भारत में मानव पूंजी निर्माण | Read this article in Hindi to learn about the human capital formation in India.
भारत में पंचवर्षीय योजना के लक्ष्य व प्राथमिकताओं के अनुरूप कुशल मानवशक्ति की आवश्यकताओं के बारे में कुछ पुर्वानुमान एवं भविष्यवाणी की गई हैं लेकिन इन पूर्वानुमानों की रोजगार से कोई अग्रिम श्रृंखला स्थापित नहीं हो पायी है । इस प्रकार जनशक्ति की समुचित आपूर्ति की प्रकृति, क्षेत्र एवं सुविधाओं के संदर्भ में भी पश्चगामी श्रृंखला की कमी दिखायी देती है ।
अत: यह आवश्यक हो जाता है कि भारत में जनशक्ति नियोजन करते हुए निम्नांकित पक्षों पर समुचित ध्यान दिया जाये:
1. विभिन्न व्यवसायों में मानवशक्ति की माँग का पूर्वानूमान ज्ञात करना ।
ADVERTISEMENTS:
2. प्रशिक्षित जनशक्ति की उपलब्धता से संबंधित सूचनाएँ एकत्रित करना तथा प्रशिक्षित व तकनीकी कुशलता युक्त मानवशक्ति को उसके विशिष्टीकरण के अनुसार विभिन्न वर्गों में बांटना ।
3. अप्रशिक्षित जनशक्ति को कुशल बनाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना ।
4. विभिन्न व्यवसायों के मध्य श्रम को गतिशील बनाने के लिए सुविधाएँ प्रदान करना ।
5. शिक्षा व प्रशिक्षण को रोजगार से संबंधित करना ।
ADVERTISEMENTS:
यह ध्यान रखना कि शैक्षिक विकास के साथ-साथ कृषि के सुधरे तरीकों, समुचित व बेहतर तकनीकी, अधिक कार्य करने की योग्यता व उपक्रमशीलता का वातावरण भी निर्मित हो ।
उन नीतियों को समुचित महत्व देना होगा जो भूमि सुधार, साख प्रणाली के सुधार, लोक सेवा, यातायात व संवादवहन, जैसे- संस्थागत सुधारों से संबंधित हैं । शिक्षा व्यवस्था के दोषपूर्ण होने तथा पूरक क्रियाओं से तालमेलयुक्त न होने पर विकास की प्रक्रिया बाधा का अनुभव करेगी ।
बेरोजगार श्रम शक्ति आर्थिक क्रियाओं की वृद्धि में सहायक न होकर विध्वंसक की भूमिका भी प्रस्तुत कर सकती है, जबकि इसकी ऊर्जा को सही दिशा में गतिशील करने के प्रयास न किए जाएँ ।
भारत के संविधान में मानव संसाधनों को विकास के आधारभूत अधिकार व राज्य के निर्देशक सिद्धांतों के अधीन समाहित करते हुए राज्य द्वारा मानव संसाधनों के विकास हेतु समर्थ, प्राविधान किए गए हैं ।
ADVERTISEMENTS:
संविधान के चतुर्थ भाग में अनुच्छेद 38, 39, 42 से 48 में मानव संसाधन विकास पर समुचित ध्यान दिया गया है । भारत में योजना आयोग द्वारा देश के भौतिक पूँजीगत व मानवसंसाधनों के मूल्यांकन का कार्य किया जाता है जिसमें तकनीकी मानवशक्ति भी सम्मिलित है ।
राष्ट्र की विकास आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में जिन संसाधनों की कमी अनुभव की जा रही है उनका निर्दिष्टीकरण करते हुए ऐसी योजना निर्मित करने पर बल दिया जाता है जो देश के भौतिक व मानवीय संसाधनों का समर्थ एवं संतुलित उपयोग कर सके ।
प्रथम पंचवर्षीय योजना में योजना आयोग ने निम्नांकित पक्षों को प्राथमिकता दी:
(1) शिक्षा प्रणाली में सुधार हेतु आधारभूत शिक्षा का विकास ।
(2) माध्यमिक व उच्च शिक्षा को आर्थिक तालमेल युक्त बनाना ।
(3) महिलाओं की शिक्षा पर अधिक ध्यान तथा ग्रामीण क्षेत्रों में इनका विस्तार ।
(4) प्राइमरी स्तर के शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण प्रदान करना तथा उन्हें अधिक वेतन प्रदान करना ।
(5) पिछड़े हुए राज्यों को उच्च अधिमान देते हुए उन्हें अनुदान प्रदान करना ।
प्रथम पंचवर्षीय योजना से शिक्षा की प्रणाली में सुधार व प्रशिक्षण की आवश्यकता को पूर्ण करने हेतु प्रयास किए गए । 1952-53 में माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा 1964-66 में शिक्षा आयोग की स्थापना की गयी । शिक्षा की राष्ट्रीय नीति को संसद ने 1968 में मंजूरी दी ।
इसका लक्ष्य शिक्षा की एक राष्ट्रीय नीति को क्रियान्वित करने हेतु एक समयबद्ध कार्यक्रम तैयार किया गया जिसके अधीन अनुरूप 1990 तथा 4 करोड़ निरक्षरों को साक्षर बनाने का लक्ष्य रखा गया ।
