कम विकसित देशों में मानव संसाधन विकास की समस्याएं | Read this article in Hindi to learn about the problems of human resource development in less developed countries.

कम विकसित देशों में मानव संसाधन विकास से संबंधित समस्याएँ निम्न हैं:

1. उच्च स्तर की मानवशक्ति की दुर्लभता ।

2. अतिरेक मानव शक्ति का उपयोग ।

1. उच्च स्तर की मानवशक्ति की दुर्लभता:

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हारबिंसन एवं मेयर्स ने अपनी पुस्तक (Education, Manpower and Economic Growth (1970)) में स्पष्ट किया कि उच्च स्तर मानवशक्ति के अधीन सभी प्रकार के प्रतिष्ठानों में कार्यरत उपक्रमी, प्रबंधक, प्रशासक, अध्यापक तकनीशियन, कामगार, नेता, श्रमसंघों के प्रतिनिधि, जज, पुलिस, सेना अधिकारी के साथ अर्द्धकुशल तकनीकी सहायक सम्मिलित किए जाते हैं ।

विकासशील देशों में उच्चस्तर की मानवशक्ति की आवश्यकता इस कारण है कि इन देशों में पूंजी का अवशोषण आसानी से नहीं हो पाता । अत: उच्च स्तर की मानवशक्ति के विकास द्वारा ही कुशलताओं का सृजन एवं उपयोग संभव है जिसके लिए शिक्षा एवं प्रशिक्षण आवश्यक है ।

ऐसी परियोजनाएँ जिनमें अल्पकाल में समुचित प्रशिक्षण व कुशलता निर्माण किया जाना संभव न हो के लिए विदेशों से प्रशिक्षित मानवशक्ति का आयात किया जा सकता है । यह सावधानी रखनी होगी कि विकासशील देश में प्रशिक्षित श्रम शक्ति को रोजगार के समुचित अवसर प्राप्त ही जिससे (Brain Drain) न हो ।

2. अतिरेक मानव शक्ति का उपयोग:

विकासशील देशों में अप्रशिक्षित एवं अकुशल जनशक्ति की अधिकता होती है । इसका मुख्य कारण जनसंख्या में होने वाली तीव्र वृद्धि, शिक्षा प्रणाली का दोषपूर्ण होना व ऐसी संस्थाओं व संगठनों की कमी है जो उचित मार्गदर्शन व दिशा निर्देश प्रदान कर आय व उत्पादकता के स्तरों में वृद्धि कर सकें ।

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अतिरेक श्रम शक्ति के उपयोग हेतु जनसंख्या वृद्धि नियंत्रण, बाजार की अपूर्णताओं का निवारण व सामाजिक संरचना में विद्यमान दोषों व विकृतियों का निवारण आवश्यक है ।

विकासशील देशों में कौशल, व्यक्तियों की दुर्लभता व अकुशल श्रम आधिक्य एक दूसरे से सम्बधित है । अत: विकास कार्यक्रमों को इस प्रकार चलाया जाना चाहिए कि औद्योगीकरण की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रशिक्षित श्रम समय पर उपलब्ध हो जाए ।

विकासशील देशों में मानवशक्ति का समर्थ उपयोग इस कारण नहीं हो पाता, क्योंकि शिक्षा प्रणाली दोषपूर्ण होती है । शिक्षा से सम्बन्धित अन्तर्संरचना का समुचित निर्माण नहीं किया जाता ।

इन देशों में दोहरी शिक्षा प्रणाली विद्यामान होती है जिसमें एक ओर संभ्रान्त व उच्च मध्यम वर्ग के लिए बेहतर सुविधा विद्यमान होती है, जबकि निम्न व मध्यम वर्ग के लिए सुविधाओं का अभाव होता है ।

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विकासशील देशों में प्राथमिक शिक्षा को उन प्राथमिकता प्रदान की जाती है तो दूसरी ओर माध्यमिक स्तर की शिक्षा को न्यून प्राथमिकता दी जाती है । लेविस के अनुसार माध्यमिक शिक्षा के द्वारा ही समुचित कौशल व प्रशिक्षण की संभावनाएं बढ़ती है ।

माध्यमिक शिक्षा को समुचित प्राथमिकता देने के साथ ही विसंगति यह है कि विश्वविद्यालयों की संख्या में तेजी से वृद्धि होती है पर उनके पास आवश्यक बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है । सकल राष्ट्रीय उत्पाद के अनुपात के रूप में प्राथमिक शिक्षा की लागत विकासशील देशों में विकसित देशों के सापेक्ष उच्च होती है ।

कारण यह कि:

(1) विकसित देशों के सापेक्ष विकासशील देशों की जनसंख्या में बच्चों की संख्या सापेक्षिक रूप से अधिक होती है ।

(2) विकासशील देशों में प्राथमिक स्कूल अध्यापकों का औसत वेतन व प्राप्त होने वाली सुविधाएँ काफी अल्प होती हैं ।

विकास अर्थशास्त्रियों का मत है कि माध्यमिक शिक्षा को प्राथमिक व उच्च शिक्षा के सापेक्ष अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए । प्राथमिक शिक्षा वास्तव में, शिक्षा का आधार स्थापित करने के साथ सामाजिक एवं नैतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्व की होती है तथा इस उद्देश्य को पूर्ण करने में लागत भी अधिक व्यय होती है ।

