विदेशी पूंजी: अर्थ और महत्व | Read this article in Hindi to learn about:- 1. विदेशी पूंजी का अर्थ (Meaning of Foreign Capital) 2. विदेशी पूंजी का महत्व (Importance of Foreign Capital) 3. आशंकाएं (Dangers).

विदेशी पूंजी का अर्थ (Meaning of Foreign Capital):

अल्पविकसित देशों में घरेलू साधन आर्थिक विकास की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये अपर्याप्त होते हैं । इन देशों में पूंजी निर्माण का वर्तमान स्तर इतना कम होता है कि आय के अति निम्न स्तर और निर्धनता के विस्तृत फैलाव के कारण बचत में वृद्धि सम्भव नहीं होती ।

सार्वजनिक ऋण और करारोपण की अपनी त्रुटियां हैं । अर्थव्यवस्था पर स्फीतिकारी प्रभाव के कारण घाटे की वित्त व्यवस्था का सहारा भी नहीं लिया जा सकता । इस गम्भीर स्थिति में, अर्थव्यवस्था को निर्धनता के कुचक्र से निकालने का केवल एक विकल्प बचता है तथा वह है आयातित या विदेशी पूंजी ।

इस प्रकार विकासशील देशों के विकास यन्त्र को तीव्र करने के लिये विदेशी पूंजी ही लाभप्रद है । वास्तव में, यह कम विकसित पिछड़े हुये देशों की छोटी घरेलू बचतों का एक पूरक है ।

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यदि हम विभिन्न देशों के आर्थिक इतिहास के पन्ने पलटते हैं तो हम इस बात को स्वीकार करेंगे कि आधुनिक विश्व के लगभग प्रत्येक देश को अपने आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए विदेशी सहायता पर निर्भर करना पड़ा था ।

“लगभग सभी विकसित देशों को अपने विकास के आरम्भिक सोपानों के दौरान अपनी कम बचतों की सहायता के लिये विदेशी वित्त की सहायता लेनी पड़ी थी । इंग्लैण्ड ने 17वीं और 18वीं शताब्दियों में हालैण्ड से ऋण लिया तथा उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में प्रत्येक अन्य देश को ऋण दिया । संयुक्त राज्य अमरीका जोकि आज का सबसे समृद्ध देश है इसने उन्नीसवीं शताब्दी में भारी ऋण लिया तथा बदले में बीसवीं शताब्दी का सबसे बड़ा ऋणदाता माना जाने लगा ।” –डब्ल्यू. ए. लुइस

”विकासशील देशों में घरेलू बचतों का स्तर कम आय के कारण एक निम्न स्तर पर होता है । अत: उपभोग के पहले ही नीचे स्तरों में कटौती करना अव्यवहार्य होता है । इसलिये बाहरी वित्त एक आवश्यकता बन जाता है तथा यह आवश्यकता केवल विकास दरकी वृद्धि के लिये ही नहीं बल्कि धरेलू बचतों के लिये प्रोत्साहक का कार्य करती है ।” –संयुक्त राष्ट्र संघ रिपोर्ट

विदेशी पूंजी का महत्व (Importance of Foreign Capital):

विदेशी पूंजी अल्प विकसित देशों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यह कई प्रकार से आर्थिक विकास की दर को तीव्र करने में सहायक होती है । विदेशी पूंजी का आगमन प्राप्तकर्त्ता देश को घरेलू निवेश के लिये स्थानीय साधन प्राप्त करने के लिये उपाय उपलब्ध करवाता है ।

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यह विदेशी विनिमय की पूर्ति करता है जिससे विकासशील परियोजनाओं के लिये सीधे आवश्यक सामग्री और अन्य साजो-सामान आयात किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त यह अन्य वस्तुओं के आयात की इजाजत भी देता है जिनकी विकास और राष्ट्रीय आय के बढ़ने के साथ परोक्ष रूप में मांग होगी । विदेशी पूंजी के बिना विकास की गति वांछित गति से बहुत कम होती है ।

अल्प विकसित देशों में विदेशी पूंजी के महत्व का मूल्यांकन निम्नलिखित कारणों से किया जा सकता है:

1. पूंजी अभाव की समस्या का समाधान (Solution of the Problem of Capital Deficiency):

