार क्षतिपूरक व्यय की नीति अपनाती है । इससे अभिप्राय है कि मन्दी काल में सार्वजनिक व्यय को बढ़ाया जाये व घाटा युक्त बजट बनाया जाये तथा दूसरी ओर स्फीति काल में सरकारी व्यय में कटौती की जाये ।

अर्थव्यवस्था के विकास हेतु राजकोषीय नीति को प्रभावशाली बनाने की दृष्टि से कार्यशील वित्त का विश्लेषण महत्वपूर्ण है जिसका प्रतिपादन डॉ॰ बलजीत सिंह ने किया । विकासशील देशों में राजकोषीय नीति का स्वरूप विकसित देशों से भिन्न होता है ।

कारण यह है कि इन देशों की मुख्य समस्या आर्थिक विकास की गति को तीव्र करना है । इन देशों में निर्धनता का दुश्चक्र कार्यरत रहता है । उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति उच्च होती है तथा राष्ट्रीय आय में बचत का अनुपात कम होता है । इससे विनियोग की दर भी कम बनी रहती है व अल्प रोजगार की दशाएँ विद्यमान होती हैं ।

साथ ही अदृश्य बेकारी व मुद्रा प्रसारिक दबाव भी विद्यमान होते है । राजा चैलेय्या (Raja J. Chelliah) ने Fiscal Policy in Underdeveloped Countries में लिखा है कि विकासशील देशों में राजकोषीय नीति का लक्ष्य पूँजी निर्माण की उच्चतम सम्भावित दर को बिना मुद्रा प्रसार के प्राप्त करना है ।

विकासशील देशों में राजकोषीय नीति के उद्देश्य (Objectives of Fiscal in Developing Countries):

मेयर एवं बाल्डविन के अनुसार राजकोषीय नीति आर्थिक वृद्धि की दर को निम्न प्रकार प्रभावित करती है:

(i) साधनों के आवण्टन को प्रभावित करके ।

(ii) आय वितरण को परिवर्तित कर ।

(iii) पूँजी संचय को प्रोत्साहित कर ।

(iv) मुद्रा प्रसार में नियन्त्रण द्वारा ।

अर्द्धविकसित देशों में आर्थिक विकास को वित्त प्रदान करने की यूनाइटेड नेशन्स रिपोर्ट में राजकोषीय नीति के निम्न उद्देश्य बताए गए:

(i) आय व सम्पत्ति के वितरण की विषमताओं को दूर करते हुए घरेलू बाजार का विस्तार करना तथा अनावश्यक आयातों में कमी करना ।

(ii) आर्थिक विकास के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली मुद्रा प्रसारिक दशाओं का निवारण ।

(iii) उपयुक्त विकास परियोजनाओं को क्रियान्वित करना ।

(iv) आर्थिक विकास हेतु बचतों की मात्रा में वृद्धि करना ।

डॉ॰ बलजीत सिंह के अनुसार एक विकासशील देश के लिए आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य उत्पादन में वृद्धि व राजकोषीय नीति का प्रयोग पूंजी निर्माण हेतु एक साधन के रूप में करना चाहिए ।

संक्षेप में कम विकसित देश में राजकोषीय नीति निम्न उद्देश्यों पर आधारित रही है:

(a) बचतों की मात्रा में वृद्धि जिनके लिए जनता के वास्तविक व सम्भावित उपभोग में कटौती की जाती है ।

(b) आर्थिक जडता को दूर करने के लिए पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि करना ।

(c) पूँजीगत संसाधनों को कम उत्पादक क्षेत्रों से हटाकर अधिक उत्पादन देने वाले क्षेत्रों में लगाना ।

(d) अर्थव्यवस्था को मुद्रा प्रसारिक दबावों से मुक्त करना ।

(e) क्षेत्रीय असन्तुलनों को दूर करना ।

(f) अर्थव्यवस्था में व्याप्त आर्थिक असमानताओं का निराकरण करना ।

उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु यह आवश्यक हो जाता है कि देश में:

(I) विनियोग की दर में वृद्धि की जाये ।

(II) विनियोग के एक सामाजिक रूप से अनुकूल ढाँचे को प्रोत्साहित किया जाये ।

(III) आय की विषमताओं को मून किया जाये ।

(IV) बेरोजगारी व अर्द्धरोजगार में कमी लाई जाये ।

(V) मुद्रा प्रसारिक दबावों का निवारण हो ।

(I) विनियोग की दर में वृद्धि:

