विदेशी पूंजी: आवश्यकता और सरकारी नीति | Read this article in Hindi to learn about:- 1. विदेशी पूंजी की आवश्यकता (Need for Foreign Capital) 2. विदेशी पूंजी के रूप (Forms of Foreign Capital) 3. विदेशी पूंजी की ओर से सरकार की नीति (Government Policy).
विदेशी पूंजी की आवश्यकता (Needs for Foreign Capital):
विदेशी पूजी को आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है । यह क्षमता की रचना और आय के उत्पादन के दोनों कार्य करती है । भारत जैसे विकासशील देश अपने आर्थिक विकास कार्यक्रमों की वित्तीय सहायता के लिये विदेशी पूजी पर अत्याधिक निर्भर होते हैं ।
विदेशी पूंजी की आवश्यकता का परीक्षण निम्नलिखित आवश्यकताओं से किया जा सकता है:
1. साधनों की दुर्लभता (Scarcity of Resources):
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विकास गतिविधियों को पूरा करने के लिये अल्प विकसित देशों के पास अपर्याप्त कोष होता है । अतः देश में पूंजी साधनों की दुर्लभता के कारण बहुत सी निवेश परियोजनाओं की सहायता के लिये विदेशी पूजी की अत्याधिक आवश्यकता होती है ।
2. प्रौद्योगिकीय अन्तर (The Technological Gap):
अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता की प्राप्ति के लिये उत्पादन की तकनीकों को नवीनतम बनाने हेतु विदेशी पूंजी की अत्याधिक आवश्यकता होती है । वास्तव में, प्रौद्योगिकीय अन्तराल भारत जैसे कम विकसित देशों में पाया जाता है ।
3. आरम्भिक जोखिम (Initial Risk):
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विकसित देश परियोजना के आरम्भिक स्तर पर घरेलू पूजी के बहाव के अभाव का अनुभवहीनता के कारण सामना करते हैं जिसमें उच्च जोखिम सम्मिलित होता है । विदेशी पूंजी, निवेश के आरम्भिक जोखिम को उठा कर, घरेलू पूंजी को वांछित दिशाओं की ओर निर्दिष्ट कर सकती है ।
4. निवेश का उच्च स्तर कायम करना (Sustaining a High Level of Investment):
क्योंकि अल्प-विकसित देश थोडे ही समय में देश का औद्योगीकरण करना चाहते हैं, इसलिये निवेश के स्तर में पर्याप्त वृद्धि आवश्यक हो जाती है । यह बचतों के उच्च स्तर द्वारा सम्भव किया जा सकता है । यद्यपि लोगों की निर्धनता के कारण, अल्प विकासित देशों में बचतें बहुत कम होती हैं । अतः निवेश और बचतों के बीच साधन अन्तराल उत्पन्न हो जाता है ।
5. प्राकृतिक साधनों का पूर्ण प्रयोग (Exploitation of Natural Resources):
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अल्प विकसित देशों में अत्यधिक खनिज साधन उपलब्ध होते हैं जिनको पूर्ण प्रयोग की प्रतीक्षा होती है । इन देशों के पास निपुनताओं का अभाव होता है । फलतः, अपनी खनिज सम्पदा से पूरा लाभ उठाने के लिये उन्हें विदेशी पूंजी निर्भर होना पड़ता है ।
6. आधारभूत संरचना का विकास (Development of Basic Infrastructure):