अल्प विकसित देशों को प्राय: ‘पूंजी निर्धन’ अथवा ‘कम बचत एवं कम निवेश’ वाली अर्थव्यवस्थाएं कहा जाता है । इन देशों में घरेलू बचत का दर इतना कम होता है कि उनके आर्थिक विकास की आवश्यकता को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं होता ।

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अधिकांश लोग निर्वाह स्तर पर जीवन व्यतीत करते हैं । इसके अतिरिक्त घरेलू बचतों की दर को किसी महत्त्वपूर्ण सीमा तक बढ़ाया नहीं जा सकता । यह देश केवल अपने घरेलू साधनों के आधार पर तीव्रतापूर्वक विकसित नहीं हो सकते ।

यदि यह न्यायसंगत तीव्रता के दर से विकास प्राप्त करना चाहते हैं तो विदेशी पूंजी द्वारा घरेलू बचतों और निवेश के वांछित दर के बीच के अन्तराल को भरना होगा ।

2. तकनीकी ज्ञान और विशेषीकृत पूंजी साजो-सामान (Technical Knowledge and Specialised Capital Equipment):

ये देश केवल पूंजी में निर्धन नहीं होते बल्कि तकनीक और आर्थिक विकास में भी पिछड़े हुये होते हैं । उन्हें प्रशिक्षित कार्यकर्ता, तकनीकी ज्ञान और विशेषज्ञों की राय की आवश्यकता होती है तथा आधुनिक मशीनों और साजो-सामान की भी आवश्यकता होती है ।

विदेशी पूंजी इन देशों की तकनीकी पिछड़ेपन की समस्या का समाधान कर सकती है । इसलिये विदेशी पूंजी न केवल अतिरिक्त बचतों के स्रोत के रूप में महत्व रखती है बल्कि अल्प विकसित देशों के लिये आधुनिक तकनीकों और विशेषीकृत पूंजी साजो-सामान के पूर्तिकर्त्ता के रूप में भी महत्त्वपूर्ण है ।

3. विपरीत भुगतानों के सन्तुलन को ठीक करने के लिये (To Correct Adverse Balance of Payments):

प्राप्तकर्त्ता देश के भुगतानों के सन्तुलन पर इसके हितकर प्रभाव के दृष्टिकोण से विदेशी मुद्रा विशेष महत्व रखती है । ये देश प्राय: अहितकर भुगतानों के सन्तुलन का शिकार होते हैं । आर्थिक विकास भुगतानों के सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव डालता है क्योंकि पूंजीगत वस्तुओं का भारी आयात, तकनीकी ज्ञान तथा कच्चा माल विकास कार्यक्रमों को जारी रखने के लिये आवश्यक होता है ।

दूसरी ओर उत्पादन की उच्च लागत और घरेलू उपभोग में वृद्धि के कारण इन देशों द्वारा बहुत कम निर्यात सम्भव होता है । इस प्रकार अल्प विकसित देशों के भुगतानों के सन्तुलन पर निरन्तर दबाव बना रहता है । विदेशी पूंजी एक बड़ी सीमा तक इन देशों के विदेशी विनिमय के संकट को समाप्त कर सकती है ।

4. विदेशी पूंजी उत्पादन स्तर बनाये रखने में सहायता करती है (Foreign Capital Helps to Maintain Production Level):

विदेशी पूंजी के आयात का एक अन्य महत्व यह है कि यह अल्प विकसित देशों में औद्योगिक उत्पादन के स्तर को बनाये रखने में बहुत सहायक होती है । यह आवश्यक कच्चा माल, अर्द्ध निर्मित वस्तुएं, मशीनें, उपकरण और साजो-सामान उपलब्ध करवा कर अल्प विकसित देशों की सहायता करती है ।

ये देश इस स्थिति में नहीं होते कि अपने अर्जित विदेशी विनिमय से अपनी आवश्यकताओं अनुसार वस्तुओं का आयात कर सकें । अत: देश में उत्पादन स्तर को बनाये रखने के लिये उन्हें विदेशी ऋण का सहारा लेना पड़ता है ।

5. आर्थिक एवं सामाजिक बन्धे खर्चों के विकास में सहायक (Helpful in the Development of Economic and Social Overheads):

यह कठोर सत्य है कि अल्प विकसित देशों के पास विकास के लिये आवश्यक संरचना का अभाव होता है जैसे रेल, सड़कें नहरें, विद्युत परियोजनाएं और अन्य सामाजिक एवं आर्थिक बंधे खर्चे आदि । क्योंकि उनके विकास के लिये भारी पूंजी निवेश और लम्बे उत्पादन समय की आवश्यकता होती है ।

