औद्योगिक बीमारी: परिणाम और उपाय | Read this article in Hindi to learn about the consequences of industrial sickness in India and measures to overcome it.

औद्योगिक रुग्णता के परिणाम (Consequences of Industrial Sickness):

औद्योगिक रुग्णता के भारत जैसे अतिरेक श्रम वाले अल्प विकसित देश के लिये गम्भीर परिणाम सामने आये है ।

जिनमें मुख्य हैं:

1. संसाधनों का दुरुपयोग (Misuse of Resources):

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भारत जैसी अर्थव्यवस्था में जहाँ पूँजी जैसे संसाधनों का अभाव है औद्योगिक इकाइयाँ जब रुग्ण होकर बन्द हो जाती हैं तो राष्ट्र को काफी हानि होती है ।

2. रोजगार पर बुरा प्रभाव (Bad Effect on Employment):

औद्योगिक रुग्णता का रोजगार पर बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि भारतवर्ष में एक तो पहले से ही कृषि क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक श्रम कार्यरत है एवं भीषण बेरोजगारी व्याप्त है । ऐसी स्थिति में जब औद्योगिक इकाइयाँ जहाँ बड़ी संख्या में श्रमिक नियोजित हैं, रुग्ण होकर बन्द हो जाती हैं तो बेरोजगारी की समस्या और विस्फोटक बन जाती है ।

3. अन्त: निर्भर इकाइयों पर विपरीत प्रभाव (Bad Effect on Inter-Dependent Units):

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जब बड़ी औद्योगिक इकाई रुग्ण हो जाती है तो उसका प्रभाव दो दिशाओं में पड़ता है । एक तो उन इकाइयों पर जिनसे वे अपनी आवश्यकता की पूर्ति करती हैं या कच्चा माल आदि प्राप्त करती हैं, दूसरे उन इकाइयों पर होता है जो कि रुग्ण इकाई के उत्पादन पर निर्भर होती हैं । उदाहरण हेतु लोहा एवं इस्पात उद्योग के रुग्ण होने पर इससे परिवहन व इंजीनियरिंग उद्योग आदि भी प्रभावित होंगे जिसके कारण देश का सम्पूर्ण औद्योगिक क्षेत्र कुंठित होगा ।

4. औद्योगिक अशांति (Industrial Unrest):

यदि बड़े संगठित उद्योगों में औद्योगिक रुग्णता हो जाती है और इकाई बन्द होने लगती है तो श्रमिक संघ इसका विरोध करते हैं और अन्ततः औद्योगिक अशान्ति हो जाती है । अन्य उद्योगों के श्रमिक संगठन भी उसमें सम्मिलित हो जाते हैं जिनके परिणामस्वरूप अन्य इकाइयों पर भी उत्पादन पर बुरा प्रभाव पड़ता है ।

5. विनियोजकों एवं उद्यमियों पर प्रभाव (Effects on Investors and Entrepreneurs):

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औद्योगिक रुग्णता का प्रतिकूल प्रभाव विनियोजकों एवं उद्यमियों पर भी पड़ता है । जब औद्योगिक इकाई रुग्ण हो जाती है तो शेयर बाजार में उन इकाइयों के शेयरों की दर गिरने लगती है जिससे विनियोजकों को काफी हानि होती है । साथ ही इसका प्रतिकूल प्रभाव अन्य उद्यमियों पर भी पड़ता है जो कि उसी उद्योग में औद्यगिक इकाई स्थापित करके उत्पादन करना चाहते हैं ।

6. वित्तीय संस्थाओं पर बुरा प्रभाव (Effects on Financial Institutions):

औद्योगिक इकाइयों के रुग्ण हो जाने पर बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त ऋण की बकाया राशियाँ न प्राप्त होने की स्थितियाँ निर्मित हो जाती हैं जिससे बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं को भारी हानि उठानी पड़ती है ।

7. सरकार का वित्तीय भार (Financial Burden on the Government):

औद्योगिक रुग्णता के कारण जहाँ एक ओर सरकार को राजस्व का घाटा होता है वहीं दूसरी ओर सरकार को बड़ी मात्रा में वित्तीय भार उठाना पड़ता है जब औद्योगिक इकाइयाँ अच्छी स्थिति में होती हैं और लाभ अर्जित करती हैं तो सरकार को कर एवं शुल्क के रूप में आय प्राप्त होती है किन्तु इसके विपरीत सरकार को रुग्ण औद्यगिक इकाइयों को पुनर्स्थापित करने में बड़ी मात्रा में वित्तीय भार उठाना पड़ता है । अतः सरकार को दोहरी हानि उठानी पड़ती है ।