विकासशील देशों में राजकोषीय नीति पूंजी निर्माण में वृद्धि के द्वारा विनियोग की दर को बढाने के प्रयास करती है । पूंजी निर्माण में वृद्धि तब सम्भव है जब बचत की दर बढे इसके लिए वास्तविक एवं सम्भावित उपभोग को कम करने के प्रयास करने आवश्यक है ।

उपभोग की कमी हेतु सरकार द्वारा अनावश्यक वस्तुओं की उपलब्धता एवं प्रयोग पर भौतिक नियन्त्रण लगाए जाते हैं । बचतों में वृद्धि हेतु करारोपण एवं सार्वजनिक उधार द्वारा सरकारी आगम में वृद्धि की जाती है ।

विकासशील देशों में बचत व विनियोग की वृद्धि व उपभोग में कमी लाने हेतु करारोपण अधिक युक्तिसंगत है । सार्वजनिक उधार की सीमा यह है कि इन देशों में पूंजी बाजार असंगठित होता है । इसके साथ ही सार्वजनिक ऋण विनियोग पर विपरीत प्रभाव डालता है ।

विकास हेतु बचतों में वृद्धि के लिए डॉ॰ आर॰ एन॰ त्रिपाठी ने निम्न विधियाँ प्रस्तावित की है:

(i) प्रत्यक्ष भौतिक नियन्त्रण ।

(ii) विद्यमान करों की दर में वृद्धि ।

(iii) नये कर लगाना ।

(iv) सार्वजनिक उपक्रमों से अतिरेक प्राप्त करना ।

(v) सार्वजनिक ऋण लेना ।

(vi) न्यूनता वित्त प्रबन्ध ।

निजी क्षेत्र में विनियोग वृद्धि हेतु राजकोषीय नीति को कुछ रियायतें देनी चाहिएँ जैसे विनियोग व ह्रास भत्ते, वित्त व विदेशी विनिमय की व्यवस्था, कर अवकाश विकास छूट, अनुदान इत्यादि ।

(II) विनियोग के सामाजिक रूप से अनुकूलतम ढाँचे को प्रोत्साहित करना:

विकासशील देश राजकोषीय नीति के उपायों द्वारा ऐसे क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विनियोग को प्रभावित कर सकते हैं जो समाज के कल्याण की दृष्टि से आवश्यक हों । ऐसे वांछनीय क्षेत्र हर देश की परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । विकासशील देशों में अन्तर्संरचनात्मक दुर्बलताएँ विद्यमान होती है । अतः सामाजिक रूप से वांछनीय विनियोग आर्थिक एवं सामाजिक उपरिमदों में किया जाना चाहिए ।

(III) आय व सम्पत्ति की विषमताओं को न्यून करना:

वस्तुत: राजकोषीय नीति का मुख्य उद्देश्य पूंजी निर्माण की दर में वृद्धि है जिसके लिए सामूहिक बचतों की वृद्धि करनी पडती है । यह तब तक सम्भव नहीं जब तक आय व सम्पत्ति के वितरण में विषमताएँ विद्यमान न रहें । यदि आय व सम्पत्ति की विषमताओं में कमी करने पर जोर दिया गया तो कुल बचतों की दर में कमी हो जाएगी ।

विकासशील देश प्रायः ऐसी राजकोषीय दुविधा या असमंजस का अनुभव करते है । अभिप्राय यह है कि सरकार द्वारा आर्थिक वृद्धि को प्राथमिकता देने से आर्थिक विषमताएं बढती है वहीं दूसरी तरफ यदि समानतापूर्ण वितरण को अधिक महत्व दिया जाये तो आर्थिक वृद्धि की दर न्यून हो जाएगी ।

रागनर नकर्स के अनुसार आर्थिक विकास के सन्दर्भ में लोकवित्त का मुख्य उद्देश्य अर्न्तवैयक्तिक आय वितरण का एक परिवर्तन नहीं बल्कि राष्ट्रीय आय के अनुपात में वृद्धि करना है जो पूंजी निर्माण हेतु महत्व का है ।

वास्तव में सामाजिक समानता व आर्थिक न्याय के लक्ष्य ध्यान में रखते हुए आय व सम्पत्ति की विषमताओं को कम करना महत्वपूर्ण पक्ष है । इस सन्दर्भ में राजकोषीय नीति ऐसी कर प्रणाली लागू कर सकती है जिसमें समूची कर संरचना प्रगतिशील हो ।

