नि: शुल्क व्यापार नीति और आर्थिक विकास | Read this article in Hindi to learn about the features and advantages of free trade policy .

व्यापार की वह नीति जिसके अर्न्तगत विभिन्न देशों के मध्य वस्तु व सेवाओं के विनिमय पर कोई बाधा नहीं होती सामान्यतः स्वतन्त्र व्यापार की नीति कहलाती है ।

स्वतन्त्र व्यापार की नीति का विकास वणिकवादी नीति की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ । एडम स्मिथ के अनुसार स्वतन्त्र व्यापार नीति का सम्बन्ध ऐसी वाणिज्यिक नीति से है जो घरेलू एवं विदेशी वस्तुओं के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करती ।

इसके अधीन न तो घरेलू वस्तुओं को किसी प्रकार की छूट मिलती है और न ही विदेशी वस्तुओं पर कोई अवांछित भार डाला जाता है । स्पष्ट है कि स्वतंत्र व्यापार नीति बिना किसी कृत्रिम बाधा को उत्पन्न किए वस्तु व सेवाओं के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को स्वीकृति प्रदान करती है ।

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स्वतंत्र व्यापार पद्धति में एक न्यून सीमा तक भी राज्य के हस्तक्षेप को सामान्यतः स्वीकार किया जा सकता । व्यवहार में स्वतन्त्र व्यापार नीति से यह आशय नहीं लिया जाना चाहिए कि इसके अधीन आयात या निर्यातों पर किसी प्रकार के प्रतिबन्ध का अभाव होता है ।

स्वतन्त्र व्यापार (Features of Free Trade Policy):

सम्भव है कि स्वतन्त्र व्यापार नीति के अधीन किसी देश की सरकार आगम प्राप्त करने के लिए आयात ड्‌यूटी लगाए, परन्तु फिर भी इसका उद्देश्य घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान करना नहीं होता ।

(i) प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा समर्थन:

स्वतन्त्र व्यापार नीति का समर्थन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया । इससे पूर्व वणिकवादी मानकर चलते थे कि किसी राष्ट्र की शक्ति का आधार बहुमूल्य धातुओं की प्राप्ति है । जिन देशों के पास बहुमूल्य धातुएँ उपलब्ध नहीं है तो वह इन धातुओं को विदेशी व्यापार में अनुकूल व्यापार सन्तुलन रखते हुए प्राप्त कर सकते है ।

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अठारहवीं शताब्दी के अन्त में वणिकवादी के विरुद्ध एक क्रिया होते हुए दिखाई दी जो दृश्य व्यापार में अतिरेक प्राप्त करने के लिए सरकारी हस्तक्षेप का समर्थन करती थी ।

इस क्रिया ने नए आर्थिक उदरवाद एवं अबन्ध नीति के सिद्धान्त पर आस्था प्रकट की । प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति का समर्थन अर्न्तराष्ट्रीय व्यापार की विशिष्ट आर्थिक व्याख्या के आधार पर नहीं किया बल्कि उसकी व्याख्या ऐसे सामान्य विश्वास पर आधारित थी जिसे रूम स्मिथ ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति पर आधारित करते हुए कहा कि यह नीति श्रम विभाजन को प्रोत्साहन देती है, क्योंकि यह प्रत्येक देश को उन्हीं वस्तुओं के उत्पादन की प्रेरणा देता है जिन्हें वह कम लागत पर उत्पन्न कर सकता है ।

(ii) तुलनात्मक लागत सिद्धान्त पर आधारित:

स्वतन्त्र व्यापार नीति वस्तुत: अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के तुलनात्मक लागत सिद्धान्त पर आधारित है । यदि किसी विशेष लाभ की प्राप्ति के उद्देश्य से कुछ राष्ट्र परस्पर व्यापार करना प्रारम्भ कर दें तो इस स्वतन्त्र आदान-प्रदान में किसी प्रकार का हस्तक्षेप उन्हें इस लाभ से वंचित कर देगा ।

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इस प्रकार स्वतन्त्र व्यापार का सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रम विभाजन के सिद्धान्त पर विस्तार मात्र है । स्वतन्त्र व्यापार नीति के अनुसार प्रत्येक देश अपने उन उद्योगों को उन्नत कर सकता है जो तुलनात्मक रूप से कम लागत पर वस्तु का उत्पादन कर सकने में समर्थ है । इस प्रकार स्वतन्त्र व्यापार तुलनात्मक लागत सिद्धान्त की एक स्वाभाविक शर्त है ।