औद्योगिक रुग्णता की रोकथाम की विधियां (Methods to Overcome Industrial Sickness):

रुग्ण इकाइयों के पुन: स्थापन अथवा उन्हें पुन: जीवित करने के उपाय निम्नलिखित हैं:

A. बैंकों द्वारा उठाये गये कदम (Steps Taken by Banks):

रुग्ण इकाईयों की पुन: स्थापना के लिये व्यापारिक बैंकों को आगे बढ कर उन्हें विभिन्न सहायताएं प्रदान करनी चाहियें ।

ये सहायताएं अथवा रियायतें इस प्रकार हैं:

(i) घटे हुये दरों पर ब्याज की वसूली

(ii) खातों में बकाया राशि के एक भाग को स्थिर (Freezing) कर देना

(iii) अतिरिक्त चलती पूंजी (Working Capital) की सुविधाएं देना

(iv) उचित पारिश्रमिक अथवा ब्याज का भुगतान आदि ।

व्यापारिक बैंकों ने बहुत से निम्नलिखित उपाय भी किये:

(i) बैंक संचालन विभाग और भारतीय रिजर्व बैंक के विकास के सभी क्षेत्रीय कार्यालयों में प्रांत स्तरीय अन्तर-संस्थागत समितियों की स्थापना की गई है जिससे बैंकों, राज्य सरकार, केन्द्र एवं प्रान्त स्तरीय वित्तीय संस्थाओं और अन्य ऐसे अभिकरणों के बीच बेहतर तालमेल सुनिश्चित हो ।

(ii) भारत के औद्योगिक विकास बैंक के वित्तीय पुर्नस्थापन विभाग में एक विशेष केन्द्र की स्थापना की गई है । ऐसे केन्द्रों का मुख्य कार्य रुग्ण इकाईयों और समस्याओं की ओर ध्यान देना है जो बैंक उन्हें भेजते हैं ।

(iii) वर्ष 1983 में भारतीय रिजर्व बैंक ने व्यापारिक बैंकों को एहतियाती उपाय करने का परामर्श दिया जिससे लघुस्तरीय उद्योगों में बढ़ती हुई रुग्णता को न्यूनतम बनाया जा सके । रुग्ण इकाईयों को व्यवहार्यता के स्तर पर लाने के लिये भारतीय रिजर्व बैंक ने विस्तृत अध्ययन किया । उन्हें एक छोटे कृत्यक बल की स्थापना के लिये कहा गया जिसमें सम्बन्धित वरिष्ठ अधिकारी सम्मिलित हों जो प्रत्येक बड़ी रुग्ण इकाई का ध्यानपूर्वक और व्यापक विश्लेषण करेंगे ।

(iv) भारतीय रिजर्व बैंक में एक ‘रुग्ण औद्योगिक केन्द्र’ की स्थापना की गई है जो रुग्ण इकाईयों की सूचना प्राप्त करने के लिये शोधन-गृह (Clearing House) का कार्य करेगा । वह इसकी जटिल समस्याओं के समाधान के लिये सरकार, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और अन्य अभिकरणों के बीच समन्वयकार (Coordinator) का कार्य भी करते हैं ।

B. उद्योगों के अधीन प्रबन्धित इकाईयां (Units Managed under Industries):

औद्योगिक विकास और नियमन एक्ट (IRDA) की व्यवस्था के अधीन बहुत सी औद्योगिक इकाईयों का प्रबन्ध सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है ताकि उन्हें पुन जीवित किया जा सके । जुलाई 1986 में, इस एक्ट के अधीन 16 औद्योगिक इकाइयों का प्रबन्ध हो रहा था । यह देखा गया है कि रुग्ण इकाईयों के पुन स्थापन में यह एक प्रभावशाली यन्त्र प्रमाणित नहीं हुई, क्योंकि सामान्यतया इसे राष्ट्रीयकरण के लिये एक काम चलाऊ प्रबन्ध कहा जाता है ।

इसके अतिरिक्त अक्तूबर 1981 में घोषित नीति आशा करती है कि उद्योगों के भविष्य के सम्बन्ध में शीघ्र निर्णय लिया जाये । उदाहरण के रूप में यह विभिन्न विकल्पों पर विचार करती है जैसे राष्ट्रीयकरण, पुनर्निर्माण और इन्हें स्वस्थ इकाईयों के साथ मिला देना ।