यह देश केवल घरेलू साधनों की सहायता से इन भारी परियोजनाओं को आरम्भ करने में असमर्थ होते हैं । अत: विदेशी पूंजी आर्थिक विकास की गति में सहायक होती है तथा इन देशों में तीव्र आर्थिक विकास की नींव रखने में सहायता करती है ।

6. निर्धनता का कुचक्र तोड़ने के लिये (To Break the Vicious Circle of Poverty):

निर्धनता के कुचक्र को तोड़ने और बाजार अशुद्धियों को समाप्त करने के लिये विदेशी पूंजी लाभप्रद होती है । नर्कस के मतानुसार- “विदेशी साधनों का प्रयोग निर्धनता के कुचक्र और निम्न पूंजी निर्माण को तोड़ने का एक मार्ग है । विदेशी पूंजी एवं अन्य साधनों का आगमन उत्पादन में तीव्र वृद्धि करेगा जिससे बढ़ती हुई जनसंख्या का निर्वाह हो सकेगा । अत: संचयी विस्तार की प्रक्रिया आरम्भ हो सकेगी और विदेशी विनिमय में इस पूंजी का पर्याप्त भाग होगा जिससे आवश्यक खाद्य पदार्थों के अतिरिक्त विकास के लिये आवश्यक कच्चे माल और साजो- सामान का आयात किया जा सके ।”

7. पूंजी निर्माण की तीव्र दर (Rapid Rate of Capital Formation):

अल्प विकसित देशों का पूंजी निर्माण का दर धीमा होता है परन्तु विदेशी पूंजी की सहायता से पूंजी निर्माण की दर को सरलतापूर्वक त्वरित किया जा सकता है क्योंकि आयात की गई पूंजी को पूंजी-गहन भारी उद्योगों में लगाया जा सकता है जैसे मशीनरी, इस्पात और उर्वरक आदि ।

8. प्राकृतिक साधनों एवं जोखिमपूर्ण परियोजनाओं का उचित उपयोग (Proper Use of Natural Resources and Risky Projects):

अल्प विकसित देशों में पूंजी बहुत दुष्प्राप्य होती है और निजी उद्यम अप्रयुक्त प्राकृतिक साधनों को काम में लाने जैसी जोखिमपूर्ण परियोजनाओं को आरम्भ करने में संकोच करते हैं ।

विदेशी पूंजी नये उद्यम और व्यापारिक गतिविधि के नये क्षेत्र खोल कर इस कमी को पूरा करती है । यह जोखिमों वाले पथ-प्रदर्शक उद्यमों में प्रवेश करती है । अत: विदेशी पूंजी के निवेश के परिणामस्वरूप अगम्य क्षेत्रों तक पहुंच पाती है और अप्रयुक्त प्राकृतिक साधनों का प्रयोग आरम्भ होता है ।

विदेशी पूंजी की आशंकाएं (Dangers of Foreign Capital):

विदेशी पूंजी का आयात अल्प विकसित देशों के लिये पूर्णतया वरदान नहीं होता । नि:सन्देह यह इन अल्प विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं को अनेक लाभ पहुंचाती है परन्तु इसकी अपनी आशंकाएं हैं ।

जिनका संक्षिप्त वर्णन नीचे किया गया है:

1. घरेलू ऋणों की तुलना में भारी बोझ (Heavier Burden as Compared to Domestic Loans):

विदेशी पूंजी का सबसे बुरा सकेत यह है कि यह बोझ को घरेलू ऋणों से भी अधिक बढ़ाती है । इसके अतिरिक्त विदेशी पूंजी की वापसी के लिये ऋण प्राप्तकर्त्ता द्वारा ऋणदाता को दुर्लभ विदेशी विनिमय के साधन स्थानान्तरित करने पड़ते हैं ।

ऐसे ऋणों के भुगतान के लिये बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है । इसके अतिरिक्त, विकासशील देशों के विदेशी विनिमय साधन इतने कम होते हैं कि वे इन ऋणों की वापसी और उनके सेवा शुल्क देने में असमर्थ होते हैं ।

अन्य शब्दों में, विदेशी ऋणों की वापसी का बोझ उन्हें अपनी वचनबद्धता पूरी करने के लिये अधिक ऋण लेने के लिये विवश कर सकता है तथा देश ऋण के कुचक्र में फंस कर रह जाता है ।