निर्धन वर्ग के सापेक्ष धनी वर्ग पर करों का अधिक भार, निर्धन व्यक्तियों को कर भार से मुक्ति, विलासिता की वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष करों में वृद्धि तथा जन उपभोग की वस्तुओं पर न्यून कर लगाया जाये जहाँ तक सार्वजनिक व्यय का सम्बन्ध है सरकार द्वारा निर्धन वर्ग हेतु निशुल्क शिक्षा, चिकित्सा, आवास, समुचित पोषण की सुविधाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए ।

सम्यक् कर नीति एवं सार्वजनिक व्यय नीतियों के एक उचित संयोग द्वारा विकासशील देश की सरकार आर्थिक असमानताओं को कम करने में सफलता प्राप्त कर सकती है ।

इस दिशा में आने वाली मुख्य बाधाएँ भ्रष्टाचार, कर चोरी व समृद्ध वर्ग द्वारा राजनीतिज्ञों से सांठगांठ व हित साधन है । कर संरचना को प्रगतिशील बनाने में आर्थिक सीमाएं भी सामने आती हैं जो निजी विनियोग की कुशलता एवं क्षमता पर विपरीत प्रभाव डालती है ।

(IV) मुद्रा प्रसारिक दबावों को नियन्त्रित रखना:

विकासशील देशों में आर्थिक विकास हेतु न्यूनता वित्त प्रबन्ध की नीति पर निर्भर रहा जाता है । रागनर नकर्से के अनुसार विनियोग की प्रक्रिया में मुद्रा प्रसारिक दबाव निहित है । लेकिन इन्हें रोकने के लिए विनियोग की दरों में कमी करना युक्तिसंगत नहीं है । इन्हें अन्य कई तरीकों से नियन्त्रित किया जा सकता है सबसे मुख्य राजकोषीय नीति है ।

मुद्रा प्रसार से अभिप्राय है वस्तु व सेवाओं की समग्र माँग उनकी समग्र पूर्ति से अधिक रहना । अतः माँग के स्तर को नियन्त्रित करने तथा वस्तुओं के उत्पादन को बढाने में राजकोषीय उपायों की सहायता ली जाती है । माँग को करारोपण में वृद्धि के द्वारा कम किया जा सकता है ।

वस्तु पूर्ति में वृद्धि हेतु उद्योगों को कर प्रेरणाएँ व आवश्यक उपभोक्ता वस्तु उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया जाता है । ऐसी वस्तुओं के उत्पादन में विनियोग को प्रोत्साहन दिया जा सकता है जो कम समय में प्रतिफल प्रदान कर सकें ।

मुद्रा प्रसार के दबावों को कम करने में राजकोषीय नीति को प्रभावशाली बनाने हेतु मौद्रिक नीति का आश्रय लेना पड़ता है । मौद्रिक उपाय साख के प्रसार को नियन्त्रित करते हैं, अतिरिक्त क्रयशक्ति को दूर करते है तथा एच्छिक बचतों में वृद्धि करते हैं ।

(V) बेरोजगारी व अर्द्धरोजगार को कम करना:

विकासशील देशों में बेरोजगारी व अर्द्धरोजगार की समस्या को राजकोषीय नीति द्वारा सुलझाया जा सकता है । अधिक रोजगार उत्पन्न करने के लिए सरकार आर्थिक व सामाजिक उपरिमदों पर व्यय करती है ।

आर्थिक उपरिमदों में परिवहन, संचार, सिंचाई, भूमि संरक्षण पर किया गया विनियोग तथा सामाजिक उपरिमदों में शिक्षा, स्वास्थ्य व प्रशिक्षण सुविधाओं पर किया गया विनियोग सम्मिलित हैं । आर्थिक व सामाजिक उपरिमदों पर होने वाला व्यय रोजगार के अवसरों की वृद्धि करता है । स्पष्ट है कि सार्वजनिक विनियोग कार्यक्रम रोजगार में वृद्धि हेतु आवश्यक है ।

4. राजकोषीय समायोजन की गुणवत्ता (Quality of Fiscal Adjustment):

राजकोषीय नीति के मुख्य आर्थिक उद्देश्यों; जैसे- वृद्धि, स्थिरता और वितरण न्याय को ध्यान रखते हुए राजकोषीय समायोजन सरकारी वित्त के असन्तुलनों में अनिवार्यत: कटौती लागू करता है ।