1988 में राष्ट्रीय साक्षरता प्राधिकरण की स्थापना की गई जो 15 से 35 वर्ष की 80 प्रतिशत जनसंख्या को 1995 तक साक्षर बनाने के उद्देश्य को पूर्ण करने का लक्ष्य रखता था । वस्तुत: शिक्षा की राष्ट्रीय नीति 1968 में संसद द्वारा पारित की गई जो डॉ. डी. एस. कोठरी की अध्यक्षता में शिक्षा आयोग की संस्तुतियों पर आधारित थी ।
इसके उद्देश्य निम्नांकित थे:
1. 14 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा ।
2. शिक्षकों के लिए उन्नत वेतन मान ।
3. त्रिभाषा फारमूला एवं क्षेत्रीय भाषाओं का विकास ।
4. कृषि व उद्योग हेतु शिक्षा का विकास ।
5. कम कीमत की पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन व इनकी गुणवत्ता में सुधार ।
6. देश की राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करना ।
शिक्षा व्यावहारिक रूप से राज्य का विषय है इसे समवर्ती सूची में रखा गया है । भारत में शिक्षा के क्रियान्वयन एवं स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा व संस्कृति मंत्रालय की नीतियों व प्रमुख कार्यक्रमों को लागू करने में परामर्श व सहायता देने के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद की स्थापना सितंबर 1961 को की गई ।
परिषद द्वारा 1979 से खुले विद्यालय की भी स्थापना की गयी जिनका लक्ष्य देश में दूरस्थ शिक्षा का प्रसार था । भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अधीन मेधावी छात्रों के लिए आवासीय स्कूल खोलने का प्राविधान किया गया ।
इन्हें नवोदय विद्यालय कहा गया । सातवीं योजना में देश के प्रत्येक जिले में इन्हें स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया । भारत में उच्च शिक्षा का समन्वय व मानक निर्धारण विषय संघ सूची के हैं तथा यह केंद्रीय सरकार का विशेष उत्तरदायित्व है ।
इसका निर्वाह मुख्यतः विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के माध्यम से किया जाता है जिसकी स्थापना संसद के अधिनियम द्वारा 1953 में की गई । इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार ने ऐसी परिषदों की स्थापना की है जो विशिष्ट क्षेत्रों में अनुसंधान प्रयासों की प्रोन्नति एवं समन्वय को कार्य करें ।
इनमें भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद, भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद् व भारतीय उन्नत अध्ययन संस्थान मुख्य है ।
ग्रामीण व शहरी व क्षेत्रीय नियोजन में प्रशिक्षण व शहर नियोजन के निए केंद्र राज्य व स्थानीय विभाग कर्मचारियों की आवश्यकता पूर्ण करने हेतु जुलाई 1956 में योजना एवं वस्तुशिल्प विद्यालय की स्थापना की गयी ।
वैज्ञानिक विधाओं के उन्नयन हेतु राष्ट्रीय विकास अकादमी दिल्ली, भारतीय विज्ञान अकादमी बंगलौर व इलाहाबाद एवं वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद, भारतीय आर्युविज्ञान अनुसंधान परिषद, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, केन्द्रीय भारतीय चिकित्सा एवं समन्वय संबंधी राष्ट्रीय समिति, आणविक ऊर्जा विभाग व आकाश विभाग मुख्य हैं ।
शिक्षा की समुचित अन्तर्संरचना की स्थापना द्वारा भारत अब इस स्थिति में आ गया है कि वह अपनी तकनीकी मानवशक्ति की आवश्यकताओं को किसी सीमा तक पूर्ण कर सके ।
आठवीं योजना में स्पष्ट किया गया कि समान तथा विकेंद्रित सामाजिक व्यवस्था को विकास के लिए शिक्षा पद्धति में पूर्ण परिवर्तन बहुत आवश्यक है । यह समानता के लक्ष्य को प्राप्त करने व विभिन्न स्तरों पर चाहे जाने वाले तकनीकी उत्पादन की उपलब्धि हेतु भी वांछनीय है ।
1990 के दशक में शिक्षित बेकारों को सामाजिक अस्थिरता का आभास उत्पन्न करने वाली शिक्षा के उच्च स्तरों पर ही हमेशा संसाधन लगाने की अपेक्षा जन साक्षरता व प्रारंभिक तथा माध्यमिक शिक्षा पर अधिक बल देने की जरूरत महसूस की गई ।
साथ ही शिक्षित वर्ग को ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की ओर स्थानान्तरित करने के लिए बाध्य करने वाली सामान्य शिक्षा पर ध्यान न देकर उसके तकनीकी व व्यावसायिक पक्षों पर अधिक ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण समझा गया, क्योंकि अर्थव्यवस्था उच्च शिक्षितों के अतिरेक व उचित तकनीकी जनशक्ति की कमी से पीड़ित रही है ।
वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में आवश्यक हो गया है कि शिक्षा को एक स्वायत्त क्षेत्र के रूप में मानने के विचार को त्यागा जाये तथा सामाजिक परिवर्तन की एक बड़ी कार्य सूची में रखा जाये । शिक्षा के संबंध में केवल वित्तीय आवंटनों व मात्रात्मक विस्तार के संदर्भ में सोचने की आदत को छोड़ना होगा । जनसमुदाय की सक्रिय भागीदारी अर्जित करनी होगी ।
युवा वर्ग व वयस्क जनसंख्या में साक्षरता की दर को बढ़ाने के लिए न्यूनतम लक्ष्य को भी प्राप्त न कर पाने एवं महिलाओं की शिक्षा जैसी तात्कालिक आवश्यकताओं को पूरा न कर पाने का एक मुख्य कारण यह है कि उन्हें आवश्यक राजनीतिक समर्थन नहीं दिया गया ।
आज शैक्षिक संसाधनों तथा संस्थाओं की पूर्ति व माँग के मध्य विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में जहाँ अनुपस्थिति एवं पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने की दर अधिक है, एक गंभीर असंतुलन है ।
इससे अन्य बातों के साथ-साथ संसाधनों की काफी अधिक क्षति हुई है । अत: वास्तविक लक्ष्यों के साथ इनकी गुणवत्ता व संगतता अधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं । आठवीं योजना में रोजगार के सृजन, साक्षरता, शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ पेयजल सुविधाएँ बढ़ाने व खाद्य पदार्थों की उपलब्धता बढ़ाने पर जोर दिया गया था ।
इसके साथ ही आधारभूत संरचना के विकास एवं जनसंख्या नियन्त्रण भी प्राथमिकता में रखे गये । संक्षेप में, मानव पूँजी के विकास हेतु आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का दायित्व सरकार का था ।
नवीं योजना में 1991 से प्रारम्भ आर्थिक उदारीकरण एवं आठवीं योजना से विकास रणनीति के निजी क्षेत्र की ओर उन्मुखता के आधार पर यह स्पष्ट किया गया कि विकास की रणनीति ऐसी हो जो निजी क्षेत्र को इतना समर्थ बना सके कि वह उत्पादन वृद्धि, रोजगार सृजन व समाज के आय स्तर में वृद्धि की सम्भावनाओं को प्राप्त कर सके ।
नवीं योजना में राज्य की भूमिका निजी क्षेत्र के नियमन एवं नियन्त्रण से हट कर सामाजिक विकास से सम्बन्धित उद्देश्यों के प्रति संवेदनशील बनाने का प्रयास किया गया था ।
इस हेतु:
i. उत्पादक रोजगार अवसरों के सृजन एवं निर्धनता उन्मूलन हेतु कृषि व ग्रामीण विकास को प्राथमिकता ।
ii. एक नियत समय अवधि में सभी के लिए पेय जल, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं, प्राथमिक शिक्षा व आवास जैसी आधारभूत सेवाएँ उपलब्ध कराना ।
iii. जनवृद्धि दर को नियन्त्रित करना,
iv. महिलाओं व सामाजिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों को इतनी शक्ति व सामर्थ्य प्रदान करना कि वह सामाजिक आर्थिक परिवर्तन एवं विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे सकें,
v. जनता में सामाजिक चेतना जागृत कर आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण सुरक्षा व संवर्द्धन सुनिश्चित करना ।
vi. जनता के सहयोग पर निर्भर संस्थाओं यथा स्वयं सहायता समूहों, सहकारी संस्थाओं व पंचायती राज संस्थाओं को प्रोत्साहित करना तथा
vii. आत्मनिर्भरता के प्रयासों को जारी रखना जैसे पक्ष मानव संसाधन विकास हेतु आवश्यक समझे गए ।
दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-03 से 2006-2007) में 8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर के लक्ष्य के साथ मानव विकास व कल्याण हेतु निम्न लक्ष्य नियत किए गए:
i. निर्धनता के अनुपात में वर्ष 2007 तक 5 प्रतिशत एवं 2012 तक 15 प्रतिशत तक कमी करना ।
ii. वर्ष 2003 तक सभी बच्चों के लिए स्कूल में प्रवेश जिससे वर्ष 2007 तक सभी बच्चे 5 वर्ष तक की स्कूली शिक्षा प्राप्त कर सकें ।
iii. योजना अवधि में साक्षरता दर को 75 प्रतिशत करना ।
iv. वर्ष 2001 से 2011 की अवधि में जनवृद्धि की दर को 16.2 प्रतिशत तक कम करना ।