C. सरकार द्वारा रियायतें (Concessions by Government):

रुग्ण इकाईयों की पुन: स्थापना के प्रयत्न के रूप में सरकार ने सीधे हस्ताक्षेप किये बिना विभिन्न रियायतें उपलब्ध की हैं ।

इनमें से कुछ रियायतों का वर्णन नीचे किया गया है:

(i) सरकार ने 1977 में सैक्शन 724 जोड़ कर आयकर अधिनियम को संशोधित किया है । इस संशोधन अनुसार, उन स्वस्थ इकाईयों को कर लाभ उपलब्ध होगा जो रुग्ण इकाईयों को पुनर्जीवित करने के इरादे से अपने साथ मिला कर उनको अधिकार में लेते हैं ।

(ii) वर्ष 1981 में एक पुनर्जीवन योजना आरम्भ की गई । इस योजना के अनुसार लघुस्तरीय क्षेत्र में रुग्ण इकाईयों को अतिरिक्त राशि उपलब्ध करने की व्यवस्था की गई । इस व्यवस्था के अनुसार वह आसान शर्तों पर बैंकों एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं से आवश्यक कोष प्राप्त कर सकेंगे ।

D. उदार अतिरिक्त राशि योजना (Liberalised Margin Money Scheme):

जून 1987 में लघुस्तरीय क्षेत्र में रुग्णता कम करने के मुख्य लक्ष्य से उदार अतिरिक्त राशि योजना आरम्भ की गई । इस योजना के अन्तर्गत, प्रान्तीय सरकारें रुग्ण इकाईयों को सहायता उपलब्ध करने के लिये 50:50 आधार पर सदृश योगदान करेंगी सहायता की अधिकतम सीमा को 20,000 रुपयों से बढा कर 50,000 रुपये प्रति इकाई कर दिया गया ।

E. भारत का औद्योगिक पुन: स्थापन बैंक (Industrial Reconstruction Bank of India):

वर्ष 1971 में रुग्ण इकाईयों को पुन: स्थापित करने भारत के औद्योगिक पुनः स्थापित करने हेतु भारत के औद्योगिक पुनः स्थापन बैंक (RBI) की स्थापना की गई । आई.आर.बी.आइ. की अधिकृत पूंजी एवं शोधित पूंजी (Authorised Capital and Paid Up Capital) क्रमशः 254 करोड़ रुपये और 2.5 करोड़ रुपये थी । इसकी अंश पूंजी के लिये आई.डी.बी.आई., आई.एफ.सी.आई., एल.आई.सी. तथा व्यापारिक बैंकों द्वारा अंश दान किया गया ।

इसे भारत सरकार की ओर से बिना ब्याज 10 करोड़ का ऋण भी प्राप्त हुआ । मार्च 20, 1985 को सरकार ने आई.आर.बी.आई. को एक वैधानिक निगम में परिवर्तित कर दिया । इसकी प्राधिकृत पूंजी की राशि 200 करोड़ रुपये तथा शोधित पूंजी 50 करोड रुपये है ।

आई.आर.बी.आई. को सौंपे गये विभिन्न कार्य निम्नलिखित हैं:

1. रुग्ण इकाई को पुनर्जीवित तथा पुन स्थापित करना;

2. रुग्ण औद्योगिक इकाईयों को वित्तीय एवं तकनीकी सहायता उपलब्ध करना;

3. पूंजी संसाधनों के पुनर्निर्माण के लिये तथा उन्हें तर्क संगत बनाने के लिये रुग्ण इकाइयों को सुझाव देना ।

4. एकीकरण और विलय के लिये वणिक बैंक सेवाएं उपलब्ध करना ।

5. ठीक प्रकार के कार्यकारी तथा अन्य अधिकारियों के चुनाव में रुग्ण इकाईयों को प्रबन्धकीय सहायता देना ।

F. रुग्णता को शीघ्र रोकने के लिये पग (Steps for Detecting Sickness Early):

भारतीय रिजर्व बैंक ने रुग्णता को आरम्भिक सोपान पर ही पकड़ने के महत्व पर बल दिया है ताकि उसे पुनर्जीवित करने के लिये सुधारक उपाय किये जा सकें जो इकाईयां ‘बीमार औद्योगिक कम्पनी एक्ट, 1985’ के कार्य क्षेत्र में नहीं आती उनको प्रच्छन्न करने के लिये रिजर्व बैंक में व्यापारिक बैंकों को परामर्श दिया है कि उनके पुनर्स्थापन के लिये एहतियाती कदम उठाये जायें ।