प्रायः देखा गया है कि स्वयं अपनी सामाजिक संरचना के निर्माण के लिये अल्प विकसित देशों के पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती । अतः इस के लिये उन्हें विदेशी पूजी की सहायता लेनी पड़ती है । बीसवीं शताब्दी के दूसरे IMB विश्व बैंक और उन्नत देशों की अनेक सरकारों ने अल्प विकसित देशों को पर्याप्त पूंजी उपलब्ध की है ताकि वे अपनी यातायात तथा संचार व्यवस्था, बिजली उत्पादन, बांध तथा सिंचाई सुविधाओं का विकास कर सकें ।
7. भुगतानों के सन्तुलन की स्थिति में सुधार (Improvement in Balance of Payment Position):
अपने आर्थिक विकास की आरम्भिक स्थिति में अल्प विकसित देशों को बडी मात्रा में आयतों की आवश्यकता होती है जैसे मशीनरी, पूंजी वस्तुएं, औद्योगिक कच्चा माल, पुर्जे और घटक आदि । परन्तु ये देश पर्याप्त मात्रा में निर्यात कर पाने की स्थिति में नहीं होते जिसके परिणामस्वरूप भुगतनों का संतुलन विपरीत हो जाता है ।
इससे विदेशी विनिमय के अर्जन और व्यय के बीच अन्तर उत्पन्न हो जाता है । विदेशी पूंजी इस समस्या का लघुकालिक समाधान प्रस्तुत करती है । यह महसूस किया जाता है कि निजी विदेशी निवेश अपने साथ प्रौद्योगिकी, बेहतर प्रबन्ध और संगठन, बेहतर विपणन और कभी-कभी सस्ता वित्त लाता है ।
सहायता का मुख्य स्रोत सहायता संघ के सदस्य मुख्यतः जापान, IDA (अन्तर्राष्ट्रीय विकास बैंक), IBRD (पुनर्निमाण और विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय बैंक), IFAD (कृषि विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय फंड) अन्य नन्तर्राष्ट्रीय संस्थान । इनमें से ज्यादातर ऋणों के रूप में और अनुदानों की छोटी रकम के रूप में होते हैं ।
तालिका 9.1 से देखा जा सकता है कि प्राधिकरण ऋण के रूप में US$ 4236.4 मिलियन और अनुदान US $ 291.0 मिलियन 1990-91 में था जो 2013-14 में US $ 9003.7 मिलियन और US $ 23.2 मिलियन हो गया । बाहरी सहायता का उपयोग 2013-14 में लगभग 65 प्रतिशत था ।
व्यावसायिक उधार (Commercial Borrowings):
तालिका 9.2 विभिन्न बाहरी और आंतरिक स्रोतों से सरकारी गैर सरकारी उधारों के सांख्यिकी को प्रस्तुत करती है ।
निजी विदेशी निवेश के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये गये हैं:
(i) विदेशी निवेश बहुत से देशों में निवेश योग्य साधनों में शुद्ध वृद्धि करता है तथा उनके वृद्धि दर को बढ़ाता है;
(ii) विदेशी निवेश, वृद्धि के ऐसे नमूने में परिणामित होता है जोकि अल्प विकसित देशों के दृष्टिकोण से अभीष्ट है क्योंकि नये उत्पाद प्रस्तुत किये जाते हैं और बेचे जाते हैं, नई रुचियों की रचना होती है और मेजबान अर्थव्यवस्था की विशेष आवश्यकताएं पूरी की जाती हैं; और
(iii) पूंजी का मुक्त बहाव सम्पूर्ण संसार के कल्याण और प्रत्येक व्यक्तिगत देश के कल्याण में सहायक है । विदेशी फर्मों के कार्य, विशेषतया आधुनिक बहुराष्ट्रीय फर्मों के कार्य देशों को आर्थिक एकीकरण और रुचियों, प्रवृत्तियों, विचारो तथा प्रौद्योगिकी के प्रेषण द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य के घेरे में एक-दूसरे के समीप लाते हैं ।