समग्र संसाधन अन्तर में कमी पर पूर्णत केन्द्रित राजकोषीय समायोजन नीति, राजकोषीय नीति के सभी प्रमुख उद्देश्यों के मामले में सन्तुलित प्रतिफल प्राप्त करने में प्रभावी नहीं हो सकता । राजकोषीय घाटे में मात्रात्मक कटौती के साथ सरकारी वित्त में संसाधन निवेश के गुणात्मक सुधार दिखाई देने आवश्यक है ।

राजकोषीय समायोजन की गुणवत्ता बढ़ाने में कर प्रणाली के दुर्बल तत्त्वों को सही करना, सरकारी व्यय के प्रबन्धन में कतिपय वांछित क्षेत्रों के पक्ष में संसाधन विनियोग में परिवर्तन करते हुए सुधार लाना, राज्य के अधिकृत उद्यमों में सुधार लाने तथा वाणिज्यिक रूप से उन्हें सक्रिय बनाने के साथ-साथ सरकार द्वारा संसाधनों के उपयोग में कार्य क्षमता को सुनिश्चित करना जैसे उपायों का समावेश है । इन सभी उद्देश्यों में सरकारी व्यय प्रबंधन, राजकोषीय समायोजन कार्यक्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व है ।

सरकारी व्यय प्रबन्धन एक त्रि-स्तरीय प्रशासनिक प्रक्रिया है जिसमें- (i) नीतियों और उद्देश्यों तथा संसाधनों की आवश्यक राशि का निर्धारण करना, (ii) संसाधनों के विनियोग हेतु आयोजन करना जिसमें जुटाये जाने वाले कुल संसाधनों तथा उसमें निहित लागतों का मूल्यांकन, व्यय प्राथमिकता का निर्धारण तथा प्रासंगिक आयोजनों का गठन सम्मिलित हो, तथा (iii) तय किए गए क्रियाकलापों को मितव्ययिता से कार्यक्षम एवं कारगर एवं से क्रियान्वयन होना चाहिए ।

अन्तर्राष्ट्रीय अनुभवों से प्रमाणित होता है कि ऐसे संस्थागत तत्त्व जो सामान्यतः राजकोषीय दबावों को बढ़ाने की प्रवृति रखते है निम्न हैं:

(1) जुटाए गए राजस्व एवं किए गए व्यय के मध्य समुचित समन्वय का अभाव ।

(2) बजट बनाने की प्रक्रिया के दायरे के बाहर जाकर वित्तीय निर्णय लेने की पद्धति ।

(3) नीतिगत निर्णयों के वित्तीय पक्षों का अधूरा मूल्यांकन ।

(4) अनिश्चितता का सामना करने के लिए किए गए निष्प्रभावी उपाय ।

(5) व्यय की अनेक मदों का अल्पावधि लचीलापन ।

अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव ने ऐसी समस्याओं के विभिन्न व्यय प्रबन्धन युक्त समाधान प्रस्तुत किये है । उदाहरणार्थ संयुक्त राज्य अमेरिका में बजट के अन्तर्गत रक्षा, अन्तर्राष्ट्रीय एवं घरेलू व्यय की मदों पर विशिष्ट सीमाएँ निर्धारित की गई हैं । इनमें से किसी भी एक सीमा का उल्लंघन पृथक्करण प्रक्रिया पर रोक लगाता है जो कानूनी रूप से वैधानिक बनाया गया है ।

इसके साथ ही प्रवेश करते ही भुगतान की प्रणाली लागू की गई है जिसके अधीन नए प्रत्यक्ष व्ययों या राजस्व में कटौती के प्राविधानों को अन्यत्र समायोजन द्वारा प्रति सन्तुलित किया जाता है जिससे निबल घाटे पर कोई प्रभाव न पडे ।

ऑस्ट्रेलिया द्वारा अपनाई गई आवर्ती व्यय आयोजना प्रणाली के अधीन मौजूदा नीतियों के भावी या बहुवर्षीय वित्तीय अनुमानों की गणना की जाती है और इस प्रकार परिसम्पत्तियों की भावी उपयोगिताओं तथा संसाधनों में आने वाली भावी कमियों का अनुमान लगाया जाता है ।