एक औद्योगिक इकाई को दुर्बल कहा जायेगा यदि किसी वित्त वर्ष के अन्त में इसका:

(i) चालू ऋण इक्यूटि अनुपात 1:1 से कम है ।

(ii) बिल्कुल पिछले वित्त वर्ष में नकद हानि उठायी है ।

(iii) ठीक पिछले पांच वित्त वर्षों के दौरान इसकी संचित हानियाँ इसके शीर्ष शुद्ध मूल्य के 50 प्रतिशत अथवा अधिक हैं ।

इन उपायों के अतिरिक्त, रिजर्व बैंक कुछ विशेष उद्योगों की समीपता से निगरानी करता है जहां रुग्णता का स्तर अधिक विस्तृत है । पटसन एवं चीनी उद्योगों के लिये स्थायी समिति का गठन किया गया है । इन समितियों का मुख्य कार्य इन विशेष उद्योगों की विशेष समस्याओं पर विचार करना तथा उनके उपचार के लिये आवश्यक पग उठाना है ।

G. औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण के लिये बोर्ड [Board for Industrial and Financial Reconstruction (BIFR)]:

जनवरी 1987 में तिवारी समिति की सिफारिशों के अनुसार भारत सरकार ने औद्योगिक एवं वित्तीय पुननिर्माण के लिये स्थापना की । बोर्ड का उद्देश्य रुग्ण इकाईयों की समस्याओं को प्रभावी ढंग से निपटाने के लिये सुधारक उपचारी तथा अन्य उपाय निर्धारित करना है । बोर्ड ने 15 मई 1987 को अपना कार्य आरम्भ दिया । अधिनियम की व्यवस्थाओं के अन्तर्गत जो इकाई बीमार हो गई है उसके लिये BIFR को अनिवार्य है ।

बार्ड कारणों की जांच पड़ताल कर सकता तथा ऐसे मामलों का विवरण तैयार कर जिन्हें आदेश में विशेषीकृत किया जा सकता है । बोर्ड संचालक अभिकरण हो सकता है जो जांच को 60 दिनों अथवा दो माह की अवधि में पूरा करेगा ।

बी.आई.एफ़.आर. का निर्णय सबके लिये मान्य होगा । एक्ट का, ‘एफ़.इ.आर. ए.’ (FERA) और ‘सीलिंग एण्ड रैगुलेशन एक्ट’ को छोड़ कर सभी नियमों पर अभिभावी (Over-Riding) प्रभाव होगा । इसके अतिरिक्त ‘BIFR’ को रुग्ण कम्पनी केई प्रबन्धकों पर एक विशेष निर्देशक नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त है ।

बोर्ड के अस्तित्व में आने से लेकर 31 दिसम्बर 1988 और सैक्शन 15 के अधीन 880 उल्लेख प्राप्त हुये हैं और सैक्शन 23 के 346 उल्लेख प्राप्त हुये हैं । कुल 880 उल्लेखों में से 187 को नकार दिया गया तथा प्रारम्भिक जांच के पश्चात 618 उल्लेखों को पंजीकृत किया गया ।

210 प्रकरणों के सम्बन्ध में BIFR ने एक संचालक अभिकरण की नियुक्ति की, जबकि 29 प्रकरणों में BIFR ने प्रत्यक्ष में BIFR ने प्रत्यक्षतः राय बनायी कि कम्पनी को बन्द कर दिया जाये तथा टिप्पणी आमंत्रित करने के लिये नोटिस जारी किये जायें । अन्य 16 प्रकरणों में BIFR ने सम्बन्धित उच्च न्यायालयों को इकाइयां बन्द करने की सिफारिश की । 19 प्रकरणों के सम्बन्ध में बोर्ड द्वारा योजनाओं का खाका तैयार किया है ।

सरकार द्वारा किये गये उपाय (Measures taken by the Government):

औद्योगिक रुग्णता की समस्या से निपटने के लिये सरकार ने 1981 अक्तूबर में प्रशासनिक मशीनरी की सहायता के लिये विभिन्न मार्गदर्शक नियमों का निर्माण किया है ।

इन मार्गदर्शकों के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं:

(i) सरकार में प्रशासक मन्त्रालयों को उपचारक कार्यवाही करने और औद्योगिक रुग्णता को रोकने का विशेष दायित्व सौंपा है ।