निःसन्देह, विदेशी पूंजी को विकास परियोजनाओं की वित्तीय सहायता का महत्वपूर्ण स्रोत माना जाता है । परन्तु विदेशी पूंजी को निवेश करते समय देश का ब्याज बचाने के प्रयत्न करने चाहियें । अतः विदेशी पूंजी विश्वसनीय शर्तों पर एवं प्रतिबन्धों के बिना ली जानी चाहिये ।
”इन्कारों के बावजूद, सत्य यह है कि समग्र विदेशी सहायता के साथ प्रतिबन्ध जुड़े होते हैं और प्रत्येक विदेशी सहायता सम्बन्ध में सौदेबजि संलिप्त होती है चाहे सहायता करने वाला और सहायता प्राप्त करने वाला पक्ष कितना भद्र क्यों नहीं ।”
विदेशी पूंजी के रूप (Forms of Foreign Capital):
विदेशी पूंजी को तीन रूपों में प्राप्त किया जा सकता है अर्थात् ऋणों, अनुदानों और विदेशी निवेश के रूप में ।
1. ऋण (Loans):
ऋण इन रूपों में उपलब्ध हैं:
(क) विभिन्न विकसित देशों से अन्तर-सरकार ऋण और
(ख) संस्थाओं अथवा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे IBRD, IMF आदि से ऋण ।
2. अनुदान (Grants):
अनुदानों की वापसी का कोई दायित्व नहीं होता तथा देश में विभिन्न कोषों और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा दिये जाते हैं ।
3. विदेशी निवेश (Foreign Investment):
विदेशी निवेश प्रायः निजी विदेशी भागीदारी के रूप में कुछ विकास क्षेत्रों में इन रूपों में प्रवेश करता है ।
(क) सीधा उद्यमीय निवेश और
(ख) विदेशी सहयोग ।
हाल ही के वर्षों में बाहरी पूंजी का बहाव (Flow of External Capital in Recent Years):
इस समय बाहरी वित्तीय बहाव में बाहरी सहायता और बाहरी ऋण सम्मिलित हैं । इसमें अधिकारिक बहुपक्षीय तथा द्वि-पक्षीय स्रोतों से तीव्र वितरण वाली सहायता भी सम्मिलित है । आप्रवासी भारतीय लोगों उनकी निर्गमित संस्थाओं से नई योजनाओं द्वारा कोष आकर्षित किया जाता है और विदेशी बैंक भी इस सम्बन्ध में सहायक होते हैं ।
वर्ष 2001-02 में बाहरी सहायता के अन्तर्गत कुछ अन्तर्वाह (Inflow) लगभग 3.31 बिलियन यू. एस. डालर था, जबकि 1999-2000 में इसकी तुलना में यह 2.93 बिलियन यू. एस. डालर था । वर्ष 2001-02 में शुद्ध अन्तर्वाह विशेष रूप में कम था (0.73 बिलियन यू.एस. डालर प्रतिवर्ष) ।
(i) अप्रवासी भारतीयों द्वारा जमा (NRI Deposits):
आप्रवासी भारतीयों (NRI) द्वारा जमा राशि भारत में बाहरी वित्त का एक अन्य महत्वपूर्ण स्रोत है । आप्रवासी भारतीयों की जमा राशि का बकाया संचय जो वर्ष 1985-86 में $ 4.59 बिलियन (यू. एस.) का 1990-91 में 10.37 बिलियन तक तथा फिर 2000-01 में $20.4 बिलियन तक बढ़ गया । परन्तु आप्रवासी भारतीयों की जमा राशि का अन्तर्वाह धीरे-धीरे 2013 में $10.8 मिलियन बढ गया ।
रिसजैन्ट इण्डिया बॉण्ड (RIB):
अप्रवासी भारतीयों और विदेशों में स्थित निगमित संस्थाओं (OCBs) की ओर से विदेशी आप्रवासी पूजी के बहाव को प्रोत्साहित करने के लिये 1997-98 में रेजिडेन्ट बॉण्ड स्कीम आरम्भ की गई । योजना अप्रवासी भारतीयों (ओ. बी. सीज) और उनकी ओर से न्यसीय रूप में काम करने वाले बैंको के लिये खुली थी । योजना 5 अगस्त, 1998 को आरम्भ की गई और अगस्त 24, 1998 को बन्द की गई ।