स्वतन्त्र व्यापार की नीति यह मानकर चलती है कि प्रत्येक देश एवं सम्पूर्ण विश्व में अधिकतम उत्पादन तभी प्राप्त किया जा सकता है जब उत्पादन की लागत न्यूनतम हो अर्थात् प्रत्येक देश उस वस्तु के उत्पादन में विशिष्टता प्राप्त करता है जिसकी लागत न्यूनतम हो, उन्हें निर्यात किया बाएगा दूसरी ओर देश उन सभी वस्तुओं का आयात करता है जिनको अन्य देश न्यूनतम लागत पर उत्पादित करते हैं ।

यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि सरकारी हस्तक्षेप के अभाव में श्रम व पूंजी की इकाइयाँ अपनी पूर्ण गतिशीलता के कारण उन उद्योगों में लगेंगी वहाँ उनसे सर्वाधिक प्रतिफल प्राप्त होता है । अतः ऐसी दशा में जब निर्यात के बदले अन्य देशों से आयात की जाने वाली वस्तुएँ घरेलू लागत से कम पर प्राप्त हों तो दीर्घकाल में प्रत्येक देश को लाभ की प्राप्ति होती है ।

(iii) स्वतन्त्र व्यापार नीति का उत्थान एवं पतन:

वणिकवाद के सिद्धान्त के विरुद्ध प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा स्वतन्त्र व्यापार का प्रसार एवं समर्थन किया । दृष्टव्य है कि स्वतंत्र व्यापार नीति को सबसे अधिक समय तक इंगलैण्ड ने अपनाया । 1914 से पूर्व तक न्यूनतम प्रतिबन्ध व बाधाओं के साथ अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होता रहा । 1932 में इंग्लैण्ड ने स्वतन्त्र व्यापार की नीति को त्याग दिया ।

प्रथम विश्व युद्ध के उपरान्त से आर्थिक राष्ट्रवाद अपने उच्च शिखर में पहुँच गया था । आत्मनिर्भरता की भावना व राष्ट्रवाद के विकास की राजनीतिक लहर ने स्वतन्त्र व्यापार के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया । 1929-35 की महामन्दी में विश्व व्यापार अपने निम्नतम परिमाण में पहुँच चुका था ।

यह अनुभव किया गया कि महामन्दी में पड़ोसी को भिखारी बनाने की नीति से प्रत्येक देश को हानि ही हुई है । युद्ध की समय अवधि में संरक्षण की नीति का आश्रय लेने से न केवल आर्थिक सजाति का अनुभव किया गया वरन् अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अशान्ति भी हुई । युद्ध के उपरान्त व्यापार पर बढ़ते हुए प्रतिबन्धों को दूर करने के प्रबल प्रयास किए गए ।

(iv) स्वतन्त्र व्यापार नीति का मूल्यांकन:

स्वतन्त्र व्यापार में विश्वास प्रकट करने वाले देशों में अमेरिका मुख्य था जिसका मत था कि स्वतन्त्र व्यापार नीति पर चलते हुए आर्थिक समृद्धि एवं अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को प्राप्त करना सम्भव बनता है । 1934 से अमेरिका ने स्वतत्र व्यापार प्रणाली को लागू करने के प्रयास आरम्भ किये ।

सबसे बडी दुविधा यह थी कि युद्ध के बाद से घरेलू नीतियों, व्यापार के सहज प्रवाह में बाधक बन रहीं थी । घरेलू नीतियों व अन्तर्राष्ट्रीय प्रबन्ध के मध्य होने वाले विवाद की छाया हैवाना चार्टर में दिखाई दी । हैवाना चार्टर युद्ध के पश्चात् की स्थितियों से निबटने के लिए बनायी गयी योजना अन्तर्राष्ट्रीय रूप से प्रबन्धित आर्थिक प्रणाली का एक महत्वपूर्ण भाग था ।

1945 में संयुक्त राम ने ऐसी योजना प्रस्तुत की जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के संरक्षणों को कम किए जाने से सम्बन्धित प्रतिबन्ध, अनुदान, राज्य व्यापार, अन्तर्राष्ट्रीय वस्तु समझोतों को भी ध्यान में रखा गया तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार के क्षेत्र में एक संस्था अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन के लिए नियम पारित किए गए ।