इसके फलस्वरूप सरकारी परिचालनों में अधिक पारदर्शिता आती है । यू॰ के॰ जर्मनी और भारत सहित कई देशों में वैकल्पिक घाटा संकल्पनाओं, ऋण सकल देशी अनुपात अथवा व्यय वृद्धि दर के समायोजन हेतु नीति तय की जाती है जिसके लक्ष्य निर्दिष्ट किए जाते हैं इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कुछ देशों ने नकदी प्रबन्धन प्रणाली आरम्भ की ।

नकदी प्रबन्ध, नकदी को सुरक्षित रखने व उसके प्रवाह को अनुकूल बनाता है जिससे घाटे के स्तर न बढ़ें तथा उधारों को सीमा के भीतर रखा जा सके ।

अनेक देशों में अनिश्चितता के तत्त्वों को प्राक्कलन एवं बजटीय लेनदेनों के स्वरूप की रचना करके ठीक किया जाता है तथा सूक्ष्म आर्थिक परिवर्तनों के साथ उनके सम्बन्ध देखे जाते है जिससे आवश्यकता पडने पर इनमें परिवर्तन किया जाना सम्भव हो ।

कनाडा में क्षेत्रवार बजट तैयार करने की प्रणाली लागू की गई थी जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि क्षेत्र विशेष की नीति एवं व्यय सम्बन्धी निर्णय तय की गई व्यय सीमाओं के भीतर रखे जाएँ जो दीर्घ अवधि की आयोजना के अनुरूप रहें ।

सरकारी व्यय प्रबन्धन के अन्य साधनों में व्यय समीक्षाओं का समावेश हो जिसका उद्देश्य व्यय में वृद्धि के लिए जिम्मेदार तत्त्वों का पता लगाना हो ताकि उनको नियन्त्रण के अधीन लाया जा सके और वह विभिन्न व्यय कार्यक्रमों की आन्तरिक छानबीन के अनुरूप हो सकें ।

दोहराव वाले या अकार्यक्षम क्षेत्रों का पता लगाने के लिए यू॰ के॰ में शून्य आधारित बजट संकल्पना से बेलोच योजनाओं का पता लगाने के लिए नीदरलैण्ड में किया गया पुनर्विचार, स्वीडन में की गई कार्यक्रमों के प्रभाव की तीन वर्षीय विस्तृत समीक्षा एवं व्यय कार्यक्रमों में अपव्यय तथा अकार्यक्षम क्षेत्रों का पता लगाने में निजी क्षेत्र की सहभागिता रही ।

कुछ औद्योगिक देशों में सरकारी व्यय प्रबन्धन के प्रति कुछ अद्यतन दृष्टिकोण नौवें और अन्तिम दशक में विकसित हुए जिनमें निष्पादक कार्यों के विकेन्द्रीकरण की अति व्यापकता, बजटीय संसाधनों के उपयोग में प्रबन्धन लोच एवं निर्दिष्ट लक्ष्यों के लिए सेवाओं की सुपुर्दगी में व्यापक जवाबदेही और जिम्मेदारी पर जोर देने वाले नये प्रबन्धन शास्त्र के सार तत्त्व का समावेश है ।

इस दृष्टिकोण में निजी क्षेत्र सहभागिता या निजी क्षेत्र के प्रति सेवाओं को कम करने के जरिये बाजार तत्त्वों को लागू करना, निपटान की गति तेज करना, विभिन्न विभागों एवं सवर्ग स्तरों के मध्य व्यापक समन्वय तथा कारगर केन्द्रीकृत निगरानी सहित विकेन्द्रीकरण हेतु कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी को लागू किया गया है ।

यह पाया गया है कि यद्यपि सरकारी व्यय प्रबन्धन में इन सभी परिवर्तनों से जवाबदेही पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है तथा बाजार तत्वों को लागू किये जाने से व्यय के नियन्त्रणों पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है ।

दूसरी ओर व्यय दबावों में कुल वेतन बिल के लिए प्रावधान करना तथा निर्दिष्ट सीमाओं के मध्य कार्मिक संख्या समायोजित करना, व्यय के सभी स्तरों पर कटौती और विशिष्ट क्षेत्रीय कटौती करना सम्मिलित था ।

अन्तर्राष्ट्रीय अनुभव से स्पष्ट होता है कि कई मामलों में अनुरक्षण व्यय, नए निवेश की तुलना में, अर्थव्यवस्था में प्रयुक्त संसाधन का अधिक किफायती मार्ग प्रशस्त करता है ।

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