आर. आई. बी. (RIB) अनुसार योजना ने $4.2 बिलियन की राशि एकत्रित की । इन पंचवर्षीय बॉण्डों ब्याज दर यू. एस. डॉलर के लिये 7.5%, पाउम्ड स्टर्लींग और डच मार्क के लिये 6.25 प्रतिशत थी । आर. आई. बी. (RIBs) के अन्य लक्षणों में भारतवासियों के साथ संयुक्त धारण, भारतवासियों को उपहार के रूप में देने की आज्ञा, सरल स्थानान्तरण, ऋण की सुविधा, समय के पूर्व कैश करने की सुविधा और कर-लाभ आदि सम्मिलित हैं ।
विदेशी पूंजी की ओर से सरकार की नीति (Government Policy towards Foreign Capital):
स्वतन्त्रता तक भारत ने विदेशी पूजी की ओर केवल वही नीतियां अपनायीं जो विदेशी कम्पनियों की एक पक्षीय वृद्धि के अनुकूल थी ।
स्वतन्त्रता के पश्चात, भारत की विदेशी पूंजी नीतियां, दो कारकों द्वारा सतर्क थी:
(क) भारतीय अर्थव्यवस्था पर ब्रिटिश वाणिज्य नीति के प्रभाव,
(ख) देश के आर्थिक विकास की आवश्यकता ।
भारत सरकार ने औद्योगिक नीति के प्रस्ताव 1948 में विदेशी पूंजी और उद्यमों की आवश्यकता को यह स्वीकार विकया गया कि विदेशी पूजा वस्तुएं हमारे विकास प्रयत्नों के लिये घरेलू बचतों को बढाती हैं ।
परंतु दुर्भाग्य से विदेशी पूंजीपतियों ने इस कथन के यर्थाथ भाव को गलत समझा । वे भयभीत हो गये फलतः पूजी वस्तुओं का आयात रुक गया । परिणामस्वरूप प्रधानमन्त्री ने वर्ष 1949 में संविधान सभा में आश्वासन दिया ।
1. विदेशी एवं भारतीय पूंजी में कोई भेदभाव नहीं (No Discrimination between Foreign and Indian Capital):
भारत सरकार सामान्य औद्योगिक नीति के कार्यन्वयन में भारतीय एवं विदेशी पूंजी उद्यमों में भेदभाव नहीं करेगा । इसका अर्थ है कि सरकार विदेशी उद्यमों पर ऐसे कोई प्रतिबन्ध नहीं लगायेगी जो इसी प्रकार के भारतीय उद्यमों पर लागू नहीं होते ।
2. पूर्ण-सुविधाएं और अवसर (Full Facilities and Opportunities):
सरकार सभी न्यायसंगत सुविधाएं और अवसर उपलब्ध करेगी जिससे किसी नियन्त्रण बिना लाभ कमाये जा सकें ।
3. क्षतिपूर्ति की गारंटी (Guarantee of Compensation):
राष्ट्रीयकरण की स्थिति में विदेशी उद्यमों को उचित एवं न्यायसंगत क्षतिपूर्ति की जायेगी ।
यद्यपि प्रधानमन्त्री ने कहा कि किसी उद्यम का स्वामित्व एवं प्रभावी नियन्त्रण भारतीय हाथों में रहना चाहिये । उनका विचार था कि इस सम्बन्ध में कोई कड़े नियम नहीं होंगे । 2 जून, 1950 को की गई एक घोषणा में सरकार ने कहा की विदेशी पूंजीपति उन द्वारा देश में किए गये विदेशी निवेश को एक जनवरी 1950 के पश्चात जमा किया जाता है । इसके अतिरिक्त वह लाभ का पुनर्निवेश जितना चाहे कर सकते हैं ।
संशोधित उद्योगिक नीति प्रस्ताव 1956 ने देश में विदेशी पूंजी की भूमिका की सराहना की । फलतः, दूसरी पंचवर्षीय योजना ने औद्योगिकीकरण के भारी कार्यक्रमों के कारण विदेशी सहयोग समझौतों को बहुत प्रोत्साहित किया ।
भारत सरकार की नीति पर टिप्पणी करते हुये टी. टी. कृष्णमचारी ने कहा, ”सरकार के पास यह सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त अधिकार है हितों के अनुकूल हो और वह उपभोक्ताओं से उचित व्यवहार करें । यह अधिकार विदेशी फर्मों पर भी उसी तत्परता से लागू होते हैं जितने कि भारतीय फमों पर । किसी को समाज विरोधी नीतियाँ अपनाने की अथवा भारतीय उपभोक्ता के शोषण की आज्ञा नहीं दी जा सकती । इन सुरक्षा उपायों के होते हुये जो भेदभावपूर्ण नहीं हैं और प्रवेश के समय लगाई विशेष शर्तों के बावजूद हम विदेशी कम्पनियों से न्यायसंगत तथा समान व्यवहार करते हैं ।”