1946 में सयुक्त राष्ट्र ने एक नई व्यापार व्यवस्था के लिए कान्फ्रेंस की । किन्तु सभी प्रयासों के बावजूद स्वतंत्र व्यापार की नीति को प्रस्तावित करता हैवाना चार्टर किसी को सन्तुष्ट नहीं कर पाया ।

संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार की प्रणाली को स्थापित करने का प्रयास 1947 में किया गया जिसे प्रशुल्क एवं व्यापार पर सामान्य समझौता या GATT कहा गया तथा जो स्वतन्त्र व्यापार की नीति का समर्थन करता था । गैट के द्वारा स्वतत्र व्यापार की नीति की स्थापना के पीछे गैर विभेद का सिद्धान्त था । गैट ने एक अर्न्तराष्ट्रीय वाणिज्यिक कोड की स्थापना की जिसके अधीन राशिपतन एवं अनुदानों हेतु नियम बनाए गए जो मात्रात्मक प्रतिबन्धों के प्रयोग के निवारण से सम्बन्धित रहे ।

स्वतन्त्र व्यापार के लाभ (Advantages of Free Trade):

स्वतन्त्र व्यापार के पक्ष में निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखा जाता है:

(1) स्वतन्त्र व्यापार द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ ।

(2) सामाजिक उत्पादन का अधिकतम होना ।

(3) सस्ते आयात ।

(4) प्रतिस्पर्द्धा की उपस्थिति ।

(5) करेन्सियों की बहुमुखी परिवर्तनशीलता ।

(6) पारस्परिक योग एव सद्‌भावना ।

(7) साधनों का अनुकूलतम प्रयोग ।

(8) कम विकसित देशों का आर्थिक विकास ।

(1) स्वतन्त्र व्यापार द्वारा प्राप्त होने वाले लाभ:

स्वतंत्र व्यापार द्वारा निम्न लाभों की सम्भावना बढती है:

(अ) स्वतन्त्र व्यापार में साधनों का अनुकूलतम प्रयोग होता है । साधनों के अनुकूलतम प्रयोग से अनुकूलतम उत्पादन का स्तर प्राप्त किया जाना सम्भव होता है । अनुकूलतम उत्पादन से अभिप्राय न्यूनतम लागत पर होने वाले अधिकतम उत्पादन से है । न्यूनतम लागत पर उत्पादन होने से कार्य क्षमता में वृद्धि सम्भव होती है ।

(आ) स्वतन्त्र व्यापार के अन्तर्गत उत्पादन विश्व बाजार की आवश्यकताओं एवं विश्व माँग के आधार पर किया जाता है ।

(इ) स्वतन्त्र बाजार में स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धा होती है । स्वतन्त्र व्यापार के द्वारा बहुमुखी व्यापार की स्थापना होती है । जब सभी देश अपनी योग्यता एवं सुविधा के आधार पर उत्पादन एवं व्यापार करते है तब एकाधिकार की स्थिति उत्पन्न नहीं होती ।

(ई) स्वतन्त्र व्यापार से अर्थव्यवस्था चक्रीय परिवर्तनों से बच सकती है ।

(उ) स्वतन्त्र व्यापार की नीति उपभोक्ताओं के हितों की सुरक्षा के साथ सभी अर्थव्यवस्था के हितों की सुरवा करती है, फलस्वरूप ऐसा वातावरण निर्मित होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को प्रोत्साहित करता है ।

(ऊ) स्वतन्त्र व्यापार के द्वारा अर्थव्यवस्था की अन्तर्संरचना में परिवर्तन सम्भव होते है । दूसरे शब्दों में बाजार के आकार में परिवर्तन होता है । विनियोग में वृद्धि से, श्रम विभाजन और उत्पादन की मितव्ययिताएँ प्राप्त होती हैं जिनके फलस्वरूप विकास होता है ।

(ए) स्वतंत्र व्यापार एक ऐसी स्थिति को प्रस्तुत करता है जिसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना कर विश्व कल्याण में वृद्धि की जानी सम्भव है ।

(2) सामाजिक उत्पादन का अधिकतम होना:

एडम स्मिथ ने स्वतन्त्र व्यापार का समर्थन इस आधार पर किया कि यह श्रम विभाजन को प्रोत्साहित करता है एवं आय की वृद्धि में सहायक होता है । इस नीति के अधीन प्रत्येक देश उन्हीं वस्तुओं का उत्पादन करने का प्रयास करता है जिसमें उसे तुलनात्मक लाभ हो ।

अतः वह विशिष्ट वस्तुओं के उत्पादन में विशिष्टिकरण प्राप्त कर अधिकतम लाभ प्राप्त करने वाली वस्तुओं का उत्पादन करना चाहता है । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह देश में उपलब्ध संसाधनों का आवण्टन उन क्षेत्रों की ओर करता है जिनसे अधिक प्रतिफल प्राप्त हों । इस नीति के अधीन देश में उत्पादन के साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग होना सम्भव है ।

(3) पैरिटो अनुकूलता दशा की प्राप्ति:

(i) जब विभिन्न क्रियाओं के मध्य साधनों का आवण्टन एवं विभिन्न वस्तुओं का उपभोक्ता के मध्य आवण्टन इस प्रकार किया जाये कि अधिकतम कल्याण की प्राप्ति की जा सके तो पेरिटी अनुकूलतम दशाओं की प्राप्ति सम्भव है ।

जब विभिन्न देशों के मध्य साधनों की गतिशीलता पूर्ण रूप से विद्यमान होती है तथा स्वतन्त्र व्यापार होता है तो उत्पादन के साधनों की लागत सभी उद्योगों में समान होगी एवं विभिन्न उद्योगों के मध्य साधनों का अनुकूलतम आवण्टन होगा । इस प्रकार स्वतन्त्र व्यापार अधिकतम कल्याण की दशा को प्रकट करता है ।

स्वतन्त्र व्यापार के अधीन वस्तु व सेवाओं के मूल्य उनकी सीमान्त लागतों के बराबर होने की प्रवृति रखते है । यह दशा अनुकूलतम उत्पादन को अभिव्यक्त करती है, अतः प्रत्येक देश की आर्थिक क्रियाओं का उद्देश्य अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति होता है ।

(ii) अदृश्य हाथ की उपस्थिति:

सामाजिक उत्पादन के अधिकतम होने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि स्वतन्त्र व्यापार के अधीन एडम स्मिथ द्वारा वर्णित अदृश्य हाथ क्रियाशील होता है जिससे श्रम विभाजन और विशिष्टिकिरण के लाभ प्राप्त किए जाने सम्भव बनते है । इस प्रकार प्रत्येक देश अधिकतम उत्पादन की ओर प्रेरित होता है ।

(iii) कीमत संयंत्र की कार्यशीलता:

स्वतन्त्र व्यापार की दशा में कीमत संयंत्र कार्य करता है और यह सम्भावना होती है कि प्रत्येक देश उस वक्ष व सेवा के उत्पादन में विशिष्टीकरण प्राप्त करेगा जिसे अन्य देशों की तुलना में सस्ता उत्पादित किया जा सकता है ।

इस प्रकार उन वस्तुओं का आयात किया जाएगा जिन्हें सापेक्षिक रूप से देश में महँगा उत्पादित किया जा रहा है । इस प्रकार स्वतन्त्र व्यापार की नीति को अपना रहे देश की वास्तविक आय में वृद्धि होती है ।

(iv) वस्तु कीमतों में समानता:

पूर्ण प्रतियोगिता की मान्यता एवं यातायात लागतों की अनुपस्थिति की दशा में स्वतन्त्र व्यापार, विभिन्न क्षेत्रों के मध्य वस्तु की कीमतों में समानता रखने की प्रवृति उत्पन्न करता है । इस प्रकार व्यापार से प्राप्त होने वाले और अधिक लाभ मिल पाने सम्भव नहीं होते ।

इसके साथ ही विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतें जब उनकी सीमान्त लागतों के बराबर हो जाती है तब अनुकूलतम उत्पादन प्राप्त होता है । चूंकि उत्पादन के साधन प्रत्येक उद्योग में समान पुरस्कार प्राप्त करते हैं, भले ही उनकी उत्पादन क्षमताओं में अन्तर हो, तब ऐसी दशा में साधनों का अनुकूलतम आवण्टन प्राप्त होता है ।

(v) साधनों का समुचित प्रयोग:

देश को अधिकतम लाभ प्राप्त होने एवं श्रेष्ठतम वस्तुओं का उत्पादन करने के प्रयत्न में देश अपने साधनों का समुचित प्रयोग करता है । यह उत्पादन के साधनों के श्रेष्ठतम उपयोग की दशा होती है ।

सामाजिक उत्पत्ति का अधिकतम होना इस बात पर निर्भर करता है कि उपलब्ध साधनों को अधिकाधिक विवेक सम्मत प्रयोगों की ओर आवण्टित किया जाये । श्रम विभाजन द्वारा कार्य कुशलता की वृद्धि, समय की बचत व यन्त्रों के प्रयोग से प्रति श्रमिक उत्पादकता में वृद्धि सम्भव होती है ।

इसके साथ ही प्रतिस्पर्द्धात्मक स्थितियाँ अकुशल उत्पादक को उत्पादन क्षेत्र से बाहर कर देती है और अत्यधिक कुशल फ़र्में ही उत्पादन क्षेत्र में रह जाती है । प्रो॰ हैबरलर के अनुसार सामाजिक उत्पादकता का अधिकतम होना स्वतन्त्र व्यापार के पक्ष का मुख्य आधार बनता है ।

यदि हम यह मान्यता लें कि सामाजिक उत्पत्ति का अधिकतम होना एक वांछनीय उद्देश्य है तो हम यह पाएँगे कि स्वतन्त्र व्यापार के परिणामस्वरूप सामाजिक उत्पादन अधिकतम सीमा तक बढ़ जाता है । अतः यही स्वतन्त्र व्यापार के समर्थन का आधार है जो विज्ञान सम्मत है, भले ही इसके समर्थन में अन्य तर्क क्यों न प्रस्तुत किये जायें ।

(4) सस्ते आयात:

जब उत्पादन के साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग होता है तो ऐसी दशा में उत्पादन की कम कुशल एवं अनार्थिक इकाइयाँ क्रमशः समाज होती है । उत्पादन की केवल वह इकाइयाँ ही सक्रिय रहती हैं जो कम लागत पर श्रेष्ठ वस्तु बनाने में समर्थ हों । इसके परिणामस्वरूप उत्पादन का स्तर सुधरता जाता है ।

श्रम विभाजन के द्वारा विशिष्टीकरण को प्रोत्साहित करके स्वतन्त्र व्यापार सम्पूर्ण विश्व में वस्तुओं की लागत घटाने में समर्थ बनता है । इस प्रकार स्वतन्त्र व्यापार से आयायित वस्तुओं के मूल्य में कमी हो जाती है और उपभोक्ता सुविधापूर्वक इन वस्तुओं को सापेक्षत कम कीमत पर प्राप्त कर लेता है ।

परन्तु यह तर्क केवल उपभोक्ता के पक्ष को ही ध्यान में रखता है तथा रोजगार और उत्पादक के हित चिन्तन सम्बन्धी पक्षों को भुला देता है । स्वतन्त्र व्यापार के समर्थक यह स्पष्टीकरण देते हैं कि जब वस्तु व सेवाओं की कीमतें गिरती हैं तो उससे माँग और रोजगार में वृद्धि होती है ।

इसके साथ ही साथ उत्पादन के साधन अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में भी गतिशील होने लगते हैं जिससे साधनों के अधिक पुरस्कार प्राप्त होंगे । फलतः उत्पादन एवं आय की भी वृद्धि होगी ।

इस प्रकार स्वतन्त्र व्यापार की नीति वस्तु व सेवाओं के मूल्य में कमी करने के साथ माँग में भी अभिवृद्धि करती है । जिससे रोजगार की दशाएँ प्रभावित होती है और उत्पादन के साधनों की गतिशीलता में वृद्धि होती है ।

 

(5) प्रतिस्पर्द्धा:

स्वतन्त्र व्यापार एकाधिकारी प्रवृतियों यथा एकाधिकारात्मक शोषण से उपभोक्ता को मुक्त रखता है । घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पडता है जिससे घरेलू स्तर पर एकाधिकार की प्रवृतियाँ उभर नहीं पातीं । हैबरलर के अनुसार इस तर्क पर दो बिन्दुओं से विचार करना आवश्यक है ।