माध्यमिक शिक्षा के साथ प्रदान किया गया औपचारिक तकनीकी प्रशिक्षण विकास के लिए तुरंत चाहे जाने वाली मानवशक्ति आवश्यकताओं को उपलब्ध कराता है । मानवशक्ति संबंधी कुछ बाधाओं को दूर करने एवं विकास की प्रक्रिया के प्रारंभ होने के प्रयास भी आवश्यक हो जाते है ।

वस्तुतः शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो शिक्षित व्यक्तियों की संख्या को राष्ट्रीय विकास की आवश्यकताओं के अनुरूप संतुलित रखने में समर्थ हो । विकासशील देशों में मानवीय प्रयासों को गतिशील करने में समर्थ व समुचित संगठनात्मक ढांचे की कमी दिखायी देती है ।

यह ध्यान देना होगा कि प्रबंध की कारगर प्रणाली ही वित्त, उत्पादन एवं बाजार की क्रियाओं का विस्तार करती है । अत: मानव संसाधनों के उपयोग हेतु व्यक्तियों के सामूहिक प्रयास, औद्योगिक अनुशासन उत्पादक के बेहतर संगठन तथा कर्म के प्रति निष्ठावान सामाजिक वातावरण स्थापित किया जाना आवश्यक है ।

विकासशील देशों में मानव संसाधन विकास की समुचित प्रेरणाओं के अभाव से ग्रस्त है । समाज में व्याप्त संकुचित दृष्टिकोण व निराशावादी मन: स्थिति युवा शक्ति को जोखिम एवं अनिश्चितता से जूझने की शक्ति प्रदान नहीं करती । सामान्यतः इन देशों में श्रम को प्रतिष्ठा नहीं मिलती तथा व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठ भूमि, उसकी जाति, उसके पद, वैभव के आधार पर प्रतिष्ठा मिलती है । तकनीकी धंधों में लगे कामगारों को न्यून मजदूरी प्राप्त होती है तथा प्रतिष्ठानों के मालिक उनका भरपूर शोषण करते हैं ।

वैज्ञानिक अनुसंधानशालाओं व तकनीकी केन्द्रों में अफसरशाही विद्यमान होती है । जिसमें युवा वैज्ञानिक की सृजनात्मक प्रतिभा का विकास नहीं होता इन्हें गहरे तनाव में कार्य करना पड़ता है ।

विश्वविद्यालयों में शिक्षा व ज्ञान के प्रसार की अपेक्षा रोजगार हावी रहती है । देश की युवा शक्ति जब कुंठित एवं संत्रास भरा जीवन जी रही हो तो इससे बढ़कर दुर्भाग्य और कुछ नहीं है ।

मानवशक्ति के समर्थ उपयोग के लिए आवश्यक हो जाता है कि उच्च प्राथमिकता वाली क्रियाओं एवं पेशों में मानवशक्ति का अनुकूल आबंटन किया जाये । इस हेतु विभिन्न प्रकार के देशों में चाही जाने वाली कुशलता को निर्मित करके उसे प्रोत्साहन देने के अवसर प्रदान किये जाने होंगे ।

कई विकासशील देशों में अभियन्ताओं, प्रबंधकों, चिकित्सकों व कुशल प्रशासकों की भारी कमी दिखाई देती है । इसका कारण यह है इन देशों के प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था नहीं होती तथा तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त करने के प्रति अभिरूचित विकसित नहीं होती ।

यह भी देखा जाता है कि प्रशिक्षण श्रम शक्ति कार्य के बेहतर अवसरों अधिक वेतन व सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए विदेशों में प्रवास कर जाती है । इन पर लागत व प्रशिक्षण का व्यय तो विकासशील देश वहन करता है पर इसके प्रतिफल उस देश को प्राप्त होते है जहाँ तकनीकी मानवशक्ति पलायन कर गयी है ।

यह प्रवृत्ति विद्यमान है कि सुविधाओं के अभाव में प्रशिक्षत मानवशक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने की इच्छुक नहीं होती । विकासशील देशों में तकनीकी एवं व्यवहारिक विषयों के स्नातकों के सापेक्ष मानविकी के स्नातकों की संख्या अधिक होती है ।

इसका कारण यह है कि:

(1) इन देशों की शिक्षा प्रणाली किसी रूप में उसी उपनिवेशवाद पर आधारित होगी जिसके अधीन यह देश लंबे समय तक गुलाम रहे हैं,

(2) विज्ञान व तकनीकी प्रशिक्षण से सम्बन्धित ऐसी संस्थाओं का अभाव है जो माध्यमिक स्तर तक विद्यार्थियों को तैयार कर सके,

(3) मानविकी के सापेक्ष विज्ञान विषयों की शिक्षा पर अधिक व्यय करना पड़ता है क्योंकि प्रयोगशाला स्थापना, यंत्रों की खरीद व उनके रख रखाव तकनीकी सहायकों की नियुक्ति पर काफी व्यय करना होता है,

(4) जनता की मांग पर स्कूल कालेज तो खोल दिये जाते है पर न तो वहाँ पर्याप्त सुविधाएँ विद्यमान होती हैं और न पढ़ाने को समुचित अध्यापक,

(5) शिक्षा के स्तर का ह्रास तब भी होता है जब मानक पुस्तकों के स्थान पर गैस पेपर गाइड बुक व कुंजियों की सहायता से तैयारी की जाती है व कुछ प्रश्नों के उत्तर रटकर उपाधि प्राप्त हो जाती है । इन परिस्थितियों में शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगता है ।