इसके अतिरिक्त, उदारीकरण की ओर प्रवृत्तियां अधिक दृढ़ हो गई तथा विदेशी निवेश की भूमिका का महत्व बढ़ गया । सरकार ने अनेक प्रकरणों में बहुसंख्यक के स्वामित्व से सम्बन्धित नीति को ढीला कर दिया । इसी प्रकार पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज ने आयात कारखानों और ज्ञान (जानकारी) को ध्यान में रखते म विदेशी बक निवेश को वांछनीय नहीं कहा है ।
सरकार का विचार था कि विदेशी निवेश की आज्ञा दी जाये जहां आवश्यक प्रौद्योगिकी में सुधारों से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखना आवश्यक के भीतर आगतें सरलता से उपलब्ध नहीं हैं ।
विदेशी पूंजी के प्रति सरकार की वर्तमान नीति के मुख्य बिन्दुओं को नीचे संक्षिप्त किया गया है:
1. विदेशी पूंजी की आज्ञा केवल उन्हीं उद्योगों में है जहां भारतीय पूंजी दुर्लभ और सीमित है ।
2. विदेशी पूजी का केवल उन स्थितियों में स्वागत किया जाता है जहां यह तकनीकी ज्ञान और प्रबन्धकीय निपुणताएँ लाती है जो देश में उपलब्ध नहीं हैं ।
3. विदेशी पूंजी की प्रायः बैंकिंग, वित्तीय संस्थाओं, व्यापारिक गतिविधियों और बागान में इजाजत नहीं होगी ।
4. उन उद्योगों में विदेशी पूंजी की इजाजत नहीं होती जो मूलभूत और युक्तिसंगत महत्व रखते हैं और जिन्हें सरकार से सहायता प्राप्त है ।
5. विदेशी पूंजी का निवेश केवल उन्हीं उद्योगों में किया जाये जहां उत्पादन बढाने की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं ।
6. विदेशी पूंजी का प्रयोग केवल निर्यात बढ़ाने और आयातों के प्रतिस्थापन के लिये किया जाये ।
7. विदेशी पूजी निवेश की इजाजत वहाँ है जहां मुख्य हित स्वामित्व का है तथा प्रभावी नियन्त्रण भारतीय हाथों में रहेगा ।
8. सरकार की कर नीतियां ऐसी होनी चाहिये जो विदेशी पूंजी तथा नई प्रौद्योगिकी को आकर्षित कर सकें ।
9. विदेशी पूंजी निवेश और तकनीकी सहयोग भारतीय योजना के समग्र ढांचे के अनुकूल होना चाहिये ।
10. कुछ उद्योगों में जहां विदेशी प्रबन्धकों और तकनीशियनों को काम करने की आज्ञा है वह केवल इस लिये है क्योंकि भारतीय निपुणता और अनुभव सरलता से उपलब्ध नहीं है वहां वांछित प्रशिक्षण और अनुभव जितनी तीव्रता से सम्भव हो उपलब्ध किया जाये ।
11. कुछ आवश्यक उपभोक्ता वस्तुओं और सेवा उद्योगों में विदेशी निवेश को हतोत्साहित करना घोषित नीति है ।
12. विदेशी पूंजी का निवेश उन तकनीकी सहयोग समझौतों में किया जाये जो, निर्यात प्रवृत्तिक उद्योग उपलब्ध कर सकें ।
13. सरकार ने आप्रवासी भारतीयों द्वारा निवेश को प्रोत्साहित करने के लिये अनेक प्रोत्साहनों की घोषणा की है । दी गई रियायतें हैं- कराधान, विद्युत पूर्ति का वरीयतापूर्ण नियतन, उच्च निवेश सीमा और भारतीय कम्पनियों के शेयर खरीदने की इजाजत ।