पहला बिन्दु है सामाजिक उत्पादकता की वृद्धि का एवं दूसरा वितरण पर पढ़ने वाले प्रभाव का । स्वतंत्र व्यापक के अधीन प्रत्येक देश उत्पादन का कुछ शाखाओं में विशिष्टीकरण प्राप्त करता है इसलिए उत्पत्ति का अनुकूलतम आकार प्राप्त किया जाना सम्भव होता है व लागतें कम होती है ।

अब यदि व्यापार पर प्रतिबन्ध लगाए जाएँ तो देश को अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन के लाभों से वंचित रहना पडेगा । इसके साथ ही प्रतिबन्धों की आड में एकाधिकारात्मक प्रवृतियाँ उपजती हैं । अतः स्पष्ट है कि स्वतन्त्र व्यापार से परस्पर लाभदायक अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन पनपता है जिससे समस्त देशों की राष्ट्रीय उत्पत्ति में वृद्धि होती है ।

परन्तु यह भी देखा गया है कि स्वतन्त्र व्यापार के अधीन भी अन्तर्राष्ट्रीय या स्थानीय एकाधिकार स्थापित हो जाते है जिनसे उत्पादन में कमी होती है तथा मूल्यों में वृद्धि की प्रवृति देखी जाती है । ऐसी स्थिति में उपभोक्ताओं का शोषण होता है ।

(6) करेन्सियों की बहुमुखी परिवर्तनशीलता:

करेन्तियों की बहुमुखी परिवर्तनशीलता स्वतन्त्र व्यापार की नीति में ही सम्भव होती है । स्वतन्त्र व्यापार की व्यवस्था पूर्ण रूप से स्वर्णमान प्रणाली के अनुकूल है, क्योंकि इसके अधीन विभिन्न मुद्राओं का क्रय विक्रय किया जा सकता है । राष्ट्रीय करेन्सियों की बहुमुखी परिवर्तनशीलता आवश्यक रूप से स्वतन्त्र व्यापार की नीति से सम्बद्ध है । 1930 तक स्वतन्त्र व्यापार की प्रणाली कार्यशील नहीं रह पाई जिसके कारण स्वर्णमान का पतन हो गया ।

(7) पारस्परिक सहयोग एवं सदभावना:

स्वतंत्र व्यापार की प्रणाली विश्व के सभी देशों की अर्न्तनिर्भरता एवं पारस्परिक विशिष्ट संपर्कों के विकसित होने में सहायक बनता है । प्रतिबन्धात्मक नीतियों के अपनाने में पृथक-पृथक आर्थिक गुट बनते है । प्रत्येक गुट विश्व के व्यापार हितों की उपेक्षा कर अपने स्वहित को ध्यान में रखता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न राष्ट्रों के मध्य घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित नहीं हो पाते । स्वतन्त्र व्यापार प्रणाली द्वारा विश्व के सभी देशों के आर्थिक हितों की सुरक्षा सम्भव बनती है ।

(8) साधनों का अनुकूलतम उपयोग:

स्वतन्त्र व्यापार दारा एक ओर आर्थिक उत्पादन का अधिकतम होना सम्भव बनता है तो दूसरी ओर उपभोक्ता के लिए वस्तुओं का कुशल आवंटन सम्भव बनता है । यह लाभ तब प्राप्त होते हैं जब उत्पादन के साधनों या उपयोग वस्तुओं का पुर्नआवप्टन हो ।

साधनों का कुशलतम उपयोग होने से स्थिति में एक फर्म या उद्योग अधिक लाभ प्राप्त कर पाता है । विदेशी प्रतिस्पर्द्धा के कारण उत्पादक, उत्पादन के नवीनतम तरीकों का प्रयोग करता है और आधुनिक प्रबन्ध का सुगठित संगठन की विधियों को लागू करता है । व्यापार की वृद्धि होने पर बाजार का आकार भी बढता है जिससे आर्थिक मितव्यायताएँ प्राप्त होती है ।

इस प्रकार विदेशी प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि से प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है । साधनों का अनुकूलतम उपयोग होना स्वतन्त्र व्यापार के पुर्नवितरण लाभों से भी सम्बन्धित है जो उत्पादकता में होने वाली वृद्धि एवं सुधरे हुए उपभोग द्वारा प्राप्त होने वाले लाभों को बतलाता है ।

कम विकसित देशों का आर्थिक विकास:

स्वतन्त्र व्यापार कम विकसित देशों के आर्थिक विकास में सहायक बनता है । प्रो॰ हैवरलर के अनुसार स्वतन्त्र व्यापार निम्न स्थितियों में कम विकसित देशों के विकास को प्रोत्साहित करता है ।

(1) स्वतन्त्र व्यापार द्वारा कम विकसित देशों को यह सुविधा मिलती है कि वह पूंजीगत वस्तुओं, मशीनरी और आवश्यक कच्चे पदार्थों का आयात अपनी विकास योजनाओं के अनुरूप कर सकते हैं ।

(2) स्वतन्त्र व्यापार द्वारा कम विकसित देश तकनीकी ज्ञान प्रबन्धकीय कुशलता एवं उपक्रमशीलता को प्रतिस्पर्द्धी दरों पर प्राप्त कर सकता है ।

(3) स्वतन्त्र व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी गतियों के संवाहक का कार्य करता है जिससे कम विकसित देशों का आर्थिक विकास प्रोत्साहित होता है ।

(4) स्वतन्त्र व्यापार द्वारा प्रतिस्पर्द्धा को प्रोत्साहन प्राप्त होता है जिससे उपभोक्ताओं को सापेक्षिक रूप से निम्न कीमत पर आयात वस्तुएँ प्राप्त होती है ।

स्वतन्त्र व्यापार की पद्धति उपर्युक्त आधारों पर कम विकसित देशों के विकास की स्थिति को स्पष्टतः अभिव्यक्त नहीं करती । कम विकसित देशों द्वारा प्रायः यह आरोप लगाया जाता है कि विकसित देश स्वतंत्र व्यापार की नीति पर चलते हुए ऐसी औपनिवेशिक प्रवृत्तियों को जम देते हैं जिससे कम विकसित देशों का शोषण होता है ।

स्वतन्त्र व्यापार की नीति: सार संक्षेप (Free Trade Policy: Conclusion):

स्वतन्त्र व्यापार की नीति को लागू करने की कुछ आवश्यक शर्तें है जब तक इन शर्तों को पूर्ण होना सम्भव नहीं तब तक स्वतन्त्र व्यापार सम्भव नहीं होगा ।

यह शर्तें निम्न है:

(1) पूर्ण प्रतियोगिता की उपस्थिति जिसके अभाव में स्वतन्त्र व्यापार का अस्तित्व सम्भव नहीं है । पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पादकों की अधिक संख्या, वस्तु का एक रूप होना तथा उत्पादनीय इकाइयों के आगमन की पूर्ण स्वतन्त्रता आवश्यक है तभी विश्व बाजार में एक उत्पादक मूल्य या उत्पादन को प्रभावित नहीं कर पाएगा । परन्तु यह स्थिति व्यावहारिक नहीं है ।

(2) विकास की आवश्यकता सभी देश अनुभव करते हैं जिसके लिए राष्ट्र की विकास प्राथमिकताएँ घरेलू स्तर पर नियत की जाती है । घरेलू नीतियों का क्रियान्वयन हस्तक्षेप की नीति को प्रश्रय देता है ।

परम्परावादी अर्थशास्त्री साधनों के पूर्ण रोजगार में लगे होने की मान्यता मानते थे पर कम विकसित देशों में साधनों के पूर्ण रोजगार में लगे होने की मान्यता सही सिद्ध नहीं होती । स्वतन्त्र व्यापार का परम्परावादी तर्क केवल तब ही सम्भव हो सकता है, जबकि साधनों को पूर्ण रोजगार प्राप्त हो । ऐसी स्थिति में, जबकि अर्थव्यवस्था में बहुत से साधनों का शोषण करना सम्भव नहीं बन रहा हो तो स्वतन्त्र व्यापार की आधारभूत संकल्पना खण्डित हो जाती है ।

साधनों के पूर्ण प्रयोग न होने एवं साधनों के बेरोजगार रहने की दशा में यदि स्वतन्त्र व्यापार की नीति को त्याग कर व्यापार में बाधाएँ लगाई जाएँ और समुदाय के कुल उत्पादन में कोई कमी नहीं हो, तब ऐसी दशा में प्रतिबन्ध रख संरक्षण की नीति का आश्रय लिया जाता है । वास्तव में संरक्षण का महत्व स्वतन्त्र व्यापार की व्यावहारिक सीमाओं के कारण वश बढ़ जाता है ।

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