(ii) सम्भावित रुग्णता को रोकने के लिये सुधारक कार्यवाही करने के लिये वित्तीय संस्थाएं निगरानी की व्यवस्था को दृढ़ करेंगी तथा रुग्ण इकाईयों को पुनर्जीवित करने के लिये प्रबन्ध को अपने हाथ में ले लेंगी ।

(iii) जब कभी बैंक और अन्य वित्तीय संस्थाएं किसी बीमार इकाई की रुग्णता को रोकने में असमर्थ होती हैं तो वह इसकी सूचना सरकार को देने के पश्चात् सामान्य बैंक विधियों के अनुसार अपनी बकाया राशि वसूल कर लेती हैं ।

(iv) उपक्रण के राष्ट्रीयकरण के लिये, इकाई का प्रबन्ध ‘उद्योग विकास एवं नियमन एक्ट 1951’ की व्यवस्थाओं के अधीन 6 माह के समय के लिये अपने हाथों में लिया जा सकता है । 1 जनवरी 1989 को, उद्योग (विकास और नियमन) एक्ट की व्यवस्था के अनुसार सरकार ने 5 औद्योगिक उपक्रमों का प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया ताकि उन्हें प्रबन्धकीय और वित्तीय सहायता उपलब्ध की जा सके । परन्तु यह उपाय बीमार इकाईयों को पुनर्जीवित करने में असफल रहा ।

लघुस्तरीय क्षेत्र के उद्यमों के प्रोत्साहन के लिये किये गये अन्य उपाय (Other Measures taken to Promote the SSI Sector):

1. लघुस्तरीय इकाईयों द्वारा सामना की जा रही जमानतों आदि की समस्या से निपटने के लिये और तकनीकी उन्नति को प्रोत्साहित करने के लिये दो नई योजनाएँ निम्नलिखित हैं:

(i) लघुस्तरीय उद्योगों के लिये साख गारन्टी कोष (योजना) 25 लाख रुपये तक के ऋण के लिये व्यापारिक बैंकों, चुने हुये योग्य क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं द्वारा बिना किसी जमानत तथा अन्य व्यक्ति की गारन्टी के, गारन्टी देने के लिये साख गारन्टी योजना लागू की गई ।

(ii) तकनीकी उन्नति के लिये साख से सम्बन्धित पूजी रियायत योजना-सरकार ने 20 सितम्बर, 2000 को इस योजना को स्वीकृति दी जिसमें अनुसूचित बैंकों द्वारा लघु-स्तरीय उद्योगों को दिये गये ऋणों पर 12 प्रतिशत बैंक एडिड रियायत स्वीकार्य होगी । यह बैंक किसी उपक्षेत्र में तकनीकी उन्नति के लिये SFCs मनोनीत होने चाहियें ।

2. लघुस्तरीय उद्योगों के लिये उत्पाद शुल्क माफी सीमा को बढ़ाना-एक सितम्बर 2000 से यह सीमा 50 लाख से बढ़ा कर एक करोड़ रुपये कर दी गई ।

3. लघुस्तरीय उद्योगों के लिये साख में सुधार-लघु उद्योगों के लिये साख के बहाव को सुधारने के लिये पग उठाये गये है जो इस प्रकार हैं:

(i) संयुक्त ऋण योजना की सीमा को 25 लाख तक बढ़ाना ।

(ii) 5 लाख रुपये तक के ऋणों के लिये जमानत की शर्त को समाप्त कर दिया गया ।

(iii) रिजर्व बैंक ने अपने डिप्टी गवर्नर की अध्यक्षता में लघु उद्योगों की ओर साख के बहाव की निगरानी के लिये एक समिति का गठन किया है ।

4. तैयार वस्त्रों के आरक्षण की समाप्ति:

आरक्षण की समाप्ति से इस क्षेत्र को तकनीकी उन्नति, उत्पादन में वृद्धि, गुणवत्ता सम्बन्धी चेतनता, उत्पाद विविधीकरण, निर्यातों में वृद्धि तथा विपणन की नई-नई रणनीतियां और रोजगार के अवसरों के अधिकतमी-करण में सहायता प्राप्त होगी ।

5. लघुस्तरीय सेवा और व्यापार (उद्योग से सम्बन्धित) उद्यमों के लिये निवेश की सीमा बढाना-सीमा को 5 लाख रुपयों से बढा कर 10 लाख कर दिया गया ।