2. यह दीर्घकालिक भुगतानों के सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव डालता है (It Exercises Adverse Effect on Long Term Balance of Payments):

कुछ अर्थशास्त्रियों ने सत्य ही कहा है कि विदेशी पूंजी दीर्घकालिक भुगतानों के सन्तुलन पर विपरीत प्रभाव डालती है । विदेशी ऋणों की वापसी किसी देश के लिये भुगतानों के सन्तुलन का संकट उत्पन्न कर सकती है ।

विदेशी ऋणों के अन्तरिम भुगतान और किश्त भुगतानों के सन्तुलन पर और अधिक दबाव डालती है तथा स्थिति को अधिक गम्भीर कर सकती है । ऐसी स्थिति में उन्हें पुराने ऋण चुकता करने के लिये नये ऋण लेने पड़ते हैं ।

3. बाहरी देशों पर निर्भर (Dependent on Foreign Countries):

विदेशी पूंजी का एक अन्य गम्भीर जोखिम यह है कि देश अन्य देशों पर निर्भर रह जाता है । ऐसी निर्भरता इसकी आर्थिक एवं राजनीतिक स्वतन्त्रता के लिये घातक सिद्ध हो सकती है । राजनीतिक डोर प्राय: विदेशी ऋणों के साथ जुड़ी रहती है जो विकासशील देशों को किसी-न-किसी शक्ति गुट से जुड़ने के लिये विवश करते हैं ।

इसके अतिरिक्त ऋणदाता देश की ओर से बड़े स्तर पर विदेशी पूंजी का स्थानान्तरण उसका ऋण प्राप्तकर्त्ता पर आर्थिक और राजनीतिक दबाव बढ़ा देता है । इस प्रकार विकासशील देशों के लिये अपनी तटस्थता बनाये रखना कठिन हो जाता है ।

4. सम्भावित घरेलू निवेश का कम कार्यक्षेत्र (Less Scope for Potential Domestic Investment):

यह आशंका रहती है कि विदेशी पूंजी देश में उपलब्ध अति लाभप्रद निवेश अवसरों का उपयोग करके घरेलू निवेश के कार्यक्षेत्र को संकीर्ण कर सकती है । यह अति सन्देहपूर्ण है कि यदि विदेशी पूंजी का मौलिक एवं भारी उद्योगों के विकास तक सीमित रखा जाता है तो यह अर्थव्यवस्था में प्रभुत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगती है तथा देश की आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियों में हस्तक्षेप करना आरम्भ कर सकती है । कभी-कभी विदेशी पूंजी के उतार-चढ़ाव घरेलू बाजार के लिये एक चुनौती बन जाते हैं तथा आर्थिक विकास में अड़चन डालते हैं ।

5. प्राकृतिक साधनों का स्वार्थी साध्यों के लिये शोषण (Exploitation of Natural Resources for Selfish Ends):

भूतकाल का उपनिवेशी इतिहास विशेष उदाहरण प्रस्तुत करता है जब विदेशी पूंजी का उपयोग विकसित देश के लाभ के लिये अल्पविकसित देश के विस्तृत साधनों के शोषण के उपकरण के रूप में किया गया है । विदेशी पूंजी का इस प्रकार का शोषण-पूर्ण प्रयोग विकासशील देशों का एक कड़वा इतिहास है ।

नर्कस ने इस सम्बन्ध में सत्य ही कहा है- “अल्प विकसित देशों में विदेशी पूंजी का प्रयोग कर्षण उद्योगों में किया नया है जो मुख्यत: उन्नत औद्योगिक देशों की ओर निर्यात के लिये कार्य करते हैं । फलत: भूतकाल में विदेशी निजी निवेशों के कारण पिछड़े हुये कृषि देशों में बहुत कम विकास हुआ ।”

6. संकट काल में न्यायसंगत नहीं (Not Suitable during Emergency):

आयात की गई पूंजी अल्प विकसित देशों के सामान्य हितों के लिये विशेषतया राष्ट्रीय संकट अथवा युद्धों के दौरान उच्च पक्षपाती प्रमाणित हो सकती है । यह उन प्रकरणों में सम्भव है जहां आधारभूत और मुख्य उद्योगों पर विदेशियों का एकाधिकार होता है ।